रविवार, 27 दिसंबर 2009

1                      प्याज़


प्याज,
छिलके उतरने की सहती व्यथा, रोज-रोज
उतरते-उतरते
रहता है क्या
ब्रह्म ज्ञानी कहता, ‘वह महाशून्य था’।
... बस एक खाली सा
वर्ण, जाति, संप्रदाय की नीली काली परतें
रोज़-रोज़ उतरती
आहत बु(िजीवी बाहर की कालिमा
लीक-लीक उकेरता
परत दर परत, उतारता, छीलता
हंसता, बतियाता,
पूछता जाता,
इतिहास है कहां, यह तो बस जोड़ है...
मात्र खाली परतों का,

इतिहास बस उनका
जो जमीन, औरत और धन लिप्सा में
मरगए
मारे गए
उनका पुजारी लिखता अमर काव्य
 इतिहास बस  उनका

प्याज का कहाँ
जंगली भी होती है
गरीब की थाली में ताकत बन रहती हैं

देती गुलाबीपन
स्वाद भी कसैला
बेहद सस्ती यह
पड़ी रहती सड़क पर
देश की जनता सी,
रोज-रोज छिलने को
परत- दर- परत छिल,
यूं ही मर मिटने को,
क्योंकि वह  है आम,
इतिहास  वह नहीें है।

जबकि रस इसका ही
मीठे शहद से मिल
होता
जनतंत्र का खजाना है।


तभी बाजारी ने
उसके तरफदारों ने
शहद को उठाकर दूर
 प्याज से रख छोड़ा है,
चर्चाकर प्याज की
न जाने क्यों  वह दूर रहता  प्याज से।

बस एक बार,
दोनो अलग मिल सकें
आकर पास बतियाएं
कुछ- कुछ कह पाएं
कुछ-कुछ सुन पाएँ

रास्ता जो छूटा है
फिर मिल सकता हैं।




कहने को बहुत था

कहने को बहुत था
बहुत कुछ कहा गया
पर सुना कहां किसने
कान पर
न ठक्कन था
न आंख पर
पर्दा था,

पर भीतर का सुआ
अपनी ही धुन पर
मंत्र-मुग्ध नचता
खुद को ही सुनता
देखता भी खुद को,

बाहर का कोलाहल
चीख, आहत, आत्र्तनाद
माया, पाषाण वत
संवेदना मरी-मरी
रस लोलुप जीभ
हड्डी चूसते श्वान- सी।

अपनी ही आत्मा
 शिला सी अहल्या रख
स्वार्थ रस चाटती
आनंदोत्सव झूमती
सुनने से दूर वह
न देखने की चाह लिए
अपनी ही ढपली पर अपना ही राग।

अंधेरा इतना
सूझता नहीं था कुछ
कभी-कभी खुद की ही
 उठती चीख भी
सुन नही पाता
खेत से खलिहान से
झोंपड़ पट्टी से
मैले, कुचले पशुवत जीवित मनु संतान की,
कविता ,कहानी में रचना तलाशता

पर, चुप-चुप
स्वार्थ, नाभि- नालि युक्त
न सुनता
न देखता
जो भी सुन रहा था
उसके कानों में सीसा ढोलता
फोड़ता आंख
शब्दों को छीनता।

जो न सुनता
न देखता,न कुछ करता
बड़बोला, अपनी ही त्वचा पर,
चिपटा परजीवी, वह।
”देख-देख सही तो देख
कह-कह सही तो कह,“
सबको समझाता
उसकी पहचान.....
‘हवा दरख्तों को बताती है
फिर भी न जाने क्यों
..वक्त भी . खामोश है....

जो न कुछ करता है,बस सुनकर चुप रहता है।





                    कविता वह-3


कविता न खाद होती है, न बीज
न दवा
जो बीमारी को मार देती है,
वह, वह जमीन है
ताप, नमी पाकर
बीज,
दरख्त में बदल देती है,


दरख्त का दरख्त होना जरूरी है
वह फलदार हो या नहीं
चाहे वह श्मशान में लकड़ी बन जले
या अंगीठी में कोयला बन दहके
या किंवाड़ में लग जाए
या किसी खूबसूरत मेज के पांवों में ठहर जाए।

कविता दरख्त जनती है
कभी मशाल बन दहकती है
लपट उसका शृंगार है
उसके जिस्म पर फलती है,

वक्त बार-बार कहता है
लिखो, और और लिखो
दरख्त मशाल बन जल जाएं
अंधेरा यह नियाॅन लाइट से कम होगा नहीं
‘पावर कट’ का जमाना है
दहकना मशालों को है
अंधेरा उन्हें, दहक, खिसकता जरूर है।


            उन सबके लिए-4

उन सबके लिए
जो ट्रेन के डिब्बे में जलकर राख हो गए
या बेकरी में बिस्कुट बन सिक गए
कहता वकील था-

आग अपने आप लगी
उन्हें मरने का शौक था
‘सती प्रथा प्रशंसक वे
साथ ‘राम’ सता हुए
या सुपुर्दे खाक हुए।

वे थे खामोश
घर की रोजी-रोटी की फिक्र में लगे थे
जो बेकरी में
या खेत या खलिहान में
जिन्दा रहने का मंत्र पूछते थे
अनायास यूं ही

मौत जो मुंडेर पर बैठी, चील की तरह आई थी
राम की यादों में
अभिशप्त सीता सी
चुपचाप धरती समा गई।

उनका क्या कफन की दुकान पर डेरा जो डाले हैं
कहीं सीढ़ी
कहीं पंडित
कहीं काॅफीन
कहीं काजी
सब मुहैया करा देते हैं।

रोते हैं, हंसते हैं
साथ-साथ रहते हैं
लड़ते हैं जैसे हड्डी पर कभी-कभी
दतात्रेय सहचर
शांति पाठ पढ़ते हों
सभा या संसद हो
आंसू कहां आँख में
टेंकर में जल ‘साबरमती छोड़ आए हों।

वे जो मरते हैं
तिल-तिल कर जलते हैं
भूख, गरीबी, जलालत की आग में
नम होती आँखों का
काश अनकहा सुन जाएं
हाथों में खंजर नहीं
बंदूक तलवार नहीं
खुशबू सी रेखाएं साथ लिए हथेली पर
दूसरी हथेली रख
एक गीत प्यार भरा
यहां-वहां छोड़ आएं।
















            कभी-कभी वे-5

कभी-कभी वे दिख जाते थे
आते-जाते
पत्नी संग कभी न चलते
आगे वे
पीछे वे
चलते जाते, .. खोये-खोये से,
अपने से ही बतियाते,

कभी पार्क में घूमा करते
‘रामदेव’ के गोल घेर में
कुंजी स्वास्थ्य की पकड़े-पकड़े
कभी क्वार की धूप लजाते
सख्त-तप्त फौलाद बने से,
नहीं बोलते
नहीं देखते
खोये-खाये, अपने ही से।

नहीं दिखे वे
कई दिनों से
बूढ़ा माली सोचा करता
बच्चों ने शायद रोक लिया हो

बड़ी कार है
बड़ा सा बंगला
उल्टा-पुल्टा नया है धंधा
पर उनसे सहा न जाता,
पग-पग रौनक
रोज मना करती दीवाली
नहीं-नहीं उनका मन ,
वहां क्या लग सकता है?

