शुक्रवार, 26 जून 2009

उदासी
तुम उदास हो
कप्तान नहीं रहे
हम उदास नहीं
खिलाड़ी ही कब रहे,

यह होना ही
होने की संभावना में
मात्र बस खोना है;
सुबह से शाम
शाम से सुबह तक
चक्की के पाटों में पिसा ही रहना है,

हवा बहती है
क्या अहसान करती है,
धूप
सबके आंगन में बराबर ही बरसती है
वर्षा सी नहीं
आधे ही खेत को खाली भी रखती है
दृष्य ही है सार
सच भी यही है
पर दर्शक नहीं हो तुम
दृष्टा, समय के संग
भुजाएं तनी रखना

सोने की धड़ी यह नहीं
ढपली अपनी ही यह बजनी है
जो जागा है
जगा है
जगने को सजग है
वही बार-बार गिरकर
जिन्दगी को जीकर रहा हे
भले ही काला, बदसूरत
घिनोना चींटा रहा हो वह।

Read more...

शनिवार, 6 जून 2009


                          सपने
वह बचपन में सपने देखता है,
सपने उसका
बचपन चुरा लेते हैं,
खबर न उसे है
न मां-बाप को होती है
वे सपनों को छीनकर बस्ता थमा देते हैं।
वाह!
वर्दी जो बचपन में चढ़ती है जिस्म पर
उतरती तभी है
जब चील काली पास आ,
उस पर झपटती है,
वह पूछता है, जगह-जगह
इन सपनों का क्या अर्थ, जो रात को ही नहीं,
दिन में तंग करते हैं
न घर पर आराम है
न दफ्तर में,

अखबार जब भी पढ़ता है
कल से आज गरीब होता है
गरीबी की रेखा, कहां से कहां तक
भूख का रोटी से, रोटी का कैलोरी से जो
रिश्ता बना है
वही भूखे पेट का हिसाब भी रखता है

बस का भाड़ा
स्कूल की फीस
अनाज, सब्जी, दूध
दवा की दुकान
अब रोक नहीं पाते है,
वह कितनी रहमदिल
कहीं भी, कभी-भी
दारू की दुकान रोज नई खुल जाती है
बढ़ते हैं ग्राहक...,
मरती है लड़की
बिकती सुबह-शाम
पुलसिया कहता है
रुपया आकाश से टपकता है।
जो अब तक बना चुका दस मकान
आकांक्षी मंजिल की छत से उतरकर,
वही एक दिन वोट मांगने आता है,
वोट का टोनिक पी
फिर अजगर सा
निकलता है,

हरजू कहता घरवाली से
पास वाली इमारत
पिछले साल हमने  बनाई थी
साल पूरा निकल गया, ... मैदान में पड़े हुए
शांत, उदास, ... मरने से पहले की खुली आंख लिए,
यही ईश्वर ने चाहा है
यह भी क्या कम है सांस पर हमारा ही हक है,

लीला
लीला देख पाती है
हाथ, वही, जिस्म वही
कितने मकान बने
पर उसकी झौंपड़ी
बारिश से पहले हटकर कहीं जाना है
बार-बार कानों में गूंजती थरथराहट
बारिश का अभाव है
सूखती फसल

Read more...

कविता

मंगलवार, 2 जून 2009




घर

रस्ते अलग अलग हैं
जाना तो एक घर है
हम रहते दादाबाड़ी
तुम बरकत नगर निवासी

सड़क के इधर हम हैं
तुम उधर रहते,
कैसी हुई मजबूरी
सड़क पार नहीं होती

उपर की  मंजिल हम हैं
नीचे की मंजिल तुम हो
जीने की क्या विवशता
कदम झेल नहीं सकता

तुम हमसे क्या बड़े हो
हम तुम से क्या कम हैं
सब बड़े ही बड़े हैं
सचमुच दही बड़े हैं

पडौसी ही चट कर सकता
दौना लिए वह आता
सदियों से यही हुआ है
हरी घास  हम बने हैं

जिल्लत से यहाॅं पर रहना
मालिक ने कब कहा है,
रस्ते अलग अलग हैं
रहना तो एक घर है।

Read more...

About This Blog

Lorem Ipsum

  © Blogger templates Newspaper by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP