मैत्रेयी
शनिवार, 24 जुलाई 2010
मैत्रेयी
चप्पो चील ने आकर सूचना दी थी कि उसने नीलू के शरीर को नाले के पास जहाँं हरी घास का मैदान है, मरा देखा है। वह किसी आदमी की गोली का शिकार हुआ है। उसने आदमी को उसकी तलाश में घूमते देखा था।
सभी जानवर इस सूचना को पाकर हताश हो गए।
‘क्या किया जाय? यह आदमी तो हमारा जीवन ही हराम कर रहा है।“
‘क्या इससे लड़ाई शुरू कर दी जाए?“
‘अब हम अकेले तो हैं नहीं, हमारी सामूहिक शक्ति का क्या आदमी की ताकत से कम है?“
कालू चुप था। सब उसको ही घेरकर बैठ गए थे।
तभी गिलहरी ने सवाल किया, ”तुम तो ज्ञानी हो? क्या ईश्वर को यही पसंद है, यह ईश्वर है भी या नहीं, या यह भी आदमी की मनगढं़त खोज है? कहते हैं, भगवान राम ने मेरी देह पर अंगुलियां रखीं थीं, तब से मेरे शरीर पर ये धारियां बन गई है? मैं तो नहीं मानती, यह सब कहानियां हैं।’
कालू फिर भी चुप था।
क्या कहता, सामने नीलू का शव अब आने को ही था, जो जानवर हिंसा कर छोटे जानवर को शिकार कर उसका मांस खाते थे, वे ही उसके शरीर को लेेने गए थे, ऊपर आकाश में चिड़ियों की आती कतारें, बता रही थीं कि नीलू का शरीर अब आने ही वाला है।
नीलू के शरीर के आते ही अचानक कोहराम मच गया। उसकी माँं दहाड़ मारकर रो रही थी। उसकी आँखों के आंसू थम ही नहीं पा रहे थे। वही एक मात्र उसका सहारा था, जो उसकी देखभाल कर रहा था। इस आई हुई विपत्ति में संगी-साथी एक-एक कर विदा हो रहे थे।
तब कालू ने गर्दन ऊंँची की, गंभीर आवाज में बोला।
”यह दुख की घड़ी है, पर मैं आपको एक छोटी सी कहानी सुनाता हूंँ। यह कहानी मेरे ही साथ जुड़ी है, शायद आप सबके प्रश्नों का उत्तर उसमें आ जाए।’’
‘बात तब की है, जब मैं नया-नया, बाबा के पास आया था।
एक दिन बाबा को दूसरे नगर में अपने मित्र के पास जो एक सन्यासी थे, उनके पास जाना था, हम लोग पैदल ही चल पड़े थे। दो दिन के विश्राम तथा लगातार यात्रा के बाद जब हम उस नगर के समीप पहुंँचे तो पाया नगर पर तो किसी शत्रु विद्रोही का हमला होने वाला है।
नगर का द्वार बंद था, उसके परकोटों पर सेना आ चुकी थी। बाहर जो मार्ग था, वहाँं शत्रु सेना का पड़ाव था।
हमें शत्रु का जासूस समझकर पकड़ लिया गया था। मैं तो पशु था, मुझे क्या पकड़ना, पर मैं बाबा के साथ था, इसीलिए मुझे तो उनके ही साथ रहना था।
हमें पकड़कर, वहाँं एक तंबू के पास ले जाया गया। वहाँं एक बूढ़ने आदमी के साथ एक सुदर्शन युवक बैठा था। उसके पास बड़ी सी तलवार रखी थी, वह बाबा को देखकर चौंका, बोला, ‘आप जासूस तो नहीं हैं?’
