शनिवार, 19 सितंबर 2009

‘स्वयंसिद्धा’ भविष्य में झांकता वर्तमान
डाॅ. क्षमा चतुर्वेदी की कहानियों से गुजरना अपने समकालीन समाज की यात्रा का पक्षधर बनना है। उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपने आसपास के परिवेश को और आते-जाते पात्रों की गहमागहमी को वे बीच से अपने कथा सूत्र का चयन करती हैं। वे कहानी के प्रचलित मुहावरे से जो समय विशेष में एक रूढ़ि बन जाता है उससे अपने आपको अलग रखते हुए कहानी की परंपरा को अपने जीवनानुभव की तपिश से विकसित करती हैं। उनकी हर रचना अपने आपमें दूसरी रचना से पृथकता रखते हुए विशिष्ट भी है, जिस प्रकार एक छोटे किंडरगार्डन स्कूल में जाते हुए बच्चों की जहां बच्चों की जहां वेशभूषा तो एक जैसी होती है, परन्तु उनका मुस्कराता हुआ चेहरा और आंखों की चमक एक अलग ही पहचान बता देती है, उनकी कहानियों में यही सरसता निश्छल स्वभाव की अभिव्यक्ति दिखाई पड़ती है। वे पाठक के साथ अपनी कथा के प्रारंभ से ही वह आत्मीय सम्बन्ध जोड़ लेती है कि पाठक उनके साथ जुड़कर, कहानी के पात्रों में अपनी आवाजाही प्रारंभ कर देता है। यही कारण है कि उनकी कहानियां एक लंबी समयावधि में लगभग तीस वर्षों से निरंतर प्रकाशित हो रही हैं और वे अपने पाठकों के बीच में अपनी उपस्थिति को उसी प्रकार जीवंत बनाए रखे हैं। मुख्य कारण यही है कि वे पाठक को अपनी कहानियों के माध्यम से एक सही नजरिया, सही दृष्टिकोण अपनाने के लिए बड़ी शालीनता के साथ प्रस्तुत करती है।
यह प्रस्तुति कलात्मक है, यहां अभिव्यक्त दृष्टि आधुनिक कहानी के संदर्भ में विचारों का गद्यांश में टुकड़ा नहीं बनती परन्तु संवेदना सक्षम व्यंजनापूर्ण पाठ की भांति पाठक के बीच में अपनी आत्मीयतापूर्ण उपस्थिति दर्ज करा देती है।
क्षमा जी की कहानियों से गुजरते हुए सहज ही निष्कर्ष लिया जा सकता है कि वे यथार्थ और कल्पना का जहां समन्वय उपस्थित करती है, वहां वह सामाजिक यथार्थ को सकारात्मक कल्पना के धागों से बुनते हुए भविष्य का आकलन जो एक आदर्श में नहीं है परन्तु वस्तुगत विवेचन से एक संभावना हो सकती है, उसे कलात्मक ढंग से लाने का प्रयास करती है।
उनकी कहानियों में जो रोमांस का पुट है वह ह्रासोन्मुख नहीं है, वे प्रगतिशील, कर्मठ अपने अस्तित्व की खोज में संलग्न नारी को चित्रित करने की आकांक्षा में अपनी क्षमता का सदुपयोग करती है, यही कारण है कि उनकी कहानियां प्रचलित मुहावरे में स्त्री की यौनिकता को लेकर जो नारी विमर्श किया जा रहा है और जो महिला कथाकार चर्चित हो जाती है, उनसे अलग अपनी एक पहचान बनाने में समर्थ हैं।
क्षमाजी मानती हैं कि वर्तमान जीवन यथार्थ बहुत जटिल है और जिस रूप में नारी को आप मीडिया के द्वारा रचनाकर्मियों के द्वारा, फिल्मों के द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है, वह नारी एक निष्क्रिय पतनशील रोमांसवाद की देन है, यहां कल्पना के द्वारा नारी को जितना अनावृत करते हुए उसे मात्र एक बाजार की वस्तु बना दिया जाय, जो आज का प्रचलित मुहावरा है, उसे वे महत्वपूर्ण नहीं मानती है, वे इस जटिल जीवन यथार्थ में अपनी कहानी के माध्यम से नारी के जीवन यथार्थ को उसके जीवंत परिप्रेक्ष्य में