कविता

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

इतिहास के मध्य से
देह को तोड़कर गुज़रती जा रही हैं
बर्फीली हवाएँ
कहाँ तक रुकें अब और
अब तो खड़ा भी नहीं हुआ जाता है
न जाने उनने कब
देह में रोपे थे बीज
कि आग बुझती चली गयीं
मट्ठियाँ ऐसी तनी
खुली नहीं
बस जड़ रह गयीं
वाह रे
कैसा उड़ा गुलाल
बदलाव लाने की जगह
पालागन हो गया
ओ रे मन
कब आया था वसन्त तुम में
कुछ याद है
कब तुमने मिटने मिटाने की कसम खाई थी
कितने अच्छे थे वे दिन
अब तो सपने भी नहीं आते हैं
कि हमने कभी ऐसे सपने भी देखे थे।

देह राग
इस बीहड़ वन में कहीं तुमने
पलाश जलता देखा है
जब कि लोग कहते हैं
जंगल  कटने का वक्त आया है
अब इस मौसम में
चुप रहने की आदत हो गई है
कैक्टस गुलाब लगता है
निज मन पराए रूमाल में लिपटा
प्राणायाम कर रहा है।
क्या तुम पर भी
ऐसा हादसा कभी गुज़रा है
तुम्हारे जिस्म में पलाश वन
अचानक उग आया है
और जल रहा है
तब तुम्हारे पास से शायद
पतझड़ गुजरा होगा अचानक
पालकी में बैठकर
हंसता हुआ
कह गया होगा
देखो इस बीहड़ वन में भी पलाश जल रहा है

तब झाड़ियाँ
तालियाँ बजाकर हँस रही हांेगी।

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आग नाटक

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

आग
आग का क्या
न उसकी कोई जाति होती है........ न मत।
उसका काम बस जलाना है
और हल्की हवा का सहारा पाते ही
भभक जाना है
क्या सचमुच तुम्हें आग की तलाश है
तभी तो मुर्दाघर में
दबे पाँव घूम रहे हो
हाँ यह सच है
यहाँ लोग भी रहते हैं
जो हंसते हैत्र् गाते हंै लड़ते हंै झगड़ते हैं
और कभी कभी प्यार भी करतें हैं
इन खिलौनों के लिए
आग, पानी, हवा, और बर्फ
कहीं कोई भेद नहीं है
तभी तो
कई शताब्दियों से
अतीत या़त्रा के सुनहरे संवाद दोहरा रहे हैं
क्या अभी भी
तुम्हें आग की जरूरत है
जब कि वह लाइटर में रखी हुयी
खुले बाजार मिल रही है।
नाटक
क्या अभी भी तुम्हें
फिर नए नाटक की तलाश है
तुम्हारा यह पुता हुआ चेहरा
हाय
हमारी ही चुराई सेलखड़ी से सजा हुआ
पहचान लिया गया है
अंधों की भीड में,
हाँ, तुम्ही तो थे
ले गए थे चुराकर
उनकी अबोध आखें
नाटक के पहले ही दौर में
कितना सुखद है नाटक
नायक खलनायक
तुम्हारे ही चेहरे की अलग अलग भूमिकाएँ
और हम अकेले
हर बार
तटस्थ मूक दर्शक
और इस नाटक का
अंतिम दृश्य
क्या होगा, कब होगा
सबको है तलाश
और तुम सचमुच
कितने हो होशियार
पहला ही दृश्य
हर बार दोहरा रहे।

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वर्षा

वर्षा
क्या नहीं होता वहां
वर्षान्त कीचड़ और कमल
लगते हैं एक ही,
हवाएँ जो कभी होती हैं मुखर
या तो मुंह फुलाए
जाती हैं दुबक किसी कोने में जाकर या
बाल बिखराए कलह कर देती हंै।
कभी कभी
चाहती महकना सुगंध सी
आरती में रहकर।
पुजारी और जुआरी
एक ही हुजूम में
प्रभु दरवाजे रहते सिमटना,
पर पट रहे बंद
लड़ते पुजारी और उसके वंशज
दर्शक तिरस्कृत से
धक्के खाते, धकियाते
सुना यही जाता है
इस मौसम में छाता सचमुच जरूरी है।