कभी जो बंगले में नहीं जाते,
अपने घर की चारदीवारी, टूटा छप्पर
सबसे अच्छा कहते रहते,
बड़ी कार में ठंडी पाकर
जिनकी नस-नस खिंच जाती है
क्या वे वहां टिक भी पाते..।

यही सोचकर पेड़ उदास था
जो कल तक उनकी बातों को चुपचाप सुना करता था

बोला-
पत्थर की तू बैंच सही है
‘पर उनके भीतर
कुछ-कुछ, हरा-नया मैंने पाया है
जिनकी मुट्ठी बंद रही है
नहीं हथेली कभी खुली थी
कभी सामने
जाकर स्वर्ण मुद्रा की ललचायी मिक्षा पर,

वह दाता है
नहीं झुकेगा, नहीं गिरेगा, नहीं मरेगा
इस लुभावनी
इन्द्रजाल की मायावी कुत्सित इच्छा पर,“

तभी अचानक उसी बैंच पर
पाया उनको
बतियाते, हरी दूब से, और हवा से
जीवन भर जो पाया सच है
वह अमूल्य है
देह नहीं शाश्वत यह सच है
पर उसके भीतर जो जागा
नहीं झुका जो
अपने ही रस में डूबा वह
 गर्वीला, ... ‘स्व’ से अभिमंडित, ... वह जीवित है,
पिता, बरसों की टूटी इकलौती,
बड़े पार्क की पथरायी बैन्च सा

देखा उनको
मायावी दुनिया की चकाचैंध से दूर
मुंदी आँखों से
नन्हें शिशु की पुनः कल्पना साथ लिए
फिर बतियाते
साथ वृक्षसे कभी खड़े,कभी ठिठकते, अपनी छाया से भय खाते,
धूप, और यह घास और यह धूल सचमुच उनकी है
तभी बैंच
जो टूटी कब से, ... बहुतों के हाथों की चोट सम्हाले
इंतजार में लेटी रहती, उन जैसी वह..,.
रोज सुबह, ... और धूप कुनकुनी, ... उसकी अपनी  है।




















 क्यों हम....? - 6
क्यों हम चर्चाओं में ही रहते हैं व्यस्त
नहीं देख पाते
अभी-अभी वह जो साथ रहा था
चुपचाप उठा, चला गया,

बार- बार यह कहता
कहां जाना है
पता नहीं यह
पर लौटेगा नहीं
इस चादर पर ,इसी तरह फिर आकर

 ‘घास’ इसी तरह
 दबती ,कुचली यहां रहेगी
और तुम बस  बतियाते
बार- बार दोहराते
सार हीन चर्चा में
 तत्व ढूंढ़ते, ... बिना कुछ किए-धरे  सबको उलझाते


बुढ़ियाती लड़की, विवाह  की सीमा रेखा लांघ,
थर - थर मोबाइल
रही  घूमती छत पर
भाई उसका
पड़ा ठूंठ बीड़ी का
खांसता, खुडखुड़ाता
ताश के पत्ते अंधेरे में समेटता
‘पन्नी’ पर उठता धुंवां सोखता
कब हुआ युवा, ... उसे पता नहीं,

हर और अंधेरा
पसरा  बैंच पर
पुलसिए की प्रतीक्षामें
मिट जाए भूख, ... थाने या जेल में,
.
... चर्चाएं गंभीर सागर सी
पर सारा जल खारा
बूंद- बूंद
चाहत एक घूंट जीवन की

कभी थमेगी
शब्दों की जुगाली कभी
कविता जब बिना सहारे पढ़ने में आ जाए
शब्द  उगल पाएं आग
अनकहा जो छुपा है अंधेरे में
भभक उठे स्फुर्लिंग, ... जलते अनार सा
कह पाए तेज रोशनी वह सब कुछ
रंगीन इबारत के पीछे छिपा जो कबसे है।


















बहुत फर्क पड़ता है-7

हमारे होने न होने से
क्या फर्क पड़ता है
वह ग़ज़ल कहा करता था
दुकान उठ गयी
खामोश चित्रशाला है
कितना कहा उसने, ... पर सुना किसने पता नहीं....
वह भी नहीं सुन पाया
नई सदी के
का़ि़फये की जुम्बिश को।

वक़त की ‘हाॅपनी’ चढ़ी हुयी मुद्दत से,
न बुखार न ताप
चुप-चुप रात के अंधेरे में
टपकती नल की बूंद सा
रीता जाता है जल
अंतस के पात्र का
खाली है, खाली है
सदियों से खाली है
सभी कहा करते हैं
पंडे पुजारी
विश्वविद्यालयी तक्षक सब...।

पढ़ता है वही सब
सुनता है वही सब...
जो लिखा करता है...
... नहीं पढ़ता कभी वह
जो ज्ञानी है, ध्यानी है
कुंजी उपासक वह
सुविधा की सीढ़ी चढ़
लंबी कुल्हाड़ी लिए...

हर हरी शाख पर
पहले वार करता है।
... कविता का सच!
सुनो कवि जी
हमारे तुम्हारे होने से बहुत फर्क पड़ता है।



























            जो नंगे पांव चलता है-8


पंचांग में फलित कभी झूठा नहीं होता
सच,
हमारी तुम्हारी मौत का दिन तय शुदा है
न तुम बदल सकते हो
न कोई और
जाना कहां, कैसे जाना है, ... तय हो चुका है।

फिर बिस्तर पर पड़े-पड़े
करवट क्यों बदलते हो
किसकी प्रतीक्षा है
न किसी को आना है
न तुम्हारी बदसूरती पर उसे अफसोस करना है

अपनी की चादर है
हमने ही बुनी थी
हम ही उतार सकते हैं
दुनिया का सच यही है
इसी पर टिकी है,
निकलना है हमको
हम ही आ सकते हैं
थोड़ी सी धूप
थोड़ी सी चांदनी
हथेली पर रखकर
जहां भी जो रीता है
सपनों को जोहता है
वहां छोड़ सकते हैं,
वह देख पाए
अंधेरा जान पाए
उससे पार जाने की हिम्मत जुटा सके
यही तो करना है
कविता शब्दों की जुगाली नहीं
इबादत है उसकी
शब्दों के अलाव पर जो  नंगे पांव चलता है।































तुम्हारे लिए-9

छोड़ो भी यार! बहुत काम है
इस वक्त करने के लिए,
गंदे मटमैले कब से न धुले
ये प्याले, ... ये गिलास
इस मेज पर रखे हैं,
मेज या कूड़ा घर
न जाने कबका अटाला
सभी यहां रखा है
जाले ही जाले
क्राक्रोच टहलते हैं
छिपकली के अंडे, तस्वीर के पीछे कब से रखे हैं,

फर्श भी गंदा है
न जाने कब कौन
यहां ‘पीक’ कर गया है
इसका या उसका, जो भी यहां आया था
सराय को अपनी समझ
शंका समाधान कक्ष समझ, वह भी गया है।

अब तुम कहते हो
यह तुम्हारी है
तुम्हारे बाबा के बाबा, उनके परदादा
फिर उनके बाबा
पट्टा यहां पाए थे
यहां सफाई तुम्हे करनी है
क्योंकि यह तुम्हारी है

हां, साफ हो जाए
सब करीने से सज जाए
नल का, बिजली का, और दवाइयों का खर्च
ज्यादा इतना
सम्हलता ही नहीं,
हाथ-पांव हरि कीर्तन
 सत्संग की तलाश में घूम रहे कब से।

सराय, ... यह कभी लावारिस रहती नहीं
... किसी ओर को ही यहां आना है
... वह पसरेगा बैंच पर
नए कुशन, नया फर्श, और रंगीन दीवारें उसकी
और तुम्हे बस
फिर
प्याले-प्लेट धोना है।





















            जिन्हें नींद बहुत आती है-10

जिन्हें नींद बहुत आती है
वे ही हकदार हैं
समय के सही दस्तावेज हैं।

उनकी वाणी में आग सचमुच पिघलती है
बदलाव की चाहत
कपड़ों में झलकती है
दाढ़ी में उलझे हुए बाल
नए खिजाब का देते अहसास
अनकहा, ... बता जाते हैं

आज के सवाल
आज की दुनिया
दोनों की टकराहट
इतनी उबाऊ और थकानदार
समय, असमय
जात-कुजात
ये सभा, ये मीटिंग
कहना और कहना
किसी का न सुनना
इससे मिल, उससे मिल
जो न मिल सके
उसे हरकाना
कितना कष्टकारी है
तभी,
कुछ करने की बात सुन
उन्हें नींद बहुत आती है।





कविता का पहला छन्द-11

जो नहीं सुनता है कविता
न आता है
न आना चाहता है
तुम्हारे बीच
डरता है,
तुम उसे बेच न आओ बाजार में
मुहावरा, कथन का
छन्द और बिम्ब का
प्रतीक अलंकार का
बदल सा गया है,

कविता का आलोचक
उसकी तलाश म,ें
वह बार-बार आता
चाय की प्यालियां, लाता-ले जाता
कमरे की झाडू
या बाहर नाली की सफ़ाई
कहां तक भागे
सब उसको ही करना है,
वही गीत का पहला छन्द है
जानकर वह
चुपचाप खिसत जाता

उसकी ही खोज
सबको है भारी
सम्मुख है वह बैठा
नज़र नहीं आता
कवि की बढ़ती लाचारी

अस्पताल में झगड़ा
डाॅक्टर की पिटाई
मरीजकी पिटाई
जो न मर पाए
मरने की कोशिश में
सब करते हाथापाई
वह खड़ा-खड़ा देखता,
दृष्टा वही
दृश्य वही
दर्शक वही
पर कवि की आँख में सुरमा नहीं
जो वह चुरा पाए,

खड़ा-खड़ा देखता
हर गली, चैराहे पर
उसकी कटती थी जेब
सिपाही वही, वकील वही, कवि वही
जाते जुलूस में
चीखते, चिल्लाते, कल के शासक
कल की प्रजा के सुधी क्रु( चिंतक
एकमत सब,
जब तक वह नहीं है
हमें काम करना है

उसकी हजामत का
नया-नया उस्तरा इजाद करना है।

चुपचाप खड़ा-खड़ा
सोचता सिर घुनता
अपने ही आप पर हंसता, बतियाता
ढूंढता ‘विक्रम’ को
कभी साथ लाया ‘बैताल’ सिर पर
बिठाकर
पर यहां कोई नहीं
मत-पेटी के वंशज
मत से निकले हैं
मत में गिरेंगे
गली, पोखर, कहीं भी जल नहीं
लोहे की पेटी में
या बिजली की मशीन में
तिलचट्टे रहेंगे।

ढूँढ़ते सब उसको
कवि भी हैरान है
कविता से कब वह
चुपचाप निकल भागा है
बड़े-बड़े छंद, अलंकार छोड़
बिम्ब, प्रतीकों के सात घेरे-छोड़-तोड़
पास में खड़ा वह
कविता में आकर
गैर हाजिर रहता है
















                बहुत बड़े हो-12

यार! तुम बहुत बड़े हो
बड़े भारी-भरकम शब्द
बिना बरसात के बरसाती ओढ़े वृ( के सामने जाते
खिलखिलाकर हंसते
शाला से लौटते बच्चे,
जीभ-दिखार दौड़ पड़ते,

पीछे.....  ,खजलाया, ... कुड़कुड़ाता बूढ़ा
अतीत की टूटी नौका के पाल सम्हाले
बरसाती थामे, दौड़ता-हांपता
नई कौंपल को रौंदने को दुस्साहस लिए
चींखता,
बूढी, जीर्ण-शीर्ण पुस्तक के पन्ने तलाशता
झुंझलाया
तीर्थ यात्रा का टिकिट खरीदता
रात को ‘नेट’ पर रंगीन चित्र देखने की कोशिश में
बार-बार कटने पर चीखता
दुनिया को कोसता