अपनी संवेदना से उकेरने का प्रयास करती हैं और उससे प्रतिशील रोमांसवाद जहां कल्पना एक बेहतर दुनियां का सपना देखती है, चाहे स्त्री कामकाजी महिला हो। उनका कथा संसार, आज के सामाजिक यथार्थ की उपज है। वे पाठक से अतिरिक्त कोई मांग नहीं रखती है, उनका पाठक उनकी कहानी के आंतरिक सौंदर्य से सहज ही जुड़ जाता है, वे कहानी के मर्म को अपने पाठक तक पहुंचाने े लिए जिस संवेदना की आवश्यकता होती है, वह उनकी पूँजी है। अपनी कहानी यात्रा के प्रारंभ से ही वे हिन्दी साहित्य की लगभग सभी पत्रिकाओं से तथा भारत की सभी  व्यवसायिक पत्रिकाओं में एक साथ प्रकाशित होती रही है।
गत तीस वर्षों से इतने बड़े परिप्रेक्ष्य में किसी रचनाक्रम को रचना धर्मिता प्राप्त होना विरल है। हिन्दी आलोचना का यह एक गौण पक्ष बन गयाहै कि जो साहित्य पाठकों से दूर हो चला है, उसकी आलोचना अधिक मुखर है। जिस प्रकार से समाज में सांप्रदायिकता कुविचार  फैलाती है, उसी प्रकार आलोचना भी एक विशेष आग्रह में अपने ही   वर्ण, अपने ही समुदाय, अपने ही वर्ग में प्रेषित होती देखी गई है।
उनकी ‘स्वयंसिद्धा’ कहानी मध्यवर्ग की नायिका की कहानी है जो अपने पाँव पर खड़ी है,। शिक्षा ने उसे एक आधार दिया है। प्रेम विवाह के बाद पति के गलत आचरण पर वह कुछ दिनों के लिए अपनी मां के पास आती है और वह वहां यह पाती है कि जीवन एक खेल है और उसकी भूमिका एक खिलाड़ी की है और उसे इस विषम परिस्थिति में स्वयं ही निर्णय लेना है और माता-पिता के पास जहां वह एक रास्ता तलाशने आई थी, वहां से वापिस अपने घर लौट जाती है। वह यह निष्कर्ष अपने पाठकों को सौंपती है कि स्वयं के सुख-दुःख स्वयं के ही हैं और ”नीत्शे“ की अमरवाणी की दूसरा नर्क है इस सोच को अपने अपने पाठकों तक पहुंचाती है।
यहां स्त्री अपने पूर्ण उत्तरदायित्व के साथ खड़ी दिखाई देती
गृहिणी हांे ,निरक्षर खेतिहर मजदूर हो, विभिन्न आर्थिक, सामाजिक दबावों से पीड़ित जूझती संघर्षशील महिला हो, वे उसकी इस उद्यम जीजिविषा को रेखांकित करने का प्रयास करती है।
इसीलिए उनकी कहानियों में व्यक्तिगत या सामाजिक जीवन में एक बेहतर जीवन की संभावना निहित रहती है।
वे अपनी कहानियों के माध्यम से आज के इस प्रचलित मुहावरे को जहां एक पतनशील रोमांस के जरिए स्त्री को उसके स्वाभिमान, गरिमा और समाज एवं परिवार में स्थान पाने की उसकी जो ललक है, उसे रोकते हुए स्त्री के संघर्ष को मात्र यौन स्वतंत्रता में परिवर्तित करने की जो बाजारवादी परंपरा है उसका विरोध है।
उनका सामाजिक जीवन दर्शन, भारतीय आध्यात्म के इस दुनियादी सूत्र को साथ लेकर चलता है कि यथार्थ वाद व्यक्ति के विकास में बाधक नहीं है, उनके उपन्यास, अपराजिता की नायिका का व्यक्तित्व विकास जिस रूप में चित्रित हुआ है, वहां एक नारी संघर्षशील, श्रमशील महिला को चित्रित करती है।
उनके कथा साहित्य का मूल स्वर यही है कि वे मानकर चलती हैं कि व्यक्ति से उसका व्यक्तित्व और उसकी सामाजिक उपादेयता अविच्छिन्न है। एक बेहतर समाज तभी बन सकता है कि जब बेहतर इन्सान हो। यही कारण है कि उनके पात्र जीवन जगत के उस रूप को ग्रहण करते हैं जहां संघर्ष हैं, गरिमामय प्राणवान सामयिक दायको समर्पित जीवन है, पलायन नहीं है। सामर्थ का दुरूपयोग नहीं है। पात्र जीवन संघर्षों में कभी  हारते हैं, कभी जीतते हैं, परन्तु विवेक का अनादर नहीं करते। इसीलिए उनका कथा-साहित्य प्रचलित मुहावरे में भी  आज के इस आधुनिक कहानी के दौर में भी अपने उपस्थित रखता है।
