कविता
मंगलवार, 28 जुलाई 2009
इतिहास के मध्य से
देह को तोड़कर गुज़रती जा रही हैं
बर्फीली हवाएँ
कहाँ तक रुकें अब और
अब तो खड़ा भी नहीं हुआ जाता है
न जाने उनने कब
देह में रोपे थे बीज
कि आग बुझती चली गयीं
मट्ठियाँ ऐसी तनी
खुली नहीं
बस जड़ रह गयीं
वाह रे
कैसा उड़ा गुलाल
बदलाव लाने की जगह
पालागन हो गया
ओ रे मन
कब आया था वसन्त तुम में
कुछ याद है
कब तुमने मिटने मिटाने की कसम खाई थी
कितने अच्छे थे वे दिन
अब तो सपने भी नहीं आते हैं
कि हमने कभी ऐसे सपने भी देखे थे।
देह राग
इस बीहड़ वन में कहीं तुमने
पलाश जलता देखा है
जब कि लोग कहते हैं
जंगल कटने का वक्त आया है
अब इस मौसम में
चुप रहने की आदत हो गई है
कैक्टस गुलाब लगता है
निज मन पराए रूमाल में लिपटा
प्राणायाम कर रहा है।
क्या तुम पर भी
ऐसा हादसा कभी गुज़रा है
तुम्हारे जिस्म में पलाश वन
अचानक उग आया है
और जल रहा है
तब तुम्हारे पास से शायद
पतझड़ गुजरा होगा अचानक
पालकी में बैठकर
हंसता हुआ
कह गया होगा
देखो इस बीहड़ वन में भी पलाश जल रहा है
तब झाड़ियाँ
तालियाँ बजाकर हँस रही हांेगी।
3 टिप्पणियाँ:
बहुत अच्छी कविता
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1. विज्ञान । HASH OUT SCIENCE
2. चाँद, बादल और शाम
3. तकनीक दृष्टा
behatrin kawitaye
’भूख का रोटी से, रोटी का केलोरी से
जो रिश्ता बना है,
वही भूखे पेट का हिसाब भी रखता है”
चतुर्वेदीजी ,आपाकी कविताओं का यथार्थवाद वाकई सराहनीय है। बधाई,आभार!
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