1 मेरी बात
गुरू:वाणी 2
अमरीका से आई केरोल नागले को अमरीका में डॉ. बसावड़ा ने बताया था कि अमरीका वाले भारत में जिन प्रबु( व्यक्तियों की तलाश में हैं, स्वामी जी उनमें से एक है। म्दसपहीजमक च्मतेवद यह उनका प्रयुक्त वाक्य था। वह कोटा में मेरे ही घर में ठहरी। उसका पहला सवाल था, क्या ये प्रबु( हैं? वे दक्षिण के साईं बाबा, केरल की अम्मा, आदि वर्तमान के प्रख्यात संतों से मिलकर यहाँ आई थी। स्वामी जी का नाम लोकप्रिय नहीं था, वे अपनी कुटिया से बाहर जाना बहुत पसन्द करते थे, बहुत ही कम लोगों का उनके पास आना-जाना था। बस पुरोहित रामप्रसाद जी कहा करते थे, मैंने अपने जीवन में ऐसे संत नहीं देखे, क्या है इनके पास में नहीं जानता, पर ऐसा कुछ है, मैं ही क्या मेरा पूरा परिवार खिंचा चला आता है। केरोल ने मुझसे कहा था, मैं क्या उत्तर देता। यही कहा पिछले पच्चीस साल से साथ हूूँ, पर तुम्हारा सवाल जो है, उसका उत्तर मैं नहीं दे सकता।
हम लोग कुटिया में थे। गुरुकुल में कार्यक्रम था। श्री कडवानीजी, ओझाजी आदि भी वहाँ थे। केरोल का पहला सवाल था, क्या आप जागृत पुरुष; मदसपहीजमक च्मतेवदद्ध हैं।
स्वामी जी बोले-”मैं नहीं जानता, आपको जो लगता है, आप माने।
उसका अगला सवाल था-” क्या आप मुझे भी जागृति;मदसपहीजमदमकद्ध करा सकते है?“
स्वामीजी चुप थे, फिर हंसे,” अभी तुम्हारा बच्चा नारायण छोटा है, पति ग्रेग है, नौकरी है, इतनी जिम्मेदारियाँ है, क्या वास्तव में चाहती हो? बहुत कुछ छोड़ना भी होगा।“
वह चुप रही।
वह स्वाजी से उनके जीवन के बारे में सवाल पूछती रही।
स्वामी जी हंस रहे थे, कह रहे थे, ”नदी तो बह रही है, पर किनारे को हो ही पकड़े रहोगी, तो भीतर कैसे प्रवेश करोगी? यहाँ सबकी हालत यही है। नाव भी पार उतारने के लिए ही होती है, पर नाव में बैठे रहे तो...?“
वह पूछ रही थी,”आपने कौन-सी साधना की है?“
स्वामी जी हँसे,”सब, तब पता नहीं था, जिसने जो बताया, सभी किया, फिर एक इंजीनियर साहब मिले, वे थियोसाफिस्ट थे, उन्होंने कुछ रास्ता बताया। तब नौ-दस साल की आयु थी। धीरे-धीरे बाहर का सब छूटता गया। पाया विधियां सब व्यर्थ हंै, मन ही कुंजी है, मन क्या है, किसी ने देखा नहीं है, इसके क्रिया कलाप को सब जानते है।
पर मन को इन्द्र्रियाँ बाहर ले जाती है, उन्हें विषय भोग चाहिए। पर यही मन जब नियंत्रित होता है, इसको बाहर जाने की जगह नहीं मिलती, तब यह अंतर्मुखी होने लगता है, वहीं द्वार है।तब यह मस्तिष्क से नीचे उतरता है, तब मन और मस्तिष्क का गठबंधन टूटता है। तब पता लगता है। मन अलग है, मस्तिष्क अलग है। मन एक कागज की तरह है, ऊपर की सतह बाह्य मन है।
नीचे की अंतर्मन, यह अंतर्मन अत्यंत शक्तिशाली है। जहाँ बाह्य मन है, वहाँ संसार है, वहाँ भटकाव है। सभी विकार वहाँ है।वही मृत्यु है, वही जन्म है। वही भव है, वहीं भटकाव है। पर बाह्य मन जब नीचे उतरता है ;यह भी सम झाने के लिए कहा गया है द्ध।
तब मन दोनो भोहांे के बीच जहाँ भृकुटी है, वहीं उसकी अनुभूति होती है। फिर यह नासिका तथा कंठ से हृदय तक आता है। तभी कहा जाता है हृदय में अंगुष्ठ बराबर उसका निवास है। मन अपने मूल निवास, नाभि तक चला जाता है, पर वहाँ टिक नहीं पाता है। उसे हृदय तक आकर ठहरना हो जाता है। यह ज्ञानी की अवस्था है। वह शांत है, वह सुखी है, वह संतोषी है, वह आत्मविश्वासी है, साथ ही वह प्रसन्न है। वहाँ उसे कोई संशय नहीं है। बु(ि विवेक में परिणित हो जाती है। तुम कहो कि वह जादूगरी से चीजंे हवा में बनाए, यह संभव नहीं है। प्राकृतिक नियमों के विरु(वह कुछ भी नहीं कर सकता है। कुछ घटता भी है तो उसके होने से संभव अपने आप हो जाता है। उसके पास जो ‘औरा है, वह सकारात्मक है। वह वह प्रकृति के हाथ का एक पुर्जा मात्र रह जाता है।‘दाइ विल बी डन’ उसकी कोई इच्छा नहीं रहती है, यह उसकी पहली मृत्यु कह सकते हो। क्योंकि मन वहाँ नहीं रहा है। जन्म और मृत्यु का कारण मन ही है। बंधन औरऔर मोक्ष भी मन का ही है। पर जब मन अंतर्मन में रिलीव होता है। तब कार्य भी होंगे। पर मन शांत है। एक दर्पण की तरह , लोग आए और गए। वह भीतर अविचलित रहता हैं
”तो क्या उसकी मृत्यु नहींे होती?
हाँ, देह जब तक है, उसका अपना स्वाभाविक नियम रहेगा।मृत्यु वह तो प्रकृति का नियम है। समुद्र के किनारे हवा के झौकों लकड़ियाँ आ जाती है। इक्कट्ठी हो जाती है। समय पर फिर हवा के थपेड़ों से अलग-अलग हो जाती है। यह मिलना, बिछुड़ना, प्रकृति का अपना नियम है। इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।
मृत्यु ज्ञानी की भी होती है, जो नहीं जानता है , उसकी भी। संसार की उपस्थिति वाह्यमन में है और संस्कार नाभि में रहता है। वहीं अंतर्मन है, जो निरन्तर विराट से होने वाले प्रवाह से जुड़ा रहने के कारण उत्प्रेरित रहता है संसार उसके धक्केां से, उन लहरों से के धक्कांेे से से स्पंदित होकर, यही मन मस्तिष्क को गति देता है। यही कारण है कि एक ही घटना की अलग-अलग लोगों पर अलग-अलग प्रतिक्रियाँ होती है।
फिर साधना क्या है?
कुछ नया नहीं है। शरीर के माध्यम से की गई कोई भी विधि वहा्रँ कारगर नहीं है।यह तो मन के द्वारा मन को ही नियंत्रित करने की कला है। हाँ, शरीर की बनावट व बुनावट सबकी अलग है। इसलिए इसके लिए कोई एक रास्ता नहीं है। इसीलिए मैं किसी को भी ध्यान नहीं सिखाता। ध्यान तो सिखाने की चीज नहीं है। यह तो अपने आप हो जाता है। मन जब वर्तमान में रहने लगता है तब मन का भटकाव कम हो जाता हे। वह जहाँ है, वहीं हैं, यही ध्यान है। ध्यान तो अपने आप पाया जाता है। यह जीवन और जगत से काटकर सिखाने की चीज नहीं है। मैंने ”अंनत यात्रा“, में इस बात पर स्पष्ट लिखा है उसे लोग पढ़ते ही नहीं है।
मैं बहुत पहले रमण महर्षि के आश्रम गया था।
वहाँ मौन सत्संग होता था। वे आते थे और शांत बैठे रहते थे। लोग आते थे और सामने कतार में पंक्तिब( बैठे रहते थे। उनके प्रश्नों के उत्तर अपने आप मिल जाते थे। वहाँ मैंने पाया था, नियांत्रित मन कितना शक्तिशाली होता है।
क्या यह अन्तर्मन ही आत्मा है?
