पूज्य स्वामीजी
शनिवार, 2 मई 2009
ृृृृृृृअन्तर्यात्रा पूज्य स्वामीजी के सानिध्य में लिखा गया पहला ग्रन्थ है।यहाँ स्वामीजी के विचार तथा उनसे पूछे गए सवालों के उत्तर जो प्राप्त हुए थे वे दिए गए हैं।यह पहले ही बता चुके हैं कि स्वामीजी ने अपना कोई स्वतंत्र पंथ नहीं चलाया , वे एक अनन्य खोजी थे, निरन्तर मौन में रहे, आपने प्रश्न पूछा तो उत्तर दे दिया अन्यथा वे मौन ही रहते थे। उनकी कुटिया सभी के लिए हमेशा खुली रहती थी।वहाँ जाति, संप्रदाय , का कोई भेद नहीं था।
साधना की ओर
यह प्रश्न और कहीं नहीं, हर साधक के सम्मुख ही सबसे पहले उपस्थित होता है कि साधना क्यों ? हम चाहते क्या हैं ? मनुष्य की मांग क्या है ? अगर वह अपनी वर्तमान स्थिति से सन्तुष्ट है तो फिर यह प्रश्न उपस्थित ही नहीं होता है। परन्तु अगर उत्तर नहीं से आए...तो यह प्रश्न महत्वपूर्ण हो जाता है।
जिसका पेट खाली है उसके सामने भूख का सवाल सबसे बड़ा है। लगता है यही सबसे बड़ी जरूरत है। नौकरी, और नौकरी उससे बड़ी नौकरी या बड़ी दुकान खोलना, सब पेट भरने का ही तो साधन है। पर पेट कितना बड़ा है,जितना धन होता है, उतना ही खाली रहता है। किसी तरह जब पेट भरता है, तब शरीर की भूख जगती है। इसीलिए शरीर की भूख न जगे, हजारों साल से पेट की भूख पर नियंत्रण रखने की बात कही जा रही है। अनशन, उपवास सब उसी के रूप हैं। पेट की भूख और शरीर की भूख जैविक आवश्यकताएं हैं। इससे इतर मनुष्य की मानसिक और बौद्धिक आवश्यकताएं भी बढ़ती हैं। कला और संस्कृति, सभ्यता और विकास यात्रा, इन्हीं का विस्तार है। सभ्यता, मनुष्य की बहिर्मुखता का ही विस्तार है। मन चंचल है, गत्यात्मक है, इसीलिए सभ्यता निरन्तर गतिशील है। पर यह मन की स्वाभाविक अवस्था नही है। वह कितना भी गति में क्यों न हो, सदैव नहीं रह सकता। उसे प्रशांिन्त की स्थिति में आना ही होता है। हर श्रम का प्रारम्भ और अन्त प्रशान्ति में है। नींद से उठकर मनुष्य सब कुछ करता हुआ नींद में जाना चाहता है। यही उसके सम्पूर्ण जीवन की यात्रा है।
विश्राम, मन की स्थिरता हैं, यही कला और संस्कृति आकार ग्रहण करती है। संस्कृति मन की अन्तर्मुखी यात्रा है।
यह भी मनुष्य की मांग है। यहां सुख भी है, शान्ति भी है।
पेट की भूख और शरीर की भूख के बाद विलासिता की भूख बढ़ती है। विलासिता का आधार आकांक्षा है, संसार इसी कामना का ही विस्तार है।
मनुष्य सम्भावना की भूख में रहता है, निरन्तर कुछ न कुछ होने की सम्भावना। दैविक आवश्यकताओं के ऊपर मानसिक और बौद्धिक आवश्यकताएं है। यह जो भूख है, उसका आधार आकांक्षा है।
और इन सब आवश्यकताओं का एक लम्बा सिलसिला है, जिसमें कि मनुष्य उलझता है।
सवाल फिर खड़ा होता है।
यह सब क्यों ? मैं इतना सब कुछ क्यों चाहता हूं ? मैं आखिर जीवित ही क्यो हूं ? मैं इस लंबी यात्रा पर निरन्तर चल ही नहीं रहा हूं, दौड़ रहा हूं, आखिर किसलिए ?