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आत्मसम्मान कैसे बढा़एॅ

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

             आत्मसम्मान कैसे बढा़एॅं

   
शब्द आत्मसम्मान... आत्म गौरव, अस्मिता महत्व पूर्ण शब्द हैं।यह ‘आत्म’ है क्या? जिसको लेकर हम चिंतित हो जाते हैं।
सामान्य जन के सामने, राज्य का सामान्य सा कर्मचारी जिस प्रकार दंभ व अंहकार से गरजता है, और वह ‘जन’ अपने कार्य के प्रति जिस प्रकार गिड़गिड़ाता है, वह दृश्य भीतर तक झकझोर  जाता है।हमारा आत्म क्या है?यह सवाल हमेशा अधूरा ही रह जाता हैं

वही कर्मचारी जब अपने उच्चाधिकारी या राजनेता के सामने खड़ा होता हैै तो सीधा ही खड़ा नहीं हो पाता है।उसका रिरियाता चेहरा तथा अदने से राजनेता के  सामने जी हुजूरी करता हुआ वही कर्मचारी हास्यास्पद बन जाजा है। हम अपनी भाषा, अपनी गरिमा अपना स्वत्व सब खो बैठे हैं। न चेहरे पर अपनी प्रतिष्ठा का भाव है, न गरिमा है, आखिर हम हैं क्या? साधारण सी प्रतिकूलता के प्रभाव को हम बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। हल्के से ताप से, मौम के पुतले की तरह पिघल जाते हैं।  हमारी फिल्मों के नायक,या तो परिस्थितियों के सामने भय से भागते रहते हैं,या तुरंत किसी मन्दिर,दरगाह,या चर्च में चले जाते हैं, या हिंसा का अतिरंजित सहारा लेंते हैं।क्या वे हमारे सही स्वरूप को चित्रित नहीं कर रहे हैं?क्या हम वास्तव में उनसे अलग हैं?यह विचारणीय प्रश्न है।

आखिर हम हैं क्या?हमारा आत्म क्या है?यह सवाल हमेशा ही पूछा जाता रहा  है।
 विदेशी राजनीतिज्ञ जब हमारे यहां आते हैं,... तब उनके सम्मान में हम जिस तरह कालीन की तरह बिछ जाते हैं,...‘‘ हम कहते हैं पधारो म्हारे देश’... पर जब हम विदेशजाते हैं, हम कहीं भी .इस जी हुजूरी की आॅंख अपने प्रति नहीं पाते हैं... मानवीय  गरिमा का भाव अवश्य दिखाई पड़ता है।
क्यों?  हम अपने को ही कभी सम्मान से नहीं देखते। जब हम अपने प्रति ही सम्मान नहीं रखते हैं, तब कौन हमारे प्रति सम्मान रखेगा।   
हमारे संत महात्मा एक ही बात कहते हैं ‘ मो सौ कौन कुटिल खल कामी।’’हम स्वयं न तो कभी अपना सम्मान कर पाते हैं,न हीं इसी कारण अपनी योग्यता को प्रदर्शित कर पाते हैं।आजकल हर साक्षात्कार में पहला सवाल यही पूछा जाता है, आप में ऐसी कौन सी योग्यता है जो आपका इस पद के लिए चयन किया जाए? हम यहाॅं इस सवाल का ही उत्तर तलाश करने का प्रयास करेंगे।
अपनी पहचान स्थापित करें
आत्म सम्मान की पहली स्थिति होती है, आप अपनी पहचान स्थापित करें, तथा फिर उसे एक मूल्य भी दें। आप क्या हैं? क्या चीज हैं, क्या आपका स्वरूप है, क्या आपकी पहचान है, और उसे आप किस प्रकार दूसरों को बता सकते हैं।जिस व्यक्ति का, जिस समाज का, जिस देश का स्वाभिमान खो जाता है, वह कभी विकास के पथ पर आगे बढ़ नहीं सकता, वह कभी उत्कर्ष को पा नहीं सकता।

