शुक्रवार, 26 जून 2009

उदासी
तुम उदास हो
कप्तान नहीं रहे
हम उदास नहीं
खिलाड़ी ही कब रहे,

यह होना ही
होने की संभावना में
मात्र बस खोना है;
सुबह से शाम
शाम से सुबह तक
चक्की के पाटों में पिसा ही रहना है,

हवा बहती है
क्या अहसान करती है,
धूप
सबके आंगन में बराबर ही बरसती है
वर्षा सी नहीं
आधे ही खेत को खाली भी रखती है
दृष्य ही है सार
सच भी यही है
पर दर्शक नहीं हो तुम
दृष्टा, समय के संग
भुजाएं तनी रखना

सोने की धड़ी यह नहीं
ढपली अपनी ही यह बजनी है
जो जागा है
जगा है
जगने को सजग है
वही बार-बार गिरकर
जिन्दगी को जीकर रहा हे
भले ही काला, बदसूरत
घिनोना चींटा रहा हो वह।

3 टिप्पणियाँ:

ओम आर्य ने कहा…

badhiya hai.............

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

बहुत सुंदर कविता। समाजिक वैषम्य को इंगित करती हुई।

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

अच्‍छी कविता। प्रकृति में धूप और छांव दोनों ही है। चींटे की तरह संघर्ष ही उसका हल है। खूबसूरत विचार। बधाई।

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