तुम बहुत पहले-बहुत पहले
पैदा क्यों हुए
जब कलियुग में वापसी सतयुग की है
रंभा-मेनकाएं
गली-गली नाचतीं
थिरक-थिरक उत्सव मनातीं,

बूढे़ होने का दुख
कयामत की कल्पना से भी त्रासदी
क्या सचमुच नहीं है,
जबकि ‘दाउद’ की बेटी की शादी में
सैकड़ों व्यंजनों पर लपलपाती जीभ
अपने ही होठांे पर
दांतों की आजमाइश से बचती, नुच जाती है

बड़े होने का दुख
छोटे-छोटे सुखों को छू नहीं पाता है
कम हो सके बड़ा पन
सचमुच बड़ा कर जाता है।


























                        क्योंकि-13

अचानक रेल के डिब्बे में
भारी भीड़ में तुम्हारा पहचाना सा चेहरा
यह तुम, यह वह,
स्मृतियां पर पड़ा पत्थर
हटाए नहीं हटता,

मांगीलाल हो या पन्ना, या भूरा या गोपी
चेहरे उनके जो साथ रहे
पहचान नहीं दे पाए
हंसते-गाते, बोलते-चलते,
कुछ मर गए
कुछ खप गए
रात-दिन की दौड़ में,
”सर!“ अनुगूंज में
पहचान उठती है
पहचान गिरती है
जिसे पहचानता है, जो पहचानता है
उससे वह छोटा है
जिसे पहचाना, वही बड़ा होता है,

पहचानकर, अजनबीपन
न जाना, न पहचाना, बुत को अपनाना
सचमुच सुखद होता है

जबकि बात उसकी है
उसके लिए आए हैं
सामने उसी का पोस्टर टंगाहै
उसी की कोशिश में यह ‘रत जगा’ है
पर हमने पहचाना तो
वह सर चढ़ेगा
सर पर कदम रख, कदम ताल करेगा

चुप रहो,
चुप रहो,
उनको  ही पहचानने दो
हम इस पहचान के मात्र साक्षी है
साक्षी रहना, वक्त की जरूरत है।



























                          वह-14

सुबह शाम वह बीनती है प्लास्टिक की काम आई थैलियां
इसमें अचरज नहीं
वह सिगरेट की पन्नी की माफिक चमक रखती है
काले बोरे
मैले व गर्द में डूबे हुए हैं, ... कांधे पर रखे
टूटी प्लास्टिक की चप्पल पहने
नाले के बीच उतरी है
बोरे में रखती-जाती
गंदी, मटमैली, मुट्ठी में थैलियां

हाय!
उबकाई की हद तक उठती है हिचकी
डबलरोटी पर लिपटी
फिर चढ़ी आती है
नई थैली, प्लास्टिक की
... तब अचानक पड़ौस में -सूरज’ उग जाता है

पुराने को नया
नये को पुराना
इंसान जो कल गुजरा था
उसके जाने की प्रतीक्षा में, ... कितना खोया गया सब कुछ
पुरानी थैली सा
कीचड़ में रखा वही चेहरा था
बस आना
और जाना
बीच में कहां रहना,
मशीन पुराने को साफ कर नया बना देती है।


पर सरकार कहती है
थैली पर्यावरण विरोधी है
उसका बन्द होना, ...
आज की जरूरत है।

तब ये थैलियाँ
गली-गली-शहर-शहर
बेतरतीब पड़ी है
जिनका अपना खुद कुछ नहीं
जो भी कोई भर दे
चाहे नेता, या कोई बाबा
या‘मीडिया’ हो
सम्हाले फिरती हंै
चहकती हंै, फुदकती हंै, कभी-कभी चीखती हैं,

इनका क्या होगा
अब सुना है, कागज की होंगी
हवा-पानी स्पर्श से टूटकर-बिखरकर
सब सह लेंगी
जैसे पहले हुआ करती थीं।
















कभी-कभी-15
कभी-कभी चोरों के घर भी आ जाते हैं चोर
हमने थाना लुटता देखा
हमने थाना बिकता देखा
थाने के भीतर
थाने को सोते देखा,

कभी-कभी
पहनकर काला कोट चलता बगुला पोखर की ओर
धरा पांव पानी में नीचे
 दूर उछलते दादुर
मछली दौड़ उछाला करती
... दूर फिसलता वह चैखट पर,
... माया की छाया है
मरे कफ़न का सौदा होता
मरने के पहले ही जाकर
अपनी कब्र झांककर आता...

जब तक नोट दिखे नहीं उसको
पंडित लकड़ी जलने नहीं देता
पहले पैसा
पहले पैसा
बूढ़े तोतों को बुलवाकर
माया ब्रह्मज्ञान समझाती
यहां पत्थर की आंखें पुजतीं
हंसकर कहतीं
जिसकी झांकी सजती उसको रोज चढ़ावा आता

लुटा पिटा
गोबर का बेटा
रहा ढूंढ़ता प्रेमचन्द को
क्योंकि होरी का लाकर जन्मा उसका वंश चलाकर छोड़ा
तब से पीट रहे
सुधि जन, हट लकीर उसके परिजन की
‘हँसते-गाते अपनी चमड़ी को और अधिक मुटियाते जाते
पर वह थाने पर बैठा
नहीं कोई जमानत आई,
उसकी दफ़ा सोचता नाजिम
‘मुंशी धीरे से यह कहता
चोरों के घर ढूंढ़ रहा था, यह भूखा रोटी का कौर!


