पेट की भूख, समाप्त होते ही, तुष्टि देती है। शरीर अपनी कामक्षुधा की तृप्ति के बाद क्षणिक तुष्टि लेता है। सिलसिला रूकता नहीं है, चलता रहता है। पढ़ना रोज पढ़ना नौकरी तक। नौकरी से और दूसरी बड़ी नौकरी तक धन की ललक। आदिम पारस की ललक जो वस्तुएं देंगी। वस्तुएं जिनसे परितुष्टि प्राप्त होगी। शरीर क्षणिक है, जर्जर है, कब ढह जाए, इसीलिए अमृत की खोज हुई। शरीर ही नहीं रहा, तब तुष्टि किसे ?
अकसर इन्हीं सबके लिए उमर बीत जाती है।
मन्दिर, यज्ञ, तप, स्वाध्याय, गुरू भण्डारे इन सबके पीछे जो भीड़ है, वह क्या चाहती है ?
तुष्टि का अगाध भण्डार ! उसकी तृप्ति में कभी कोई कमी न आए। यही सुखोपासना सभ्यता का केन्द्र है।
संकल्प पूर्ति सुख देती है, और संकल्प पूर्ति का अभाव दुख देता है। यही सुख दुख की यात्रा है।
मनुष्य सुख चाहता है, मात्र सुख !
सुख अल्प है, दुःख अनन्त है।
इसीलिए ईश्वर की खोज है। एक बड़े आधार की खोज, जो दुख दूर करेगा अनवरत सुख देगा।
अनन्त सुख !
और यही नही मिलता है।
शेष रह जाता है विक्षोभ, व्यथा, दुख का प्रभाव यहीं से साधन यात्रा शुरू होती है।
स्थायी सुख की खोज शान्ति की खोज !
जहां अमृत है !
कामना पूर्ति से प्राप्त तुष्टि का भाव ही सुख है। यह क्षणिक है। मन कामनाओं का सागर है।
एक कामना की पूर्ति हो, इसके पूर्व ही हजारों कामनाएं पैदा हो जाती हैं। क्या वे सब पूरी हो पाती हैं ?
वस्तुगत उपलब्धियों की खोज में व्यक्ति डूबा रहता है। वे ही जीवन का साध्य हो जाती हैं।
और इधर जीवनी शक्ति निरन्तर क्षीण होती चली जा रही है। भारी छटपटाहट है।
वस्तु में सुख तलाशा, प्रयास किया। पर जब तक वस्तु आई शरीर धोखा दे रहा है।
लौटकर दुख ही शेष रहता है। विक्षोभ का धारावाही व्यूह मनुष्य को जकड़े रहता है।
सामान्यतः यही मनुष्य की यात्रा है।
मनुष्य यह मानकर चलता है कि यह जो दूसरा है, वह उसे सुख देगा। दूसरे की खोज ही संसार की यात्रा है। दूसरा पिता में, पत्नी में, पुत्र में समाज में, धन में मकान मेे, यश में हर जगह ढूंढा जाता है।
सुख दूसरे से ही प्राप्त होगा, यह वह मानता है, और दुख ?
इस सवाल पर वह सोचता ही नही है।
यह जो दूसरा है। जो संसार है, क्या कभी उसकी आवश्यकता की पूर्ति कर पाता है ?