आत्मा भी दिया हुआ शब्द है। यह कोई स्थाई इकाई नहीं है। आत्म कहो या अन्र्तमन, वह भी निरन्तर बदलने वाला है। यहाँ सब बदल रहा है। विराट से जुड़ा रहने के कारण यह अंतर्मन जहाँ शक्तिशाली है, वही यहाँ लहरों के निरन्तर स्पंदन है। लहर भी क्या स्थाई होती है? निरन्तर बनती -बिगड़ती है? संस्कार बीज है। यही कारण है, जब मन नियांत्रित होता है, तब यह सं स्कार रूपी बीज भुनने लग जाता है। इसकी अंकुरण क्षमता समाप्त होने लगती है। जब तक संस्कार है , मन का भटकाव रहेगा। मन का नियंत्रण तथा संस्कारो की शु(ि एक साथ होती है। एक सधता है, दूसरे अपने आप सधने लग जाता है। यही जीवन का उद्देश्य है।
साधना के नाम पर मेरा यही कहना है, यहाँ कुछ भी स्थार्ई नहीं है। सब बदल रहा है। मेरे विचार भी आपको अच्छे लगंे। स्वीकारे नहीं तो छोड़दें। हाँ, एक बात जरुर कर सकते है, जहाँ आप का शरीर है, वहाँ आपके प्राण सदा रहतेहै, पर मन वहाँ नहीं रहता। उसको वहाँ लाना ही साधना है। मन और प्राण की वास्तविक युति ही वास्तविक योग है। इसलिए यहाँ करने के लिए कुछ भी नहीं है। यह तो रहने की कला है। जहाँ आप हांे, जो भी कार्य कर रहे हो, काम
तो आज काी दुनिया में करना ही होगा। जीवन यापन भी करना हे, धन की जरुरत होती है। बस जहाँ हम हैं, वही मन रहे। उसका भटकाव कम से कम रहे। शुरु-शुरु में कठिनाई आती है। लोगों ने बहुत गलत समझा रखा है।यह तो बहुत जटिल मार्ग है। ये करो - वो करो, कर्मकांड की भूल -भुलैया है। मैंने रास्ते सभी देखे, प्रयोग किए, प्रकृति निरन्तर मार्गदर्शन करती रही । सबमें सरल और सीधा यही रास्ता है , निरंतर वत्र्तमान में रहो।
जो गया , वह गया, जो अभी नहीं आया पता नहीं, पर मन हमेशा भूत काल को ही वत्र्तमान में ही ढकेलता रहता है। बहुत पहले सबको एक सत्तूवाली कहानी सुनाई थी। वह हांडी लाकर तरह-तरह की कल्पनाएं करता है। अपनी शादी भी कर लेता हे। बच्चे होजाते हैं। बच्चे पर गुस्सा करता हैं। मन कल्पना में उड़ान भरता रहता हैं , अचानक वत्र्तमान में खुद की लात से ही सत्तू की हांडी टूट जाती है।
रास्ता इतना सरल और सीधा है। विश्वास ही नहीं होता। वर्तमान में रहना, वर्तमान में ही सम्भव है। गीता में कहा गया है ” क्ष्प्रिं भवति धर्मात्मा,“। यह धर्मात्मा वही है, जो वर्तमान में है। वहाँ न अतीत का दबाव है, न स्मृतियाँ है, न कोई विचारणा है, न कोई अवधारणा है, शांतमन ही शक्तिशाली होता है। जब वह किसी भी क्रिया के साथ लगता है, सफलता मिलती है, यही योग की स्थिति है। तो क्या हम इसे पाने में असमर्थ हैं? यह वर्तमान में रहने की क्षमता हमारी अपनी ही है,जिसे हमने खो दिया है।इसको पाना ही धर्म है, यही आध्यात्म है और यह अभी इसी जीवन में संभव है। जो निरन्तर वर्तमान में है, वही ध्यानी है, वही शांत सजगता है। उसी को तुम लोग जाग्रति;म्दसपहीजमकद्ध कहते हो। शरीर तो जैसा सबका है, उसका भी वैसा ही रहेगा। हाँ, शांत मन, प्रसéाता, संतोष, उसकी कुछ-कुछ पहचान बता सकते हैं। वैसे तुम लोगों ने नियम -कायदे बनाए होंगे वो तुम जानो।
2
गुरु पूर्णिमा का उत्सव पहले यहाँ नहीं होता था। शुरु-शुरु मंे बहुत कम लोग यहाँ आते थे। बाद में उनका मन हुआ साल में एक बार कार्यक्रम हो तो सब एक-दूसरे को जानते, मिलते, बस इतना ही लक्ष्य था।
कई बार तो मैं पूरे चातुर्मास कुटिया से नीचे ही नहीं उतरा। फिर लोगों का आग्रह था, स्वीकारना पड़ा। कारण यही रहा। मैं गुरु नहीं हूँ। न ही मेरी कोई इच्छा रहीं। हाँ, आप लोग मानते ह ै, यह आपका विश्वास है, मेरा तो इतना ही कहना है, जो यहाँ कहा गया है, उस पर विचार करंे, प्रयोग करे, अनुभव में लाएँ। अगर आपव को लाभ मिलता है तो आगे बढ़ें। मेरी तो कुटिया का दरवाजा सबके लिए सदा खुला रहता है। यहाँ पर किसी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं है, यह सबकी अपनी ही है।
यह सवाल सब पूछते है कि क्या गुरु की जरुरत नहीं है? अगर मैं कहता हूँ, हाँ, तो सब खुश हो जाते हैं। अगर नहीं, तो सबके चेहरे उतर जाते हैं। इन गुरुओं ने बहुत परेशान किया है। जब बच्चा छोटा होता है, तो उसकी माँ या कोई और उसे पहली बार स्लेट पर कुछ लिखना सिखाता है। बिना शिक्षक के सामान्य शिक्षा भी सम्भव नहीं है। प्रारम्भ में अभ्यास सिखाया जाता है। यह आवश्यक है। जब मैं छोटा था, तब इंजीनियर साहब मिले थे, उन्होंने मार्गदर्शन दिया और कहा, करना तुम्हें ही पड़ेगा। जब मैने कहा, सन्यासी बनना चाहता हूँ, तब वे बोले, भोजन और वस्त्र की आवश्यकताएं कम से कम होनी चाहिए।
बात कहने की है कि मार्ग दर्शन अपेक्षित है। अनन्त यात्रा में बताया गया है कि किस प्रकार रानी चूड़ाता कुंभ को बटुक बनाकर अपने साथ ले जाती है। ब्रह्मनिष्ठ गुरु और सामान्य गुरु में भेद है। आज तो हमें हजारों गुरु मिल जायेंगे। उनकी रुचि लोकेषणा और धन कमाने में है।
ब्रह्मनिष्ठ जिनकी ब्रह्म में निष्ठा हो, जो श्रात्रि़य भी हो, जो कुछ उसने जाना है, वह दूसरों को बता भी सके। पर पर आजकल शास्त्र कथन व बु(ि का पदर्शन अधिक है।
चोयल, औरमेहरा, कृष्णमूर्ति को मानते थे। कृष्णमूर्ति गुरु को नहीं मानते।मानने से न मानना अच्छा है।मैं उनसे यही कहता था।
वे कहते थे फिर आप क्या हैं?
”आपका मित्र, सहयात्री।“
डॉत्र बसावड़ा नेे चोयल को फोन किया था, कि मैं मिलना चाहता हूँ। तब मैं बम्बई गया हुआ था।
बम्बई में पदमा के यहाँ मिलना तय हुआ।
वे आए, दरवाजे पर खडे़ होकर बहुत देर तक टकटकी लगाए मुझे देखते रहे, वे बहुत बडे़ मनोवैज्ञानिक थे।
मैंने कहा, अन्दर तो आइए।
वे अन्दर आए, उन्होंने हाथ बढ़ाया।
मैं मुस्कराया, उनके लिए कुर्सी लगी थी, वे वहाँ बैठ गए।
जाने लगे, बोले, फिर दस-पन्०ह दिन में आऊंगा।
पर वो तो अगले ही दिन आ गए। कुर्सी लगी थी, पर वो नीचे बैठना चाह रहे थे। मैंने मना किया।
उस दिन बोले, जो आपने अर्जित किया है, मुझे दे दें। मैं यह मांगता हूं।
मैं हंसा, मैंने कहा, यहाँ तो नदी बह रही है, जिसका जितना पात्र हो, वह ले जाए।
कहने का मतलब है, कि कही भी हमें हम क्या हैं। क्या जानते है, प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। आज जो सब दुकान लगा कर बैठ गए है। इसीलिए कृष्णमूर्तिजी सही कहते हैं, गलत जगह पर जाने से कहीं नही जाना बेहतर है।
”पर आप?“
”मैं यही कहता हूँ बीच का रास्ता ठीक है। एक बार मागदर्शन अवश्य लेना चाहिए। पर गुरु को ही पकड़ कर बैठ गए। उससे कुछ नहीं होगा। इस देश में यही हुआ है। गुरुवाद ने सबको निकम्मा कर दिया है। पहले तो मानसिक गुलामी आई, फिर दैहिक गुलामी आ गई। सात सौ साल से अधिक यह देश गुलाम रहा है, क्यों? जहाँ गीता का उपदेश दिया गया, वहाँ गुलामी क्यांे? कभी पूछा है।
भगवान ने तो यही कहा था-”माम अनुस्मर यु( च...“ मेरा सतत स्मरण, और कर्म कर, पर हमने काहिली को ही धर्म मान लिया।
मैं इसीलिए गुरुपूजा नहीं कर वाता। मुझे कोई पांव में रोली लगाए, माला पहनाए, पसंद नहीं है। मैं भी आप की तरह साधारण इन्सान हूँ। ”आत्मवत सर्वभूतेषु, सर्वभूतेष हितैरेतः, यही सार तत्व है।
फिर दूसरे से पूजा करवाना, यह, कहाँ का नियम है?
