आग नाटक
मंगलवार, 21 जुलाई 2009
आग
आग का क्या
न उसकी कोई जाति होती है........ न मत।
उसका काम बस जलाना है
और हल्की हवा का सहारा पाते ही
भभक जाना है
क्या सचमुच तुम्हें आग की तलाश है
तभी तो मुर्दाघर में
दबे पाँव घूम रहे हो
हाँ यह सच है
यहाँ लोग भी रहते हैं
जो हंसते हैत्र् गाते हंै लड़ते हंै झगड़ते हैं
और कभी कभी प्यार भी करतें हैं
इन खिलौनों के लिए
आग, पानी, हवा, और बर्फ
कहीं कोई भेद नहीं है
तभी तो
कई शताब्दियों से
अतीत या़त्रा के सुनहरे संवाद दोहरा रहे हैं
क्या अभी भी
तुम्हें आग की जरूरत है
जब कि वह लाइटर में रखी हुयी
खुले बाजार मिल रही है।
नाटक
क्या अभी भी तुम्हें
फिर नए नाटक की तलाश है
तुम्हारा यह पुता हुआ चेहरा
हाय
हमारी ही चुराई सेलखड़ी से सजा हुआ
पहचान लिया गया है
अंधों की भीड में,
हाँ, तुम्ही तो थे
ले गए थे चुराकर
उनकी अबोध आखें
नाटक के पहले ही दौर में
कितना सुखद है नाटक
नायक खलनायक
तुम्हारे ही चेहरे की अलग अलग भूमिकाएँ
और हम अकेले
हर बार
तटस्थ मूक दर्शक
और इस नाटक का
अंतिम दृश्य
क्या होगा, कब होगा
सबको है तलाश
और तुम सचमुच
कितने हो होशियार
पहला ही दृश्य
हर बार दोहरा रहे।
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