‘नहीं, हम तो .बावई गांव से आ रहे हैं, यहांँ पर हमारे गुरु भाई स्वामी सोमगिरी आए हुए हैं, उनसे मिलना था, बस।’
‘तो आप भी साधु हैं।’
‘नहीं गृहस्थ हैं?“
‘पर आपके चेहरे से तो लगता है, आप योगी हैं!“
‘जैसा आप समझंे।’
‘तो बताइए, मुझे विजय मिलेगी?“
‘बाबा ने उसका चेहरा देखा, बोले, प्रयास करें, सब ठीक है।’
‘वह जो बूढ़ा वहां बैठा था, खिलखिलाकर हंसा, क्या ठीक है?“
”बाबा!, उनसे लड़ना कठिन है, राजा की सेना बहुत बड़ी है, राजा भी ताकतवर है, उससे लड़कर जीतना कठिन है।’
बाबा हंसे, बोले ‘प्रयास करें।
‘तब रुकिए, मैं भी आपके साथ चलता हूं।’
‘कहाँं?
‘उसी बगीची में जहाँं आपके गुरु भाई रुके हैं, आपके साथ मुझे कोई नहीं रोक पाएगा।’
हम धर्म संकट में थे, मैंने बाबा की तरफ देखा, वे शांत थे। उनके चेहरे पर मुस्कराहट थी। वह युवक अपने दो-तीन साथियों के साथ हमारे साथ हो गया था।
हम राज्य के दरवाजे पर आए, तब द्वारपाल सेे जब बाबा ने स्वामी सोमगिरी का नाम लिया, तो उन्हें वहीं से बगीची की ओर जाने को कह दिया गया, परकोटे का द्वार खुल गया था।
वह युवक भी अपने साथियों के साथ हमारे साथ आ गया था।
हम जब बगीची में पहुंचे, तब वहांँ पता लगा, वहांँ के राजा भी उधर आने वाले हैं, वह युवक अपने साथियों के साथ जाकर भक्तों में बैठ गया।
मैं तो कुत्ता था, मुझे कहाँं जगह मिलती, मैं दूर जाकर पेड़ के नीचे बैठ गया था।
तब तक राजा भी अपने सिपाहियों के साथ उधर निकल आया था। वह सीधा जहाँं बाबा बैठे थे, उधर ही गया। स्वामी सोमगिरी को प्रणाम कर वह वहांँ बैठ गया।
राजा का चेहरा उदास था, पर उसके चेहरे पर दुश्मन के होने वाले हमले से कोई भय वहांँ नहीं था।
‘बाबा, क्या सोचा आपने,“ राजा बोला, “मुझे मृत्यु से भय नहीं, मेरे जीवन की एक ही इच्छा है, मैं अपने पुत्र का मुख देखकर प्राण त्यागँूं।“
”आप ही बीस वर्ष पूर्व यहाँं पधारे थे। आपने कहा था, ‘एक दिन अवश्य पुत्र का चेहरा आप देखेंगे, मैं वर्षों से उसकी खोज में भटकता रहा हूं। वह दस्यु उसे पता नहीं कहा ले गया, मैंने कहांँ नहीं ढूंँढ़ा, उसकी मांँ, आपकी ही आज्ञा से अब तक जीवित है।’
‘राजन, सब होनहार है,“ स्वामी जी बोले।
‘हां।’
‘सुबह तुम मंदिर जाते हो?’
‘हाँं,’
‘माँं से क्या मांगते हो, बस पुत्र...?’
