बुधवार, 10 जुलाई 2013
आस्तिक और नास्तिक
आस्तिक और नास्तिक
भारतीय दर्शन के अध्ययन को दो भागों में बांटा जाता है, आस्तिक और नास्तिक दर्शन। आस्तिक वह है जो वेद को प्रमाण, ईश्वर तथा आत्मा को मानता है। चार्वाक और बौद्ध तथा जैन, वेद को प्रमाण नहीं मानते, वे ईश्वर को नहीं मानते, हां, जैन दर्शन आत्मा को मानता है। दर्शन- बुद्धि जन्य ज्ञान पर आधारित है।
आम जन, अपने आप को ईश्वरवादी मानता है। उस की आस्था, अपने धर्म पर, उस की विधियों पर, तथा ईश्वर पर है। जहां गुरुवाद रहता है, वहां भी गुरु ईश्वर के रूप में ही पूजे जाते हैं।
कुछ लोग अपने आप को नास्तिक कहते हैं, वे प्रकृति पर भरोसा रखते हैं, किसी अमूर्त शक्ति पर नहीं।
स्वामी जी कहा करते थे, कि जो नास्तिक है, वही परम आस्तिक है, पर तब आप की बात समझ में नहीं आती थी।
नास्तिक वही है, जो बुद्धि जन्य ज्ञान पर टिका हुआ है। उस की नैतिकता, उस का स्वतन्त्र सोच है, वह मूल्यों का परीक्षण बु(ि के आधार पर करता है, उन्हें मानता है। यह सही है, नास्तिक को शरीर की तथा बुद्धि की शक्ति प्राप्त होती है। वह अपने ऊपर ही आश्रित रहता है। वह तर्क मय प्रणाली को अपनाता है। पर जहां तक वह है, उस का विश्वास है, वह ईमानदारी से उस पर कायम रहता है।
यही स्थिति आस्तिक की है, आस्तिक भी हजारों में कोई एक हो सकता है। जिस का उस परम पर हम जिसे परमात्मा कहते हैं, पूरा विश्वास होता है।
‘वह’ है, बस उतना ही उस का विश्वास नहीं रहता, वह सब जगह उसे दिखाई पड़ता है। उस पर वह पूरा आश्रित रहता हुआ अपने कर्तव्य कर्म को करता है। उस की दीप्ति आप्त वचनों पर आधारित है। वह जड़, चेतन, रूप में भी उसी एक ‘परम’ को देखता है।
पर जो बीच के लोग अपने आप को आस्तिक कहते हैं, उन की .स्थिति मात्र मौखिक ही रहती है। हमारा समाज, हमारे धार्मिक लोग इसी प्रकार के आस्तिक हैं। जिन के पास न तो शारीरिक बल है, न बुद्धिबल, न ही आत्मिक बल।
जो नास्तिक है, वह मात्र आत्मिक बल से ही दूर रह जाता है, वह तमोगुण, तथा रजोगुण की सि(ियां तो पा लेता है, परन्तु ‘वह’ सतोगुण से दूर रह कर, अपनी आत्मा व उस की कृपा से वंचित रह जाता है। यहां से रास्ता ‘परम’ की ओर जाता है, जिसे हम सोर्स या जीवन का मूल आधार कहते सकते हैं।
आस्तिक के पास, ‘जो है’ उस के साथ गहरा तादात्म्य है। वह उसी का ही मात्र अंशी हो कर रह गया है। वह उसी सागर की एक तरंग है, जो वह सोच कर चला था, सागर भी दूर है।
पूज्य स्वामी जी कहा करते थे, नास्तिक जो है वही आस्तिकता के पास है। पानी हमेशा खौलता है, तभी उस में चाय बन पाती है। हम जो अपने आप को, आस्तिक कहते हैं, वे तो मात्र कुनकुने पानी की तरह हैं। ‘सौ टका’ यानी .जुज,. टोटल में जो देता है, वही पूरा पाता है। जो पूरा है वही आस्तिक है।
कभी कवि जायसी ने कहा था- ‘चार बसेरे जो चढ़े, सत सौं उतरे पार।’
यह चार बसेरे जो हैं, वहां वह जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीया, चारों में उसी एक्य का अनुभव करता हुआ उस सजगता को पाता है, जहां परम का वास है, जो उस का अपना घर है। यही आस्तिक की पहचान है।
