कविता

मंगलवार, 2 जून 2009




घर

रस्ते अलग अलग हैं
जाना तो एक घर है
हम रहते दादाबाड़ी
तुम बरकत नगर निवासी

सड़क के इधर हम हैं
तुम उधर रहते,
कैसी हुई मजबूरी
सड़क पार नहीं होती

उपर की  मंजिल हम हैं
नीचे की मंजिल तुम हो
जीने की क्या विवशता
कदम झेल नहीं सकता

तुम हमसे क्या बड़े हो
हम तुम से क्या कम हैं
सब बड़े ही बड़े हैं
सचमुच दही बड़े हैं

पडौसी ही चट कर सकता
दौना लिए वह आता
सदियों से यही हुआ है
हरी घास  हम बने हैं

जिल्लत से यहाॅं पर रहना
मालिक ने कब कहा है,
रस्ते अलग अलग हैं
रहना तो एक घर है।

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