और सच तो यह है कि यह जो दूसरा है। हमेशा कल में ही आता है। दूसरा, जो है, जीवेषणा में है। कामना में है।
उसका आकर्षण यही है कि उसके आधार पर भविष्य की आशा शेष है।
इसीलिए मनुष्य भगवान को अपने से अलग मानता है, उनसे कुछ मांगता है और इसी तरह वह इस आशा में जीवित रहता है कि वह जो दूसरा है, उसे आज नहीं तो कल सुख ही देगा।
जहां मनुष्य अपने स्वरूप को छोड़कर, अपने स्वभाव से अनभिज्ञ रहकर दूसरे से जुड़ता है, वहीं वह दुख पाता है। यह जो दूसरा है, उसका कभी नहीं हुआ। क्योंकि वह उसका है ही नहीं। उसकी इससे नित्य दूरी है। इसलिए इस दूसरे के लिए, जो संसार है, शरीर है, धन है, परिवार है, सुख की लालसा बनी हुई है। वह कभी पूरी होगी कि नहीं ? मनुष्य उसे ही पा सकता है, जो कि उसका है। सदा से उसका रहा है।हां, आज भले ही उसकी विस्मृति हो गई हो।
लेकिन होता यह नहीं है, मनुष्य जो उसका है, जो वह है, उसे छोड़कर जो उसे कभी प्राप्त नहीं होने वाला है, निरन्तर परिवर्तनशील है, उसे चाहता है और जब वह उसे नहीं मिलता है, तब वह दुखी होता है। विक्षोभ जग जाता है। दुख का कारण है- अपने को छोड़कर, पराये सुख की खोज करना।
जो स्वभाव है, उसे भूलकर जो नहीं है, उसमें डूबना।
जब तक स्वयं की समझ नहीं होती। दुख के कारण ही तलाश नहीं होती। तब तक यह दूसरा ही महत्वपूर्ण रहता है।
यही विडम्बना है।
दुख दुखी के उद्धार के लिए आता है। उसकी समझ को जाग्रत करता है। पर वह लोलुपता के अधीन होकर सुख की तलाश में भटकता रहता है।
इसीलिए दुख और उसका प्रभाव आदर के योग्य है। यही प्रभाव अपनी तीव्रता में ‘जो है’ उसके प्रति ध्यान दिलाता है। जब वह पाता है कि संसार उसकी आवश्यकता की पूर्ति में सहायक नही है तभी वह अन्वेषी बनता है। खोजी होता है।
‘जो’ अब तक विस्मृति में था, उसकी स्मृति ही जिज्ञासा जगा देती है। जिज्ञासा जगते ही विवेक का आदर होता है। विवेक था, अभी भी जीवन में था, पर बुद्धि का आदर था। विवेक तिरस्कृत था। विवेक का आदर होते ही, अविवेक छूटता है। विवेक ‘जो’ है, उसके प्रति आदर भाव तथा जो नहीं है, उसके प्रति अनादर भाव का भाव जगाता है। आदर का भाव ज्यों-ज्यों दृढ़ होता जाता है, आचरण में स्वाभाविक परिवर्तन आता है। जिसे छूटना है, वह छूटना शुरू हो जाता है। अविवेक से ही बुरे भाव और बुरे कर्म होते हैं। विवेक के जाग्रत होते ही, जो कुछ श्रेष्ठ है,वह आचरण में आने लगता है। साधन प्रारम्भ हो जाता है। साधन कहीं बाहर नहीं अपने पास ही है।
अपनी आवश्यकताओं को समझा जाए। मन का आगे पीछे का चिन्तन ही बाधक है, जो स्मृतियों तथा आकांक्षाओं में डूबा रहता है। यही अविवेक है। यही विक्षोभ का कारण है। इसीलिए आवश्यक है कि पहले निज के विक्षोभ को समझा जाए। जब तक विक्षोभ की समझ नही होगी, तब तक बाहर आने का सार्थक प्रयास भी नहीं हो सकता।
वह सोचता है कि जो दुख दूर कर देगा। जीवन भर भौतिक वस्तुओं की अप्राप्ति ही दुख बन जाती है। वस्तुओं की दासता और उनकी अप्राप्ति दुख का बहुत बड़ा कारण हो जाती है। वह वस्तुओं से अपने आपको बाहर ला नहीं पाता। वह उनकी प्राप्ति के लिए छटपटाता रहता है। यह प्राप्ति ओस कणों से प्यास बुझाने की तरह है। उसकी सांसारिक भूख उसी तरह आजीवन कायम रहती है। कभी-कभी अवसर आता है, विवेक कौंध जाता है। उसे लगता है कि कामनाओं की पूर्ति से प्राप्त तुष्टि क्षणिक है। हर कामना पूरी भी नहीं होती। अतृप्त कामनाएं असंख्य रहती हैं। अपूर्ति से विक्षोभ दुख का अनवरत प्रवाह कायम रहता है।
कभी कभी विवेक का आदर जब साधक करता है, तो व्याकुलता बढ़ती है। जिज्ञासा बढ़ती है। वह अविवेक को समझ जाता है, समझ बढ़ते ही वह साधन यात्रा पर बढ़ जाता है। अन्यथा वह पुनः विवेक का अनादर करते ही सांसारिक प्रवाह मे डूबता चला जाता है।
कामना निवृत्ति ही शांति में प्रवेश कराती है।
यहां सरोवर की लहरें शांत हैं। तली स्पष्ट दिखाई देने लगती है। चित्त दर्पण है। पक्षी उड़ा तो लगा, वह यह दिखा। जब तक वह उड़ता रहा, बिम्ब रहा। जाते ही जल, फिर वही दर्पण का दर्पण !
