कविता

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

जंगल का दर्द
न दल, न दलदल, बस एक दरख़्त
बैठे हैं जिसके नीचे
लड़ते झगड़ते, लार टपकाते, अंतहीन रेवड़
प्रतीक्षा हैं सबको
कि दरख़्त गिर जाए
इतिहास कहता है दरख़्त जब गिरता है
तभी कुछ होता है।
दरख़्त अब होते ही नहीं
जंगलात का हाकिम कहता है
नहीं है शेष एक पेड़ यहाँ से वहाँ तक
जो, जा सके आरा मशीन तक।
निपट खाली मैदान
जंगल अब रहता ही नही है
चलो रोप आएँ हम एक पेड़
कल तुमने ही कहा था,
मौसम भी अब मज़ाक करता है
तभी कह रहा था
वक़्त को अब हरी दूब की जरूरत है
न शाख होगी, न कटेगी
दूब का क्या,
जब कुचलती है
तभी हरी होती है
और हरा होना
इस मौसम में युग गांधारी की होनी जरूरत है।

1 टिप्पणियाँ:

cadwellignasiak ने कहा…

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