शनिवार, 6 जून 2009
सपने
वह बचपन में सपने देखता है,
सपने उसका
बचपन चुरा लेते हैं,
खबर न उसे है
न मां-बाप को होती है
वे सपनों को छीनकर बस्ता थमा देते हैं।
वाह!
वर्दी जो बचपन में चढ़ती है जिस्म पर
उतरती तभी है
जब चील काली पास आ,
उस पर झपटती है,
वह पूछता है, जगह-जगह
इन सपनों का क्या अर्थ, जो रात को ही नहीं,
दिन में तंग करते हैं
न घर पर आराम है
न दफ्तर में,
अखबार जब भी पढ़ता है
कल से आज गरीब होता है
गरीबी की रेखा, कहां से कहां तक
भूख का रोटी से, रोटी का कैलोरी से जो
रिश्ता बना है
वही भूखे पेट का हिसाब भी रखता है
बस का भाड़ा
स्कूल की फीस
अनाज, सब्जी, दूध
दवा की दुकान
अब रोक नहीं पाते है,
वह कितनी रहमदिल
कहीं भी, कभी-भी
दारू की दुकान रोज नई खुल जाती है
बढ़ते हैं ग्राहक...,
मरती है लड़की
बिकती सुबह-शाम
पुलसिया कहता है
रुपया आकाश से टपकता है।
जो अब तक बना चुका दस मकान
आकांक्षी मंजिल की छत से उतरकर,
वही एक दिन वोट मांगने आता है,
वोट का टोनिक पी
फिर अजगर सा
निकलता है,
हरजू कहता घरवाली से
पास वाली इमारत
पिछले साल हमने बनाई थी
साल पूरा निकल गया, ... मैदान में पड़े हुए
शांत, उदास, ... मरने से पहले की खुली आंख लिए,
यही ईश्वर ने चाहा है
यह भी क्या कम है सांस पर हमारा ही हक है,
लीला
लीला देख पाती है
हाथ, वही, जिस्म वही
कितने मकान बने
पर उसकी झौंपड़ी
बारिश से पहले हटकर कहीं जाना है
बार-बार कानों में गूंजती थरथराहट
बारिश का अभाव है
सूखती फसल
3 टिप्पणियाँ:
बहुत खूब सर जी...
सुंदर कविता।
बहुत बढिया रचना है।बधाई स्वीकारें।
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