 ‘स्वाभिमान... यह व्यक्ति की समाज की अन्तर्निहित शक्ति है जोे कुछ मूल्यों के साथ जुड़ जाती है। महाराणा प्रताप और जयपुर नरेश मानसिंह के बीच यही दूरी हे। आत्म विश्वास दोनों के पास है, पर घास की रोटी खाने वाला प्रताप सामान्य जन का आराध्यदेव बन गया। वह ‘स्वाभिमान’का मानवीकरण है। भारत के राष्ट्रपति अब्दुल कलाम में जो चारित्रिक गुण सहज सबका ध्यान आकर्षितकरता है, वह उनका स्वाभिमान है,उनका आत्म विश्वास हैै।, कठोर परिश्रम के साथ ,आधुनिक तकनीक और प्रबन्धन के मूल्यों को लेकर... भारत को शक्ति संपन्न बनाने की उनकी परिकल्पना आधुनिक भारतीय का सपना हैै। आज भारत में ‘विज्ञान शिक्षा’ का प्रचार व प्रसार उनका लक्ष्य है, वे निरंतर विद्यार्थी जगत से जुड़े हुए हैं।आत्म सम्मान, वह शक्ति है, जहां ‘आत्म’ विस्मृति के गहरे  अंधकार से बाहर आकर, कुछ मूल्यों को अंगीकृत करना है। वे मूल्य उसके, आचरण की सुगंध बन जाते हैं। अपनी योग्यता का सही आकलन होता रहना चाहिए,हर काम हम नहीं कर सकते,हर विषय का हमें ज्ञान नहीं हो सकता,पर जो हमें आता है, जिसमें हमारी रुचि है,उसका हमारा ज्ञान निरंतर बढ़ता रहे ,यह प्रयास होना चाहिए।उससे जो गुण पैदा होंगे वे आपकी पहचान बनाएंगे।वे आपको आदर दिलाएंगे। वही आपका जिसे ‘आत्म ’कहा जाता है,उसे बनाएंगे।यह जो हमारा ‘आत्म है निरंतर बदलता रहता है,और हम इसके लिए जिम्मेदार भ्ी हैं।

यह अहंकार नहीं है
उस दिन मैंने सुना, कहा जा रहा था, ‘इंसान संसार को जीत सकता है, पर अपने आपको नहीं...’ यह .आपा बहुत ही खतरनाक है।हम यहाॅं किसी प्रकार की लड़ाई की बात नहीं कर रह हैंे।,हम अपने आपको निरंतर अच्छा बना सकते हैं,यह एक सत्य है।
एक पुरानी घटना है--मैं तब सरकारी कार्य से राजधानी गया हुआ था।
क्षेत्र के मंत्री जी से अच्छे सम्पर्क थे। वे बोले,‘सुबह आपको मुख्यमंत्री जी के यहां ले चलेंगे,... तैयार रहना, पांच बजे वे पूजा से उठ जाते हैं,... उनका अशीर्वाद लेना है।’
मैंने कहा, मैं चल नहीं पाऊंगा, आप हो आएं।
वे नहीं माने, बहुत प्रेम करते थे, सुबह तैयार होकर जाना पड़ा।वहां पहुंचे तो पाया, एक कार पहले से खड़ी है।
वे तेजी से अंदर चले, मैंने भी अपने कदम बढ़ाए..
पर...वहां देखकर चैंक गया...
मुख्यमंत्री जी अपने पूजा घर से बाहर निकले ही थे कि  एक तत्कालीन  जिला कलैक्टर वहां .साष्टांग दंडवत किए पड़े थे।

