कविता,

सोमवार, 11 मई 2009


नरेन्द्र चतुर्वेदी की कविता उनके काव्य संग्रह अभी वो जीवित हैं संग्रह से यहाँ दी जारही है।


 क्योंकि

अचानक रेल के डिब्बे में
भारी भीड़ में तुम्हारा पहचाना सा चेहरा
यह तुम,’तुम हो,.’.. यह वह,
स्मृतियों पर पड़ा पत्थर
हटाए नहीं हटता,

मांगीलाल हो या पन्ना, या भूरा या गोपी
चेहरे उनके जो साथ रहे
पहचान नहीं दे पाए
हंसते-गाते, बोलते-चलते,
कुछ मर गए
कुछ खप गए
रात-दिन की दौड़ में,
”सर!“ अनुगूंज में,

पहचान उठती है
पहचान गिरती है
जिसे पहचानता है, जो पहचानता है
उससे वह छोटा है
जिसे पहचाना, वही बड़ा होता है,
दुनिया का यही नियम दुनिया कहा जाता है।
पहचानकर, अजनबीपन
न जाना, न पहचाना, बुत को अपनाना
सचमुच सुखद होता है,
नहीं जो जिसको पहचाना वही तो बड़ा होता है।

जबकि बात उसकी है
उसके लिए आए हैं
सामने उसी का पोस्टर टंगा है
उसी की कोशिश में यह ‘रत जगा’ है
पर हमने पहचाना तवह सर चढ़ेगा
सर पर कदम रख, कदम ताल करेगा,
यह खतरा जिसने जाना है ,
वही आज की दुनिया का हरकारा हैं

चुप रहो,
चुप रहो,
उनको  ही पहचानने दो
दुनिया अजनबी है

हम इस पहचान के मात्र साक्षी हैं
साक्षी रहना,
वक्त की जरूरत है,
जो साक्षी है
वही सुरक्षित है,सुरक्षित रहना हमारी जरूरत है।

1 टिप्पणियाँ:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सर जी!बड़ी जटिल रचना है। आज के युग में पहचान के संकट के निहितार्थों को खोलती हुई।

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