क्षमा जी की कहानियां समय की गतिशीलता से उपजी कहानियां  हैं।इनमें समाज की गतिशीलता, परिवर्तन का आकलन किया जा सकता है। वे अपनी कहानियों में आज के समय को जहां अपनी संवेदना के आधार पर चित्रित करने का प्रयास करती है, वहीं वे भविष्य के आकलन की ओर भी दृष्टि रखती हैं।
इस ‘एहसास’ कहानी में बिखरते परिवार को विवेक के आधार पर जीवन-जगत् में जीने के रास्ते की दृष्टि की खोज कहा जा सकता है। यहां वर्तमान तो है पर वह किस भविष्य की ओर ले जा रहा है, वह महत्वपूर्ण है।
भविष्य की निर्मिति विवेकदृष्टि करती है।
इन कहानियों में जिस भविष्य का सपना है वह निश्चिेष्ट रोमांसवाद नहीं है, यहां नकारात्म्कता नहीं है, यहां मनुष्यता का सही चेहरा तलाशने का प्रयास है। बाजारवाद और भूमंडली राग के इस दौर में स्त्री के स्वयं के वरण और उत्तरदायित्व की खोज उनकी कहानियों का आधार है।
‘उपहार’ कहानी मंे एक प्रौढ़ महिला की परिस्थिति के दबाव में विदेश में रहते हुए अपनी और अपने परिवार की सम्मानजनक स्थिति बनाए रखने का प्रयास है, किस प्रकार श्रमशील महिला अपने पािश्रम से , परिवार को सम्मानजनक स्थान दिलाती है उसकी यह कहानी आधार भूमि है।
जिस आयु में महिलाएं संस्थागत धर्म के दायरे में आकर परलोक सुधारने के लिए श्रम की अवहेलना कर देती है वहां श्रम और संघर्ष हर महिला को हर आयु में सम्मान दिला सकता है वह यहां विवेच्य है।
क्षमाजी की कहानियों की रचना प्रक्रिया की यह एक अलग विशेषता है कि वह केन्द्र में नारीमन पर पड़ने वाले सूक्ष्मतम मनोजगत के दायरों ं को, जहाँ प्रस्तुत करती है, वहीं वे मूल कथा सूत्र के साथ उन अवांतर प्रश्नों को भी जो मुख्य कथा को महत्वपूर्ण बनाते हैं, उठाती रहती हैं। उनके कथा शिल्प की यह मुख्य विशेषता है कि वे अपने कथा सूत्र का एक केन्द्र बिन्दु बनाकर एक वृत्त बना लेती है जिसका कि रेडियस उनके पास है और उस वृत्त में वे मुख्य प्रश्न से जुड़े अवांतर प्रश्नों को भी ले आती है।
‘मुखौटा’ कहानी में जहाँ कहानी के पात्र निम्न वर्ग और उच्च वर्ग में आवाजाही करते हैं, वहाँ उच्च वर्ग की महिलाओं में जो कृत्रिम जीवन मीडिया प्रबंधन से सामजिक श्रेष्ठता बना लेता है, उसे रेशे रेशे का खोलते जाने का यथार्थ चित्रण है। किस प्रकार ईमानदारी कलंकित होती है और बेईमानी पुरस्कृत होती है, इस प्रश्न को अवांतर प्रश्नों के साथ यहाँ नियोजित किया गया है।
उनकी कहानियों का शिल्प उस रंगीन बुनी हुई चादर की भांति है जिसे आप ताने-बाने के साथ अलग-अलग करते हुए विवेचित नहीं कर सकते। चादर की सुंदरता उस ताने-बाने की बुनाई के शिल्प से दिखाई पड़ती है जो अपने आपको दूसरी चादर से अलग कर लेती है।
सामजिक सौद्देश्यता क्षमाजी की कहानियों की पँूजी है, वे एक ही तरह से जीवन और जगत को देखे जाने वाली विचार प्रक्रिया को अस्वीकार करती हैं। वे मानकर चलती हैं कि समाज निरंतर परिवर्तनशील है।