मेरे लिए यह दृश्य विस्मय कारक था। ‘क्या हम अपने पिता के प्रति भी इतना आदररखते हैं’?
शायद नहीं, कहा जाता है काम पड़े तो गधे को भी बाप बना लेना चाहिए। संभवतः यही प्रथा... हमें हमेशा अपने ‘गाॅड फादर’ को तलाश करने को बाध्य करती है। हम अपना ‘स्वत्व’ खोते चले जा रहे हैं।
यह बात दूसरी है कि हमने पाया ही कब था?
स्वतंत्रता की प्राप्ति, तथा स्वाभिमान की प्राप्ति दो अलग-अलग उपलब्धियां हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पुनः हम ‘लोकतंत्र’ को ‘जंगली राज’ में बदलते हुए भीड़तंत्रको अपनाते चले जा रहे हैे।किसी भी सामाजिक कार्यक्रम में आप चले जा.एं,. बूढ़े कार्यकर्ता भी युवा नेता के चरण स्पर्श करते देखे जा सकते हैं। क्या यह चरण पूजा जो टैलीविजन पर हर राजनैतिक कार्यक्रम के कवरेज में सहज ही दिखाई पड़ जाती है ,क्या यह हमारी पहचान नहीं बन गई हैं?

क्या खोया क्या पाया

क्यों? क्या खो गया है... जो मिल जाएगा?
ब्रिटिश राज में जो खोया था... वह अभी तक हम नहीं जान पाए। मुगल काल में स्वाभिमान नहीं खोया था... कारण था,... उस काल में आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था में भारी भेद नहीं था। राजा और बादशाह का सामाजिक स्तर व सुविधाएं बराबर की थीें। मनसबदारों में भेद, घोड़े व सेना रखने का था.. जिससे बादशाह के यहां बैठने का स्थान निर्धारित होता था। परन्तु ब्रितानी शासन में , जहां भाषा-भेद बढ़ा, ब्रिटिश राज की नौकरी तथा दयापात्र होने से सुविधाएं बढ़ीं, ... लघु उद्योगों का सर्वनाश होने पर, सामान्य जन की हीनता बढ़ी। वह याचक बनने को मजबूर हो गया। पंडित सुंदरलाल ने ‘भारत में अंग्रेजी राज’, में इस पददलित होती सामाजिक व्यवस्था का यर्थाथ चित्रण किया है। ब्रितानी शासन व सामंती शासन ने मिलकर जो सबसे बड़ा .अहित किया, वह यही कि हमारा स्वाभिमान हमसे छीन लिया। 
इसीलिए अगर आप ‘भारतीय सामान्य जन, तथा .योरोपीय. अमरीकी सामान्य जन की तुलना करना चाहें तो यह भेद सहज ही दिखाई पड़ जाता है। भारतीय युवक-युवतियां, आज पश्चिम की ओर जिस तेजी से निष्क्रमणकर रहे हैं, उसके पीछे वहां प्राप्त सुविधाएं ही नहीं हैं, बहाॅं उनके स्वाभिमान की सुरक्षा भी है।
 वे निरंतरव्यवस्थाओं की निर्ममता के दासत्व को अंगीकार किए बिना ही वहां शांति से परिश्रम कर सकते हैं, यह एक कटु सत्य है।