पर सब जगह भेड़ चाल है, न तो कोई समझना चाहता है, न खुद प्रयोग करना चाहता है। लोग आते है, बड़ी-बड़ी किताबें लिख देते है।जितना पुराना छप चुका है, उससे हर बार नया तैयार हो जाता है। मैं पूछता हूँ, आपका इसमें क्या है, उत्तर नहीं मिलता है। सब ब्रह्म का पता बता रहे है। भ्रम ही अधिक फैला है।
मैंने पहले ही कहा है, साधक का जो जानना चाहता है,उसकी जिज्ञासा ही बड़ी चीज है। तब जिज्ञासा उसे उस व्यक्ति के पास स्वतः ले जाती है, जो जानता है।मुंडक उपनिषद में कहा गया है कि उसके शीष पर अग्नि जलती है,
बटुक छोटा बच्चा। जो अपनी माँ को ही समस्त ज्ञान का अधिकारी मानता है। उसका और उसकी माँ का जो सम्बन्ध है। देखा है, वह माँ कहकर उसके साथ चिपट जाता है। बाहर खेलता रहेगा, पर जहाँ माँ हटी ,वह तुरंत उसके साथ हो लेगा।यह गुरु और शिष्य का संबंध है। वे तब दो नहीं रह पाते है। जो जहाँ जाना गया है, वह वहाँ तुरन्त सम्प्रेषित होने लगता है।
पर यहाँ तो लोग शार्टकट चाहते है। गुरु हैं, तो तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो जायेंगे। भगवान राम ने कितने कष्ट उठाए। कृष्ण को जन्म से ही दुःख मिलेे। पर एक बात है, हम न देखते है, न समझते हैं। उस गुरु से संसार के सुख चाहते है। चाहते हैं संसार पार कर जाना, जाग्रत पुरुष होना। पर भीतर ही भीतर पूरी तरह संसार में डूबे रहते है।
मैं किसी को सन्यासी बनने को नहीं कहता। मैं गृहस्थों के ही घर ठहरता रहा हूँ, मेरी इस बारे में आलोचना भी हुई है। पर सच बात यह है कि आज शांति और शक्ति की उनको ही जरुरत है।
मुफ्त का भोजन पाना मुझको पसंद नहीं था। जब तक शरीर में शाक्ति रही, समाज की सेवा की। सन्यास लेने के बाद गुरुकुल चलाया। संस्था चलाई। जब शरीर से सेवा नहीं होती, तो मन से करता हूँ, न मेरे पास पैसा है, न बैंक में खाता है, न मकान है, न जमीन है, फिर भी प्रसéा हूँ। इस शरीर से समाज की सेवा हुई है। यही जीवन का उद्देश्य है। प्रकृति पर जो निर्भर है, वह उसके कामों का स्वयं संचालन करती है। मैं बहुत बार आपको बताया है, यह कोई शास्त्रों की चर्चा नहीं है, यह अनुभव है। लाभ, लोभ और भय से कोई काम नहीं होना चाहिए। यहाँ सेवा करो, मरने के बाद स्वर्ग मिलेगा, यह भी लोभ ही हैं।स्वभाव ही सेवा रहे। सर्व भूतेषु हितै रतः यह भावना रहे।
होना यही चाहिए, हम अधिक से अधिक वर्तमान में रहें।“
प्रश्न था - प्रारम्भ में कठिनाई आती है।यह समझने में नहीं आता है।
”हाँ, हम हमेशा बाहर ही दुनिया में ही उलझे रहते है, संसार जितना बाहर है, उससे अधिक हमारे भीतर भी है, वह ज्यादा है। हम निरंतर सोचते रहते हैं, रात को सोने का अभिनय करते है, वहाँ भी स्वप्न में विचारधारा शुरु हो जाती है। संसार नाना रुपों में उपस्थित हो जाता है। यह सब मन ही है। वर्तमान में रहने की कला है, जहाँ शरीर है, वहाँ मन रहे।
मैंने यह जाना, इसका प्रारम्भ, रात से शुरु हो सकता है। जब हम अपने रोजमर्रा के काम सारे समाप्त कर बिस्तर पर जाएँ तो तब बाहर के विचारों को आने से रोकंे तथा मन को देखें, वहाँ क्या विचार आ रहे है। यहाँ कोई संकल्प नहीं, कोई आदर्श नहीं, कैसे विचार आ रहे है, उन्हें बस देखें, यही पहला कदम है। होगा क्या, भीतर सजग होते ही, दूसरा विचार आते-आते रुक जायेगा। वही सजगता रहे, यही ध्यान है।
हो सकता है, नींद आ जाए। पर अगर सजगता रही, तो कुछ दिन बाद, एक विचार से दूसरे विचार के बीच का गेप दिखने लग जाता है। यही सार है। यह अंतराल ही बढ़ना चाहिए। यही ध्यान है। सुबह उठते समय भी यही किया करंे। जो विचार आ रहे है, उन्हें देखे। यहाँ सतर्कता पूर्वक किया गया, अवलोकन ही ध्यान बन जाता है। फिर जब दिन में कभी फुरसत मिले, हमें यह क्रिया करते रहने देना चाहिए। इससे वर्तमान में रहने में सहायता मिलतेी है। मन का भटकाव कम होने लगता है।
प्रश्न था-”पर यह संभव नहीं हो पाता है।“
”हाँ, प्रारम्भ में कठिनाई आती है, मन का स्वभाव है। वह नियंत्रण में नहीं आना चाहता। इसीलिए यहाँ बल नहीं लगाना है। क्रिया सहज हो, इसमें कोई कठिनाई भी नही है। फिर जो भी कार्य हो, क्रिया हो, वहीं मन को रखनेे का अभ्यास बने।“
प्रश्न था- ”फिर त्राटक, ध्यान, मंत्र जप, पूजा, का क्या प्रभाव रहेगा?“
”यह सभी मन को एकाग्र करने की विधियाँ हैं। समय-समय पर बताई गई हैं। मूर्तिपूजा का भी यही आधार बना था। पर मन जितना बाह्य में उलझता जाता है, उतना ही मन बाह्य से प्रेरित होकर दबाव बनाता चला जाता है। मंत्र भी एक बार गहराई में जाने के बाद छूटता नहीं है। ध्यान निर्विचारण को पाना है। किसी मूर्ति, चित्त पर एकाग्रता नहीं है। हम जिसके बारे में ज्यादा सोचते है, उसके गुलाम हो जाते है। क्या कारण रहा, इस्लाम में उनके महान गुरु का चित्र ही नहीं बनाया। चित्र मन ही बनाता है। गुरुजन का यही खेल है, हम गुरु के गुलाम बन कर रह जाते है।
एकाग्रता प्रारम्भ में सहायक है। बच्चों को सिखाते है, सूर्य की किरणें कागज को जला नहीं पाती है। पर जब आतशी शीशे से गुजरती हैं, तो कागज जल उठता है। एकाग्रता में शक्ति है। परन्तु बाद में यही एकाग्रता बाधक भी हो जाती है। निर्विचारता में रहने में यही बाधा बन जाती है।अंत में इसे भी दूर होना पड़ता है। पुरानी कहानी है।परमहंस जब भी ध्यान लगान लगाते थे, माँ काली के ध्यान में उनका मन डूब जाता था। गुरु उन्हें निर्विचारता का अभ्यास करा रहेथे। पर उनका चित्त काली में डूब जाता था। तब गुरु ने कांच निकाल कर , उनकी भृकुटि के बीच में चुभो दिया। खून निकल आया। काली की प्रतिमा चली गई, वे शांत मन से समाधि में चले गए। सार क्या है, एकाग्रता कहीं भी हो, वह भी अंत में एक बाधा बन जाती है। अनंत के सरोवर में डुबकी तभी लगती है, जब बाहर के सारे आधार खो जाते है, इसीलिए यहाँ जो अभ्यास है, वहाँ मन को प्रारम्भ से ही कही चिपटने की जरुरत नहीं रहती है।
साध्य तक पहुँचने की यह सरल विधि है।
बाह्य मन ही संसार है, वह तो रहेगा, पर जब मन अन्तर्मुखी होकर अन्तर्मन में लीन हो जाता है, तब भटकाव नहीं रहता। शांति रहती है। जो गीता के हमारे अध्याय में बताया है, प्रसाद की प्राप्ति होती है। यह प्रसाद मांगने से नहीं मिलता, न चोरी से मिलता है। यह सहज प्राप्ति है, जिसको पाकर चित को ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है।
वह संसार में ही रहेगा, उसके सभी कार्य यथावत होते रहेंगे। पर उसका व्यवहार संतुलित, स्थिति प्रज्ञ की तरह रहेगा। यह बाते पढ़ने-पढ़ाने की भी नहीं है। यह हमारा स्वभाव बनना चाहिए। ऐसा व्यक्ति सभी के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। पता करंे, अपने आप से पूछें, क्या आप यह नहीं चाहते है?
13
”सवाल क्यों पूछते हो?