परंपरागत, सामाजिक रूढ़ियों से यहाँ मुक्ति है और यही वास्तविक स्वतंत्रता है, निर्णय की स्वतंत्रता ही वास्तविक स्वतंत्रता है।
‘अजनबी’ कहानी एक कामकाजी महिला की कहानी है, जहां पर रिश्ते आर्थिक आधार प्राप्त होने के बाद भी नीरस होने लगते हैं। बाजारवाद ने किस प्रकार चुपचाप आकर पारिवारिक रिश्तों में यह दरार डाल दी है कि पति पत्नी दोनों अपना आर्थिक आधार मजबूत होते हुए भी अपने ही परिवार में दूरियां बनाने लग जाते हैं।
क्षमाजी की कहानियाँ प्रचलित मुहावरे में न तो स्त्रीवादी कहानियाँ है ना स्त्री विमर्श की, ये आज के समाज में जो परिवार में ग्रंथियाँ बन रहीं है, बच्चों के मन में भी अपनी कामकाजी माँ के प्रति जो आत्मीयता का स्वर सूखता जा रहा है उन सभी संदर्भों को एक जीवंत परिवेश में  उनकी कहानियों मेंदर्शाया गया है।
दूर से दिखाई पड़ता है कि परिवार सुखी सम्पन्न है, दूर से एक ऐसा संसार दिखाई पड़ता है जहां लगाव है, परन्तु कहानी की यात्रा उस जगह खींचकर ले जाती है, जहाँ मध्यवर्गीय पारिवारिक जीवन खोखला दिखाई देने लगता है। यहाँ आने पर जिस शिक्षा को स्त्री की अस्मिता के लिए क्षमा जी ने अपनी कहानियों में एक आवश्यक मूल्य बताया था। रोजगार को एक संबल बताया था। इस कहानी में आकर स्त्री मन और स्त्री पीड़ा की एक नई व्याख्या मिलती है। जहां शिक्षित और आर्थिक संपन्न नारी भी अपने ही परिवार में अजनबी की भांति रह जाती है, आखिर क्यों? धीरे धीरे  इस उपभोक्तावाद ने मनुष्य को एक चेतना सम्पन्न व्यक्ति से एक वस्तु में बदल दिया हैं? यह कहानी एक कामकाजी महिला की परिवार में बिखरती हुई पीड़ा की कहानी है।
‘समानांतर’ कहानी का परिप्रेक्ष निम्न वर्ग की दुनियां है जहाँ अजनबीं कहानी में उच्च मध्यवर्ग पर बढ़ता बाजारवाद रिश्तों को बिखराव की सीमा तक ले आता है, वहीं निम्न वर्ग में बाजारवाद किस प्रकार से उनकी पारिवारिक दुनियां को तोड़ने का प्रयास करता है।
निम्न वर्ग की पहचान है कि वहाँ स्त्री अपने श्रम की बदौलत अपना परिवार चलाती है, निम्न वर्ग में यह विरोधाभास है कि स्त्री भले ही शरीर से दुर्बल हो परन्तु उसकी क्षमता और असंभव परिस्थिति में भी जूंझने की ताकत उसमें अधिक है, इस यथार्थ को संवेदित करती .हुई कहनी . किश्तों में लाये टी.वी. के विवाद को लेकर जन्मती है और पति के भीतर इस अंतद्र्वन्द के साथ वह अब इस प्रकार के अनावश्यक कुचक्र में नहीं फंसेगा पुनः एक सहयात्री रूप में अपने आपको पाता है।
‘एहसास’ कहानी का ताना-बाना उस मध्यवर्ग की नारी की कथा है, यहां भू-मंडलीकरण का जो दबाव है वह अदृश्य में पात्रों के मानसिक जगत में झांकता है। उच्च पदों पर कार्यरत स्त्री-पुरुष के बीच में आकर्षण व यौन-नैतिकता के प्रश्न को इस कहानी में उठाया गया है। दोनों पति पत्नी उच्च पदस्थ हैं, पति के भीतर अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में पर स्त्री के आकर्षण से व्यथित पत्नी जब विदेश यात्रा में अपने आपको भी उसी मानसिकता में पाती है तब उसे अहसास होता है कि मानवीय दुर्बलता के क्षण आकस्मिक रूप से कभी भी घट सकते हैं, उस अंधकार को काटने की जो क्षमता है वह हर व्यक्ति के पास है।

क्षमाजी  परंपरा के दायरे को स्वीकार करते हुए मनुष्यता को अपनी कहानियों की बड़ी पूँजी मानती हैं।
वे नए की खोज में कल्पना से, फंेटेसी से नए सामाजिक घटना वितान को पैदा नहीं करतीं। जहाँ कहानी में  अचानक थोपा हुआ वस्तुजगत कल्पना के साथ आभासीय यथार्थवाद को पैदा करता है, वहीं क्षमा जी के कथा संसार में  उनका समाज  ही उनका परिप्रेक्ष्य है, उनके पात्र उनकी कहानियों में आवाजाही करते हैं। वे अपने पात्रों के जरिए उस कहानी के रचना संसार को प्रतिबिंबित करती है जो अपना ही समाज है,जो उच्चतर मनुष्यता की लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील है।

1 टिप्पणियाँ:

हेमन्त कुमार ने कहा…

जो है ! वर्तमान है !

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