आत्म सम्मान कैसे बढ़ाएॅं

मैं उस दिन नजदीक के नगर में गया हुआ था, जाना पहले भी हुआ था। शर्मा जी के परिवार में उनका छोटा लड़का दसवीं कक्षा में सामान्य योग्यता के साथ उत्तीर्ण हुआ था। दोनों ही पति-पत्नी चिंतित थे। शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ रहे थे।... बालक बुद्धिमान था... उसके लिए कोचिंग की भी व्यवस्था थी, पर उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी। वे निरंतर उसे आगे पढ़ने को प्रोत्साहित कर रहे थे। उनके मोहल्ले के बच्चे आई.आइ्र्र.टी. में आ गए थे.. उनकी भी इच्छा यही थी। पर वे निराश हो चुके थे।वह बालक सबसे कटा हुआ अपने आप में ही खोया रहता था।
 मैंने पाया, यह समस्या उनके बच्चे की नहीं थी,.. उनकी अधिक थी। वे अपना कत्र्तव्य कर्म यही मानकर चल रहे थे। मैं, बच्चे से मिला,... वह सुंदर था, मेधावी था... पर उसकी स्कूल में रूचि नहीं थी.. वहां वह निरंतर दबाब में था,.. जो छात्र उससे ज्ञानात्मक उपलब्धियों में आगे थे, ...शिक्षक भी उनकी ओर ही उत्सुक रहते थे। वे योग्यता के चरम शिखर पर थे। परिणामतः इस बालक में जहां आत्म विश्वास की कमी आ गई थी... वहीं इसका स्वाभिमान भी खोने लगा था। वह सामने आने से कतराने लगा था। ... हमेशा सपनों में खोया हुआ,.. अंग्रेजी की कहानियां, उपन्यास पढ़ा करता था। मैं उससे मिला, उसके साथ रहा... उसके सपनों को जगाया... जो सपने देेखते हैं, उनके ही पूरे होते हैं..’ उसकी योग्यता को परखा उसे समझाया। वह स्कूल की व्यवस्था ,वहां के वातावरण सेे स्वयं को काटकर ,एकांत जीवी होकर अपने आप में खोगया़ गया था। मैंने उसे समझाया,‘‘ तुम योग्य हो ,सपने देखते हो ,सपने देखना बुरी बात नहीं है,,जो सपने देखते हैं ,वे ही उन्हें पूरा कर पाते हेैं।’’
उसका भाषा पर अधिकार था,पर गणित में रुचि कम थी।
‘मैंने उससे कहा जो आगे हैं ,वे कई सालों से कोचिंग ले रहे हैं,तुम ने तो खुद मेहनत की है,यह तुम्हारी योग्यता है,तुम अच्छे लेखक बन सकते हो,अपनी भाषा की योग्यता पर गर्व रखो, जो कमी है उसे पूरा करने का प्रयास करो।पता करो तुम्हारी कमियों को तुम कैसे दूर कर सकते हो?ईमानदारी खुद के प्रति रखो,जहाॅं कमी रह गई है शुरुआत वहीं से करो।अपने आप से प्यार करना सीखो,जो अच्छाइयां हैं वे हमारी हैं हमने मेहनत से उन्हें पाया है ।जो कमियां हैं,वे हमारी हैं हमने पूरा प्रयास नहीं किया ।दूसरा कोई जिम्मेदार नहीं है।हम जहां पर हैं ,वहीं से शुरूआत कर सकते हैं।
उसकी सफलता की यात्रा बहुत लंबी है।

मैं फिर उसके आग्रह पर उसके नगर में गया था। जब वह ‘अमेरिका अपनी स्नातकोत्तर शिक्षा पूरी करने जा रहा था।
प्रश्न वापिस वहीं आकर खड़ा हो जाता है। हमने क्या खोया है, क्या पाया है?

स्वाभिमान के साथ सबसे सबसे बड़ी समस्या . उसके अहंकार में ढल जाने की है।
अहंकार तभी होता है, जब हम जो नहीं हैं, वह बताते हैं, उस रूप में काल्पनिक. हो जाते हैं। इससे हीनभावना पैदा हो जाती है। मध्यकाल में यही हुआ,... दुश्मन का सामना नहीं कर पाए, पराजित हो गए,. हम कायर थे,अहंकारी थे, इसीलिए गरीब जनता पर वर्ण व्यवस्था के नाम पर अत्याचार करते रहे।. सामंत लोग,  पशु-पक्षियों का शिकार कर कहर ढाते रहे। मुगलकालीन-चित्रकला सामंतों की ‘शिकार गाथा का उदाहरण है। इसलिए अहंकार जहां स्वरूप में नकारात्मक है, वहीं स्वाभिमान सकारात्मक है। यह व्यक्तित्व को बडा़ बनाता है।हम अपनी कमजारियों को जानते हैं,छुपाते नहीं हैं,कठोर मेहनत करते हैं,सफलता नहीं भी मिले पर पश्रिम करना नहीं छोड़ते हैं।

