मंगलवार, 26 मई 2009

 औरत
व्रत तुम्हारा, निर्जल है अन्न नहीं, जल नहीं
यह क्या चाहत है
क्या है जरूरी प्रेम है, ... पर देह को उसका
दाय न सौंप भूखा, निराहार रह
‘चाँद’ की प्रतीक्षा में
दिन... सौंप जाना

पति से प्रेम का छोटा सा टुकड़ा
इस मौसम में जब वर्षा है रूठ गई
बादल का टुकड़ा, दिखता नहीं दूर तक
गर्मी में झुलसती
देह, पनीली, लथपथ पसीने से
बादल का आना,
वर्षा की बूंदों से बंधना
क्या सचमुच जरूरी है?

आंँखों से बरसती मेघ की घटाएं
कभी-कभी एक मिल, चेहरों पर, चमकती कड़कती
विद्युत प्रभा,
और जब बिखराकर, केशों का उलटना
कभी-कभी
होठों का दांतों से दबकर, कह पाना
बहुत कुछ कहना, पर न कह पाना

सुनना अचानक
धूल भरी आँधी का कर्कश अट्टाहास
पास और पास
उखड़ता जाना, नन्हें पौधों का
अचानक धूल के बवंडर में
रोपा था जिनको
वर्षा के स्वागत में।
सहसा बहुत कुछ
धरती तपती है
वर्षा की बूंदे
नव-रस, आल्हादित
तन-मन आपूरित
गंधित मलय
रोम-रोम स्पंदित
स्नेह सिक्त बाती, सी वह चमकती है।

व्रत उसका मजबूरी नहीं, चाहत नहीं
नहीं कहीं कामना
अदृश्य बंधन की
छोटा सा ‘बिरवा’ हरा रहे, ... खिला रहे
सुगंध, आपूरित
मन के कौने में, नित-नूतन, बस रहे बसा रहे।

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