यही तो प्रशांत मन है।
जो है उसी पर ध्यान केन्द्रित रहे, यही साधन है। जो निरन्तर बदलता रहा है, वही गलत है। वह स्वरूप नहीं है। उससे छूटते ही स्वरूप उपलब्ध होता है। जो भी बदल रहा है, वह मैं नहीं हूं। यह शरीर जो मुझे मिला है, क्या मैं हूं ? यह संसार जो बदल रहा है, क्या मैं हूं ? शरीर मन और संसार सब बदल रहे हैं। संसार मन का ही तो विस्तार है। जगत और शरीर प्रतिरूप ही हैं। जो निरन्तर बदल रहा है, वह सत्य नहीं है। जो असत्य है उसी पर ही तो ध्यान है। उसी का ही चिन्तन है। उसी की ही खोज है। उससे ध्यान हटाना ही ध्यान है। वह तो है, उस पर जब ध्यान पहुंचता है, तभी स्वरूप उपलब्ध होता है। तभी स्थिरता प्राप्त होती है।
इसीलिए ध्यान जो है उसके अवलोकन की कला है। यह शरीर जिस इन्द्रिय के द्वारा यह कार्य कर पाता है वह मन है। तभी तो सारा बह्माण्ड इसी से हलचल लेता हुआ दिखाई पड़ता है। मन की गति असाधारण है, कहा जाता है कि प्रकाश की गति भी उसके सामने कुछ नहीं है। इसीलिए ध्यान आन्तरिक अवलोकन ही कहा गया है। प्रायः ध्यान का अर्थ मानसिक एकाग्रता के लिए लिया जाता है। मन के द्वारा किसी यन्त्र रूप या नाम के प्रति सजगता पूर्वक रखी गई एकाग्रता ही आजकल ध्यान कही जाती है। यह याद रखिए ध्यान, एकाग्रता नहीं है। एकाग्रता मन की बहिर्मुख वृत्तियों को किसी नाम, रूप या मन्त्र पर केन्द्रित करने का अभ्यास ही है। परन्तु एकाग्रता को ही साधना-यात्रा स्वीकारने से साधक, साधन पथ को ही छोड़ बैठता है।
हमारे संकल्प से निश्चित की गई, यह देव प्रतिमा, यह मन्त्र, यह नाम, फिर इतना शक्तिशाली हो जाता है कि मन उससे छूट नहीं पाता, और जो होना चाहिए था, वह नहीं हो पाता है। चित्त पुनःऔर अशांत हो जाता है। अप्रमाद के स्थान पर प्रमाद पुनः उपस्थित हो जाता है।
”ध्यान” एकाग्रता नही है।
ध्यान सतर्कता सहित आंतरिक विचारणा का अवलोकन है। हम जो भीतर हैं, वही वास्तव है। उस वास्तव की सही-सही विश्वसनीय पहचान ही ध्यान प्रक्रिया है। हम जो है, एक स्थिर इकाई नही हैं। हर क्षण हम बदल रहे हैं। जो चीज बदल रही है, वह हमारी आंतरिकता नहीं है।
मन के संकल्प-विकल्प की अनवरत श्रंखला है। इसी श्रंखला, इसी विचारणा का सतर्कतापूर्वक किया गया अवलोकन ही ध्यान है।
अवलोकन दूसरे शब्दों में मात्र देखना।
बाहर नहीं भीतर देखना है। देखते समय ईमानदारी यही रखनी है कि किसी प्रकार का कोई पूर्वाग्रह नही ंरखना है। बनी बनायी पूर्व निर्धारित को क्या देखना। जो बात तय कर ली जाय, जैसे कोई नाम, कोई रूप, उसका अवलोकन ध्यान नहीं है। यहां जो लहरें उठ रही हैं, उन्हें बिना किसी तिरस्कार के, बिना किसी चश्में के देखना है, यहां पर सम्पूर्ण विचारणा को उसके वास्तविक रूप में देखने का प्रयास है।
यह अवलोकन ही क्रमशः स्थिरता प्रदान करता है।र्
िस्थरता ही साधना का लक्ष्य है।
मन का आगे पीछे का चिन्तन ही बेहोशी है। यह वर्तमान से पलायन है। यह नींद है।