सही सोचें
विचारणा की प्रक्रिया पर यह होनी चाहिए कि जो सोचा जाए वह हमेशा समग्रता में हो।हमने जो निर्णय लिया है,हम उसका पालन स्वयं करें।  एक ही बात को बार-बार नहीं सोचना चाहिए। जब हम जानते हैं जो हम सोच रहे हैं ,यह फालतू की बाते हैं जिनका हमसे कोई सम्बन्ध नहीं हैं।वहां स्वयं पहल कर अपने मन को निर्देश देकर वहां से हटाने का प्रयास करना चाहिए।संक्षेप में यह विचारणा एक सतत निरंतर बनी रहने वाली मन की अवस्था है। हम जहां भी जाते हैं, जो भी क्रिया घटती है, हम बात सुनतेहैं, हमारी इंन्द्रियां जो भी सूचना हमारी ज्ञानेन्द्रियो कों सौंपती हैं हम तत्काल  उसकी प्रतिक्रिया करते हैं। और उसे एक पहचान दे देते हैं। फिर बार-बार घंटों उस पर चर्चा करते रहते हैं।इससे हमारा मन अनियंत्रित हो जाता है।उचित यही है,हम अपना निर्णय बनाएं,तत्काल प्रतिक्रिया नहीं दें। कुछ दिन प्रतीक्षा करें,जो निर्णय बाहर से आया है, अगर वह वही है जो हमने सोचा था तो हम अपने भीतर आत्मविश्वास की झलक पाएंगे।हमारी भाषा सही और निश्चयात्मक होने लग जावेगी। इसीलिए सही सोचना ,आत्मविश्वास के मार्ग की पहली सीढ़ी है।.
बच्चों के विकास के साथ, उनके इस ‘आत्म’ की खोज अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। हम जो कुछ उसके परिवेश, समाज, शिक्षा, पारिवारिक पृष्ठभूमि में उसे सौंपेंगे, वह उनके‘आत्म’ का हिस्सा बनता चला जाएगा।
आप पाएंेगे, जो बच्चे... अच्छे समृद्ध शिक्षित परिवार से आते हैं, अच्छे स्कूलों में शिक्षापाते हैं,जहां माता-पिता उन्हें अच्छा वातावरण देते हैं वहां उनका आत्म सम्मान बढ़ा हुआ मिलता है वहीं उनमें स्वाभिमान भी होता है।हमें चाहिए बच्चों को अच्छी शिक्षा दें,वैज्ञानिक सोच दें।बचपन में  उन्हें जितना सांप्रदायिक विचारधारा से बचाया जाए उतना ही अच्छा है।जिन सवालों का उत्तर हम नहीं दे पाते हैं,उन्हे ईश्वर पर छोड़कर,बच्चों की जिज्ञासा पर ताला लगाना उचित नहीं हैं। स्वयं अंधविश्वास रखना, भाग्य भरोसे रहना तथा अनावश्यक कर्मकांड बच्चों को सौंपना,जन्मपत्री लिए-लिए फिरना,बच्चों का भविष्य वूछते फिरना  सबसे बड़ा अपराध है।हम जानबूझकर बच्चों से उनका आत्मविश्वास ही नहीं उनका आत्म विश्वास भी छीन लेते हैं।