                         सड़क पर-16
सड़के चैड़ी हो रही है
और गहरी और काली
कोलतार सजी, पिटती, कुटती और गहराती
पास की थड़ियां
न जाने कब की हट गईं।

पूछता पप्पू
नहीं गुब्बारे वला
नहीं साइकिल के पंचर ठीक करता, हरजू का बेटा
संतरी चैकस
सीढ़ी पर सीढ़ी, ठहरना मुश्किल
हवा कह रही थी।
बड़ी कार को रुकने ठहरने की जरूरत है
रास्ता तंग
इतना, छोटा और पतला
अब दिखा, चैड़ा, और खुला, ... अमरीका सा।

सुना तुमने!
यहां आदमी की जात ने
भूख को किनारे पर सजा
गंदगी ही रास्ते को सौंप दी
नहीं था किसी को पता
कभी यहां सड़क भी थी

सब तरफ आदमी, थड़ियां, ... ठेले ...
यही था शेष इस सड़क का।
ढूंढ़ती आंख उन सभी को
हंसी, ... ‘पद्मावती’ के सरोवर स्नान सी,
या वह पुलक
थिरकी भी कभी दो जून रोटी को,
नहीं था गीत,
संगीत जो इंसान की जुबान पर था कभी
इस चैड़ी सड़क पर।


‘माॅल’ आने को सुना है पास में
‘छोटे लोग, छोटी दुकान, ये तंग गलियां
जा सके कहीं दूर...
‘आज  का सोच यही है’
नेता कहता फिरता था’’,

देसी भाषा कसमसाई
देसी की आंख भर आई
अखबार के पन्ने हंसे, ... और खिलखिलाए
...उनके भीतर सजा , रंगीन नक्शा
घ्र-घर हंसा,चहका ,गुदगुदाया

सच! उनका देसीपन छुड़ा़
फिरंगी  रंग में रंगा
रेवड़ में बदलाव ,
आज-तक की यही थी ख़बर,
...
वे बतियाते रहे
इसी सड़क पर।











                          हस्तरेखा-17

कीचड़ में सने हाथ की रेखाएं
पढ़ नहीं पाता पंडित
नहर में पानी मुद्दत बाद जो आया है

दूर खड़ा अभियंता
हथेली खोले हुए बार-बार देखता
खुजलाहट हथेली की सुबह से
इस बार का बजट अब पूरा भी होना है

बादल महीने भर से गायब हैं
शुक्र है समय अच्छा है
गुरुजी ने कहा था-
शनी उतर गया है
दूर खेतों में, फटे हाल किसानों पर
चढ़ा ही नहीं
चिपक भी गया है

महाजन भी खुश
कल ही सुबह-सुबह पहली बार गया था
तृष्णा की रेत पर...
भारतमाता को याद कर
कदमताल कर आया था
उधारी बढ़ेगी
ब्याज सवा से दो पाई सैकड़ा बढ़ेगा
गिरवी जमीन, बर्तन-भांडे भी होंगे
तब वसूली तब होगी...
तब, भविष्य वह में सुरक्षित रह सकेगा

संस्कृति का गवाक्ष खाली
नहीं कोई आता इधर
रानी, परनानी, दादी अब वहां कहां
कभी बैठा था ललमुंहा बंदर वहां
उठकर जबसे गया है
नचता ‘बराह’ का वंशज
महाजनी मंत्र पर
चढ़ता-उतरता
महिमा मंडित
समाचार पत्रों में छपा है विज्ञापन
भागवत कथा का वही आयोजक।

चीलंे व्यस्त है
गि(ों को जाकर नौत आयी है तेरहवीं का भोज है
कागा उड़ते ही नहीं
बैठे हैं मुंडेरों पर कल से जमा
बहस ही बहस
राशि अकाल पर,
या बाढ़ पर खर्च हो होनी है
दिनभर में, ... कितनी कहां
लार रूकती नहीं
मरण पर्व आयोजित जो होना है।
उनकी हथेली पर
रेखाएं मिटसी गई है
कीचड़ में सनी, धूल में बंधी
सूरज की रोशनी में
किरण सी चमकती है

उसकी रेखाएं
पंडित हंस-हंसकर बांचता
ग्रह अब उतरने को है
खुजली रूकती नहीं
जिस्म खुलाने चली है
नस-नस में हवस सुरसा सी जगी है।

               
               समिति के सभागार में-18

सभी चिंतित थे
ज्ञानी, ध्यानी, चिंतक सुधी समीक्षक
कुकुरमुत्ते की तनी छतरी पर
जगत का बोझ थामे,
अगर जरा भी हिले आकाश नीचे आ जाए

संस्कृति, अपसंस्कृति, बड़ी-बड़ी नौकाएं
सूखती सरिता के सभी घाटों को तोड़ते
वो चले आए
दूर खड़े सौदागर
तेज रोशनी में दमकता सुर्खानी चेहरा
खुला वक्ष और ऊँची तिकोनी मंे कन्या

बेकारी भूख गरीबी, दूध-पानी, और सब
नहीं मिला अब तक
चाहत में जिसकी
हजार साल से दम तोड़ता
समिति दरवाजे पर, पगलाया ‘गोबर वह’
वो फिर नाचेगा,
खरीदेगी, वही कुछ जो उसे मिलता है
धनिया को बस मुस्कराना है,
होरी की  जरूरत नहीं
उसकी मुस्कराहट पर, उसका ही माल
गली कूचे बिकता है
हवा, पानी, धूप और उजाला
वह अपने पास रखता है

पानी कभी का यूंही उतर गया
जो था नया
‘पाउच’ में चला गया

चिंतक उदास
क्रीतदास
दूसरों को जुलूस में देख आंखे विस्फारित
वाह! वाह!
भीतर ही भीतर, सोच-सोच उदास
हाय! हम न जा पाए
वहां बटती भभूत थी
यश की प्रेय की
ले गया पड़ौसी जो कल तक यहीं था।

नहीं-नहीं
हमें लानी है क्रांति, आग यहां बुलानी है
हो जाए भस्म सब
जो भी कर्दम है,

पर चुप!
मैं और मेरा तन भी तो यहीं है, ... उसे है बचाना
चुप! चुप!
फायर बिग्रेड को तुरंत यहां लाना है
कुछ जले
कुछ बुझे
यहां बस ऐसा ही होना है
हमको समिति के इसी हाल में
इसी हाल में चिंतित चर्चा में सक्रिय होना है।





  सपने
वह बचपन में सपने देखता है,
सपने उसका
बचपन चुरा लेते हैं,
खबर न उसे है
न मां-बाप को होती है
वे सपनों को छीनकर बस्ता थमा देते हैं।
वाह!
वर्दी जो बचपन में चढ़ती है जिस्म पर
उतरती तभी है
जब चील काली पास आ,
उस पर झपटती है,
वह पूछता है, जगह-जगह
इन सपनों का क्या अर्थ, जो रात को ही नहीं,
दिन में तंग करते हैं
न घर पर आराम है
न दफ्तर में,

बाहर बैठा बाबा कहता है
जिन्दगी एक सपना है
रात का छोटा और दिन का जरा बड़ा होता है
पर उसका  ही सपना
इतना बुरा क्यों है
बाबा तो दस आसन सिखा
हवाई जहाज में उड़ता है