क्या जिज्ञासा है, पूछते रहो, सवाल कभी खत्म होने वाला नहीं है। सवालों की जड़ तुम्हारे मन में है। हाँ जब इससे पार चले जाओगे। तब सवाल हमसे पत्तों की तरह अपने आप छूट जाते है। सवालों के उत्तर नहीं मिलते, पर सवाल उठने ही बंद हो जाते हंै।
कारण है, सवाल मन पूछता है। मन और मस्तिष्क का गठजोड़ ,आसानी से नहीं टूटता है। जब तक एक भी सवाल बचा है, यह गठजोड़ तो रहेगा। मैंने पहले भी कहा था, यहाँ सौ टका देना होता है। शत-प्रतिशत तभी यह गठजोड़ टूटता है। मन-मस्तिष्क से नीचे खिसक हुआ हृदय पर आता है। यहाँ समाधान है। जब उत्तर स्वयं अपने आप आने लगे, यह हृदय का खुलना है। यह बायलोजिकल हार्ट नहीं है।
यह अनुभूति है।
दर्शन शब्द बहुत अच्छा था। पर सार था। दृश्य व दृष्टा और दर्शन की जब त्रिपुटी समाप्त हो जाती है। बस एक दृष्टा ही शेष रह जाता है। तब दर्शन सहायक होता है। दर्शन मात्र जानने की विधि ही नहीं है।
मैंने पहले ही कहा था, मैं ध्यान नहीं सिखाता।
रमण महर्षि के यहाँ मूक सत्संग था। जाओ, चुप बैठ जाओ। चुप हो जाना ही साधन है। चुप होते ही सवाल गिर जाते है। उनसे सम्बन्ध जुड़ जाता है। वहाँ सवाल पूछने से क्या मिलेगा? तुम वहाँ इसीलिए जाते हो कि तुम्हें जो पता है, उसकी पुष्टि हो जाए। वही उत्तर नहीं मिलता तो तुम निराश हो जाते हो। दुबारा आते ही नहीं। ग्रन्थों ने बहुत उलझा रखा है। तथाकथित जो गुरु हैं, वे भी यही काम करते हैं।
जो वास्तविक गुरु है, वहाँ शब्द ही नहीं है। वहाँ मौन में ही समाधान हो जाता है। वास्तविक सम्बन्ध मौन में होता है। जो गुरु है, वह वहाँ स्वयं उपस्थित हो जाता है।
मन ही लोभी है। मन विचार है और विचार ही विकार है। यह सीधी सी समझने की बात है।
मन चाहता है, वह अधिक से अधिक संग्रह रखे। उसे अधिक से अधिक खूंटिया चाहिए। समझाने के लिए जो कहा गया, वह भी सीढ़ी बन जाती है। क्योंकि जहाँ खाली मन आया, वहाँ मन नहीं रहता है। मन तो गति है, उर्जा है, उसका नाश तो नहीं होगा। पर वह गति अंतर्मुखी होकर अंतर्मन में विलीन हो जाती है। पर मन यह नहीं चाहता।
आपने घर छोड़ दिया। सन्यास ले लिया। वहाँ आश्रम बन गया। वहाँ सामान आ गया। सम्पत्ति बन गई। खूब किताबंे लिख दी। खूब विचार इकट्ठेे कर लिए, यह क्या है? यही लोभ है। वस्तु लोभ नहीं है। पर उससे चिपकाव लोभ है। यह जाता नहीं है। यह मन का स्वभाव है। जितना भीतर खालीपन होता जाता है, उतना बाहर का संग्रह भी कम होने लगता हे। पर हम यह नहीं चाहते। बाहर की हर वस्तु, हर विचार की छाप हमारे भीतर इकट्ठी होती रहती है।
आपने मुझसे पूछा था, आप को याद होगा, ”मुझ में क्या परिवर्तन आया है?“ तब मैंने कहा था, अभी तो संग्रह बहुत जमा है, ठसा-ठस। संग्रह कम होता है, निरन्तर वर्तमान में रहने के अभ्यास से। पर यह बात समझने में नहीं आती। बाहर का दबाव निरन्तर हिलाता रहता है। कभी सोचने का समय नहीं मिलता। बस आए, कुछ सवाल पूछ लिए और प्रसन्न हो गए। यही तो अब तक किया है।
भीतर से खालीपन न हो, यह आदत हो गई है। पेट की भूख तो शांत हो जाती है। पर मन की भूख नहीं होती है। शास्त्र कहता है‘प्रजहाति यदा कामनि’ जहाँ सब कामनाओं का क्षरण हो जाता है। यह कामनाएं ही तो भीतर भरी रहती है। हम निरन्तर जो बाहर का संग्रह करते है, वह अधिक महत्वपूर्ण नहीं है। वह तो यहीं रह जाता है, पर भीतर जो संग्रह जमा करते जा रहे हैं, उस पर निगाह रहे। वह कम हो। कहा जाता है, बीज भुन गया। फिर उसकी अंकुरण क्षमता समाप्त हो जाती है। होना यही है। निरन्तर यही अभ्यास होना है, पर यही नहीं होता है।
आपको दो संतों की कहानी सुनाई थी। जो सब छोड़कर हिमालय में कुटिया बना कर रह रहे थे। अपनी लंगोटी सुखाने के लिए रस्सी ले आए थे।बांध दी। फिर रस्सी पर झगड़ा हो गया। दोनों का आधा-आधा हिस्सा था। मारपीट तक हो गई।
वस्तु में मोह नहीं है, लोभ वस्तु में नहीं है। लोभ मन में है, यही जानना महत्वपूर्ण है।
चन्द्रधर जी ने बहुत बड़ी किताब लिखी है। भंेट करने आए थे। अद्वैत वेदान्त व बु( दर्शन का तुलनात्मक अध्ययन है। मैंन देखा वे बहुत बड़े विद्वान हैं। आते है। मैंने उनकी ओर ध्यान से देखा। उनकी आंखों में झांका। वे सकपका गए। मैंने कुछ नहीं कहा। पूछा आपने क्या जाना? वे बोले, जानना क्या? किताबों का सार है।
सार है, जाना क्या जाता है। सूचनाएं ज्ञान नहीं होती है। यहाँ जो भी आता है, पूरा गलेमर भरा हुआ आता है। लगातार बोलता रहता है। जब उसके होठ बंद हो जाते है, तब उसकी ओर ध्यान जाता है। सम्बन्ध सुनने का भी टूट जाता है। वह समझता है, बहुत ज्ञान की बातें कर रहा है। आत्मा परमात्मा की चर्चा ज्ञान की बात है।” अरे! ये तो किताबी सूचना है, तुम्हारा अपना अनुभव क्या है? वह चुप हो जाता है।“
अधिकांश के सवाल किताबों के सवाल है। मैं कहता हूँ, प्रयोग करो, अनुभव में ले आओ, वह तुम्हारा अपना होगा। मेरी बात भी मन मानो। प्रकृति ने दो पत्तियाँ कभी एक सी नहीं बनाई। हमें किसी की भी नकल नहीं करनी चाहिए।
‘ज्ञान’ शब्द का अर्थ बाहर की दुनिया की जरुररत नहीं है। ये सूचनाएं निरन्तर बदलती रहती है। एक आदमी बाहर से बहुत विद्वान हो सकता है, पर भीतर से उतना ही रीता, किताबी जानकारी ज्ञान नहीं है। कबीरदास कहीं पढ़ने नहींगए। पर उनका कथन अविश्वसनीय नहीं है।
यह जो आज का व्यक्ति है, यह पहले की अपेक्षा अधिक जानकार है। इसके पास सूचनाओं का विशाल भंडार है,पर यह अपने आप में उतना ही दूर है। जब हम निरन्तर वर्तमान में रहने लगते है, तब क्या होता हे। भीतर का संग्रह या तो खतम हो जाता है या भुनेे बीज की तरह अपनी अंकुरण क्षमता खो देता है। तब जो खालीपन है, वह अनुभव में आता है, वहाँ वह निरन्तर अंतर्मन जो विराट से जुड़ा हुआ है, वह अचानक उसे भर देता है,उसे अपने अस्तित्व का बोध होता है। वह जान जाता है, वह अकेला नहीं है। यह अनुभूति ही ज्ञान है।
”पर यहाँ तक मन नहीं आने देता है?“
”क्योंकि वह स्वयं खोना नहीं चाहता। न हम में इतना साहस होता है, हम उसके पार छलांग लगालें। मन ही लोभ है, मन ही अहंकार है। इसकी कोई अलग मूर्ति थोड़ी होती है। यह विचार रुप है। तुम यहाँ आए हो, कितने वर्षो से मेरे साथ रहे। तुम किसके साथ रहे, मेरे विचारों के साथ या मेरे साथ। तुम हर बार उलझते रहे। मेरे विचार जो आज हैं, कल बदल जाएं। यहाँ सब परिवर्तनशील है, पर मैं जो हू., जिसे गीता में ‘माम’ कहा है। उसके साथ रहना ही सत्संग है।
पर तुम्हारा मन, बु(ि हमेशा तुम्हें भी बाहर ढकेलती रही। कभी विश्वास तो कभी अविश्वास। मैं यही कह सकता हूँ, जब जिम्मेदारियाँ खत्म हो जायेगी, तब तुम्हें भी वह प्राप्त होगा, जो तुम चाहते हो। पाना जैसी चीज कोई नहीं है, पर जो अस्तित्व है, उसका अहसासा होगा, यही जीवन का उद्देश्य हौ। यहाँ पाना और खाने जैसी चीज कोई नहीं है। जब तक विचारों से जुड़ो़गे, सवाल पूछते रहोगे, अपने आपको विशेष मानते रहोगेे, भटकाव ही होगा।जैसे सब हैं, वैसे ही हम हैं। सब मिट्टी के भांडे है, इससे अधिक नहीं। यही अहंकार है। धन के अहंकार से भी अधिक, इन झूठी सूचनाओं के संग्रह का अहंकार होता है। दो पात्रों में पानी भर दो, नली से जोड़ दो। दोनों पात्रों में जल की ऊंचाई बराबर हो जाती है। जहाँ गुरु है, वहाँ बस रहना है। कोई तर्क नहीं हो, वहाँ सहज चेतना का प्रवाह बन जाता है, पर अहंकार यही नही होने देता। बु(िमता का अधिक होना भी हानिकारक होता है। जब यह विचार भी गिर जाता है, तब भीतर से स्वतः अपने होने का अहसास होता है। पर यह विचार नहीं है। हमेशा भाषा में अपने आपको व्यक्त करने की कोशिश मत करना। अहंकार फिर आकर दबोच लेगा।‘मैं हूँ ही नहीं’, यह सोच ज्योति की तरह बना रहे। शास्त्र ने बहुत तरह से समझाने का प्रयास किया था। पर उनकी भी कमजोरी है। अनुभव, शब्द से परे है। वहाँ तुम्हें ही अपना रास्ता तलाश करना है। वहाँ किसी की जरुरत नहीं होगी। शास्त्र, गुरु सब बाहर ही रह जाते है। उस यात्रा में तुम्हें अकेला जाना है।गुरु बस उसके भीतर इस ‘मैं नहीं हूँ’ यह बोध एक चिन्गाारी की तरह छोड़कर अलग हो जाता है। इसीलिए मैंने कहा था, मैंने किसी को शिष्य नहीं बनाया। हाँ, जो तुम मानते हो, उसके लिए स्वतंत्र हो, पर मुझे ढोना नहीं। मैं भी एक साधारण-सा इन्सान हूँ। जो मैंने जाना है, कुछ भी छिपाया नहीं है।“
”आपके पांव में तकलीफ है, घाव है, आपको दर्द तो बहुत होगा?“
”हूँ , ;हंसते हैद्ध पर जब मैंने कहा आपकी तरह मैं भी हूँ, तो आपको अच्छा लगा होगा। दर्द तो होगा, होता है, पर मुझे अनुभव नहीं होता। मैं अपने आपको वहाँ से हटा लेता हूँ। डाक्टर आते है , चीरफाड़ करते है, पर मुझे पता नहीं लगता। मैं एनस्थीटिया नहीं लेता। बंबई में आंख का आपरेशन था, उनसे मना कर दिया था। पर वे नहीं माने इंजेक्शन लगा दिया। मुझे होश था। उसने सहायक से पूछा था, ‘ क्या इंजेक्शन नहीं दिया’। मैंने कहा, ”दिया था आप अपना काम करंे।“ शरीर का जो धर्म है, वह यथावत रहता है। पर विषय, इन्द्रियाँ और मन का सम्बन्ध टूट जाता है। इस अवस्था में जहाँ मन क्रियाशील नहीं है। वह रहेगा तो पर एक कौने में में पड़ा रहेगा। जरुरत होगी तो जुड़ेगा, यह बात समझ में आने वाली नहीं है। अनुभव करो। निरन्तर वर्तमान में रहने से यह सम्भव होता है। यहाँ किसी प्रकार की न तो धारणा रहती है, नहीं विचारणा। मन ही समय है। जहाँ वर्तमान है, वहाँ न भूत है, न भविष्य है। बस बूंद है, जो सागर से मिली नहीं है, वह जानती भी है, जा रही है, यही अनुभव रहता है।
”क्या यहाँ आकर भी पतन हो जाता है?“
“हाँ, शास्त्र में भी बहुत कहानियाँ है, इस जगह आकर भी संभलना रहता है। कांस्टेन्ट अवेयरनेस, जागरूकता
से। वह निरन्तर बनी रहे। रमण महर्षि के अंतिम दिनों में उनकी माँ वहाँ आकर रहने लग गईं थी। उनकी मृत्यु हुई। रमण ने उनके लिए समाधि बनवाई थी। वहाँ भी पूजा उनके ही सामने होने लग गई थी। ओशो भी पहुँच गये थे। फिर हीरे के मुकुट लगाने लग गए। सब चलता है, यह अंतिम अवस्था बस एक छलांग है, बहुत पास है, पर जरूरत यहाँ दुकान पूरी खाली करने की होती है। कुछ भी नहीं, मात्र अस्तित्व, वह भी मिट रहा है।
”बूंद जब समुद्र में मिल जायेगी, वहाँ क्या अनुभव होगा,“ ......
