कविता,

सोमवार, 23 नवंबर 2009

घर

रस्ते अलग अलग हैं
जाना तो एक घर है
हम रहते दादाबाड़ी
तुम बरकत नगर निवासी

सड़क के इधर हम हैं
तुम उधर रहते,
कैसी हुई मजबूरी
हाथ भी कहाँ  हैं हिलते?

उपर की  मंजिल हम हैं
नीचे की मंजिल तुम हो
मोबाइल यही है कहता
नेटवर्क नहीं है मिलता

तुम हमसे कहाँ बड़े हो
हम भी क्या तुम से कम हैं
इस दुनिया में सब बड़े हैं
सचमुच दही बड़े हैं

बाहर से जो भी आया
दौना लिए ही आया
सदियों से यही हुआ है
हरी घास  हम बने हैं

जिल्लत से यहाॅं पर रहना
मालिक ने कब कहा है,
तोड़नी है तुमको बेड़ी
सबसे बड़ी दुआ है।

2 टिप्पणियाँ:

Mithilesh dubey ने कहा…

जिल्लत से यहाॅं पर रहना
मालिक ने कब कहा है,
तोड़नी है तुमको बेड़ी
सबसे बड़ी दुआ है।

आपकी ये लाईंने अत्यन्त प्रभावशाली लंगी ।। सुन्दर रचना

Udan Tashtari ने कहा…

प्रभावी रचना!

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