राजा अवाक थे।
‘वह जो जननी है, पांच भूतों से यह शरीर बना है। पृथ्वी माँं है, आकाश पिता है, तीनों तत्व मिलकर, मन-प्राण की पूर्ति करते हैं। पर मांँ, जो है, वह पंचभूतों में है, उससे अलग भी है, तुम वर्षों से उसके पास जा रहे हो, एक बार उस को ही तो मांँगा होता। मनुष्य वही माँंगता है, जो वह है, जो उसके पास है। मात्र जो शरीर के लिए है, जो शरीर की आवश्यकता की पूर्ति करता है।’’
राजा देवी भक्त था, वह सुबह-सुबह मंदिर अवश्य जाता था। पर स्वामीजी जो कह रहे थे, वह उसके रोज-रोज के जाने से अलग था।
‘‘कल सुबह भोर की पहली किरण के साथ जाओ, वहांँ कोई संगी साथ न हो, अकेले, जैसे माँं के पेट में बच्चा रहता है, कोई बाहर का सहारा नहीं, माँं ही उसे आश्रय देती है। वही गर्भ में रक्षा करती है। तभी मंदिर में जहाँं प्राण-प्रतिष्ठा होती है। उसे गर्भ स्थान कहा जाता है। वहांँ पाषाण शिला नहीं होती। ‘चैतन्य’ का आगमन होता है। जाओ, कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं, बस तुम हो, और मांँ हो, जाओ, सब भूल जाओ, बस मांँ को पुकारो, जाओ।’’
मैंने बाबा की तरफ देखा, वे शांत थे, तथा मुस्करा रहे थे।
रात को ही बाबा के पास जब मैं उसके पाँंव छूने गया, तब वे धीरे से बोले, ‘तुम भी इसके साथ रहना।’
मैं चौंक गया।
मुझे याद आया, मैं भी पहले घंटों देवी की पूजा किया करता था। ‘दुर्गा सप्तशती’ मेरी जिह्ना पर थी। पर मैंने कभी ‘‘माँं’’ का दर्शन नहीं पाया था। क्या वास्तव में कोई शक्ति भी होती है या नहीं? मेरा अपना अनुभव नहीं था। मैं था शास्त्री, दुनिया भर की कहानियाँं, दृष्टांत मुझे याद थे। दुनिया तो पागल है जो पढ़ा-लिखा है, उसके पास मधुर कंठ है, वह आसानी से दूसरों को भी बेवकूफ बना सकता है। मुझे याद आया, जब मैं एक बार किसी कस्बे में भागवत-कथा करने गया था, तब मेरा रथ एक जुलूस में निकला था। उस शोभायात्रा में हर घर पर महाजनों ने पुष्पों से भरे टोकरे भिजवाए थे कि जब मेरा रथ उसके घर के सामने से निकले, वे पुष्प वर्षा करें। मैं बहुत खुश हुआ था, पर मेरी जिह्ना पर ही भागवत थी, भीतर तो मुद्रा संग्रह जमा होता गया था। तो क्या बाबा सब जानते हैं?‘मैं कौन हूंँ, मात्र एक श्वान या इससे कुछ अधिक, बाबा ने मुझ पर यह कृपा क्यों की है? क्या मैं उनका शिष्य हूं, बाबा कहा करते थे। जो गुरु-चेले बनाते हैं, वो गुरु नहीं होते। गुरु तो वह है जो चुपचाप कब शिष्य के भीतर उतर जाता है। उतनी सरलता से उसके चित्त की सीढ़ियां उतरता है कि उसे उसके आने की आहट भी नहीं मिलती। मैं मनुष्य होता तो कुछ कह पाता। पर मैं तो श्वान था।’
रातभर मैं सो नहीं पाया था।
अर्ध रात्रि को ही नींद खुली, पाया, बाबा मेरे ही पास खड़े हैं। उन्होंने मेरे माथे पर हाथ फिराया, वह प्रेम मेरे भीतर तक उतर गया। मैं चुपचाप उठा। और मंदिर की तरफ चल दिया।
मंदिर के चारों तरफ सैनिक थे, पर दूरी पर थे। मैं अंधेरे में पेड़ों के पास से निकलता हुआ, मंदिर की डोली तक गया, वहांँ से कूदकर सीधा अंदर चला गया। वहाँं कोई नहीं था। मैं दूर कोने में जहां प्रकाश कम था जाकर बैठ गया।