”कौन किसको बताएगा? पूछो मत, चुप रहो।
तुम्हें एकलव्य की कहानी सुनाई थी। कहानी सबने सुनी है, पर अर्थ समझाा नहीं है। जब गुरु के साथ एक लय बन जाती है, एक रसता, तब उसी की ही अनुगूंज सुनाई देती है। वही उसके भीतर प्रकट हो जाता है। पूरा अस्तित्व उसमें प्रकट हो जाता है। भीतर सब खाली कर देना। यही अभ्यास रहे। कुछ भी नहीं रहे। सुख-दुःख सब आएंगे। हिलना मत। डगमगाना मत। मुसीबतें आएंगी। छाती खोलकर सामना करना। हमें पोला नहीं होना है। प्रकृति पर भरोसा पूरा रहे। जितना भीतर खाली होता जाता है। न भूत न भविष्य, वहाँ बस वाह्यमन सिमटना चला जाएगा। फिर अंतर्मन ही सारे कार्य व्यवहार संभाल लेगा। वही विवेक है। वही गुरु है। सब जगह वही है, वही होगा, मौन में वही बोलेगा। कार्य-व्यवहार सभी सही होते वले जाएंगे।
मेरे जाने के बाद मेरी बाते समझ में आयेगी। अभी व्यवहार में बहुत से काम हैं, घर है, परिवार है, नौकरी है।सब जगह रहो, बाहर की बात बाहर रहे, भीतर नहीं ले जाना है। रात को बिस्तर पर जाएँ। पर बाहर का सब छूट जाए। वर्तमान में रहने से पहली यही बात मिलती है। जीवन और जगत सें कटकर या काटकर कही नहीं जाना है। दूसरे क्या करते हैं, हमंे इससे कोई मतलब नहीं। हमें जो काम मिला है, उसे पूरा करना है। मन अधिक से अधिक वहीं रहे। स्वाभाविक रुप से मन की गति कम होती है। उसकी शक्ति बढ़ जाती हैं। हमें रहने की कला आनी चाहिए। बाहर जो घट रहा है, वह हमारे संकल्पों से कम होने वाला नहीं है। अरबों मनुष्यों के संकल्प है। जो घट रहा है, जैसा घट रहा है, वहाँ रहना है। मैंने बहुत पहले कहा था, शराब, जुआा, यह कभी बंद नहीं होगा। यह प्रकृति चाहती है। हजारों सालों से इन्हें बंद करने का प्रयास हो रहा है। जितना समाज आगे बड़ रहा है, ये प्रवृत्तियाँ भी उतनी तेजी से आगे बढ़ी हैं। समझना कठिन है। जिसने हमको बनाया है , उसी ने उनको भी भेजा है। अनावश्यक इस पचड़े में मत पड़ना। यहाँ न कुछ अच्छा है, न बुरा। चीजों को जैसे घटना है, वह घटेगीं पर हमें प्रभावित नहीं होना है। कहने का मतलब है न अतीत में झांकना है, न भविष्य में कल्पना करना है। दोनों ही मन के खेल है। यहाँ कुछ भी न अच्छा है, न बुरा है। नैतिकता हमारे ऐच्छिक कर्मो से आती है। जो माँस खाते है, वे माँस को अपने भगवान को अर्पित करते हैं, शाकाहारी फल-दूध अर्पित करते है, ये सब उनकी परम्पराएं हैं।
हम इस विवाद में नहीं पड़ना है। जो जहाँ जैसा है, वहाँ वह है। हम कौन बदलने वाले होते है। हाँ, हमारा ही यह कत्र्तव्य हो तो उत्कृष्टता के साथ कत्र्तव्य निभाना चाहिए। भागवत में कहानी है , उस मांस बेचने वाले कोभी वही स्थिति प्राप्त होगई थी , जो उस संत को दुर्लभ थी। जो सवाल पूछने उस के पास गया था।
मैंने आपको बहुत पहले कंवरलाल की लड़की की शादी की घटना बताई। उसकी मदद के लिए धन जमा किया। प्रकृति ने मना किया। कुतिया काट लेगी पता लगा। उसने काट भी लिया। धन उस तक पहुँच भी गया। पर उसके काम नहीं आया। कोई ले गया। प्रकृति के खेल में हम सहयोगी तो बन सकते है, पर उसकी इच्छा के विरु( कार्य नहीं करना है, यह ध्यान रहे।
हम जब अंतर्मुखी बनेंगे,ें भीतर से अंतः प्रेरणा अपने आप बतायेगी, क्या करना है, क्या नहीं करना है। मैंने दीनदयाल जी को बताया था। मुझसे भी एक कार्य हो गया, जो नहीं होना था। मेरे मुँह से निकल गया, हो जाएगा। काम तो हो गया, पर प्रकृति के विरु( था, उसका परिणाम भी मिला। यह अटूट सि(ान्त है, याद रखना। शक्ति जरा सी आते ही बाहर का प्रलोभन बहुत जोर से आता है। मैंने भोग लिया, मेरा योग था। हाँ, अब दुकान खाली है। कुछ नहीं बचा है।
एक बात हमेशा याद रहे, जो अंतःप्रेरणा उठे, वह कार्य करते रहना है। पर कोई अपना चयन नहीं हो, अपनी निजी मान्यता नहीं हो। जहाँ कामना है, वही मन है। मन का जाला, मकड़ी के जाले से भी महीन है। इससे निकलना कठिन है। शास्त्र ने इसी का माया कहा है, ‘मन माया दुरत्या, यह मेरी माया है’ मेरी, भगवान कृष्ण की नहीं, तुम्हारी है। निरन्तर वर्तमान में रहने से ही इससे पार जाया जा सकता है। वर्तमान में क्या होगा, क्रिया होगी, पर विचारणा का दबाव नहीं होगा। लोग पूछते है, क्या मन नहीं होगा। अरे! मन तो भूत और भविष्य में रहता है। वहाँ जो है, बहुत शक्तिशाली है, पता करो, वहाँ सजगता तो होगी। पर वहाँ मन का दबाव नहीं हैं, वहाँ स्वतः ही कामना नहीं है। यह कोई निठल्ले की अवस्था नहीं है। आज भी इस नब्बे साल की उम्र में शरीर थक गया है, फिर भी में निरन्तर क्रियारत हूँ।
14
”मुझे याद है, आज सत्ताईस वर्ष पूर्व आपसे मिला था, तब लगता था, बहुत कुछ पाया है, बचपन से ही संस्कार थे। साधना जैसी भी मिली, करता गया। पर अब इतने वर्षो बाद लगता है, कुछ नहीं पाया है। मैं वैसा का वैसा ही रह गया हूँ। मात्र कुछ भावनाएं साथ रही, वे यहाँ आकर पूरी हो सकती है, यही उम्मीद बची रही। शुरु के वर्षो में जिज्ञासा थी, पर धीरे-धीरे लगा, मैं कही का नहीं रहा। आपने ‘अनंत यात्रा’ के पृष्ठ भेजे थे, मैंने छपा दिए। पर लगता है , उस उपन्यास के नायक ‘शिखिध्वज’, से भी गई गुजरी मेरी हालत रही, मैं न तो पूरी तरह अपने आप जुड़ पाया, न पूरी तरह संसार में ही पूरा उतरा। क्या कारण रहा?“
”जाना कहाँ था, मैंने तो कभी कोई आश्वासन नहीं दिया। जब में ही हिमालय से उतरकर बकानी के इस गांव में आ गया, तो जाना कहाँ है? हम आशाएं लेकर ही कहीं जाते है। वो कहते है, जब तक हम है, आप यहाँ है, चिन्ता न करे, ये सब पाखंड है। प्रकृति का अपना एक नियम है, उससे हम सब बंधे है। उम्मीद किससे? यहाँ तुम्हारी या किसी की आशाओं को पूरा क्यों करना है? जो यह वादा करते है, वे अपने आपसे झूठ बोलते है। मैं तो कुछ नहीं करता, जानता भी नहीं, बाहर क्या हो जाता है। कुटिया में गांव वाले आते है, बस नहाये-धोये बाहर चबूतरे पर सो गए। जाते समय मिलने आते है, कहते हैं, अच्छी नींद आई। उनकी तो कोई आशा नहीं है। न ही वे कुछ पाना चाहते हैं। जो पाने के लिए आता है, उसकी कभी कोई तृप्ति नहीं होती है। जो जानता है, वह कुछ करना नहीं चाहता। आप इतने वर्षों से यहाँ है? मैंने तो कोई सवाल आपसे नहीं पूछा। आपसे यही कहा है, सवाल नहीं, उत्तर देना सीखो। सवाल मन करता है, उत्तर हृदय देता है।
पर अभी जो कहा गया है, उस पर विश्वास नहीं हुआ। विश्वास तो अंधा होता है। जो माना गया है, वहाँ विश्वास तो पूरा करो। कमी यही रही। मैंने आपको पत्र में लिखा था, अभी आप में आत्मविश्वास की कमी है। मुझे उम्मीद है, भविष्य में आपका हर कदम सही ही होगा। मुझे तो उम्मीद है, पूरा विश्वास है। जो कहा है, उसे सुनो, उसे समझो, प्रयोग में लाओ। उम्मीद नहीं, आशा तो परम दुःख का कारण है। यहाँ तो बस एक सीरियल चल रहा है, इससे अधिक नहीं, जो काम प्रकृति ने सौपा है, उसे पूरा कर दो, बस ज्यादा उलझना बेकार है।“
