कविता

बुधवार, 20 मई 2009


हस्तरेखा

कीचड़ में सने हाथ की रेखाएं
पढ़ नहीं पाता पंडित
नहर में पानी मुद्दत बाद जो आया है

दूर खड़ा अभियंता
हथेली खोले हुए बार-बार देखता
खुजलाहट हथेली की सुबह से
इस बार का बजट अब पूरा भी होना है

बादल महीने भर से गायब हैं
शुक्र है समय अच्छा है
गुरुजी ने कहा था-
शनी उतर गया है
दूर खेतों में, फटे हाल किसानों पर
चढ़ा ही नहीं
चिपक भी गया है

महाजन भी खुश
कल ही सुबह-सुबह पहली बार गया था
तृष्णा की रेत पर...
भारतमाता को याद कर
कदमताल कर आया था
उधारी बढ़ेगी
ब्याज सवा से दो पाई सैकड़ा बढ़ेगा
गिरवी जमीन, बर्तन-भांडे भी होंगे
तब वसूली तब होगी...
तब, भविष्य वह में सुरक्षित रह सकेगा

संस्कृति का गवाक्ष खालीनहीं कोई आता इधर
रानी, परनानी, दादी अब वहां कहां
कभी बैठा था ललमुंहा बंदर वहां
उठकर जबसे गया है
नचता ‘वराह’ का वंशज
महाजनी मंत्र पर
चढ़ता-उतरता
महिमा मंडित
समाचार पत्रों में छपा है विज्ञापन
भागवत कथा का वही है आयोजक।

चीलंे व्यस्त है
गि(ों को जाकर नौत आयी है तेरहवीं का भोज है
कागा उड़ते ही नहीं
बैठे हैं मुंडेरों पर कल से जमा
बहस ही बहस
राशि अकाल पर,
या बाढ़ पर खर्च हो होनी है
दिनभर में, ... कितनी कहांँ
लार रुकती नहीं
मरण पर्व आयोजित जो होना है।
उनकी हथेली पर
रेखाएं मिटसी गई है
कीचड़ में सनी, धूल में बंधी
सूरज की रोशनी में
किरण सी चमकती है

उसकी रेखाएं
पंडित हंँस-हंँसकर बांँचता
ग्रह अब उतरने को है
खुजली रुकती नहीं
जिस्म खुलाने चली है

3 टिप्पणियाँ:

Unknown ने कहा…

narendranathji,
aapki kavita aur kavi ka antarman
dono hi prashansaya hai
HARDIK BADHAI

Udan Tashtari ने कहा…

सीधी बात धार के साथ..बहुत उम्दा!!

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