कविता,

रविवार, 24 मई 2009

डाॅ. नरेन्द्र चतुर्वेदी कविता ”सच “यहाँ दी जारही है,आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत रहेगा।

सच

कविता का सच क्या है
कल्पना के ताने-बाने
चैकड़ी जो बनी है-
इस करघे पर
भूख, गरीबी से लड़ते कवि ने
जो चुललू भर चाय की  चुस्की पर
नई दुनिया के नए सोच की तस्वीर बनाता है,

गली में
पेशाब की बदबू से बचते-निकलते
ऊपर कहीं से भी
गंदगी के ढेर का अचानक पुष्पवर्षा सा गिरना
सूअर जो कहीं था आमंत्रित
दौड़ता-भगता,
टकराहट मिमियाते श्वान से
पास की दुकान से गूंजता संगीत,
यही दुनिया का खुला हुआ तिलस्म है।

कविता का रस
ढूँढ़ता कवि
सोचता,
यथार्थ जो मिला ‘मकबरेे की गंदी  गली में
महफिल में आ जाए,
साबुन के झाग से निकला, फिसलता
हाथ में टिकली साबुन सा वक़्त
मां की, बाप की, रिश्ते में सभी की
ख्वाहिश पहचानता
बिजली के तारों पर बैठी ‘काग शृंखला
यहाँं, वहाँं आसपास
कविता में तलाशतातमीज सीधे खड़े होने की
न बिकने की व्यथा
लिखा बहुत कुछ
छपा कहीं नहीं
सुनकर नहीं कोई
शब्द, भीतर खंजर सा चीरता।

काँख में दबी
आई पत्रिका झांकता
टुकुर-टुकुर
रेत उठाती, अर्धनग्न, आदिवासी कन्या की
भूख, ... पेड़ की छाया भी रोती, चीखती
भयातुर, ... आंख की कोर में अचानक कंकड़ सा गिरता

जीवित यथार्थ
शब्द क्या बांध पाए
सोचना भी पाप है
माया है माया है
‘गोपाली’ बाबू की कथा में नहीं है यह
नहीं ‘कागा राम’ मटक-मटक गाता है,
वह कभी- कभी
काटता है भीतर से
रिसता है दुख, ... रात को टपकते नल से बूंद-बंूद सा
न करने का, बस
अपनी ही आंख में रोज और नीचे
और नीचे, उतरने का देता है दर्द,
वह जब भी देख पाती है
तेज, ... तपती रेत में
अचानक खिड़की से
रोते, झींकते, चिल्लाते, पगलाते
छोटे-छोटे पाँवों
से आता-ठहरता, जाता, ढूंढ़ता रहता कुछ
कविता का यथार्थ,वह।

2 टिप्पणियाँ:

Unknown ने कहा…

एक बेहतर कविता...
बीच-बीच में थोडी रवानगी टूटती है...

बेनामी ने कहा…

कवि और कविता पर एक गंभीर और वैचारिक टिप्पणी..
आज के परिवेश को टटोलती हुई..
साधुवाद...

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