कविता
सोमवार, 13 जुलाई 2009
जंगल जलते हुए
नहीं, नहीं, नहीं
यह तुमसे किसने कहा
ज़मीन उसकी होती है जो हल चलाता है
भूख की शिद्दत में
ज़मीन कलेजे से चिपकाए हुए
आषाढ़ी बादल निहारता है।
ज़मीन साहब की है
बी.डी.ओ. जिनके यार हैं
तहसीलदार ख़ास हैं,
पटवारी फसल का हिसाब लिखा करता है
तालुका अधिकारी की जहाँ मौज मनती है
ज़मीन उन साहब की है,
तेरी भी, मेरी भी, और उन सबकी भी
जिनके हाथ पतले हैं
थके थके जिस्म कुम्हलाए हैं
सब उनकी हो चुकी है।
ज़मीन अब
माँ नहीं, बहन नहीं, धर्म नहीं, प्यार नहीं
औरत है
नहीं उससे भी गई गुज़री बाज़ारू तवायफ है
जिसके पेट में दौलत की खाद जब गिरती है
सोना उगलती है
साहबों के लिए वह
वह साल में दो बार दौलत जनती है।
तेरी भूख का जमीन से वास्ता नहीं है
तेरे पास जो इतिहास है
वह तेरा है,
तेरे पिता,
तेरे बाबा,
तू इतिहास आंखों में रखता है
तेरे घर में कुम्हलाए फूल
साहबों के गले में माला बन सिसकते हैं।
ये कागज..... ये किताबें
वकील और ये अफ़सर
पोषाहार केन्द्र की तरह चलते हैं
तेरी आग को पलाश वन में मैने देखा है
जंगल जब जल रहा था
यह आग कब हड्डियाँ जलाएगी
यह आग
तेरी आंखों में क्या महाभारत उठाएगी
वामन.........
तेरे तीन डग कब पदचिन्ह बनाएंगे
प्रतीक्षा है
ज़मीन और औरत के बीच की तमीज़
कब अंगार बन दहकेगी।
ज़मीन उसकी नहीं जो कागज़ में नाम रखता है
ज़मीन उस हाथ की
ज़मीन उस फौलाद की
जो ज़मीन काबू में रखता है।
4 टिप्पणियाँ:
ज़मीन से जुडी ज़मीन की शानदार रचना के लिए बधाई
ज़मीन उसकी नहीं जो कागज़ में नाम रखता है
ज़मीन उस हाथ की
ज़मीन उस फौलाद की
जो ज़मीन काबू में रखता है।
-बहुत जबरदस्त रचना!!
aapmka dhanyavad
आदर्णीय चतुर्वेदीजी, आपकी रचनाएं बेहद प्रभावशाली हैं। ऐसी प्रकृति परक और वर्तमान मानव जीवन पर इतनी शशक्त एवं बेबाक रचनाएं लिखने के लिये बधाई!
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