सच है, हम जागते हुए भी सोए रहते हैं। कोई पूछे तो हमें लगता है, हम कहीं और थे। यही विवशता असाधन है। इसका त्याग होते ही साधन स्वयं प्राप्त हो जाता है। यह साधन अगर साधक में पर्याप्त धैर्य रहा तो अवश्य ही साध्य से मिलायेगा।
मन की गति असाधारण है। क्षणभर मे ही न जाने कहां से कितनी बातें आ जाती हैं। चित्र ही चित्र ! न जाने कितने युगों से हम चित्र ही चित्र सहेजते आ रहे हैं। ये ही स्मृतियां हैं, जिन्हें हम मन मान बैठे हैं। मन जब इनके साथ सहयोग करता है, तो ये गाढ़ी हो जाती हैं। मूलधन ब्याज कमा लेता है।
मन अगर स्मृतियों के साथ असहयोग करे तो मूलधन ही खर्च होना शुरू हो जाता है।
यही हमें करना है।
यहां न कुछ अच्छा है,न बुरा।
अन्यथा हम सही रूप को जान ही नहीं पायेंगे। जो कुछ है, भीतर है। अंधेरी बावड़ी में रखा हुआ है। उसे बाहर तो आने दें। जहां अस्वीकार किया, वहीं ध्यान ध्यान नहीं रहा। प्रायः अपने भीतर के गंदलाए जल को देखकर हम चैंक जाते हैं। और अस्वीकार करने लग जाते हैं। या उससे बचकर ईश्वर के किसी रूप या नाम में डूबने लगते हैं। यह क्या है, यह तो पागलपन है। परमात्मा का मार्ग कायरता का मार्ग नहीं है। यह अज्ञान है। यहां हमारी जागरूकता यही है कि हमारी उपस्थिति बनी रहे, जहां हम हैं, हाजरी रहे।
छात्र कक्षा मे आते है। पर जरा पूछो तो लगता है- यहां थे ही कहां, कहीं और थे। गायब।
”ध्यान” गायब होने का नाम नही, साक्षत अनुभवन है। जो कुछ है,विश्वसनीय साक्षात्कार यहां है।
यही ध्यान उस विराट आनन्द स्रोत से हमें जोड़ देता है, जो हमारा साध्य है। इसीलिए ध्यान मात्र प्रक्रिया ही नहीं है। हर प्रकार की क्रिया का यहां अन्त भी है।
यहां सब प्रकार के बंधन छूट जाते हैं। ज्ञान की अग्नि उठते ही अज्ञानरूपी कूड़ा कचरा जलकर राख हो जाता है। बंधन वे पाश जिनसे हमने अपने आप को बांध रखा है, टूट जाते हैं। संसार के प्रति उमड़ती हुई कामनाओं के बादलों के हटते सी शेष रह जाता है, खुला आकाश, निरभ्र और शांत, जहां फिर कोई अभाव नहीं।
अगर हमारे पास थोड़ा सा अवकाश हो, और हम अपने आपको सामने रखकर देखें तो पाऐंगे, हमारे भीतर जो आकांक्षाएं हैं, वे दो विभिन्न रास्तों पर चलना चाहती हैं। ज्वार सा उमड़ता है।
यही वह द्वन्द है जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है। भोगेच्छा और भगवदेच्छा भोगेच्छा संसार की ओर ले जाती है, यह सांसारिक सुख को ही जीवन की उपलब्धि मानती है।
दूसरी ओर इस सुख-दुख के झंझावात से उठकर फिर शांति की ओर बढ़ने की इच्छा उमड़ती है। वही भगवद् इच्छा है, जो मनुष्य को सांसारिक जगत में व्याकुल बनाये रखती है।
शास्त्रों में इसे ही ”योगमाया” कहा जाता है। यही मोक्ष अभिलाषा है, यही साधन यात्रा में साधक के मन में प्रयत्न उपस्थित करती है।
साधन यात्रा संसार से पलायन नही है।यह संसार के प्रति सभी संबंधों की तलाश है।
