वर्षा

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

वर्षा
क्या नहीं होता वहां
वर्षान्त कीचड़ और कमल
लगते हैं एक ही,
हवाएँ जो कभी होती हैं मुखर
या तो मुंह फुलाए
जाती हैं दुबक किसी कोने में जाकर या
बाल बिखराए कलह कर देती हंै।
कभी कभी
चाहती महकना सुगंध सी
आरती में रहकर।
पुजारी और जुआरी
एक ही हुजूम में
प्रभु दरवाजे रहते सिमटना,
पर पट रहे बंद
लड़ते पुजारी और उसके वंशज
दर्शक तिरस्कृत से
धक्के खाते, धकियाते
सुना यही जाता है
इस मौसम में छाता सचमुच जरूरी है।

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