कविता,

सोमवार, 23 नवंबर 2009

घर

रस्ते अलग अलग हैं
जाना तो एक घर है
हम रहते दादाबाड़ी
तुम बरकत नगर निवासी

सड़क के इधर हम हैं
तुम उधर रहते,
कैसी हुई मजबूरी
हाथ भी कहाँ  हैं हिलते?

उपर की  मंजिल हम हैं
नीचे की मंजिल तुम हो
मोबाइल यही है कहता
नेटवर्क नहीं है मिलता

तुम हमसे कहाँ बड़े हो
हम भी क्या तुम से कम हैं
इस दुनिया में सब बड़े हैं
सचमुच दही बड़े हैं

बाहर से जो भी आया
दौना लिए ही आया
सदियों से यही हुआ है
हरी घास  हम बने हैं

जिल्लत से यहाॅं पर रहना
मालिक ने कब कहा है,
तोड़नी है तुमको बेड़ी
सबसे बड़ी दुआ है।

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कविता

बुधवार, 18 नवंबर 2009


                          सपने
वह बचपन में सपने देखता है,
सपने उसका
बचपन चुरा लेते हैं,
खबर न उसे है
न मां-बाप को होती है
वे सपनों को छीनकर बस्ता थमा देते हैं।
वाह!
वर्दी जो बचपन में चढ़ती है जिस्म पर
उतरती तभी है
जब चील काली पास आ,
उस पर झपटती है,
वह पूछता है, जगह-जगह
इन सपनों का क्या अर्थ, जो रात को ही नहीं,
दिन में तंग करते हैं
न घर पर आराम है
न दफ्तर में,

बाहर बैठा बाबा कहता है
जिन्दगी एक सपना है
रात का छोटा और दिन का जरा बड़ा होता है।
पर उसका ही सपना
इतना बुरा क्यों है
बाबा तो दस आसन सिखा
हवाई जहाज में उड़ता  है।

अखबार जब भी पढ़ता है
कल से आज गरीब होता है
गरीबी की रेखा, कहां से कहां तक
भूख का रोटी से, रोटी का कैलोरी से जो
रिश्ता बना है
वही भूखे पेट का हिसाब भी रखता है

बस का भाड़ा
स्कूल की फीस
अनाज, सब्जी, दूध
दवा की दुकान
सितारों की तरह पास आकर
जीभ दिखा देते हैं।

क्या पेट का भूख से
भूख का सपनो से रिश्ता कभी सम्भव है
सचमुच ही नहीं
सपने में ही सही मशाल कोई जल जाए
करदे वह राख
लोकतंत्री चादर जमा जो कचरा है।
अब रोक नहीं पाते है,

काम कर -काम कर
हर कोई कहता हैं
मुट्ठी में रखा कागज
कुछ भी नहीं देता है

सरकार कितनी रहमदिल
कहीं भी, कभी-भी
दारू की दुकान रोज नई खुल जाती है
बढ़ते हैं ग्राहक...
हाकिम की चाँदी और चमक जाती है।

बाहर पोस्टर में
लड़की साइकिल चलाती है
स्कूल भी जाती है
पर भीतर चुपचुप
सपने भी अब नहीं देख पाती है।

गाँव- गाँव नन्दीग्राम
पुलसिया कहता है
कुछ भी करलो ,यहाँ
रुपया आकाश से टपकता है।

”कोड़ा“ कोई एक नहीं
गाँव गाँव कोड़ा है
काडे़ा क ेही गिरवी रखा
हँसिया और हथोड़ा है।

घन नही उठता अब
दोनो हाथ,राम-राम
संसद में परसादी
चहुं ओर काँव-काँव।

मत देख सपने अब
नींद तोड़ ,आँख खोल
तू ही मंत्र
तू ही तंत्र
थोड़ी सी वरजिश कर
झुके अब कहीं नहीं
नाजिम की कुर्सी
उठा फेंक कंधे से
अपनी ही जमीन यह, अपना ही आकाश है
स्वप्न छोड़, आँख खोल।



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