यहां जो प्रयत्न है, वह उस समझ पर आधारित है, जो उसे आभ्यान्तरिक प्रश्न के लिए प्रेरित करती है। वह अधूरापन जो उसे हर समय अशान्त रखता है- उसे दूर करने का है। इसलिए यहा व्यक्त्तिव का सम्पूर्ण रूपांतरण है। यहां आभ्यन्तर तथा बाहृा जीवन का एक ऐसा परिवर्तन है कि यहां देह परमात्म भाव के साथ ही परमात्म कर्म की साधन बन जाती है। इसीलिए साधन यात्रा की उपलब्धि सांसारिक देहात्म भाव से ऊपर उठकर आत्मानुभव ही नहीं, बल्कि साथ ही उस परमात्म भाव को जीवन तक भी ले जाना है।
आज के मनुष्य के सामने उसका अशांत मन ही कष्टकर है। वह पाता है कि अपने समस्त भौतिक प्रयत्नों के बाद भी वह विक्षोभ से बाहर नहीं निकल पाता है, वह इसी विक्षोभ को दूर करने के लिए कभी जगत में पूरी तरह बैठना चाहता है तो कभी इससे दूर कहीं और भागना चाहता है। मन जो बीमार है, अशांत है, एक पल को भी तो स्थिर नही रह पाता है। कभी अतीत में तो कभी भविष्य में दौड़ता ही रहता है। कितनी हिंसा भरी है। कितना गंदलाया जल है। सदा अपने को छोड़ परायी खिड़की में झांकता ही रहता है। क्योंकि वही तो इसका रस है। जब तक इसे संसार की समझ नहीं होती, तब तक मन का अपना जो स्वरूप है, वहां लौटना असम्भव है।
यह जो विक्षोभ है, उसका जनक यह संसार, और उसकी ओर ले जाने वाली आकांक्षाएं हैं। यही हम जान पाए है। अभिलाषा ही कारण है जो कार्य में परिणत होती हैं। ज्यों-ज्यों हम निम्न प्रकृति से मुक्त होने लगते हैं, त्यों-त्यों हम भगवतकृपा के हकदार बनते चले जाते हैं।साथ ही, जितनी भगवत्कृपा हम पर होगी उतनी ही निम्न प्रकृति की शुद्ध होेती रहेगी यह साधारण नियम है। इसीलिए बहिर्जगत में छोड़ने और छूटने के प्रति यहां अत्यधिक आग्रह नहीं है। जो कुछ छूटना है स्वतः ही होता जायेगा। जब हम इस यात्रा पर बढ़ेंगे। छोड़ता और ग्रहण करता मन ही है। मन का छोड़ा ही छूटा है और मन का ग्रहण किया चिपटाता है।
चित्त शुद्धि और भगवत् कृपा का पारस्परिक संबंध है। जितनी अधिक स्थिरता हम प्राप्त करते जाते हैं, उतनी ही अधिक भगवत कृपा हम प्राप्त करते हैं। यही साधना यात्रा है। इच्छा रूप ही संसार है और इच्छा निवृत्ति ही मोक्ष है। यही विक्षोभ का अन्त है। और प्राप्ति है- उस विराट शांति की, जिसके लिए हम इस अन्तर्यात्रा पर गतिशील हैं।
यह स्थिति जीवन और जगत से पलायन नही है। यहां जिसमें, जिस संसार की उपस्थिति है, उसका अभाव तो है, परन्तु अब जगत के प्रति जो अब तक संबंध था, वह भी तो परिवर्तित है।
यही वह स्थिति है, जहां साधक जीवन और जगत के प्रति सही संबंध स्थापित कर पाता है। आसक्ति के स्थान पर अनासक्ति, भोगेच्छा के स्थान पर भगवत इच्छा ! तभी तो कर्म का स्वरूप ही बदल जाता है।
यहां जगत के प्रति त्याग और सेवा ही शेष रह जाती है। ये शब्द मात्र शाब्दिक नहीं रह जाते हैं, वरन आचरण में स्वतः ही आ जाते हैं। यही तो भगवत्कर्म है, जो साधक को साधन यात्रा प्रदान करता है। यह स्थिति पलायन नही है। वरन जीवन की सही स्वीकृति है। जीवन कुशलता से जीने के लिए है और योग उसकी श्रेष्ठ कला है। अभिलाषाओं से सन्यास ही तो विक्षोभ का अन्त हे। यही तो मोक्ष है।
