मंगलवार, 12 मई 2009

डाॅ. नरेन्द्र चतुर्वेदी  की कविता यहाँ दी जारही है।


़समिति के सभागार में

सभी चिंतित थे
ज्ञानी, ध्यानी, चिंतक सुधी समीक्षक
कुकुरमुत्ते की तनी छतरी पर
जगत का बोझ थामे,
अगर जरा भी हिले आकाश नीचे आ जाए

संस्कृति, अपसंस्कृति, बड़ी-बड़ी नौकाएं
सूखती सरिता के सभी घाटों को तोड़ते
वो चले आए
दूर खड़े सौदागर
तेज रोशनी में दमकता सुर्खानी चेहरा
खुला वक्ष और ऊँची तिकोनी मंे कन्या,
कहीं बाबा,कहीं बाला
शनी,राहू का चढ़ता उतरता जाला,

बेकारी भूख गरीबी, दूध-पानी, और सब
नहीं मिला अब तक
चाहत में जिसकी
हजार साल से दम तोड़ता
समिति दरवाजे पर, पगलाया ‘गोबर वह’
वो फिर नाचेगा,
खरीदेगी, वही कुछ जो उसे मिलता है
धनिया को बस मुस्कराना है,
होरी की  जरूरत नहीं
उसकी मुस्कराहट पर, उसका ही माल
गली कूचे बिकता है
हवा, पानी, धूप और उजाला
वह अपने पास रखता है

पानी कभी का यूंही उतर गयाजो था नया
‘पाउच’ में चला गया

चिंतक उदास
क्रीतदास
दूसरों को जुलूस में देख आंँखे विस्फारित
वाह! वाह!
भीतर ही भीतर, सोच-सोच उदास
हाय! हम न जा पाए
वहाँं बटती भभूत थी
यश की प्रेय की
ले गया पड़ौसी जो कल तक यहीं था।

नहीं-नहीं
हमें लानी है क्रांति, आग यहांँ बुलानी है
हो जाए भस्म सब
जो भी कर्दम है,

पर चुप!
मैं और मेरा तन भी तो यहीं है, ... उसे है बचाना
चुप! चुप!
फायर बिग्रेड को तुरंत यहांँ लाना है,

कुछ जले
कुछ बुझे
यहां बस ऐसा ही होना है
हमको समिति के इसी हाल में  चिंतित हो,
चर्चा में सक्रिय जो होना  है।

4 टिप्पणियाँ:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

बहुत सुंदर यथार्थ कविता।

ghughutibasuti ने कहा…

बहुत बढ़िया !
घुघूती बासूती

Udan Tashtari ने कहा…

एक उम्दा रचना, आभार!!

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

बहुत सुंदर ....आप का ब्लाग बहुत ही अच्छा लगा

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