कविता

बुधवार, 30 सितंबर 2009

 हत्था

    नहीं थी एक भी चिड़िया
    वहां पर,
    पेड़ जो अब हट गया था
    चहकना, किसका, चहके कब कहांँ पर
    अनुत्तरित सब
   
    था नुकीला लोह उसके पास
    पर हत्ता नहीं था
    वह चढ़ा
    डाल को हाथों से गिरा
    पत्ते हटा
    डाल का हत्ता बनाकर
    पेड़ को ही काट डाला ।
   
    चिंतक, विचारक
    बैठा पेड़ के नीचे
    बुद्ध सा सम बन गया था।
   
    क्यों पेड़ ने खुद
    दिया हत्ता बन,
    सौंपा उसी़ को
    जिसने काटकर उसको
    साफ़ जंगल कर डाला

    चहकती चिड़िया.... बस चुप
         झाड़ियों की उड़तीफुनगियों पर
    झाड़ियां ही पेड़ अब हांेगी
    कहता फिर रहा था
    फरमान ले हाथ में, दूत
    जंगलात हाकिम का।
    हम
अचानक ही वह पत्थर पेड़ पर आ गिरा था
ठहरे हुए पक्षी
जगे, फड़फड़ाए, उठे, उड़े....उड़ गए,
कहांँ, ... यह पता किसको था!
याद रहा इतना
आकाश है, जगह देगा, लौटकर फिर
इसी पेड़ पर आना है
पर न जाने क्यों
कितने पत्थर रोज आ गिरते हैं।
सड़क पर फटेहाल लड़की को, न जाने कितने गिद्ध
आंखों  पर उठाए
रोज तीर से मिलते हैं।

कल तक भूख की
तेरी मेरी उसकी
बात वह करता था
नुक्कड नाटक में शहीद बन बिखरता था
कुरते और पजामे का रख नहीं पाता हिसाब था
अचानक कल मिला,

करोड़ों की बातें लिए
हंँसता मुस्कराया
देश, धरती, जन अचानक सैकड़ों शब्द लिए
भारी से भारी
शब्द शोर में बदल
शोर, नोट में बदल
वह जेब भरता,
यही कहता फिरता था
लोकतंत्र का सच
राम का नाम है,
नाम की लूट है,लूट ही सच है,
जितने भी जाना है,उसे ही सुख पाना है।
हर कोई दूसरा
हाथ में पत्थरलिए
सोचता सुबह शाम वह क्यों न कर पाया सह सब
उसका भी कुरता उतना ही मैला और था काला...।

कहता शनीचर
राहू-केतू साथ तेरे अब कहां है
यह धरती
लुटने को बनी है
 जो भी यहां आया, लूट ही तो गया है,
लुट जाने का भय
सब छोड़ ले लंगोटी
तभी हिमालय पर गया है
कहता रहा वह
है नहीं अब पास कुछ
क्या कोई लेगा
पर लंगोटी में भी कोई आकर
यहाँं  भी लूट सकता
यह छिपा सच यहाँं सबसे बड़ा है।

गिरते हैं पत्थर अब
और धूमकेतु उल्का भी
उनसे भी तेज, और तेज
टी.वी. के चैनल
नहीं कोई ठहर पाता
कितनी चिकनी यह सतह है
नहीं जल
अब जरा भिगो पाता
भीतर रखा था वह
स्निग्ध कोमल
छंद तुम्हारा ही, तुमने जो पाया था
अचानक शीत पाकर
पछुआ हवा से
              बर्फ सा हो गया है।

ताप कहांँ
कहां है तपन...
चर्चा ही व्यर्थ है
बाहर के देवता
पाषाण बन पुजे जो...
इतना आदर पा
अब भीतर ही जमे हैं...

भीतर का छंद
सजीला सुरभित, चुपचाप बाहर निकल
मंदिर में कबसे पूजित हुआ है
और हम,
हत भागी!
नहीं-नहीं प्रभु परसादी
पत्थरों के टोल से फिकते-फिकवाते
हाथ दूसरे के कबसे,  कसे से रखे हैं।

3 टिप्पणियाँ:

ओम आर्य ने कहा…

behad khubsoorat rachana...........prakriti jis kawita me samaayi ho wah kawita apane aap ek khubsoorat rachna hoti hai yah mai manata hu..........waise aap ek utkrisht rachanakar hai .....

Dr.Dayaram Aalok ने कहा…

AAPAKI KAVITAON KAA SHILP AUR PRAKRITI SE UNAKA TADATMYA VAASTAV ME SARAHANIY HAI.ME PRABHAVIT HOON.

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