”आपने अंतत यात्रा में कुंभ के द्वारा नीलकंठ को कहलाया है। मेरा कार्र्य तुम्हारा विवेक जाग्रत करना था। हो सकता है, इसके बाद मेरा शरीर भी न रहे...यह क्यों?“
”क्यों, बस एक कहानी है, बस। प्रकृति हर एक को अपना कार्य करने भेजती है। यह भी कि एक ड्रामा चल रहा है। इसका कोई कारण नहीं है। किसी ने कहा है,‘एब्सर्ड ड्रामा’, आपने ही बताया था। इसका कोई कारण नहीं है। बु(िमता और विवेक में फर्क है। जब बु(ि शत-प्रतिशत शु० हो जाती है, तब विवेक जाग्रत होता हे। नीलकंठ और कुंभ एक ही सिक्के के दो पहलू है। जो मन संसार में भटकता है, वही मन अंतर्मुखी हो जाता है, तब वह अपने अस्तित्व को पाता है, पर मार्ग विवेक के द्वारा ही मिलता है। संसार में सफलता बु(ि के द्वारा मिलती है। शक्ति एक ही है। बु(िमता जहाँ दुनिया में वैभवशाली बनाती है, वहीं विवेक भीतर की सम्पदा को सौपता है। पर जो विवेकी है, उसे इस बात की कोई चिन्ता नहीं है कि उसे लोग किस तरह देखते है। वह बाहर के दबाव में विचलित नहीं होता है। पवित्रता उसकी अपनी निजी होती है, वह बाहर के दबाव के आगे अपने आपको बदलता भी नहीं है। मैंने बकानी की घटना बताई थी, जब गुरुकुल शुरु हुआ, तब मेरे विरु( बहुत ही गलत व्यवहार होता था। यहाँ तक कि मुझे मारने के
लिएभी लोग आए थे। यहाँ तक कि जो गुरुकुल का सेवक था, वह भी यह ंजानता था, पर उसने भी मुझे नहीं बताया। वे लोग लाठिया लेकर आए, मैं कुए पर एक लंगोटी में नहा रहा था। वे लोग सामने आए और लाठी मारकर नमस्कार करके चले गए। बाद में मैंने पूछा क्या बात थी। तब मुझे बताया गया था कि मुझे पीटकर भगाने के लिए कोई षडयंत्र था। बात बताने की है कि मुझे पता हो जाता तो क्या होता? मैं भी कुछ सोचता? पर नहीं, प्रकृति ने हमें साधारण मनुष्य बनाकर ही भेजा है।हमें, हम कुछ विशिष्ट हैं, ज्यादा जानते है, इस भ्रम से दूर रहना होगा। जो वास्तविक ब्रह्मनिष्ठ गुरु होते है, वे अपनी किसी भी विशिष्टता से अवगत भी नहीं होते। जो कुछ बाहर अप्रत्याशित घट जाता है, वह स्वतः हो जाता है, वे इस बारे में किसी भी प्रकार की कामना भी नहीं करते।
यहाँ बहुत से लोग आए। आए और चले गए, साधारण सी कुटिया में उन्हें कुछ नहीं मिला। वे कुछ पाने आए थें, चले गए, कुछ रुक गए कुछ ठहर गए। कई लोग हैं, क्यों रुक गए उन्हें पता नहीं, डॉ. बसावड़ा आए थें। शिकागो में अपना क्लिनिक चलाते थे। दरवाजे से मुझे एकटक देखते रहे, फिर पास आकर बोले, जो आपने पाया, मुझे दे दें। मैंने कहा मुझे पता नहीं, क्या है। यहाँ तो नदी बह रही है, वह सभी की है।आपका पात्र जितना बड़ा है , ले जाएँ मुझे कुछ पता नहीं है। यह जल सबका है, किसी एक का नहीं है।
आप अपने सवाल का उत्तर खुद पता करें, उत्तर मिलेगा।
15
आप ही क्या, यहाँ जो भी आता है,शार्टकट चाहता है। यह दुनिया का कायदा है, दुनिया मेंसफलता पाने के लिए शार्टकट चल पड़ा है। परयहाँ का नियम दूसरा है।यहाँ कोई शार्टकट नहीं है। मुझे साठ साल से अधिक का समय लग गया था। बचपन में एक बार बैठा था। तब अचानक विचारों की श्रृंखला रुक गई थी। कुछ समझ नहीं पाया। फिर इंजीनियर साहब से पूछा, उन्होंने सब समझाया, पर फिर मैं भी परम्परागत साधनाओं में चला गया। धीरे-धीरे सब छूटता गया, आपने ‘अनाम यात्री’ भी लिखा है। जब मुझे इतने वर्ष लग गए। आप चाहते है, कुछ दिनों में कुछ घंटों में हो जाए। आप जाग्रत हो जाएं। ‘अनन्त यात्रा’ में कहा है, लगन महत्वपूर्ण है, एक दिन लक्ष्य तक ले जाती है। शस्त्रों ने इसीलिए इसे साधना माना है।
मैंने बहुत बार समझाया है, शरीर और उसके द्वारा की गई साधनाओं से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। यह मानसिक क्रिया है। गीता में दो शब्द आए है। ‘मन‘ और ‘माम,’ एक व्यक्तिगत मन है, दूसरा अंतर्मन है। मैंने कभी आत्मा शब्द का प्रयोग नहीं किया। यह रुढ़ हो गया है। फिर इसकी व्याख्या करो। ईश्वर शब्द भी रुढ़ हो गया है। सबके अपने-अपने ईश्वर है। जैसे कागज की दो परते होती है, उसी तरह इस मन की दो परत है। एक बाहर की ओर है, एक भीतर की ओर है। बाहर की ओर जो जाता है, वह आपका बाहरी मन है, जो भीतर की ओर हो रहा है, वह आपका अंतर्मन है। है वह शक्ति एक ही। एक की पहचान बु(िमता से होती है, दूसरी की पहचान विवेक से होती है।
सबसे कठिन होता है मन और मस्तिष्क का गठजोड़ टूटना। मन का यह अस्वाभाविक निवास स्थान है।
मन का मूल स्थान नाभि में है। इसे आप ”कॉस्मिक माइन्ड“ या ”नो माइन्ड“, भी कह सकते है। मैंने इसे अंतर्मन कहा है। यह विराट से जुड़ा रहने कारण अत्यधिक शक्तिशाली है। पर यह जो कुछ कहा है, यह बु(िगत विवेचन नहीं है। यह उससे परे है, यह अनुभव है। पहले आपको अपने मन को नियंत्रण में ले जाना होगा।
मैंने बार-बार कहा, मन की मृत्यु नहीं होगी। मन का नाश नहीं होगा। पंतजलिजी ने निरोध शब्द को सही तरह से समझाया होगा। चित्त की वृत्तियाँ जो तरंगों की तरह है, जब शांत हो जाती है, तब क्या होता है। योग मन और प्राण दोनों शक्तियों का एक हो जाना है। यह स्वाभाविक अवस्था है। अनन्त यात्रा में ‘रानी चूड़ाला’ राजा शिखिध्वज को यही समझाती है, आसन, प्रणायाम आदि बहिर्मुखी निरर्थक साधनाओं सेकोई लाभ होने वाला नहीं है।
बाह्य मन जब नीचे उतरता है, तब इसकी अनुभूति स्वयं को होती है। विचारों की संख्या कम होने लगती है। कुछ दिव्य अनुभव भी होते है। अनवरत नाद सुनाई पड़ता है। पूर्वभास सा होने लगता है। फिर मन धीरे-धीरे कंठ पर होता हुआ हृदय तक आता है। यहाँ पर आकर प्रेमानुभूति उठती है। रविन्०नाथ टेगोर का संस्मरण पढ़ा था।अचानक उन्हें तालाब में, रास्ते के पोखर में, छोटे डबरेमें एक ही प्रकाश दिखाई पड़ा था, यह बात गीतांजलि लिखने के बहुत बाद की है। मन जब हृदय पर आता है, तब बाहर का बहुत कुछ छूट जाता है। यहाँ पर आकर बूंद निर्मल तो हो जाती है, पर तभी भीतर का भी अनुभव होता है और बाहर भी आना-जाना बना रहता है।
पर हमारा मन अहंकारी है, वह बाहर अपनी पहचान चाहता है। संत लोग कितनी मालाएं पहनते है, भभूत लगाते है, इससे क्या होगा? जो नहीं है, क्या वह प्रकट हो जाएगा। वह तो तभी प्रकट होगा। जब मन, अंर्तमन में लय होगा। तब अंतर्मन सारे कार्य व्यवहार संभाल लेता है। बु(ि विवेक में डूब जाती है। यहाँ पर आकर राग-द्वेष विलीन होने लगते है। हम कहते है, दर्पण हो जाओ। वह यहाँ घटता है, पर यहाँ आओगे कैसे?