इसलिए हमें इसी जीवन में भगवत कृपा प्राप्त करनी है। और साथ ही इस शरीर में भगवत्कर्म से युक्त करना है।
अशांत मनुष्य के लिए उसका मन ही भार है। वह अनुकूलता की तलाश में इधर से उधर भटकता रहता है। उसका अशांत मन, कामनाओं की पूर्ति के लिए भटकता फिरता है।
प्रतिकूलताएं जहां उसे दुख देती हैं, वहीं अनुकूलताएं उसे गुलाम बनाती हैं। यही कारण है कि वह स्थिर नहीं रह पाता है। इसीलिए स्थूल देह की अपेक्षा मन जो है, वही महत्वपूर्ण है। इस मन का नियमन ही महत्वपूर्ण है।
इसीलिए अवलोकन के अलावा दूसरा कोई प्रयत्न नही है। इसी से ही विक्षोभ का अन्त संभव है। सच तो यह है कि अभिलाषाओं का ही नाम चित्त है। जब यह सांसारिक पदार्थों की इच्छा से रहित हो जाता है, तभी संकल्प त्याग संभव है। जो कुछ भी अतीत है, वहां मात्र स्मृतियां हैं। जन्म-जन्म के संस्कार हैं।
स्थिरता के लिए वांछनीय है-इन स्मृतियों का असहयोग। साधक को स्मृति मात्र से ही असहयोग सफलता देगा। मन का बार बार स्मृतियों में जाना तनाव ही लाता है। सच तो यह है कि स्मृति ही पाप है।
जो कुछ भी अतीत का संग्रहित है वह अशुभ ही अधिक है। सुखद है। यह वर्तमान पर अपनी काली छाया छोड़ता है। सच तो यह है कि हम स्मृतियों को ही ध्यान मान बैठे है। जमा की गई पूंजी ! जब तक यह ताला बन्द है मन का शांत भाव में आना असम्भव है।हर साधक प्रयोगशाला है। उसे चाहिए अनन्त धैर्य, अनन्त प्रतीक्षा, साधन के प्रति गहरा विश्वास ! जब तक विश्वास नहीं होगा- सफलता नहीं मिलेगी।
स्पष्ट है, ध्यान सजगतापूर्वक किया गया आंतरिक अवलोकन है। निरन्तर सजगतापूर्वक की गई मन की यह निगरानी स्थिरता अवश्य देगी। यहां कोई दबाव नहीं है। वरन् जो कुछ है वह सहज है। यहां किसी प्रकार का बाहृा-आरोपण नही है। नहीं, नया कुछ सीखना है। वरन जो जरूरी है, उसको ही छोड़ना है- इसी से ‘जो’ है उस स्वरुप का ज्ञान हो जाता है।
जरूरी नहीं है- आज जो मौन मिला है, वह दीर्घ हो। हो सकता है- क्षणिक हो।
आज होश कम रहा, नींद अधिक रही, पश्चाताप नहीं करना है। पुनः यात्रा पर गतिशील रहना है। टुकड़े टुकड़े जोड़ते हुए कभी तो सम्पूर्ण पाया जा सकता है। इतना धैर्य अवश्य रखना है।
प्रायः ध्यान को हमने अपने जीवन से अलग कोई निश्चित अभ्यास मान लिया है। जो आरोपित है। जिसके लिए परिवार, तथा समाज से महत्ता प्राप्त होना आवश्यक है। यह विचारणा अनुचित है।
ध्यान तो ‘जो’ जरूरी नही है उसका छूटना है। असाधन का त्याग ही- साधन है। ध्यान, सहज और साधक की आवश्यकताओं के अनुरूप है, उसके लिए प्रिय और मंगलकारी है।
जहां भी रहें, जब भी रहें, यह सतर्कता बनी रहें। हम वहीं रहें, उसी क्षण में रहें।
स्मृतियों तथा आकांक्षाओं से जाना ही होश खोना है। नींद में जाना है, वर्तमान से पलायन है। सजगता बनी रहे। जागरूकता रहे। हर पल, हर क्षण हमारी, हमारे कर्म में मौजूदगी रहे। इसीलिए साधन, साधक के लिए जिन्दगी से पलायन नहीं है। वरन जिंदगी को सुचारू रूप से जीने की कला है।
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