अखबार जब भी पढ़ता है
कल से आज गरीब होता है
गरीबी की रेखा, कहां से कहां तक
भूख का रोटी से, रोटी का कैलोरी से जो
रिश्ता बना है
वही भूखे पेट का हिसाब भी रखता है

बस का भाड़ा
स्कूल की फीस
अनाज, सब्जी, दूध
दवा की दुकान
सितारों की तरह पास आकर
जीभ दिखा देते हैं।

भूख का सपनो से रिश्ता कभी सम्भव है
सचमुच ही नहीं
सपने में ही सही मशाल कोई जल जाए
कर दे वह राख
लोकतंत्री चादर पर जमा जो कचरा है।

कामकर- कामकर
हर कोई कहता है
ेमुट्ठी में कमाया कागज
कुछ भी नहीं देता है।

सरकार कितनी रहमदिल
कहीं भी, कभी-भी
दारू की दुकान रोज नई खुल जाती है
बढ़ते हैं ग्राहक...
हाकिम की चाँदी और चमक जाती है।
बाहर पोस्टर में
लड़की साइकिल चलाती है
पर भीतर चुपचुप
अब सपने भी नहीं देख पाती है।

गाँव गाँव नन्दीग्राम
पुलसिया कहता है
कुछ भी करलो, यहाँ
 रुपया आकाश से टपकता है।


कोड़ा कोई एक नहीं
गाँव गाँव कोड़ा है
कोड़ा को ही गिरवी रखा
हँसिया और हथोड़ा है।

घन नहीं उठता अब
दोनो हाथ रम-राम
संसद में परसादी
चहुृ ओर काँव -काँव


मत देख सपने अब
नींद तोड़,आँख खोल
तूही मंत्र
तूही तंत्र
थोड़ी सी वरजिश कर
झुके अब कहीं नहीं
उठा फेंक कंधे से
अपनी ही जमीन यह अपना ही आकाश है
स्वप्न छोड़ आँख खोल।









                          
 20हम
अचानक ही वह पत्थर पेड़ पर आ गिरा था
ठहरे हुए पक्षी
जगे, फड़फड़ाए, उठे, उड़ गए,
कहां, ... यह पता किसको था!

याद रहा इतना
आकाश है, जगह देगा, लौटकर फिर
इसी पेड़ पर आना है
पर न जाने क्यों
कितने पत्थर रोज आ गिरते हैं।
सड़क पर फटेहाल लड़की को, न जाने कितने गि(
कांधे पर उठाए
रोज तीर से मिलते हैं।

कल तक भूख की
तेरी मेरी उसकी
बात वह करता था
नुक्कड नाटक में शहीद बन बिखरता था
कुरते और पजामे का रख नहीं पाता हिसाब था
अचानक कल मिला

करोड़ों की बात लिए
हंसता मुस्कराया
देश, धरती, जन अचानक सैकड़ों शब्द लिए
भारी से भारी
शब्द शोर में बदल
शोर, नोट में बदल
वह जेब भरता,
यही कहता फिरता था
लोकतंत्र का सच
राम का नाम है
यहाँ नाम की लूट है
लूट ही सच है
जिसने यह जाना है
सुख उसी को पाना है।

 हर कोई दूसरा..
हाथ में पत्थरलिए
सोचता सुबह शाम
वह क्यों न कर पाया सह सब
उसका भी कुरता उतना ही मैला और था काला...।

कहता शनीचर
राहू-केतू साथ तेरे साथ
जन्म से लगे हैं

यह धरती
लुटने को बनी है
 जो भी यहां आया, लूटता चला गया

भय चमड़ी से चिपटा
और क्या छिन पाता
सब छोड़, ले लंगोटी
तभी हिमालय पर गया है
कहता रहा वह
है नहीं अब पास कुछ
क्या कोई लेगा
पर लंगोटी में भी कोई आकर
यहां  भी लूट सकता
यही छिपा सच यहां सबसे बड़ा है।

गिरते हैं पत्थर अब
और धूमकेतु उल्का भी
उनसे भी तेज, और तेज
टी.वी. के चैनल
नहीं कोई ठहर पाता
कितनी चिकनी यह सतह है
नहीं जल
अब जरा भिगो पाता

भीतर रखा था वह
स्निग्ध कोमल
छंद तुम्हारा ही, तुमने जो पाया था
अचानक शीत पाकर
पछुआ हवा से
बर्फ सा हो गया है।

ताप कहां
कहां है तपन...
चर्चा ही व्यर्थ है
बाहर के देवता
पाषाण बन पुजे जो...
इतना आदर पा
अब भीतर ही जमे हैं...

भीतर का छंद
सजीला सुरभित, चुपचाप बाहर निकल
मंदिर में कबसे पूजित हुआ है
और हम,
हत भागी!
नहीं-नहीं प्रभु परसादी
पत्थरों के टोल से फिकते-फिकवाते
हाथ दूसरे के कबसे,  कसे से रखे हैं।






21

अब ‘कवि’ नहीं आते
उस जमाने की बात है, जब भाषा प्राध्यापक
अध्यापक और छात्र कवि हुआ करते थे

बसंत पंचमी पर
निराला और सरस्वती की जयंती मना करती थी
पीली सरसों हरकक्षा में फूलती फबती थी
कवि, क्षमा करें प्राध्यापक नहीं
पजामा-कुरते में सजे-धजे’ कविता सुनाते थे
खुद प्रशंसा करते थे, ... कर वाते थे...

पर अब बरसों से
न जाने क्या हुआ
कवि वह उदास,
 नहीं चहकता है
बेचता प्लाॅट है, शेयर खरीदता है
छात्र अब आता नहीं
कम्प्यूटर या शोध ‘कट-पेस्ट’ हो गया है
कविता से पूछा-
उसका आजकल रक्तचाप निम्न रहता है
क्रु( कवि, क्रांतिकवि
शोर से उकताए कवि
कारखाने धीरे-धीरे बंद क्या हुए
कम्प्यूटर कक्ष के ए.सी. में खोए
ठंडी जहां होती है
वहां गरमाहट सोती है
फिर तुम्हीं बताओ कविता गर्म कहां होती है?