बहुत पहले जब आप मिले थे। मूलचंद जी आते थे। डाह्याभाई आते थे। पोस्टमास्टर कन्हैयालाल जी थे। वे लोग आते गुरुकुल में थे। पर इनका अधिक समय आसन, प्रणायाम, शास्त्र अध्ययन तथा बातों मे बीतता था।मैंने एक-दो बार इशारा भी किया पर समझ नहीं पाए। वे बहुत भले सेवा भावी थे।निर्मल चरित्र के थे। पर मन जो एक बार परम्परागत विचारों में बंध जाता है, वह छूट नहीं पाता है। मन तो किसी न किसी एक खूंटे में बंधा रहना चाहता है। कन्हैयालाल जी विपश्यना सीखकर आए थे। वे वहाँ कुछ बन भी गए थे। चोयल साहब कहते थे, ध्यान सिखाओ, वे कृष्णमूर्ति के अनुयायी है, वे अवेयरनेस की बात करते है। जब कृष्णमूर्ति आते वे और उनके मित्र उनके लैक्चर सुनने पहुंच जाते।फिर मुझे सुनाने आते। मुझे उस आधार पर परखते। अगर मैं उन जैसी बात कर रहा हूॅं, तो ठीक है, नहीं तो, क्या कहा जाए?
चहे मंत्र जपो, किसी मूर्ति का ध्यान लगाओ, विपश्यना में जाओ, सब बाहर ही भटकाते रहेंगे। यह बात ध्यान रखना। जब स्वाभाविक साधन उपलब्ध है, तब बाह्य साधनों में जाकर मन को भटकाने की क्या जरुरत है?
मैंने ‘अनंत यात्रा’ में कहा है, आपको समझाया है, जो भी कार्य प्रकृति ने सौपा है, मन को पूरी तरह उस में लगा दो। किसी भी हालत में उसे विपरित जाने से रोकना होगा, मन की यह स्वाभाविक अवस्था हो जायेगी। वह हर जगह एकाग्र होने लगेगा। किसी एक ही मुकाम पर एकाग्र करने से उसकी दासता शुरु हो जाती है। ये सारेे, पंथ मत, मनुष्य को गुलाम बनाए रखने की परम्परा में ही है। ये सब व्यर्थ हैं। जो भी साधन है, उसमें मन लगाए रखना ही सार है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात है, मन जब क्रिया में न हो, तब उसे बलपूर्वक क्रिया में लगाना बेकार है। यह सब सम्भव होता है, खाली समय मिलते ही अपने मन को विचार रहित लाने का प्रयास करना। यह सामान्य विधि है। इसे अवलोकन कहदो। धीरे-धीरे दो विचारों का गैप अनुभवन में आता है, इसे आप वत्र्तमाव कह सकते है, यह समय नहीं है। विचार ही भूत और भविष्य में रहता है। जहाँ विचार नहीं है, वही वर्तमान घटता है। भले ही यह क्षण भर का हो, साधना यही है। यह अन्तराल धीरे-धीरे बढ़ता जावे। वर्तमान में विचार अपने आप गिर जाता है। वर्तमान ही, इस अनंत का दरवाजा है। ‘अनंत यात्रा’ में इसी बात को स्पष्ट किया है।
बात होती भी है, लोग आते है, पूछते है। मैं कहता हूँ, वर्तमान में रहो। वो कहते है, यह कैसे सम्भव है। मैं कहता हूँ, आप यहाँ आए है, अकेले आए है या और भी साथ है? वे हँसते है, कहते है, अकेले है, फिर मैं चुप हो जाता हूँ। कैसे समझााऊँ, कि वे अकेले नहीं आए,अपने साथ बहुत बड़ी भीड़ साथ लेकर आए है। रात को सपने आते है, कितने लोग दिखाई पड़ते है। ये शाम तक तो साथ नहीं थे, रात को कहाँ से आ गए। सुबह उठते ही कहाँ चले गए? इन सभी की विदाई हो, तब जागृति, विचारण और स्वप्न में चेतना की एक धारा का अनुभव होता है।
”आपने आत्मकृपा की बात कही थी?“
“हाँ आपने किताब भी लिखी, पर आत्मकृपा आपसे ही गायब हो गई। ”मैं“ और ”आत्म“, में भेद है, मैं और माम में भेद है। ”माम“, की कृपा, जब मैं इस ‘माम’ में विलीन हो जाता हूँ, तब ‘माम’ ही सारे कार्य व्यवहार को संभाल लेता। जब यह पता लगता है कि यह मेरी ही माया है। यह बाहर और भी भीतरका जगत मैंने ही बनाया है। बाह्य जगत से अधिक कष्टकारी मनोजगत होता है। बाह्य का जगत तो निरन्तर परिवर्तनशील है, पर भीतर का जगत तो संस्कार में ढलता जाता है। खली न हो तो संग्रह ही कारण बनता चला जाता है।“
”यह कैसे कम हो?“
”फिर वही बात, बाह्य में किया गया कोई भी प्रयास अन्तर्मुखी बनने में सहायक नहीं होगा।
इसके लिए एक ही उपाय है, निरन्तर वर्तमान में रहा जाए। वर्तमान का यह क्षण समय की सबसे छोटी इकाई मानलो। जहाँ समय है, वहाँ मन है, वही भूत है, वही भविष्य है। भूत का कोई अस्तित्व नहीं है। वह तो गया, हम उसे स्मृति के द्वारा वर्तमान में लाते है। भविष्य है वह एक सम्भावना है। जहाँ वर्तमान है, वहाँ निरन्तर सजग रहो तो पता लगता है।
हम वर्तमान में हैं, वहाँ विचार नहीं है। यह निर्विचारता ही हमारा लक्ष्य है, जो हमें सदा से उपलब्ध है, पर हमें इसका ध्यान नहीं है। यहाँ जानना कुछ भी नहीं है, मात्र जिसे हम भूल गए थे, उसकी याद है। गीता में कहा गया ह, ै‘माम अनुस्मर यु( च’ मेरा निरन्तर स्मरण। यह स्मरण जप करना नहीं है। सुमिरन शब्द यहीं से बना है। काम तो करना ही होगा। मैंने यहाँ कुटिया पर लिख दिया था, ‘आलसी मत बनो,कार्यरत रहो।’
इसीलिए मैंने ध्यान शब्द का भी प्रयोग नहीं किया। ध्यान शब्द एकाग्रता के साधनों के लिए रुढ़ हो गया है। जितना हम वर्तमान में रहेंगे, एकाग्रता सहज ही प्राप्त होती जाएगा। मन स्वतः नियंत्रण में रहना सीखता जाएगा। मन बहुत चतुर है, याद रखना। ज्यांे ही तुम भीतर उतारोगे,यह तुम्हारे अनुभव को शब्द देने लगेगा। तुम अपने आप को असाधरण मानने लगोगे। गुरु बनना चाहोगे, बचना। यह काम तो तुमने पहले ही बहुत किया है। इसीलिए बार-बार यहाँ आते हो, बचना, बाहर के दुश्मन इतने बुरे नहीं है, जितने भीतर के होते है। यह मन बहुत चतुर है। अनुभूति बु(ि से परे है। जहाँ तक बु(ि है, वहाँ तक सब मन की कपोल कल्पनाएँ है, हम सत्य को कल्पनाओं से ढक देते हैं। वहाँ निरन्तर सजगता ही उपाय है। मन ज्यांे ही कल्पना लोक में ले जाना चाहे, तब सजग हो जाना। सजगता आग की तरह है, घास-फूस को तुरन्त जला देती है।
”गीता में कहा गया है,‘क्षिप्रं भवति धर्मात्मा’, इसका क्या आशय रहा होगा?“
”आशय क्या, वह धर्मात्मा तुरन्त हो जाता है। कहानियाँ हंै। इसके पहले श्लोक में आया है, ‘कोई कितना भी बुरा क्यों न हो। स्त्री, पाप योनी, शु० सभी धर्मात्मा हो सकते है।
इसमें क्या गलत है, धार्मिकता, कर्मकांड से परे है। इसे अध्यात्म भी कहा जाता है। यह जीवन जीने की शैली है। एक वाक्य में कहा जा सकता है, वत्र्तमान में रहो। ज्योंही हम यह सीख जाते हैं,यह हमारे जीवन जीने की शैली बन जाती है।हम धर्मात्मा हो जाते हैं। जहाँ तक मन है , वहीं तक समय है। वहीँ तक अतीत है और भविष्य है, वहीं तक पाप और पुण्य है। स्वर्ग और नर्क है। सब मन ही तो है, मन के खेल हैं। जब मन ही नहीं रहा तब क्या,...... क्षिप्रं, रस्सी जब कुएं में बाल्टी उतारती है, तब निरन्तर वह कार्य करती है, पर धीरे-धीरे वह घिसती जाती है, फिर अचानक टूट जाती है। परन्तु इस अचानक तक आते-आते उसे समय तो लगा था। यह हम क्यों भूल जाते है?