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भारतीय दर्शन के अध्ययन को दो भागों में बांटा जाता है, आस्तिक और नास्तिक दर्शन। आस्तिक वह है जो वेद को प्रमाण, ईश्वर तथा आत्मा को मानता है। चार्वाक और बौद्ध तथा जैन, वेद को प्रमाण नहीं मानते, वे ईश्वर को नहीं मानते, हां, जैन दर्शन आत्मा को मानता है। दर्शन- बुद्धि जन्य ज्ञान पर आधारित है।
आम जन, अपने आप को ईश्वरवादी मानता है। उस की आस्था, अपने धर्म पर, उस की विधियों पर, तथा ईश्वर पर है। जहां गुरुवाद रहता है, वहां भी गुरु ईश्वर के रूप में ही पूजे जाते हैं।
कुछ लोग अपने आप को नास्तिक कहते हैं, वे प्रकृति पर भरोसा रखते हैं, किसी अमूर्त शक्ति पर नहीं।
स्वामी जी कहा करते थे, कि जो नास्तिक है, वही परम आस्तिक है, पर तब आप की बात समझ में नहीं आती थी।
नास्तिक वही है, जो बुद्धि जन्य ज्ञान पर टिका हुआ है। उस की नैतिकता, उस का स्वतन्त्र सोच है, वह मूल्यों का परीक्षण बु(ि के आधार पर करता है, उन्हें मानता है। यह सही है, नास्तिक को शरीर की तथा बुद्धि की शक्ति प्राप्त होती है। वह अपने ऊपर ही आश्रित रहता है। वह तर्क मय प्रणाली को अपनाता है। पर जहां तक वह है, उस का विश्वास है, वह ईमानदारी से उस पर कायम रहता है।
यही स्थिति आस्तिक की है, आस्तिक भी हजारों में कोई एक हो सकता है। जिस का उस परम पर हम जिसे परमात्मा कहते हैं, पूरा विश्वास होता है।
‘वह’ है, बस उतना ही उस का विश्वास नहीं रहता, वह सब जगह उसे दिखाई पड़ता है। उस पर वह पूरा आश्रित रहता हुआ अपने कर्तव्य कर्म को करता है। उस की दीप्ति आप्त वचनों पर आधारित है। वह जड़, चेतन, रूप में भी उसी एक ‘परम’ को देखता है।
पर जो बीच के लोग अपने आप को आस्तिक कहते हैं, उन की .स्थिति मात्र मौखिक ही रहती है। हमारा समाज, हमारे धार्मिक लोग इसी प्रकार के आस्तिक हैं। जिन के पास न तो शारीरिक बल है, न बुद्धिबल, न ही आत्मिक बल।
जो नास्तिक है, वह मात्र आत्मिक बल से ही दूर रह जाता है, वह तमोगुण, तथा रजोगुण की सि(ियां तो पा लेता है, परन्तु ‘वह’ सतोगुण से दूर रह कर, अपनी आत्मा व उस की कृपा से वंचित रह जाता है। यहां से रास्ता ‘परम’ की ओर जाता है, जिसे हम सोर्स या जीवन का मूल आधार कहते सकते हैं।
आस्तिक के पास, ‘जो है’ उस के साथ गहरा तादात्म्य है। वह उसी का ही मात्र अंशी हो कर रह गया है। वह उसी सागर की एक तरंग है, जो वह सोच कर चला था, सागर भी दूर है।
पूज्य स्वामी जी कहा करते थे, नास्तिक जो है वही आस्तिकता के पास है। पानी हमेशा खौलता है, तभी उस में चाय बन पाती है। हम जो अपने आप को, आस्तिक कहते हैं, वे तो मात्र कुनकुने पानी की तरह हैं। ‘सौ टका’ यानी .जुज,. टोटल में जो देता है, वही पूरा पाता है। जो पूरा है वही आस्तिक है।
कभी कवि जायसी ने कहा था- ‘चार बसेरे जो चढ़े, सत सौं उतरे पार।’
यह चार बसेरे जो हैं, वहां वह जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीया, चारों में उसी एक्य का अनुभव करता हुआ उस सजगता को पाता है, जहां परम का वास है, जो उस का अपना घर है। यही आस्तिक की पहचान है।
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