दवा पूछी
सड़क छाप वैध राज बोले
कविता को अब
नुक्कड़ पर आना है
गली-गली जाना है
भाषा जबसे गहनों से हटी है
कम से कम वस्त्रों में
फैशन परेड में ‘बंटी-बबली’ संग आई है
गुलम्मा क्या उतरा है
नए नए प्रयोगों से देहाती वह
घबड़ा सी गई है
पाठक तो दूर गए
कवि भी अब उकता से गए हैं।

शब्द बासी है
नए-नए गढ़ेंगे
उपमान, बिम्ब, प्रतीक अब आयातित होने हैं
तब वस्त्र लुभा पाएं
आलोचक-व्यापारी
सौदागर पूरे हैं
हिज्जों में बांट-बांट
मंत्र मुग्ध बैठे हैं

उसकी पहचान हो
नए-नए प्रतिमान फिर गढ़ने हैं
एक भी कपड़ा
सलीके से रहा नहीं
पहना नहीं, फाड़कर तुरंत कंैची कुतरते हैं,

कवियों को आना है
अपनी ही भाषा में
अपनी ही भाषा को
अपनी अंगीठी में, अपनी हवा से, सुर्ख
और सुर्ख करना है
शब्द तक पिघलें
अर्थ को गहेंगे
कविता तब गलियों की खबर ले
सड़क के गड्डो में
अर्धनग्न बच्चों की शाला से लौटते दौड़ती रेल में
छूते, टकराते, यूंही निकलता है
कविता का तब रक्तचाप बढ़ता है।




























22
उनसे कह मत देना नींद क्या होती है
जब से सोए हैं, जागे ही नहीं,
जब से गए थे बिस्तर पर
वहीं पर है,
वे चलते हैं, आते हैं, घूमते हैं
बात भी करते हैं
अभी-अभी आए थे
किताब नई लिखी,
बहुत बड़े विद्वान की भूमिका छपी है
हजार साल पुरानी पुड़िया में रखी भस्म
को शहद से चटाने पर
गौमूत्र के साथ लेने पर, युवावस्था बनी रहती है...

गोबर से यान उड़ता था
चर्चा भारी थी,
बार-बार कहते थे
यह मुल्क सोता है
सदियों से, नींद खुलती नहीं
इन्हें जगना होगा
क्या अमरीका ने ही की है अंतरिक्ष यात्रा
हमारे यहां कितना लिखा
पढ़ता कोई नहीं
सौरमंडल की यात्रा चर्चा जगह-जगह लिखी है

उनकी नींद बहुत गहरी है
टूट नहीं सकती
न तोड़ना उसको
कुंभकरण जब तक सोता है
बेहतर है
उठने पर लंका-कांड होता है।


23
कविता का सच क्या है
कल्पना के ताने-बाने
चैकड़ी जो बनी है-
इस करधे पर
भूख, गरीबी से लड़ते कवि ने
जो हर चाय की चुस्की पर
नई दुनिया के नए सोच की तस्वीर बनाता है,

गली में
पेशाब की बदबू से बचते-निकलते
ऊपर कहीं से भी
गंदगी के ढेर का अचानक पुष्पवर्षा सा गिरना
सूअर जो कहीं था आमंत्रित
दौड़ता-भगता,
टकराहट मिमियाते श्वान से
पास की दुकान से गूंजता संगीत
कविता का रस
ढूँढ़ता कवि
सोचता,
यथार्थ जो मिला ‘मकबर’ेे की गली में
महफिल में आ जाए
साबुन के झाग से निकला, फिसलता
हाथ में टिकली साबुन सा वक़्त
मां की, बाप की, रिश्ते में सभी की
ख्वाहिश पहचानता
बिजली के तारों पर बैठी ‘काग शृंखला
यहां, वहां आसपास
कविता में तलाशता
तमीज सीधे खड़े होने की
न बिकने की व्यथा
लिखा बहुत कुछ
छपा कहीं नहीं
सुनकर नहीं कोई
शब्द भीतर खंजर सा चीरता।

काँख में दबी
आई पत्रिका झांकता
टुकुर-टुकुर
रेत उठाती, अर्धनग्न, आदिवासी कन्या की
भूख, ... पेड़ की छाया भी रोती, चीखती
भयातुर, ... आंख की कोर में अचानक कंकड़ सा गिरता

जीवित यथार्थ
शब्द क्या बांध पाए
सोचना भी पाप है
माया है माया है
‘गोपाली’ बाबू की कथा में नहीं है यह
नहीं ‘कागा राम’ मटक-मटक गाता है
काटता है भीतर से
रिसता है दुख, ... रात को टपकते नल से बूंद-बंूद सा
न करने का, बस
अपनी ही आंख में रोज और नीचे
और नीचे, उतरने का देता है दर्द,
वह जब भी देख पाती है
तेज, ... तपती रेत में
अचानक खिड़की से
रोते, झींकते, चिल्लाते, पगलाते
छोटे-छोटे पाँवों
से आता-ठहरता, जाता, ढूंढ़ता रहता कुछ
कविता का यथार्थ,वह।






23

जिनका कोई घर नहीं होता
बिस्तर जमीं
आकाश ही लिहाफ होता.

रात अचानक तेज रोशनी में
सड़क किनारे
कहीं डामर के ढोल
या लकड़ी के ढेर
या खड़ी कोई पुरानी सी गाड़ी
या ठेले या रिक्शा
और पास सोते गहरी नींद लेते
मनुज पुत्र
पुत्रियां और नाती
नवासे और और बहुत सब ...

न देख पाती आंखों का सपना
काश करम अपने ही हो जाएं
अचानक फूट पड़े, ज्वालामुखी कहीं से
भस्म हो शहर
गांव, चैराहा
ये सिपाही
नियान- बत्तियां
नकली फूलों से लदे रंग-बिरंगे पेड़
शाला पाठशाला
और कदम ले जाएं
सड़क से दूर अंधेरी लकीर से बिछी
चींटी की कतार
एक नहीं, दो नहीं
गिनती भी कहां रही
और पास में कोई पूछे
यह नया कौन आया है
तब अचानक परिचय
अपना न दे पाए
कोई जो जाकर, वहां चुपचाप लेटा है।

करम यह किसका है
उसका यह मेरा
अशिक्षा, अज्ञान का
लाचारी बेबसी का
वह ईंटें उठाता, बजरी उठाता, दीवारें चिनता
न सिर छिपाने को छप्पर
न बतियाने की ‘थान’
धरती पर खुद
डामर बन, डामर सा बिछता
रात को अचानक
कभी कोई कार आकर कुचल जाए

सिपाही यही कहता
गलती उसी की जो सड़क पर सोया है
सड़क उसी की
कार जिसकी है
बड़ी कार का होना
तरक्की है देश की
सड़क पर सोना
पशुओं की बेइज्जती

यह जगह ही उनकी है,
इन्सान को चाहिए उनसे भी कुछ सीखे
किसी ‘हीरो’ की कार के नीचे आकर
चुपचाप मरना सीखे।



                24 जूता

जूता हाथ में लेकर, वह आता है
वह खुद जो जूता है
‘सोहना’ में उसका घर जलता है।
वह जूता होकर
जुतियाता है,

उसकी कीमत कुछ हजार रुपये
जो नुकसान हुआ है,
तिल-तिल मरती आत्मा की कीमत, जो जल नहीं सकती,
मर नहीं सकती,
न हवा सुखा सकती है
न जल भिगो सकता
बस वह नासूर सी
काले-कुत्ते की चमड़ी से सजी
धुॅंवे सी बस सुलगती है

भीड़ समझाती है
भीड़ बुलवाती है
जो ताकतवर है
उसका पांव कितना बड़ा होता है
पंजे का नाखून खंजर सा
उसका बूट
हिन्दूस्तान रोंदता
वह ‘साहब’ का बूट
बूट-जूते, चप्पल को पीछे छोड़ता।

पैर, ... और जूता, चप्पल और बूट
फीते वाला
नीचे कील हो, ठुकी हुयी
कंपनी के साहब का जूता
चमकता है, रोटी पर रखी चिकनाई सा
बात दूसरी है
साहब को चिकनाई मना है
दिल की धमनी का इलाज जो होना है..

साहब दिल की बीमारी से मरता है
वहाँ पत्थर जमा है
जो जूता है
वह बस फटता है
जबसे आया, नायलोन, फाइबर, और प्लास्टिक
जूता बस बदल जाताहै
हर चुनाव के बाद
नया होकर चमकता है,

गलियां किससे अब क्या कहें
हर नाली भरी पड़ी है, प्लास्टिक चप्पल से
कसूर हरी घास का
बिना बूट रह नहीं पाती
उसकी किस्मत में पंडित ने कहा है
जितना दबती है
नुचती है
उतनी मुलायम कही जाती है।












25
पुराने हंसिए, हथोड़े से न तो फसल कट पाती है
न कील ठुक पाती है

सूरज को तो उगना है, कब!
समय जो पंचांग में कहा है
क्या कभी गलत हुआ है
पर रात का अंधेरा भयावह कितना है
वे दोनों पास-पास बैठे
एक दूसरे की गर्दन चापने का खंजर चुपचाप घिसते रहे
अंधेरे को भय था
न दिखाई कुछ पड़ता था
खुद का गला नहीं घिस पाए, खुद के ही खंजर से।

सुबह की प्रतीक्षा थी
तभी धर्म दिखाई पड़ता है
... नहीं तो वह भी, ... सती चबूतरे सोता है।

सिपाही, ऊंघता, बड़बड़ाता
दुकान का खर्च, साहब की चैथ, खर्चा बड़बड़ाता
अंधेरे में लिखा जाना संभव नहीं था
वह दोनों की जेब
बार-बार तलाश चुका था
मुल्क अंधेरे में फसरा
स्वयं से बतियाता
कभी गोधरा, कभी अयोध्या
स्वर्ण मंदिर, अक्षर धाम
नहीं-नहीं, संसद
होठों पर गिरती लार
दांतों से भींच-भींच
जीभ के हवाले रख
बीच-बीच सो जाता।

होना है सुबह को
सबको पता है
बस इसी प्रतीक्षा में
काली रात को
और बड़ी और बड़ी
गहराता अंधेरा
पश्चिम से उगेगा वह
सोच-सोच आल्हादित,
पर सोच कहां पाता यह

धार जो लगनी है
महंगा नहीं है यह
बस, एक बार जाना, गली पर सड़क पर
दूर चोंधियाते घर पर
नहीं जो आसकता, नहीं जो कह पाता
उसकी आवाज सुन
कुछ तो कर सकता ,
सच तो यही है
कितना भी पुराना जंग खाया औजार हो।
धार लगते ही, स्वभाव लौट आता है।













26
‘रेखा सी सरल जिन्दगी
नहीं चाहता अब कोई ‘भुवन’ ... न स्वयं कवि लेखक भी
जब इधर सड़कों पर लहू बहता था
न जाने किसका, उसका तो नहीं जो बस
स्त्री देह में ढूंढता था
सुख व सत्य जीवन का..
क्या सचमुच ‘बु(’ तुम्हारी करुणा का उद्रेग इतना ही था
तुम्हारी शरण में ही था सब कुछ
न करने, न कर पाने की व्यथा का हर हल।

जो कुछ करने को तत्पर है
दिन-रात का भेद छोड़कर जाती है नए रास्तों पर पहली बार
उनींदी आंख में देखते सपनों के बीच मां-बाप को
बेरोजगार भाई को
या कम कमाऊ पंति की आंख में जागे सुविधा स्पर्श को
जाती है वह,
सौंपती है सपने
इस तरह के सौदे,... कामकाजी बातें
रहना है ... उसे
मिश्री सी चाशनी सी जीभ पर लिपटे शब्दों की जमाबंदियां
रोज-रोज
बनती-बिगड़ती, खसरों की टीप
न कर पाती, ... जो
फैशन में व्यस्त, ... या कहीं कुछ और...
उसकी चर्चा में, व्यस्त सब अराजक, आज,
‘उसे’, रात भर जगना है
जगते-जगते बस काम करते
‘‘राजा राममोहन राय’’ की दुनिया को बहुत पीछे करते
अपने पांवों से देश दुनिया नापती
सचमुच ‘बड़ी’ है वह।

रोज-रोज दुख से भगते
जंगल में, घर में, फंदे की तलाश में
ढूंढ़ते, युवक-युवती, ... घर के कर्जे से डूबे पुरुष
अचानक क्या हुआ
दुख का सरोवर
सुनामी लहर पा
तट से अंडमान, ‘निकोबार’ भिगो गया

लहरें ही लहरें
सुख की तलाश में, पंडित भरमाया
जन्मपत्री, शुक्र, शनी
सबको बुलवाया
झोला जो

1 टिप्पणियाँ:

Udan Tashtari ने कहा…

बुकमार्क कर लिया है. इत्मिनान से पढ़ेंगे...प्याज वाली पढ़ ली. बड़ी गहरी बात कही इस माध्यम से.

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