जब पहली बार आप मिले थे, आप व्रत, उपवास करते थे। मुझे देखकर आप चैके थे। मैंने कभी व्रत के लिए नहीं कहा। स्वयं मेरा भोजन इतना अल्प रहा है कि लोग आश्चर्य करते हैं। व्रत-उपवास से जाग्रत पुरुष का कोई सम्बन्ध नहीं है। यह परम्परागत रुढ़ी है। हाँ, भोजन स्वास्थ्य के लिए अनुकूल हो। आहार-विहार में संतुलन है। आपको दो कहानियाँ थीं। पहली ब्राह्मण बालक मूर्ति बनाता है और सिर काट देता है। पिता जाकर वणिक जिसने अनुष्ठान करवाया था ,उससेे पूछता है, धन वहाँ से आया था। वह बताता है कि उसका संकल्प था जो धन कमाई के यहाँ डूब गया है, मिल जाएगा तो कथा कराएगा। वह जाकर वणिक को उसका धन दे आता है। दूसरी कहानी थी कि संत जो भोजन करने गए थे, वे सेठानी का हार चुरा लाते है। फिर सोचते है, यह क्यों हुआ। वापिस लौटते है, पूछते है, तब पता लगता है कि जिस सेविका ने भोजन बनाया था, उसकी हार चुराने की भावना ढ्ढ़ हो चुकी थी। वही भावना अन्न ग्रहण के सरथ उन्हें पराजित कर गई। संत हार वहाँ रख कर लौटते है।
कहानी, कहानी होती है। सार जानना चाहिए। अéा से मन बनता है। मन का पोषण होता है। अéा की शु(ि अपरिहार्य है। इससे मन की गति कम होती है। पर यह छोड़कर अनीति से धन कमाओ, व्रत-उपवास करो, सब व्यर्थ है।
पर कितना समझाओ, कोई मानने वाला नहीं है। सबके पास अपने- अपने तर्क हैं।
सभी आसन सबके लिए नहीं है। हठ योग का जाग्रति से कोई सम्बन्ध नहीं है। आध्यात्म के नाम पर बजार में सभी कुछ परोसा जाता है। रास्ता मन से ही है। मन से ही उसके पार जाया जा सकता है। मन को देखना है। गहरी सतर्कता के साथ, हर पल साथ रहता है। मन एक साथ दो कार्य कर सकता है। वह देखता भी है और दिखता भी है। वही दृष्टा है, वही दृश्य है। देखते-देखते दृश्य सिमटने लग जाता है। बातें सुनने के लिए नहीं है, प्रयो में लाओ।
”तुमने पूछा था, पच्चीस सालों से मेरे साथ रहे, क्या पाया?“
”पूछा, अपने आप से पूछो, अगर कुछ पाने के लिए ही आए थे, तो समय व्यर्थ गया। पानी में पड़ा पत्थर भी सौ साल तक भी वैसा ही रहता है, परिवर्तन वहीं आता है, जहाँ उसके लिए जगह हो।
गीता में जो कहा गया है, वह प्रवचन के लिए नहीं है। तुरन्त, और यह भी कहा गया है, मन पर नियन्त्रण पाना कठिन है। अगर तुम यह समझ गए कि मन ही समय है। वे पच्चीस साल तुम्हारे मन पर अंकित छाप की तरह हैं,तो और वर्ष लग जाऐगेे। समझ गए कि मन ही समय है। मन जिन्दा रहता है, अतीत में या भविष्य में। जहाँ दोनों नहीं है, वही मन भी नहीं है। वहाँ समय कहाँ होगा? मात्र वर्तमान है, वर्तमान का द्वार ही भीतर का दरवाजा खोल देता है। जहाँ उस जगह जाना सम्भव है। परिवर्तन बाहर कुछ नहीं होगा, पर भीतर कुछ गुछ बदलनेे लगता है। विचारों के कम होते ही , विकार भी कम होने लगते है। पर जो लोग एक बाहर की ओर लक्ष्य बनाकर कुछ पाने के लिए निकलते है, वे वैसे के वैसे ही रह जाते है। बाहर जो आज सही दिख रहा है, वह कल गलत भी हो सकता है। बाहर कहाँ तक जाना है, परम्परागत साधनाएं प(तियाँ बाहर ही भटकाती हैं।
यहाँ समय महत्वपूर्ण नहीं है। समझो, यह भटकाने वाली बातें हैं। हमारे ग्रन्थ यही करते आ रहे हैं। वे बाहर कोई लक्ष्य बनाते है। हम जब तक उस तक आते है, दूसरा हमारे सामनेे आ जाता है। मन को जरा सी छूट मिलती है, सतर्कता हटती है, वह पचासों सपने ले आता है, वह तुरन्त भविष्य में दौड़ जाता हैं। समझ यही है कि रास्ता भी यही है। इसलिए कृष्णमूर्ति कहते थे पाथ लैस लैंड , पर उनके अनुयायी समाज से कटकर रास्ता तलाश कर रहे थे। मेरी बातें उन लोगों के समझने में नही आतीं थीं। जाना मन से ही है। व्रत, उपवास, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, तंत्र- मंत्र , ये सब परम्परागत उपाय हैं। जड़ तो मन मे ंहै, वहीं से शुरुआत हो। सही आहार और व्यायाम शरीर के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। बस इतना ही इनका महत्व है। मन से हटकर क्रियाएं करो तथा वर्षो बाद मन पर आओ। यह सब व्यर्थ के उपाय है। दूसरे जो अपने ऊपर किसी नाम पर, किसी चित्र पर, एकाग्रता करना बताते है, वे भी धोखा ही देते है।
मन ही तुम्हें नियंत्रित कर रहा है, अभी तक तुम मन से ही नियंजित हो रहे हो। मन तुम्हारे भीतर कोई एक लक्ष्य बना देता है। तुम उनके पीछे चल देते हो। बार-बार कहा है, मन से ही मन के पार तुम्हें जाना है। दूसरा कोई उपाय नहीं है। मन ही कल्पनाओं से तुम्हें अनुभव भी दिखा देता है। जो भावतीत ध्यान की बात करते हैं, वह भी एक प्रकार की कल्पना ही है। यह हमारा मन ही हमें मुक्ति दिलाता है। यह बंधन में बांधता जाता है। जब जो चाहते है, वही दिखना शुरु हो जाता है। मन की शक्ति अपरम्पार है। पर उसके परे जो है, जो अतर्मन है, वह विराट से जुड़ा होने के कारण अत्यधिक शक्तिशाली है। जो समझतदार हंै, वे इसी मन को एक उपाय देकर तुम्हें उलझा देते है। उस दिन तांत्रिक आए थे। वे भूत-प्रेतों की, सी(ियों की चर्चा कर रहे थे। उनकां भैरव दिखाई पड़ते हैं। मुझ से भी कहलाना चाह रहे थे, यह भी मन का ही प्रोजेक्शन है। मन जैसा चाहता है, बाहर वैसा ही दिखना शुरु हो जाता है। हम जो भी कल्पनाएं करते है, वे हमें सच दिखाई देती है। क्योंकि उन्हें हम ही ताकत देते है। देवी-देवताओं के दर्शन के पीछे यही धारणा है। हमारी ही शक्ति उन्हें प्रकट कर देती है। वे भी यही कहते है। शक्ति तुम्हारी ही है,जिसने मुझे प्रकट किया है। स्वर्गा और नर्क हमने ही बनाए हैं । हमारा लोभ और भय इन्हंे बना देता है।आपने सवाल किया था, हम लोग वृन्दावन गए थे। स्वामी शरणानन्दजी के आश्रम में ठहरे थे। वहाँ के लगभग सभी मंदिरों में आप गए थे। मैं बाहर ही गााड़ी में रहा। आप बार-बार पूछते थे, मैं भीतर क्यों नहीं जा रहा हूँ? गुरुकुल मंे मुकेश भाई अखण्ड रामायण कराते थे, यज्ञ होता था, मैं उधर नहीं गया। वे भी पूछते थे, क्यों? क्या उत्तर होगा, आपने मुझे अपने साथ जैसा आप चाहते हैं, करने को क्यों कहते हैं? हम ही तो मूर्तिया बना रहे है, और हम ही पूजा कर रहे है, उनसे मांगते भी है, यह सब मन का ही प्रपंच है, इससे अधिक कुछ भी नहीं है। एक दिन मेरी बातें समझ में आएंगी।
मैं क्या साथ लेकर आया था। एक झोला था, यह शरीर, गुरुकुल कभी का छोड़ दिया। जिस दिन सरकार को सोंपा ,सब छोड़ दिया। शरीर को भी अब जाना है, यह प्रकृति का नियम है। पर यह याद रखना है कि यह कभी हमारा रहा ही नहीं। यह सम्पत्ति भी हमारी नहीं है शास्त्र की पहली पंक्ति थी-तेन त्यक्तेन भुंजीथा, त्याग करते हुए भोग कर।
पर जो हम चाहते है, जो पाना चाहते है, वह हमारी पूंजी निरन्तर हमारे साथ है, पर हमें उसका ध्यान नहीं है। यह ध्यान ही सजगता है। अवेयरनेस है। उसका स्मरण निरन्तर रहे, यही ध्यान है। पर जो हमारा नहीं है, वह हमेशा हमारा बना रहे। यही संसार है। यही हमारी मृग-मरीचिका है, जो हमारा हमेशा है, उसकी कोई खोज-खबर नहीं है।जो हमारा है, उसे क्या पाना है, उसे जो भूल गए है, उसकी स्मृति ही साधना है। यही सुमिरन है।“
”आपका सि(ान्ता तो बहुत छोटा सा है?“
”पर आपने पूछ-पूछ कर इतना बड़ा कर दिया है। मौन ही सत्संग है। वही साधन है, वही साधना है। वहाँ मन अपने स्वाभाविक रुप को पाने लगता है। पर जहाँ शब्द आए, वही बु(ि आ जाती है। विचार-बु(ि की पहचान है। हस पथ पर चलने के लिए दो ही बाते मैंने बताई है, स्वाद पर नियंत्रण रखना और बोलने पर। यही एक इंद्रिय दो-दो काम एक साथ करती है। इस पर नियंत्रण सबसे कठिन होता है।जितना नियंत्रण होता जाए, उतना बेहतर है।
आखिरी बात, शांत बैठ जाना और कुछ न करना, चोयल और मेहरा ने पूछाथा, पैसिव अवेयरनैस, चॉइस लैस अवेयर नैस, यह मेरी मान्यता नहीं है। ध्यान यानि निरंतर अवेयरनैस, निरन्तर वर्तमान में रहना, जीवन की शैली है। प्रकृति ने हमें एक निश्चित कार्य से यहाँ भेजा है। उसका पता तभी लगता है, जब हम अन्तर्मुखी होते हैं। और अन्तर्मुखता में प्रवेश तभी होता है, जब हम वर्तमान में रहने लगते हैं। यहाँ जो भी घटता है, जो भी होता है, वहाँ न लोभ है, न भय है। न स्वर्ग की चाह है, न नरक का भय है। जो कृत्य होता है, वह स्वतः सेवा में ढल जाता है। ध्यान इसीलिए नहीं सिखाया जा सकता। जो ध्यान सिखाने की बात करते है वे समाज से भागकर कहीं ओर ले जाने की बात करते है। प्रकृति ने शांत होकर जड़ हो जाने के लिए नहीं भेजा है। हम शांत रहें , निरन्तर सजग रहें और कर्मरत रहेंं। सब प्रकृति का है, वह निरन्तर दे रही है, तेरा तुझको सौपत, क्या लागे मेरा, यही भावना बनी रहे। मेरे जाने के बाद यह शरीर भी किसी के काम आए तो अच्छा होगा। इसे किसी अस्पताल में दे देना, वैसे बहुत कृश हो गया है।
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