अपना सम्मान स्वयं करें
आत्मविश्वास जहां उन्हें सफलता सौंपता है, वहां स्वाभिमान उन्हें उत्कृष्टता सौंपता है। व्यक्तित्व सौंपता है। जब हम अपना सम्मान करते हैं, अपने आपको दीन हीन याचक नहीं पाते हैं ,तब हमारी रीढ़ की हड्डी सीधी खड़ी होती है। हम खम्मा अन्नदाता,, हुजुर मुजरा ‘.यस सर. शब्दों से परे चले जाते हैं। हम  अपने विकास का पथ जहां स्वयं निर्धारित कर  लेते हैं, वही हम उसके योग्य भी हो जाते है। भाषा के स्तर पर अनावश्याक चापलूसी से बचें।हम सही बात को विनम्रता से भी कह सकते हैं। 
यह सच है जहां परिस्थितियां मनुष्य के स्वाभिमान को प्रभावित करती हे, वहीं मनुष्य भी परिस्थितियों को प्रभावित कर सकता है। रानी लक्ष्मीबाई, विवेकानंद, महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस, भगतसिंह, मुंशी प्रेम चन्द्र, ध्यानचंद, और नाम हैं, जिन्होंने अपने स्वाभिमान से,... समकालीन समाज के रूपांतरण में योगदान दिया।भय और प्रलोभन से मुक्त जीवन ही आत्मसम्मान सोंपता है।

अगर व्यक्ति, बदले स्वरूप में, समाज में, स्वाभिमान को पा लेता है तो उसकी व समाज की परिस्थितियां भी बदल सकती हैं। आज भारत को स्वाधीनता मिल गई है, पर स्वाभिमान नहीं मिला है’... उसकी प्राप्ति ही मौलिक परिवर्तन में सहायक होगी।  हम हमेशा दूसरों के बारे में ही सोचते रहते हैं,... दूसरों में ही परिवर्तन चाहते हैं,.. अपने आप में नहीं,।दूसरों का भी  बुरा अधिक सोचते हैं। पुरुषार्थ की अवहेलना ही हमारी गुलामी,हमारे पतन का कारण रहा है।हम हर तरह से चाहे सही हो ,गलत हो अपना काम निकालना ही सफलता मान बैठे हैं।जो समाज जितनागलत कार्य करता है वह उतना ही धर्म भीरू होता है।फिर हम चाहते हैं हमारे बच्चे भी हमारा अनुकरण करें, क्या यह उचित है?हम स्वयं अपने आप को सम्मान नहीं दे पाते हैं,अपनी अच्दाइयों को भगवान को या किसी गुरू को सोंपकर दीन हीन बना रहना चाहते हैं,और चाहते हैं उनकी कृपा से,हमारी कमियां अपने आप दूर होजाएंगी,तथाकथित गुरू भी हमें आश्वस्त करते रहते हैं।परिणाम यही है ,हम मात्र भीड़ की एक भेड़ ही रह जाते हैं।
आप साधु महत्माओं के चक्कर लगाने लग जाते हैं।अपने आपको हीन मान लेते हैं। ज्योतिषियों का बाजार इसीलिए पनप रहा है।बेपढ़ेलिखे लोग तंत्र के नाम पर लूटमार करते हैं।

अपने आपको प्यार करो.

इसीलिए कहा जाता है, अपने आपको प्यार करो.।अपनी अच्छाइयों के प्रशंसक बनो,अपनी कमियों को स्वीकारो,स्वीकारी गई भूल फिर दुबारा नहीं होती है। इससे मन शक्तिशाली बनता है।अपना आकलन खुद करें,तब हम अपनी क्षमता को सही-सही जान सकते हैं।. अपने आप से लड़ो मत, संघर्ष करोगे टूट जाओगे... उससे प्रेम करो..।. उसे समझो.,कमी दिखती है,तनाव में जाने की जरूरत नहीं है।अपने आपकोे प्यार से समझाओ।हम ही अपने मित्रहैं ,हम ही अपने दुश्मन हैं  ,यही सार तत्व है।. तो प्यार और बढ़ेगा फिर परिस्थितियां भी बदलने लग जाएंगी। कल तक दासता भले ही रही हो.. आज स्वाभिमान की सुगंध तो प्राप्त हो सकेगी। हमारा आत्म कोई पत्थर नहीं है,यह हमारे ही विचारों से बना है। हम इसे बदल सकते है।वह शक्ति हमारा ज्ञान है,हमारा पुरुषार्थ है,हमारा विवेक है, हम उसका आदर करें,उसके बताए मार्ग पर चलें,हमें सफलता अवश्य मिलेगी।

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कविता

जंगल का दर्द
न दल, न दलदल, बस एक दरख़्त
बैठे हैं जिसके नीचे
लड़ते झगड़ते, लार टपकाते, अंतहीन रेवड़
प्रतीक्षा हैं सबको
कि दरख़्त गिर जाए
इतिहास कहता है दरख़्त जब गिरता है
तभी कुछ होता है।
दरख़्त अब होते ही नहीं
जंगलात का हाकिम कहता है
नहीं है शेष एक पेड़ यहाँ से वहाँ तक
जो, जा सके आरा मशीन तक।
निपट खाली मैदान
जंगल अब रहता ही नही है
चलो रोप आएँ हम एक पेड़
कल तुमने ही कहा था,
मौसम भी अब मज़ाक करता है
तभी कह रहा था
वक़्त को अब हरी दूब की जरूरत है
न शाख होगी, न कटेगी
दूब का क्या,
जब कुचलती है
तभी हरी होती है
और हरा होना
इस मौसम में युग गांधारी की होनी जरूरत है।

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कविता

सोमवार, 13 जुलाई 2009

जंगल जलते हुए
नहीं, नहीं, नहीं
यह तुमसे किसने कहा
ज़मीन उसकी होती है जो हल चलाता है
भूख की शिद्दत में
ज़मीन कलेजे से चिपकाए हुए
आषाढ़ी बादल निहारता है।
ज़मीन साहब की है
बी.डी.ओ. जिनके यार हैं
तहसीलदार ख़ास हैं,
पटवारी फसल का हिसाब लिखा करता है
तालुका अधिकारी की जहाँ मौज मनती है
ज़मीन उन साहब की है,
तेरी भी, मेरी भी, और उन सबकी भी
जिनके हाथ पतले हैं
थके थके जिस्म कुम्हलाए हैं
सब उनकी हो चुकी है।
ज़मीन अब
माँ नहीं, बहन नहीं, धर्म नहीं, प्यार नहीं
औरत है
नहीं उससे भी गई गुज़री बाज़ारू तवायफ है
जिसके पेट में दौलत की खाद जब गिरती है
सोना उगलती है
साहबों के लिए वह
वह साल में दो बार दौलत जनती है।
तेरी भूख का जमीन से वास्ता नहीं है
तेरे पास जो इतिहास है
वह तेरा है,
तेरे पिता,
तेरे बाबा,
तू इतिहास आंखों में रखता है
तेरे घर में कुम्हलाए फूल
साहबों के गले में माला बन सिसकते हैं।
ये कागज..... ये किताबें
वकील और ये अफ़सर
पोषाहार केन्द्र की तरह चलते हैं
तेरी आग को पलाश वन में मैने देखा है
जंगल जब जल रहा था
यह आग कब हड्डियाँ जलाएगी
यह आग
तेरी आंखों में क्या महाभारत उठाएगी
वामन.........
तेरे तीन डग कब पदचिन्ह बनाएंगे
प्रतीक्षा है
ज़मीन और औरत के बीच की तमीज़
कब अंगार बन दहकेगी।
ज़मीन उसकी नहीं जो कागज़ में नाम रखता है
ज़मीन उस हाथ की
ज़मीन उस फौलाद की
जो ज़मीन काबू में रखता है।

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