तभी राजा वहांँ आए। उनके साथ कोई नहीं था। पुजारी भी बाहर जा चुका था। चारों ओर दीपकों का प्रकाश था। राजा ने अपने अंगवस्त्र उतार दिए। शस्त्र कोई वहाँं नहीं था। एक हल्के से अधोवस्त्र के साथ वह देवी की प्रतिमा के सामने बैठा था। शांत, उसके होटों पर न जाने कितनी प्रार्थनाएंँ निकल रही थीं। वह आर्त्त-धीमी श्वास के साथ, मांँ, माँं, माँं पुकार रहा था। लग रहा था मानो उसकी देह एक रुई कातने वाले धुनिए की तरह हो गई हो, शब्द व प्राण मानो एक गति में डूब गए हो। राजा अचानक शांत, होता, होता मूर्छित हो गया हो।
वहाँं देखा,
देवी प्रतिमा अदृश्य हो चुकी थी, एक तीव्र प्रकाश, स्व- प्रकाशित होकर पूरे गर्भ कक्ष में फैल गया था, चारों ओर प्रकाश था, मुझे याद है मैं जब शास्त्री था, हृदय में प्रकाश की कल्पना कर ध्यान लगाता था, लोगों को ध्यान सिखाता था। मेरी बड़ी पूजा होती थी। मैं ध्यान-गुरु था। पर जानता था, भीतर अंधकार है, गहन अंधकार।
... वहां सचमुच प्रकाश था। इन्हीं आंखों ने देखा था, स्वप्न नहीं था, मैं आंखे बंद करके भी देखता था, आंँखे खोलकर भी, अचानक एक तेजी ध्वनि सुनाई पड़ी। नाद.. ब्रह्मनाद। प्रकृति, आद्या शक्ति का स्वरूप, मात्र गति है। उसकी गति से ही हम पैदा होते है। नाश होते हैं। कुम्हार के चाक की तरह बर्तन बनते हैं, टूटते हैं। मिट्टी वही रहती है, जहांँ गति है, वहाँं प्रकाश है, जहांँ प्रकाश है, वहीं नाद है।
तभी अचानक लगा कोई कूदा है।
एक आहट भी हुई।
वही युवक सामने था, उसके हाथ में नंगी तलवार थी।
वह ”विजन“ जा चुका था।
राजा अभी भी मूर्छित अवस्था में था।
‘राजा, आंँखे खोल, तेरा काल तेरे सामने है?“तेज आवाज गूँज गई।
राजा ने चेहरा ऊपर उठाया, सामने वह युवक नंगी तलवार लिए सामने था।
‘मैं निद्रा में किसी का वध नहीं करता, वह बोला।सम्हाल सकता है, तो अपने को संभाल।“
‘क्या चाहिए तुझे, राज्य लेले, मेरा शरीर लेले,“ राजा ने कहा।
वह युवक ठिठका।
राजा की निगाह अचानक उसकी दोनों भुजाओं पर गई।
‘ला, मार मुझे बेटे, बाबा ने सही कहा था, प्राण जाने से पहले पुत्र का मुख देख लेगा, मार बेटे मार।“
‘बेटा!“ वह चौंका।
‘हाँं, यह ले, राजा ने अपने उत्तरीय को हटाया।“ उसकी दोनों भुजाओं पर वही निशान गुदे थे, जो उस युवक की भुजाओं पर थे। यह हमारी राज मुद्रा है। परंपरागत है। जब तेरी पहली वर्षगांठ थी, तब यह मुद्रा लगाई गई थी। पर दूसरी वर्षगांठ के समारोह पर वह दस्यु तुझे उठाकर ले गया। तब से ये आंँखे, तुझे देखने को पथरा गई हैं। आ, एक बार गले से लगजा, बस, यह ले, उसने उसकी तलवार की धार पर अपनी बांँयी हथेली को रखा तथा खून की धार से दायंे हाथ के अंगूठे से उसके माथे पर तिलक कर दिया। जा घर जा, यह तलवार फैंक दे, वह राजा की तलवार है, उठा, जा तेरी मांँ भी तेरी प्रतीक्षा में है।’
वह युवक अवाक था। संशय अभी भी उसके चेहरे पर था। तो जिस बूढ़े ने उसे पाला पोसा वह दस्यु है। वह उसे ही उसके पिता की हत्या के लिए तैयार कर अपना बदला ले रहा था, अचानक विचारणा का तेज प्रवाह उसके भीतर उठने लगा था।
‘‘क्या सोच रहा बेटा, बाबा ने कहा था- कभी अतीत में झांकने का तथा भविष्य को जानने का प्रयास मत करना, सब भूल जा।“
‘पर आप कहांँ जा रहे हैं?“
‘वहीं संत सोमगिरी के पास, जो मिला है, वह बहुमूल्य है, अब वही मेरा रास्ता है। मेरे जीवन का एक अध्याय तो आज पूरा हो चुका है।“
तब तक मैंने भी अपने पाँंवों को सीधा किया, उस आहट से दोनों चौंके।
मैं तेजी से बाहर दौड़ा।
‘यह कुत्ता, यहांँ ,“ एक साथ दोनों की आवाज मैंने सुनी थी। पर मैं पीछे नहीं मुड़ा। मैं बाबा के पास जाने को दौड़ रहा था...
