दोपहर

गुरुवार, 21 मई 2009

'कविता'
दोपहर
डॉ. नरेन्द्रनाथ चतुर्वेदी

उन दिनो गर्मियों की दोपहर में
कल्लू के घर की तिमंजली छत पर बने 
उस टीन के कमरे में

जहाँ बाहर कबूतर का पिंजरा था
थे उसके बाबा, जो छत पर आकर कबूतर उड़ाते थे
उसकी बकरी जीने पर होती हुई चीखती चिल्लाती
छत पर आ जाती,
चौकड़ी या छकड़ी, ताश के रंगीन पत्ते
रंगीन सपनों से महकते।


कुछ देर बाद उसकी माँ
नासपीटे को बीमार होना है
और तुम सबको भी
रेवड़ियों की तरह कभी गुड़ की कभी चीनी की
बरसती गालियां.... हवा को सुना जाती,

उसके बाद उसकी बहन का चाय के प्याले लेकर आना
बाबा की तेज आवाज
खेलने के दिन है, इम्तहान अभी निबटे हैं
शाम को कबूतर उड़ाना सिखाना या पतंगबाजी
या पुराने किस्सों का अधखुला खजाना ।
   


बरसों बाद मिला कल्लू
फुटपाथ के पास गुमटी पर, हवा, टायर में भरता हुआ
पास में खड़ी साईकिल
टायर पकाता उसके पास था खड़ा उसका पुराना बचपन
देखकर पहचाना, पहचानकर अनजाना
था मैं अवाक
अपने बेटे की अंगुलियां पकड़े जो बस्ते का बोझ लिए
गर्व में झूमता हंसता... बतियाता
नई मोपेड के चर्चे सुनाता....., 
था साथ चलता


कल्लू के बाबा कहा करते थें
खेलने के दिन है
काश यह रात कभी जल्दी कट सके तो.........

2 टिप्पणियाँ:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

बहुत ही सुंदर कविता। वर्तमान से अतीत और अतीत से वर्तमान में झाँकती हुई।

Udan Tashtari ने कहा…

एक बेहतरीन कविता! बधाई.

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