बस एक ही बात मेरे भीतर तेजी से घूम रही थी कि क्या यहांँ हर चीज तयशुदा है पूर्व निर्धारित है, बस हमें एक मुसाफिर की तरह एक जगह से दूसरी जगह पर जाना होता है, हमारा रंग, रूप, शरीर सब गौण है, हम अपनी जिस योग्यता को लेकर पुलकित होते हैं, अपना ढिंढोरा पीटते हैं, उसकी कोई कीमत नहीं है। क्या यहांँ यात्रा ही महत्वपूर्ण है?
याद आया, अर्थी उठते समय मैंने सुना था, ‘सत्य ही गति है।’ गति ही परमात्मा की सूचना है। वही उसका शरीर है।
अचानक रास्ते में जाते हुए किसी यात्री से टकराया, उसने डंडा उठाकर मारा। दर्द तो हुआ, पर विचार शृंखला ने उधर देखने ही नहीं दिया।
क्या बाबा को पता था, आज वे मुझे वह दिखा देंगे, जो मेरेे भीतर संस्कार में पड़ा था।
क्या बाबा और संत सोमगिरी को इसका पूर्वाभास था?
मुझे मेरे सवाल का उत्तर मिल गया था। मनुष्य जिस सवाल का उत्तर धरती पर अपने आने के साथ तलाश कर रहा है, उसका हल उसे स्वयं ही ढूंढ़ना है। न तो कोई गुरु, न कोई ग्रन्थ, न कोई पंथ उसकी शंका का, संशय का समाधान कर सकता है। न वह दूसरे के उत्तर से संतुष्ट हो सकता है।
मुझे उत्तर मिल गया था, उत्तर यही था, कि मनुष्य को अपनी खोज निरंतर जारी रखनी है, यही उसके जीवन का उद्देश्य है।
‘फिर?’ अचानक गिलहरी ने पूछा।
‘फिर क्या, तुम कहोगे ईश्वर नहीं है, मैं कहूंगा, ‘है,’ विवाद का अंत नहीं है। मैं कहूंँ वह है, मैं नहीं कह सकता, मैं कहँूं वह नहीं है, यह भी मैं नहीं कह सकता। मैं अपनी बु(ि से अपनी भाषा में, ग्रन्थों के सहयोग से, उसके होने न होने के सत्य को स्थापित नहीं कर सकता।’
‘‘मेरा उत्तर यही है, यह मेरा अनुभव नहीं है, मैं नहीं जानता।’’
‘तुम कहना चाहो, वह नहीं है, यह मैं कैसे कह सकता हूं, मैं असत्य नहीं बोलता।सत्य और असत्य के बीच का निर्धारण कैसे हो? कहना कठिन है। संत सोमगिरी ने कहा था, बस मौन, वे कहते हैं, सवाल ही व्यर्थ है। इसका उत्तर तुम पता करो। यह पूछे जाना वाला सवाल ही नहीं है। यह तो तुम्हारी खोज है।’
‘पर जो तुमने अभी कहा है, वह सत्य है?“ गिलहरी ने टोका।
‘सच, जो भाषा में कहा गया है, वह उतना ही सच है, जितने शब्द हैं, पर जहाँं अनुभव है, ‘सच’ का प्रवेश नहीं होता है, पर वहांँ शब्दों को प्रवेश नहीं मिलता, वह शब्दों की सीमा से परे है, बहिन, यही दुःख है।“
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें