पूज्य स्वामीजी

गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

पूज्य स्वामीजी से नरेन्द्रनाथ ने आध्यात्म संबंधी सवाल पूछे थेए कुछ प्रश्नोत्तर यहाँ दिए जा रहे हैं। नरेन्द्रनाथ का स्वामीजी से 28वर्ष का सानिध्य रहा।स्वामीजी ने अपनी ओर से कोई आध्यात्मिक मिशन नहीं चलाया। वे सिद्ध थे।रमण महर्षि के आश्रम में भी रहे। मात्र एक झोला एक धोती के दो टुकड़े वस्त्र के नाम पर तथा कोई संपत्त्ी उनके पास नहीं थी। उनके निर्वाण के बाद झालावाड़ जिले की बकानी तहसील के गांव मोलक्या में जहाँ उनकी कुटिया थी वहाँ समाधि बनी हुई है।आम जन आध्यात्मिक शांति के लिए वहाँ रोजाना आते रहते हैं। झालावाड़ से मा्ेलक्या के लिए सीधी बस सेवा है।


साधन सन्दर्भ
स्वामीजी से प्रायः जिज्ञासु जब भी मिलते हैंए वे क्या करें घ् यही पूछते रहते हैं। वे साधना की ओर किस तरह बढ़ेंए यही जिज्ञासा रहती है।
स्वामीजी कहा करते है.
श्साधक के लिए आत्मनिरीक्षण ही साधन है। साधक को चाहिए कि  वह अपनी आंतरिक्ता में विचरण करे। मनोजगत में पैठ करे। आप वहीं पहुंचेंगेए जहां से विचार चले आ रहे हैं। एक गहरी सतर्कता के साथ की गई आंतरिकता में निगरानी मन को क्रमशः निष्क्रियता प्रदान करती है। मन सेए मन की  जब निगरानी की जाती हैए तब वह जल्दी ही थक जाता है। और एक खालीपन निष्क्रियता प्राप्त होती है। परन्तु यहां पर किसी ओर अन्य प्रकार के परिवर्तन की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। हम गुण और दोष को ही जीवन मान बैठे हैं। जीवन जो हैए जिस रूप में है। उसके मूल रूप को जान ही  नहीं पाते।श्
प्रायः आत्मनिरीक्षण के साथ ही परिवर्तन की ललक रहती है। अरे मुझमें यह दोष हैण्ण्ण्यह मुझे दूर करना हैए तभी गुण का स्वरूप सामने आ जाता हैए मुझे तो यह होना चाहिएए आखिर यह भी तो संकल्प यात्रा ही है। जब तक गुण शेष हैए तभी तक दोष की सत्ता भी विद्यमान है। राग द्वेष की समाप्ति ही सही वैराग्य है। हमें और कुछ नया नहीं करना. बसए इसी  तकनीक को समझना है कि यहां कुछ होने के लिए आत्मनिरीक्षण नही करना है। बाहृा से लाकर कुछ आरोपित नहीं करना हैए जो है उसका सतर्कतापूर्वक अवलोकन ही साधन है। यहां किसी प्रकार का कोई ंसंकल्प नही हैए रूपान्तरण की चाहत भी नहीं है तभी तो ष्जोष् है वह उसी रूप में अभिव्यक्त हो सकता है। जब ध्यान में रुपान्तरण की क्रिया शुरू हो जाती है। तभी तनाव शुरू होता है। एक द्वन्द यह ध्यान नहीं है। इसीलिए आवश्यक हैए आत्मनिरीक्षण की नौका पर मात्र लहरें ही देखना हैए गिनना नही है। पानी के गंदलेपन को देखकर अस्वीकृति की भावना नहीए जो हैए उसे ही साक्षी भाव से देखना हैए यह नाव चलती रहेए तभी यह अन्तर्यात्रा संभव है। यहां निसंकल्प अवलोकन ही सार्थक ध्यान है। आंतरिक विचारणा का अवलोकन ही यह हमें प्रदान करता है।
इसलिए आवश्यक है कि काल के इस अमूल्य क्षण में मन अत्यधिक संवेदनशील होए और यह तभी संभव है कि विचारणा ही नही रहे। जिस क्षण यह अनुभवन हैए अनुभव और अनुभव.कर्ता की पृथकता समाप्त हो जाती है। पर होता क्या हैए अनुभव क्षणिक रहता है। फिर आती है स्मृति जो सार्थक क्षण का विश्लेषण करती है। अनुभव और अनुभव कर्ता पृथक हो जाते हैं। इसलिए हम पाते हैए हम अधिकांशतः अनुभव से बाहर ही रहते हैं। अनुभव के लिए आवश्यक हैए इस क्षण विचारणा अनुपस्थित रहेए भूत और भविष्य में मन का संक्रमण न रहेए रहे मात्र वर्तमान और तभी प्राप्त होती हैए निसंकल्पताए एक गहरा मौनए यही तो हमारा ध्येय है।
ध्यान.योेग हर क्षण के अनुभव में रूपांतरित होने की वह कला है जिसके द्वारा जगत भागवत.भाव की प्राप्ति होती हैए वहीं जीवन भागवत.कर्म से युक्त हो जाता है। ज्यों.ज्यों अनुभवन बढ़ता हैए जीवन की सार्थकता उपलब्ध होती जाती है।
यह स्थिति जीवन से पलायन नही हैए निठल्लापन नही हैए वहां है. सर्वाधिक गत्यात्मकताए खुला विक्षोभहीन जीवन क्या यही हम नहीं चाहते हैंघ्
यह सच हैए यहां तक साधारण साधक के लिए पहुंचना सरल नही है। अतः अभ्यास आवश्यक है। शास्त्रों ने इसीलिए भगवत इच्छा का आदर किया है। भगवत इच्छा ही प्राणी की भोगेच्छा को समाप्त कर देती है। और अन्त में जाकर यह भी परमात्मा में विलीन हो जाती  है। अतः प्रयत्न यहां निन्दनीय नहीं है। सच तो यह है कि प्रयत्न ही यही है।
इसलिए साधक को अभ्यास का आदर करना चाहिएए उन विचारों कोए जो किसी काम के नही हैए उन्हें तो न आने दें। बिना काम के विचार वे ही हैंए जो कभी वर्तमान में नही रहने देते। हमेशा मन को भूत और भविष्य में ले जाते हैं। यही तो चिन्ता है जो कि चित्त भी है।
इसीलिए आवश्यक है कि गहरी सतर्कता रहे। यह सतर्कता और कहीं नहींए अन्तर्जगत में हमेशा रहे। याद रखिए मन गत्यात्मक है। उसकी गति असाधारण हैए इसीलिए जहां आप चूकेए मन एक क्षण में लाखों मील की दूरी लाँघ जाता है। और जहां सतर्कता पूर्वक अवलोकन हुआए वह नियंत्रित होता चला जाता है। सतर्कता की इस अवधि को बढ़ाइयेए जितनी यह अवधि बढ़ती चली जाएगीए उतनी ही गहरी शांति में आप अपने आपको पाते चले जाऐगे।
सच तो यह हैए यहां पानी पर उठने वाली लहर को ही एकाग्र करना लक्ष्य नही हैए हम चाहते हैं. उसको बर्फ बनानाए जिससे कि फिर कभी कोई लहर ही नही बने। यह स्थिति मानसिक एकाग्रता ही नही है। एकाग्रता के लिए कम से कम एक संकल्प तो चाहिए हीए और नहीं अब तक अन्य स्थानों पर परिभाषित किया ध्यान ही है। यहां ध्यान योग हमेए कुविचार से हटाते हुए उस संकल्प.हीनता को सौंपता हैए जहां मात्र आत्मानुभव है और भगवत्कर्म हैए यही हमारा ध्येय है।
साधक कहते हैं.
दुख है जीवन में दुख ही दुख है। हम उससे अपने आपको हटाना भी चाहते हैं पर संभव नही है। वे दुख के प्रभाव को संसार की सहायता से दूर करना चाहते हैं। यह जानते हुए भी कि जब तक सुख की सत्ता हैए तभी तक दुख है। पर जाने कैसा भटकाव है घ् प्राणी दुख भोगता हुआ भी सुख की भूल. भुलैया में इतना उलझा रहता है कि वह छोड़ते हुए भी  छोड़ नहीं पाता है और अगर प्रयास भी करता है तो उसका यह प्रयास किन्हीं सिद्धियों की तलाश मेंए हठयोग मेंए या सुख की कामना में ही यह सोचते हुए कि उसके संकल्पों की पूर्ति किसी अन्य की कृपा से संभव हैए गुरूडम के भटकाव में भटक जाता है।
नहींए हमें इसी जीवन में अभ्यास सत्संग द्वारा ध्येय पाना ही है। ध्यानयोग ही सहज और सुगम वह मार्ग हैए जो सन्तों का साध्य पथ रहा है।
इसीलिए आवश्यक हैए अगर अपूर्णता हैए और उसे पूर्ण करने की तीव्र इच्छा हैए तो प्रयत्न आज से और अभी से किया जाए।
पहला कदम
जरूरी नहीं कि एक ही दिन मेंए एक ही क्षण में चमत्कार हो जाय। योग मार्ग पिपीलिका.मार्ग है। चींटी का मार्गए जिस प्रकार मधु की तलाश में अनवरत लगी हुई वह दुर्गम से दुर्गम जगह पहुच जाती हैए वही भाव साधक के मन मेें होना चाहिए कम से कम दिन में दो बार तो कुछ समय हमें अपने अभ्यास के लिए देना ही चाहिए सोते समय और सुबह नींद खुलते समय।
बैठ नहीं सके तो लेटे ही रहें। देखे मन क्या कर रहा है घ् सतर्कता से आंतरिक विचारणा का अवलोकन करेंए न जाने कितने विचार आ रहे हैंए पर आप तो विश्राम में हैं और मन दोपहरी में गयाए इस कल से उस कल में गयाए समझाइए अभी तो विश्राम में हूं। मन को वर्तमान में लाइए। यही प्रयत्न हैए शुरू.शुरू में मन नहीं मानेगाए फिर ज्यो.ज्यों अभ्यास बढ़ता जायेगाए वह नियंत्रित होता चला जायेगा। साधक कहेंगेए इससे तुरन्त नींद आ जाती है। नींद आती है तो आने दीजिएए यह बाधक नही है।
सुबह उठते ही इस अभ्यास को दोहराइए। आंतरिक विचारणा का अवलोकन कीजिए। मन जो वा´छा कर रहा है उसे देखिए। बिना किसी पूर्वाग्रह के। और रूपांतर की कामना छोड़िए। जो हैए उसी रूप में कुछ क्षण देखने का प्रयास कीजिए। मन हीए मन की निगरानी कर जब थक जाता है तो अशांति स्वतः कम होने लगती है। एक गहरी शांति का अनुभव ही सार्थक उपासना है।
दूसरा कदम
ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का गहरा संबंध है। मन इसी कारण से भोगों में लिप्त रहता है। ध्यान के लिए यही श्रेष्ठ है कि किसी बाहृा नामए रूप पर मन को स्थिर करने के स्थान पर आंतरिक ब्रहृानाद पर ही मन को स्थिर किया जाय। मन जब ठहरता हैए तब अन्तर्जगत से आती हुई ये ध्वनियां साधक को सुनाई देती हैं। संतो ने इनके कई रूप बतलाये हैंए ज्यो.ज्यों मन ठहरता जाता है यह नाद एक स्पष्ट अनवरत सायरन की आवाज सा शेष रह जाता है। साधक को चाहिए कि वह कहीं भी रहेए कुछ भी करता रहेए मन वहीं लगा रहना चाहिए। श्रवण और वाणी का गहरा संबंध है।
इसीलिए साधन यात्रा में जिस कर्मेन्द्रिय पर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिएए वह वाणी ही है।
तीसरा कदमरू.
साधन पथ पर सबसे अधिक फिसलने वाली चीज श्जीभश् है। स्वाद की परिधि में भी तथा वाचालता की परिधि में भी। सभी इन्द्रियों का दमन सरल है। पर इस रसना का नियंत्रण कठिन ही है। क्योंकि इसके दो कार्य हैए जब वह बाहर आती हैए तब शब्दों से खिलवाड़ करती हैए दोष.दर्शन में लग जाती है या पर. निंदा या चाटुकारिता मे। साथ ही स्वाद के लिए मन को इधर उधर दौड़ाए रखती है। जब यह एक साथ दो काम करती हैए तब उसका दुरूपयोग घातक ही है।
नाद श्रवण पर मन की एकाग्रता से वाक संयम सरलता से बढ़ जाता है। क्योंकि श्रवण और वाक् का गहरा संबंध है। जो गूंगा होता हैए वह बहरा भी होता है।
फिर भी साधक को चाहिएए वह इसके नियन्त्रण पर ध्यान दे। गपशप अस्थिर मन की परिचायक है। जब हम

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कविता

 
डाॅ. नरेन्द्र चतुर्वेदी के दो कविता संग्रह ,मन वृन्दावन तथा गाथा प्रकाशित हुए हैं।आपकी कुछ कविताएं यहाँ दी जारही हैं। आपका नया काव्य संग्रह ”अभी जो जीवित हैं प्रकाशाधीन है।

प्याज़


प्याज,
छिलके उतरने की सहती व्यथा, रोज-रोज
उतरते-उतरते
रहता है क्या
ब्रह्म ज्ञानी कहता, ‘वह महाशून्य था’।
... बस एक खाली सा
वर्ण, जाति, संप्रदाय की नीली काली परतें
रोज़-रोज़ उतरती
आहत बु(िजीवी बाहर की कालिमा
लीक-लीक उकेरता
परत दर परत, उतारता, छीलता
हंँसता, बतियाता,
पूछता जाता,
इतिहास है कहाँं, यह तो बस जोड़ है...
मात्र खाली परतों का,

देती गुलाबीपन
स्वाद भी कसैला
बेहद सस्ती यह
पड़ी रहती सड़कों पर
देश की जनता सी,
रोज-रोज छिलने को
परत- दर- परत छिल, यूं ही मर मिटने को।

क्या है, बल इसका,
क्या बस हरी दूब ही
सिरफिरा कहता था
‘‘रस प्याज का ही
मीठे शहद से मिल
बनताताकत का खजाना है।’’


तभी बाजारी ने
शहद को उठाकर दूर प्याज से रख छोड़ा है
और हर बार
परत- दर- परत
इस प्याज को छिलने को ही
यहांँ बाजार में छोड़ा है।

 कहने को बहुत था

कहने को बहुत था
बहुत कुछ कहा गया
पर सुना कहां किसने
कान पर
न ठक्कन था
न आंख पर
पर्दा था,

पर भीतर का सुआ
अपनी ही धुन पर
मंत्र-मुग्ध नचता
खुद को ही सुनता
देखता भी खुद को
बाहर का कोलाहल
चीख, आहत, आत्र्तनाद
माया, पाषाण वत
संवेदना मरी-मरी
लोलुप जीभ भीतर का रस
हड्डी चूसते श्वान- सी,
बु(िजीवी वह,

अपनी ही आत्मा
पर शिला सी अहल्या रख
स्वार्थ रस चाटती
आनंदोत्सव झूमती
सुनने से दूर वह
न देखने की चाह लिए
अपनी ही ढपली पर अपना ही राग।

अंँधेरा इतना था
सूझता नहीं था कुछकभी-कभी उसी कान में उठती चीख भी
खेत से खलिहान से
झोंपड़ पट्टी से
मैले, कुचले पशुवत जीवित मनु संतान की,
पर कहीं कोई दस्तक नहीं
नतमस्तक झुके पाषाण हृदय पर
मरे हुए शब्दों के आर्तनाद की

पर, चुप-चुप
स्वार्थ, नाभि नालि युक्त
न सुनता
न देखता,
जो भी सुन रहा था
उसके कानों में सीसा ढोलता
फोड़ता आंख
शब्दों को छीनता।
जो अपना ही कल’
लाने को फिर स्वागतोत्सुक
जो न सुनता
न देखता
बड़बोला, अपनी ही त्वचा पर,
चिपटा परजीवी, वह।


उसकी पहचान.....
‘हवा दरख्तों को बताती फिरती है
फिर भी न जाने क्यों
... खामोश है....
आज भी यह वक्त,
न जाने क्यों
जो न कुछ करता है,बस सुनकर चुप रहता है।

कविता वह


कविता न खाद होती है, न बीज
न दवा
जो बीमारी को मार देती है,
वह, वह जमीन है
ताप, नमी पाकर
बीज,
दरख्त में बदल देती है,


दरख्त का दरख्त होना जरूरी है
वह फलदार हो या नहीं
चाहे वह श्मशान में लकड़ी बन जले
या अंगीठी में कोयला बन दहके
या किंवाड़ में लग जाए
या किसी खूबसूरत मेज के पांवों में ठहर जाए।

कविता दरख्त जनती है
कभी मशाल बन दहकती है
लपट उसका शृंगार है
उसके जिस्म पर फलती है,

वक्त बार-बार कहता है
लिखो, और और लिखो
दरख्त मशाल बन जल जाएं
अंधेरा यह नियाॅन लाइट से कम होगा नहीं
‘पावर कट’ का जमाना है
दहकना मशालों को है
अंधेरा उन्हें, दहक, खिसकता जरूर है।
उन सबके लिए

उन सबके लिए
जो ट्रेन के डिब्बे में जलकर राख हो गए
या बेकरी में बिस्कुट बन सिक गए
कहता वकील था-
आग अपने आप लगी
उन्हें मरने का शौक था
‘सती प्रथा प्रशंसक वे
साथ ‘राम’ सता हुए
या सुपुर्दे खाक हुए
विवाद ही विवाद
विवाद ही अशांति जनक है

वे थे खामोश
घर की, रोजी-रोटी की फिक्र में लगे थे
जो बेकरी में, या खेत या खलिहान में
जिन्दा रहने का मंत्र पूछते थे
अनायास यूं ही
मौत जो मुंडेर पर बैठी, चील की तरह आई थी
राम की यादों में,अल्लाह की इबादत में
अभिशप्त सीता सी
चुपचाप धरती समा गई।
उन्हें मौत की फिर्क नहीं,सवाल
धर्म ,जाति ,संप्रदाय के सिरों को गिनना है।

उनका क्या कफन की दुकान पर डेरा जो डाले हैं
कहीं सीढ़ी
कहीं पंडितकहीं काॅफीन
कहीं काजी
सब मुहैया करा देते हैं।
रोते हैं, हंसते हैं
साथ-साथ रहते हैं
लड़ते हैं जैसे हड्डी पर कभी-कभी
दतात्रेय सहचर
शांति पाठ पढ़ते हों
सभा या संसद हो
आंँसू कहाँं आँख में,दिल में ग्रेनाइट
फिसलन ही फिसलन
टेंकर में जल ‘
गंगा,यमुना ,साबरमती छोड़ आए हों।

वे जो मरते हैं
तिल-तिल कर जलते हैं
भूख, गरीबी, जलालत की आग में
नम होती आँखों का
काश अनकहा सुन जाएं
हाथों में खंजर नहीं
बंदूक तलवार नहीं
खुशबू सी रेखाएं साथ लिए हथेली पर
दूसरी हथेली रख
एक गीत प्यार भरा
यहाँं-वहांँ छोड़ आएं।

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दस्तूर .

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

नरेन्द्र चतुवे्दी की कहानी

              दस्तूर
                               
    आधुनिक कहानी का शिल्प क्या है... चर्चा का विषय यही था। शिल्प और शैली क्या भाषा के आधार पर बदलाव लाते हैं या कथ्य ही अपनी बुनावट में शिल्प रच लेता है, चर्चा आगे बढ़ी ही थी कि तभी घंटी बजी, उठकर देखना बतरस में व्याधात ही होता है, पर इसकी नौबत ही नहीं आई।
    ”ओफ् हो... यहां तो परिचर्चा चल रही है।“
    जीने से ही तेज हंसी और उसके साथ ही तेज कदम भी सुनाई दिए।
    ”सुमंत है...“ पत्नी बोली।
    ”वही होगा, आंधी की तरह उसका ही आना होता है।“ और बात पूरी होने के पहले ही सुमंत अंदर आ चुका था।
    ”अरे कहां थे, कई दिनों से नजर ही नहीं आए?“
    ”ओफ् ओ... जरा बैठने दो।’’
    उसने अपने सिल्क के कुर्ते की जेब से रुमाल निकाला और माथे पर आए पसीने को पोंछा।
    ”भाभी ! निमंत्रण देने आया हूँ, वो जो आप कह रहीं थंीं, नया ओपन रेस्त्रां खुला है, वहीं  का है, शाम को चलें।“
    ”क्यों क्या चक्कर है।“
    ”भाई साहब, आप भी जब देखो तब चक्कर। ठेका जो मैं आपसे कह रहा था, मुझे ही मिल गया है, पूरा करोड़ से ऊपर ह,ै’’ और वह ठठाकर हंस पड़ा।   
    ”हूँ“ मैंने उसकी तरफ ध्यान से देखा। गले में सोने की गुथी हुई चेन कुरते से बाहर झांक रही थी। दोनों हाथ की अंगुलियों में नग भरी अंगूठियां, आंखें शरारत और आत्मसंतुष्टि में नाच रही थीं।
    ‘‘तुम्हारे भाई साहब कहानी के शिल्प और शैली का भेद समझा रहे हैं,’’ पत्नी उठते हुए बोली।
    ”भाभी आप कहां चलीं?ं” उसने टोका था।
    ”चाय ले आती हूँ, तब तक तुम लोग चर्चा परिचर्चा करो।“
    ”तो हम लोग चल,ें’’ उठते हुए माधवराव बोले। वे मराठी के लेक्चरार हैं, उनके साथ उनके मित्र पड़ौसी भी आए थे, तभी चर्चा चल पड़ी थी ”नहीं नहीं आप क्यों... मैं यहां रस भंग    करने नहीं आया,’’वह बोेला।
    ”आप बैठें, यह सुमंत हंै, भाई ही समझिए, जहां हम पहले रहते थे, ये हमारे पड़ौसी     थे,तबसे इन्होंने हमें संभाल रखा है। हमसे तो अधिक आना जाना होता नहीं, बाहर की दुनिया से भी यही हमें जोड़े रखते हैं।’’
    ”भाई साहब.!...“ सुमंत हंसा था।
    ”यह कहिए कि आप मुझे इधर से उधर भगाते रखते हैं मैं तो साहब बस सेवक हूँ।“ वह फिर ठहाके के साथ हंसा था।
    ”हूँ ,तो चर्चा का विषय क्या था?“
    ”शिल्प और शैली की चर्चा थी क्या शिल्प शैली के साथ स्वतः ढल जाता है या लेखक पहले शिल्प तलाशता है और उसमें दृश्य की संरचना करता है, यह प्रश्न था,“ वर्मा साहब बोले।
    ”अरे ! यह तो सचमुच ही गंभीर चर्चा है।“ वह अचानक चुप हो गया बाहर दूर पेड़ की डाल पर फुदकती चिड़िया को देर तक देखता रहा फिर बोला।
    ”चलिए, आप लोग साहित्यकार हैं, आप ही बताइए सच क्या है ! मैं आपको एक कथा सूत्र दे जाता हूँ।“
    सुमंत ने सोफे पर पसरते हुए आंखें बंद कर लीं। वह कह रहा था,‘‘बात कुछ महिने पहले की ही है।हेमंत को आप नहीं जानते उसकी यह कहानी है।आप सुनकर फैसला करें।“
   
    ”क्या बात हैं जीजी... कुछ मामला बैठा...“हेमंत ने पीछे से आकर टोका।
     ”नहीं, अभी कुछ नहीं,“ अपनी बिखरी लट को संवार कर सुनंदा मुड़कर बोली थी।
    ”कौन है... किससे बातें हो रही हैं बेटी...“ अंदर से आवाज आई।
    ”बाबा हेमंत है।”   
    ”फिर आ गया लफंगा, जाने कहां रोता फिरता है, मैं तो जब इसे देखता हूँ, मारे शरम के सिर झुक जाता है।“
    ”क्यों क्या बात है, क्या बिगाड़ा है इसने आपका। आप ही तो उस दिन कह रहे थे कि अस्पताल गए थे, डाॅक्टर ने लाइन में बिठा रखा था, नंबर ही नहीं आ रहा था जो लोग नए आते सीधे अंदर जाकर दवा लिखा लाते। वह तो हेमंत ही घूमता-फिरता कहीं से     आ गया था। देखते ही बोला।”बाबा...आप !“
    सीधा हाथ पकड़कर अंदर ले गया। डाॅक्टर भी चांैका।
    ”आप...“
    ”हां, आप जानते नहीं ये हमारे बड़े बाबा हैं, सुबह से लाइन में हैं इतने बड़े नेता, भाऊ साहब पूरा जीवन देश सेवा में लगा दिया।”
    ”अरे आप...“ डाॅक्टर उठता हुआ बोला था। हेमंत ने दवा भी दिलवा दी थी, घर तक छोड़ गया था, तब तो उसकी तारीफ करते नहीं थक रहे थे आप। अब क्या हो गया।“
    ”ठीक है...ठीक है, तू तो हिमायत करेगी ही, तेरा भाई जो लगता है मैंने कभी किसी का सहारा नहीं लिया। कल दफ्तर जाकर मिलना, डिप्टी जो नया आया है, भला आदमी लगता है। नियम बताना, काम हो जाएगा, अभी सम्मान गिरा नहीं है।”
 “पर बाबा, आपने तो बहुत सेवा की है, वो जो मंत्री है वह तो यहां  अपने यहाॅं भी बहुत रहा है, सुना है जब संकट में था और इस पार्टी की सरकार नहीं थी तब पहली मीटिंग यहीं हुई थी, लोग कहते हैं कि उनको जिले में भी आप लाए थे, न जाने क्या- क्या लोग कहते हैं “,हेमंत ने उन्हें टोक दिया था।
    ”हां तो इससे क्या तब जो फर्ज था वह किया, अपने संतोष के लिए किया था। किसी की तारीफ के लिए नहीं।“
    ”और दादी ने सारी उमर भंडारा जो चलाया,“वह बोला।
    ”तू चुपकर, तेरे बाप ने तो कभी कुछ नहीं दिया और न तेरे बाबा ने। नाक में दम कर रखा था, पचास मील तक उसका दबदबा था। धौंस पट्टी, खून खराबा, मारपीट“ भाई का जिक्र आते ही भाऊ साहब रुक गए। गला भर्रा गया
तख्त पर बैठ गए।
    ”लो पानी पिओ, कितनी बार कहा है कि ज्यादा मत बोला करो।“
    ”तू भी नहीं मानता कितनी बार कहा है कि बाबा से बहस मत किया कर, तंग करता है,“उसने हेमंत को रोकना चाहा।
    ”पर दीदी“, हेमंत कहते-कहते रुक गया।
    ”चाय पीएगा, बैठ चाय बनाती हूँ, बाबा आप भी लेगें।“
    ”ले लूंगा बेटी।“
    बाबा कह रहे थे,”उस दिन आ रहा था, स्टेशन पर ही उतर गया था, चालीस साल होगए  हैं इस बात कोे, धोती कुरता हाथ में थैला। राजधानी से आया था, उस रात ट्रेन लेट हो गई थी। अब तो इधर बहुत बस्ती बस गई है,पहले जंगल था, तांगा भी नहीं मिला। पैदल ही चल पड़ा तभी रास्ते में अंधेरे में दो चार लोगों ने पकड़ लिया उनके पास बंदूकें भी थीं, कहीं जा रहे थे। वे मुझे देखकर चैंके मैं उन्हें तब भी नहीं पहचाना था तब तक उन्होंने बंदूकें छाती पर तान दीं।
    “कौन हो तुम...”
    “मैं...मैं...मैं. भाऊराव...दामोदर राव का बड़ा भाई। घबराहट में भाई का नाम भी साथ में निकल गया।“
    “दादा, आप! वे पैरों पर गिर पड़े। दादा माफ करना...दामोदर भैया से मत कहना, वे मुझे घर तक पहुंचाकर अंधेरे में चले गए। तब तो नहीं बाद में दामोदर से कहा था, वह हंसा बोला-
    ”दारा डकैत का गैंग था...“
    मैं चैंका उन दिनों डकैती में वह अगुआ था।
    ”हां दादा भाभी के भंडारे से उसने भी बहुत प्रसाद पाया है। आप सोचते हो कि आपके ही कार्यकर्ता यहां आते हैं।“
    वह हंसा।
    ”भाभी के लिए तो सभी बराबर हैं, वह तो सबकी अन्नपूर्णा हैं।“कहते हुए बाबा की आंखें और गीली हो गईं थीं, मसनद के सहारे लेट गए। भाई के साथ पत्नी भी याद आ गई थीं।
    सुनन्दा तब तक चाय ले आई थी
”नहीं बाबा रहने दो, अब नहीं।“
    वह जानती थी कि एक-एक करके मां, पिताजी, भैया सबकी याद आएगी, बस दुर्घटना में पूरा परिवार चला गया था। वह छोटी थी, बाबा के पास रह गई थी, वह और बाबा, बाकी इतिहास को वह खुलने से रोक रही थी। उसने चाय का प्याला बाबा के हाथ में पकड़ा दिया। प्यार से बूढ़े बाबा ने सिर पर हाथ फिराया। आंखों में आए आंसुओं को पीकर जबर्दस्ती चेहरे पर मुस्कराहट ले आई थी।
    ”बाबा, हेमंत आपका बहुत ध्यान रखता है, आपको देखे बिना वह...“
    ”हां-हां, उसका पिता भी रखता था। पर था वह...“
    ”¯तो जीजी, मैं चलूं, हां, बड़े बाबा से कहना कि मंत्री जी रविवार को रतनपुर आ रहे हैं। सर्किट हाउस में ठहरेगें बाबा के मिलते ही तुम्हारा काम हो जाएगा, सारे अधिकारी वहां होंगे और फिर भी नहीं हुआ तो मैंने बताया ही है,’’ वह पास आकर कान में फुसफुसाया था।
    ”हट...“सुनंदा ने मुड़कर कहा था।
    ”क्या यही रास्ता अब दुनियां में बचा है...“
    सुनंदा सोच रही थी कि शायद हेमंत भी साथ जाएगा, पर वह आया नहीं, फिर बस से वह बाबा को रतनपुर ले गई। बहुत भीड़ थी। फिर बस स्टैंड से आॅटो करके वे लोग सर्किट हाउस पहुंचे थे। लाॅन के एक कोने में थोड़ी जगह दिखी, वहां छाया थी, ”बाबा उधर चलते हैं।“
    ”चल... थोड़ा पानी हो तो पिला देख कहीं कंोई व्यवस्था हो।“ “हूं” वह चैंकी। कहा था कि पानी की कैटिल साथ ले चलें। तो बाबा ने ही मना कर दिया था।
उसने इधर उधर देखा। लाॅन में सारी कुर्सियां भरी हुई थीं, भीड़ ही भीड़, पोर्च के पास लाल बत्तियां लगी गाड़ियों का मेला। कहां जाए वह, इधर बाबा थके हुए लेट से गए थे, वह भीड़ को चीरती हुई अंदर सर्किट हाउस में जा रही थी कि दरबान ने टोका।
    ”अभी ठहरो, अंदर मीटिंग हो रही है।“   
“मंत्री जी से तो बाहर मिल लूंगी। पहले कहीं पानी मिल जाता तो उसने हाथ से बाबा की तरफ इशारा किया।
    ”पानी पिलाना है।“
    ”हूं...घर से साथ नहीं...“
    ”सुझाव के लिए धन्यवाद“, वह आगे बढ़ी तभी दरवाजे पर खड़े लोगों में से किसी ने कहा।
    ”आप पीछे से किचन की तरफ चले जाइए, उधर मिल जाएगा।“ वह मुड़ी बाबा की तरफ देखा, वे बैठे थे, एक लड़का उन्हें पानी का गिलास दे रहा था।
    ‘कौन.!.. मुड़कर वहां तक पहुंची तो बाबा पानी पी चुके थे अब उठकर बैठ गए थे।
    ”बेटी, यहां तो बहुत भीड़ है, हां, तूने पानी भिजवा दिया, अच्छा किया, कुछ राहत मिली। वह तो चाय ठंडा भी पूछ रहा था, मैंने ही मना किया।’
    तभी बाहर से आवाज आई, कोई चिल्ला रहा था।
    ”मिलनेे वाले अपनी अपनी स्लिप दे दें।“
    उसने भी अपना पर्स खोला, अपना नाम और बाबा का नाम लिखकर ले गई।
    ”मंत्रीजी से कहिए की पाटन से भाऊसाहब आए हैं, मिलना चाहते हैं।“
    ”ठीक है...ठीक है“, वह बोला।
    लाॅन में भीड़ बढ़ती जा रही थी कारों से ,कलफ़लगे  कुर्ते पायजामें में कार्यकर्ता उतरते और सीधे अंदर चल जाते। मुंह में पान, चमचमाता चेहरा, तभी उनमें से किसी का ध्यान इधर गया।
    ”अरे आप...“
    ”हां भाऊसाहब भी आए हैं, आप अंदर कहलवा दीजिए।“
    ”हां-हां, वे तो हमारे पूज्य हैं, बुजुर्ग हैं,वह हंसा,कहां हैं वे..’
    ”उधर“, उसने इशारा किया।
    ”वहां क्यों... आप उन्हें अंदर लाइए। मैं अंदर जाकर कहता हूँ।“
    वह अंदर चला गया था।
    दरवाजे पर आवाज गूंजी, भाउसाहब, पाटन वाले और एक कार्यकर्ता बाबा का हाथ पकड़कर अंदर ले चला सफेद खादी की धोती उस पर आधी बंाह का कुर्ता जेब वाला, चश्मा, पांव में चप्पल, हाथ में झोला, अब यही भाऊसाहब की पहचान बन गई थी। अंदर हाॅल आया। दाईंं तरफ, गलियारा था। नीचे कालीन बिछे थे, वहीं से वे लोग आगे कमरे की तरफ मुड़े वहां भी दरवाजे पर भीड़ थी। सब जगह कार्यकर्ता जमे हुए थे।
    ”अंदर जरा तेजी से चलो“,धकियाते हुए  कार्यकर्ता बोला
    ”चल ही रहा हूँ, बैठा तो नहीं हूँ“, भाऊसाहब बोले।
    ”क्या...“,
    ”बाबा...बस भी करो...“सुनंदा ने टोका।
    अंदर कमरे में मंत्री जी सोफे पर बैठे थे। कमरा भी खचाखच भरा था। ठंडे पेय की बोतलें और कटे हुए आम रखे थे। दूर पलंग पर कुछ कार्यकर्ता मिठाई चख रहे थे।
    ”आप...“मंत्री जी चैंके।
    ”मैं भाऊसाहब अब बूढ़ा हो गया हूँ।“
    ”हां-हां, आप तो बहुत पुराने पार्टी के सेवक रहे हैं।“
    मंत्री जी उठ खड़े हुए। उन्होंने मुस्कराकर पांव छूने चाहे, करीब पहुंचे ही थे कि भाऊसाहब ने उन्हें पकड़ लिया।
    ”यह आप क्या कर रहे हैं, आप इतने बड़े नेता, मंत्री, मैं तो बस अदना सा कार्यकर्ता रहा हूँ।“
    ”यह आप क्या कहे रहे हैं, आपका त्याग तो पार्टी का इतिहास है,“ उधर फोटो ग्राफर ने तस्वीर खींच ली थी।
    नया सा कार्यकर्तानुमा युवक जो पत्रकार बनने की कोशिश में था, तुरंत डायरी निकालकर आगे बढ़ा वह हर शब्द सुनने के प्रयास में था। ”यह सुनंदा है, मेरी पोती, आपने तो इसे बहुत छोटा देखा होगा। तब तो इसके माता-पिता भी थे। अब इसका तबादला सौ किलोमीटर दूर कर दिया है, इसके पहले भी गांव में ही थी, यहां अभी साल भर भी नहीं हुआ और इतनी दूर फिर भेज दिया।“
    ”हूं...शर्मा जी...“
    मंत्रीजी की आवाज गूंजी।
    बाहर भीड़ में से कोई अंदर लपका।
    ”आप नोट कर लीजिए।“ मंत्रीजी ने लिखवा दिया था।
    ”हो जाएगा बेटी...... बस डाक से आॅर्डर मिल जाएगा पन्द्रह दिनों के अंदर ही। नहीं मिले तो पत्र से सूचित कर देना, भाऊसाहब आप निश्चित रहें, अब मुझे देखना है, हो जाएगा।“
    भाऊसाहब प्रसन्न थे। उनका चेहरा खुशी से चमक रहा था।
    ”बेटी देखा, इतने बड़े मंत्री पर गरुर का नाम तक नहीं संगठन से जो लोग आते हैं, वे अलग ही होते हैं, कितना आदर दिया।“
    ”हंू...“
    सुनंदा चुप थी। देख रही थी कि वह प्रधान जो उससे नाराज था और हमेशा अजीव सी निगाहों से भद्दे ढंग से उसे देखकर हंसता था, अभी भी दूर बैठा मुस्करा रहा था,... बाहर भीड़ अब अधिक हो गई थी। अब वापिस लौटना है, पन्द्रह दिन इंतजार करना है, पर भाऊसाहब खुश थे, उनका चेहरा खिल सा गया था। बाहर आते ही सामने खड़े उस पुराने कार्यकर्ता से बोले-
    ”भई, तुम्हें तो गरूर है, पर मंत्री जी को नहीं है, कुछ सीखो भई। हमारी तो उमर गई, पर बुढ़ापे का तो ध्यान रखो।“
    ”बाबा आप भी...“
    ”तू तो कहीं बोलने भी नहीं देती।“
    सर्किट हाउस से बाहर जीप खड़ी थी। अंदर सवारियां बैठी थी ड्राइवर इन्हें देखते ही लपका।
    ”आपको पाटन जाना है।“
    ”हां, तुम्हें कैसे पता चला“,भाऊसाहब चैंके।
    ”पता है, साहब घंटे भर से खड़ा हूँ, चलिए बैठिए।“
    उसने उनका थैला और छाता संभाला।
    ”भई, रुपये कितने लोगो, वहां उतरते ही तंग करोगे।“
    वह हंसा,”वह सब तो हो गया, आप तो बैठिए।“
    सुनंदा समझ गई। हेमंत आया होगा पर जानबूझकर सामने नहीं आया         पर बाबा नहीं समझ पाए। वह मुस्करा दी थी।
    ”आओ बाबा बैठो।...“
    ”चल, तू भी खुश है।“
    रास्ते भर फिर वे मंत्रीजी की तारीफ के पु्रल ही बांधते रहे थे। प्र्रतीक्षा के दिन भी बड़े भारी होते हैं, भाऊसाहब सुबह से ही पोस्टमेन का इंतजार करने लगते कई बार तो उठकर दरवाजे पर खड़े हो जाते। सुनंदा कहती।
    ”बाबा पोस्टमेन यहां नहीं आएगा।“
    ”पता है, बेटी पता है, मंत्री जी पता भी नोट करके ले गए हैं, जानती इस मकान में महिनों रहे हैं, आपतकाल में भी यहीं थे। तब उनके कपड़े भी मैंने ही सिलवाए थे।“
    वे हंस पड़े।
    ”हां बाबा हां“, वह कहती- कहती चुप हो जाती। उस दिन तो वे पोस्ट आॅफिस ही पहुंच गए। पोस्टमेन मांगीलाल भी पुराना था। वह भी बूढ़ा हो गया था। उन्हें देखते ही चैंका।
    ”दादा आप- क्या कोई खास पत्र आने वाला है। कहीं बिटिया का रिश्ता तो पक्का नहीं कर आए।“
    ”रिश्ता...“
    वे चैंक गए। अरे वे तो भूल ही गए थे। बिटिया की नौकरी याद रही पर उसका घर भी तो बसाना है, वे अनमने से लौट आए। बिना कुछ बोले तख्त पर बस निढ़ाल से लेटे रहे। सुनंदा ने ही फिर पूछा था।   
    ”क्या बात है बाबा ! चुप क्यों हैं ?“
    ”कुछ नहीं बेटी। मैं भी स्वार्थी हो गया। तेरे तबादले की कह आया, तेरा घर बसे, हाथ पीले करूं, यह बात तो दिमाग में आई ही नहीं, वह तो मांगीलाल मिल गया था। पूछ रहा था कि क्या बेटी के रिश्ते की बात चल रही है, सच मैं तो गुनहगार हो गया हूँ, अपना ही सोचता रहा।“
    ”क्या हो गया, यह आपको बाबा, अब चुप भी करो, आने दो चाचा को, कहूँगी कि आपको बैठे बिठाए क्या सूझी।“
 दिन पतझड़ के पत्तों की तरह हवा में उड़ते रहे, गिनती बाबा ने अंगुलियों पर गिनी एक दिन, दो दिन तो पन्दह्र से ऊपर हो चले थे।
    ”बेटी पत्र लिख दे, बड़े आदमी हैं, बहुत काम रहते हैं, हम तो मामूली आदमी हैं।“
    ”हूं...“ वह अनमनी सी बोली।
    ”हेमंत नहीं आया, कई दिन हो गए वह तो पूछने भी नहीं आया कि क्या हुआ“, बाबा को जैसे कुछ याद आया।
    ”वह उस दिन तुझे क्या समझा रहा था,“उन्हौंने पूछा।
    ”आए तो कहना कि पता करे । शायद वहां आदेश आ गया हो। है तो मेहनती लड़का पर न जाने क्यों मुझे देखते ही लड़ने लगता है बेटी हमारी बात और थी, सेवा हमने कुछ पाने के लिए नहीं की। वह जमाना ही दूसरा था, लोग तब ऐसे नहीं थे, पर वह यह समझ नहीं पाता है। उसका बाप भी इसी तरह बहस करता था, पर इतना आदर ,मैं ही अभागा हूँ बच्चों का सुख नहीं देख पाया।“
 देखा सामने से हेमंत जा रहा था, वह रुका नहीं, सीधा तेजी से आगे बढ़ गया।
    ”हेमंत,“ वह देखते ही चीखी, पर तब तक वह जा चुका था।
    ”क्या हुआ, क्या चला गया।“
    ”हाँ,“
    ”रुका क्यों नहीं“
    ”क्या पता“,वह मुंह बिचकाते हुए बोली।
    ”पर उस दिन कह क्या रहा था ?“
    ”बाबा, आप नहीं समझेगें, नए जमाने की बातें हैं।”
    ”ठीक है, जैसे तेरी इच्छा।“
    दूसरे दिन सुबह दरवाजे पर घंटी बजी। सामने हेमंत था। हाथ में मिठाई का डिब्बा ओर एक लिफाफा था।
    ”क्या...“
    ”देखो तो सही जीजी,“ वह ठहाका लगाकर हंसा
    ”कौन! हेमंत।“अपना चश्मा निकालते हुए भाऊसाहब उठे।
    ”आ गया क्या।“
    ”हां बाबा, लो मिठाई खाओ।“
    ”हूं- मैंने कहा था ना, कि मिलना भले ही न हुआ हो पर मंत्री जी मुझे भूले नहीं है, ठीक है दो-चार दिन ज्यादा हो गए, बेटी धन्यवाद का पत्र जरुर भिजवा देना, मैं दस्तखत कर दूंगा।“
    ”बाबा“, हेमंत ने टोका।
    “पहले आप मिठाई तो खालो।”
    ”हेमंत,“ सुनंदा ने फिर टटोला था।
    ”हां हां, सब बताता हूं,“ वह फिर हंसा था।
    ”बाबा, अब आप बेंत उठा लो क्येिंक आपके भाई का पोता हूँ और वे ही सपने में आकर जो समझा गए थे, वही में कर आया। बस जीजी अब यहीं रहंेगी। आॅफिस से तो आॅर्डर दस-पांच दिन में आएगा पर मैं प्रति ले आया हूँ, दस हजार खर्च हो गए ,बाकी किश्तों में...“
    ”क्या..,“भाऊसाहब चीखे।
    ”हां बाबा, जो दुनियां आपने छोड़ी है, उसी का यह दस्तूर है, दस्तूर तो निभाना ही पड़ेगा, मैं यह नहीं कहता कि आप गलत हैं, पर मेरे बाबा दौलतराव भी तो थे, उनका खून जब हिलौरंे लेता है तो सचमुच जीने की ताकत आ जाती है।“
भाऊसाहब से अधिक सुना नहीं गया। वे तख्त पर लेट गए मसनद को दीवार की तरफ कर मंुह पीछेे की तरफ कर लिया था।
    ”बाबा... यह क्या...“ हेमंत चैंका।
    वे फूट फूटकर रो रहे थे। दासता के स्याह अंधेरे हटाने के लिए ,और उजाले की प्रतीक्षा में उन्होंने घर बार तबाह कर दिया था। पर वे ही अंधेरे और स्याह होकर उन्हें घेरे खड़े थे, और उन्हीं को चीरती हुयी यह आवाजें दौलतराव की थीं या हेमंत की...लगा वे हार गए हैं उनके आदर्शोंं का फानूस आज चटक- चटक कर नीचे गिर  रहा है। सामने टंगी गांधी जी की तस्वीर पर नजाने कहाॅं से पचासों कौवे आगए हैं,जो अपनी नुकीली चै्रचों से कांच को तोड़ते हुए उनकी मुस्कराती आंखों को नोचने को आतुर हैं,वे अपना बूढ़ा हाथ बार-बार ऊपर उठाना चाहते हैं
पर हर बार वह नीचे गिर जाता है।
    सुनंदा का हाथ उनके सिर पर से होता हुआ आंखों के नीचे आकर ठहर गया था। उसकी हथेलियां आंसुओं से भीग गईं थीं।
    ”बाबा...“    हेमंत अब उनके पांवों में झुक गया था।
    ”बाबा मुझे माफ कर दो...बाबा..,दुनिया अब गांधीबाबा को बहुत पीछे छोड़ती हुयी अंधेरे में कहां से कहां चली गयी है.यही रास्ता बचा था,आपका दुख मुझसे देखा नहीं गया।“
भाऊसाहब अचानक अपने बचपन में लौट गए थे जहां बच्चे शाम होते ही घर जाने की जल्दी में अपने रेत के घरोंदों को अपनी ही लात से तोड़कर घर भाग रहे थे।     
अचानक विराम आ गया था। सुमंत उठा और चुपचाप दरवाजा खोलकर जीने से नीचे उतरता चला गया। ”सुमंत...सुमंत“ पत्नी ने आवाज दी पर वह रुका नहीं था कार का फाटक खोलकर निढाल सा बैठ गया था। आंखें नम थीं गहरी उदासी को तोड़ते हुए निशब्द आंसू अंतहीन खामोशी केे दरवाजे पर दस्तक दे रहे थे।
पेंढारकर ने ही फिर मौन तोड़ा था , बोले-
    ”बात ठीक है, कथ्य अपने आप जब नदी की तरह  बहता है तो शिल्प के कगार तलाश ही लेता है।“







           




               
        
           जो सच है
                               

मैं अभी अभी घर लौटा ही था कि सुप्रिया ने कहा - पालीवाल जी का फोन आया था।
’’पालीवाल जी, मैं चैंक गया, आज सांसद महोदय को याद कैसे आ गई।’’
‘‘कोई सिफारिश कर रहे होंगे।’’
‘हां, हो सकता है।’
तभी बाहर घंटी बजी। रमेश ने खबर दी, कोई शास्त्री जी आए हैं। पालीवाल जी का खत लाए है।
मै बाहर आया।
सफेद धेाती कुरता करीने से सजी हुई टोपी, मंझला कद, नमस्कार नमस्कार वे दोनो हाथों की प्रणामी मुद्रा में लिए बरामदे तक आ गए।
‘‘फरमाइए ?’’
‘‘मैं मोतीपुर का साधारण कार्यकर्ता हुं। सरपंच भी हूं। जिला कमेटी का महामंत्री भी, पर यह तो चलता ही रहता है मैं तो पालीवाल जी का मामूली सिपाही हूं। हां, तो उन्होेने मुझे आपसे मिलने को कहा है एक हमारा अच्छा कार्यकर्ता है, मूलचंद पुलिस वालों ने उसे फंसा दिया है, गरीब आदमी है। उसका कोई मामला आपके पास बताया है। देख लीजियेगा, पालीवालजी आपकी बहुत तारीफ कर रहे थे। आप मानवतावादी हंै। गरीबों के प्रति दयालु हंै।’’
मैं अवाक था।
हाॅं, वह मूलचन्द ही था।
शायद यही कारण रहा होगा , लंबे अर्से से इस पत्रावली पर कोई निर्णय नहीं हो पा रहा होगा।
कल ही की तो बात थी।
सरकारी वकील कह रहे थे। केस साबित होता है दो बार आबकारी कानून में और गैर कानूनी शराब बनाने में सजा हुई थी। सट्टा कानून में तीन बार प्रोबेशन मिला। शांतिभंग के कइ्र्र इस्तगासे चल रहे हंै। मारपीट के अलग मुकदमें हंै। छः माह के भीतर जो नियम है, वह पूरा होता है, आदि आदि।
उनके वकील कह रहे थे यह सब तो पुरानी बाते हैं। श्री मूलचन्द राजनैतिक कार्यकर्ता हंै, उन्हें फंसाने के लिए यह सब किया गया है। बताइए पिछले साल से कोई मुकदमा दर्ज हुआ है, कोई इस्तगासा आया है ? बयान कराइए, गवाही लाइए।
और मैं अचानक उस बहस से क्षण भर के लिए कहीं दूर चला गया था।
हां, हम इन्दौर से ही लौट रहे थे।
खचाखच भरी बस, उस पर गर्मी की सख्त दोपहर भी। पसीने से जैसे नहा गए हों। संदीप पानी के लिए छटपटा रहा था। ‘कैम्पर’ कभी का खाली हो चुका था। सुसनेर आते ही मैने उतरना चाहा। पर उतरने वालों से चढ़ने वालों की संख्या अधिक थी। काफी कशमकश के बाद जब नीचे उतरा तो लगा इससे तो बेहतर यही था कि घर पर ही रह जाता। पर सुप्रिया का आग्रह था। मैं मना नहीं कर पाया। दुकान तक पहुंचा और किसी तरह ‘कैम्पर ’भरा। पर जब तक दरवाजे तक आया सुप्रिया की तेज आवाज से चैंक गया।
‘क्या बात है?’
‘होगा क्या....यह मानते ही नही हंै, मैं कह रही हूं, तुम नीचे गए हो पर एक ये हैं उठने का नाम नहीं, उल्टे कोहनी से बार बार मुझे घकेल रहे हैं।’’

मै तेजी से उधर लपका क्यों ?
‘‘यह आपकी सीट है, कहीं लिखा हुआ तो नहीं हंै।’’ वह बेशर्मी से हंसा, और उठते- उठते हुए भी मैने देखा वह अपनी कोहनी सुनन्दा की पीठ पर गड़ाने की चेष्टा कर रहा था।
‘यह क्या बदतमीजी है”, मैंने उसका हाथ पकड़ लिया था।
‘‘क्या है, एक तो उठ रहा हूं उस पर मेरा हाथ पकड़ते हो,’ उसने तेजी से कुरते की जेब में हाथ डाला, उसके हाथ में रामपुरी चाकू था।
सुप्रिया भी तब तक घबड़ा गई थी।
‘यह सब किसलिए? मैने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा,‘‘ तुम समझते हो, तुम सब कुछ कर सकते हो, यह हो नहीं सकता, पुलिस है, कानून है, बस को ही सीधा थाने पर ले जाकर खड़ा कर दूंगा।’’
तब तक कंडक्टर उधर आ गया। सवारियां उर्ठ आइं। उसके पास कोई खड़ा खड़ा कान में फुसफुसाया और वह तेज आंखों से घूरता हुआ बस से ही नीचे उतर गया।
मैे आवेश में था। ‘‘यह तुम्हारी ही जिद थी जो बस मे आना पड़ा, कितना समझाया था, कि अब बस में आना- जाना इज्जत का काम नही है, पर तुम तो!’मेरी झुंझलाहट देखकर सुप्रिया चुप थी संदीप भी सहम गया था। उसे लग रहा था कि कहीं वह इतनी जिद नही करता, तो यह सब नही होता।
   
‘‘हां, तो मैं कह रहा था, मात्र पुराने इस्तगासों से जो कि जान बूझकर एक शरीफ आदमी को फंसाने के लिए बनाए गए हों, आप किसी इज्जतदार सामाजिक कार्यकर्ता की जिन्दगी खराब नहीं कर सकते’’, अमिभाषक बचाव पक्ष कह रहे थे।
मैं लौट आया था। मैेने ध्यान से देखा। मूलचन्द ही था। पर अब वह भरा भरा था। उसका दुबला पतला शरीर सामाजिक कार्यों की चर्बी से भर गया था। तभी सवाल उठ खड़ा हुआ क्या जिस सत्य को आप खुद महसूस करते हैं वह साक्ष्य का अंग नही हो सकता कानून क्या दूसरे की आंख से देखता है ?
हां वे शास्त्री जी ही थे।
मुझे चुप देखकर अवाक थे,‘‘ फिर बोले गरीब कार्यकर्ता है, तो फिर कौन सुनेगा, सिफारिश करना गलत बात है, पर पालीवाल जी कह रहे थे, आप अपने ही है, मूलचन्द भी अपना ही है।’’
    ‘‘आप जिसकी सिफारिश कर रहे हैं, उसे कभी आपने देखा भी ह,’’ै मैं बोला।’’
‘‘हां, हां विनम्र कार्यकर्ता है।’’
‘बहुत सीधा है, उससे मेरा पूरा परिवार परिचित है’, मेरी तीखी आवाज से वे चैंक से गए। फिर वे रूक नहीं पाए, और चले गए।
‘क्या बात है,?’अंदर घुसते ही सुप्रिया ने टोका, ”तुम्हारा चेहरा फिर तना हुआ ह?ै

तब तक फोन आ गया था।
हैलो उधर से मर्डिया जी बोल रहे थे।‘‘ विधाधर तबियत तो ठीक है, शास्त्री जी मिले होंगे, हां, उसका काम करना है, बिचारा बहुत तकलीफ में है, पिछले चुनाव में बहुत कार्य किया। गुंडा कानून में है, प्रोबेशन कर दीजिए, राजधानी में अपील होगी, देख लेंगे, आप जरा सख्त हंै, इसीलिए छोड़ने को नहीं कह रहे हैं आखिर राज भी तो चलना है, हो हो, हो,“ वे हंस रहे थे।
क्या सक्रिय कार्यकर्ता होना, कोई गुनाह है, मैं अपने इस सवाल पर चैंक पड़ा था।
मित्र कह रहे थे। मर्डिया पहले खनिज विभाग में चपरासी था। कुछ अवैध खनन कराया था। केस चला सक्सेना साहब मंत्री थे। उन्होंने मामला खत्म करा दिया था। फिर तो खाने चलाने गया। ट्रांसपोर्ट का काम किया। अब तो करोड़पति है। सक्सेना साहब का सारा काम यही देखता है उनका दांया हाथ समझिए और मूलचन्द उनका ही खास है। बरसो से जहां  भी कुछ होता है, वहां मूलचन्द ही पीछे रहता है। पर अब उसके भी रसूकात बढ़ गए हैं छोटे मोटे अधिकारी तो उससे डरते है, कुछ महकमों से तो यही महावारी वसूल करने लग गया है।
हां, वह मूलचन्द ही था।
उसकी जलती हुई आंखें और हाथ में रामपुरी चाकू की नोक को मैं अब तक महसूस कर रहा था।
उसके अमिभाषक कह रहे थे।
‘‘यह पुराना मामला है, उनके अप्रार्थी का राजनैतिक भविष्य है, इसीलिए उसे फंसाया गया है ये लीजिए समाज के गणमान्य नागरिकों के चारित्रिक प्रमाणपत्र है, यह सांसद महोदय का है, यह विधायक जी का है, यह प्रमुख साहब का है,  इस बीच कागज वे मेज पर रखते जा रहे थे। अब इसके खिलाफ कोई नया मुकदमा नही है फिर सजा किस बात की?’’
‘‘हो हो क्या सोच रहे हो मर्डिया,“ की आवाज थी। ”क्या बात है, तबियत तो ठीक है“, विधायक महोदय हंसे।
‘‘कुछ नहीं, थोड़ा गला खराब है...’’
‘‘तो दवा लीजिए, डा. मिश्रा यहीं बैठे हैं, उनको भिजवा रहा हूं,’’ वे हंसे।
मैं चुप ही रहा। संवाद कट गया था।
यह सब क्यों ?
हां कल की ही तो बात थी।
मेरी आंखे मूलचन्द की तरफ जब उठी, तो लगा उसे भीतर तक कुछ उतरता सा चला गया है। उसके चेहरे की मुस्कराहट बदल सी गई है। बरसों पुरानी कोई स्मृति उसे कचोटती सी चली गई है।

मैने फिर देखा, शायद कोई पहचान उसे छू जाए।
मुझे लगा उसके स्मृति सरोवर पर  कंकडी फिंक गई है, मैं आज यहां कभी आ भी सकता हूं ,उसने कभी सोचा नही होगा।
वह सकुचाया सा खड़ा था।
‘‘तेरह तारीख इसी माह की’, मैने बहस सुनकर पेशकार की तरफ देखा था।
हां, पालीवाल ही थे।
वे चैम्बर में आ गए थे। साथ में मर्डिया भी थे। मूलचन्द बाहर था।
‘‘हां, तो वर्माजी, आपको तकलीफ देने आना ही पड़ गया है। मूलचन्द को कुछ हो गया तो हमारी बदनामी होगी हमारा आदमी है। और आप तो जानते हैं आप भी हमारे ही है सी एम पूछ रहे थे, हमने यही कहा, वर्मा जी जैसा अफसर नहीं आया हमारी इज्जत करते हैं, हम तो उन्हें छोटा भाई ही मानते हैं। छोटे से छोटे कार्यकर्ता का भी ध्यान रखते हैं। प्रशासन संवेदनशील नही होगा, तो पार्टी कैसे चलेगी आप तो निश्चिंत होकर काम कीजिए, आप हमारे छोटे भाई हैं।’’ उन्होंने जरदे की आई हुई पीक को थूकने के लिए वाशबेशिन तक जाते हुए कहा।
तभी अचानक संदीप अंदर आ गया।
‘तुम  कैसे ’? मैं बोला
‘पापा! किताबें साहित्य सदन पर मिल रही हंै, आप किसी को भिजवा दीजिए मैं ले आंऊगा।’’
तभी शास्त्री जी मूलचन्द को लेकर अंदर आ गए, मैं कुछ कहता कि तब तक संदीप पीछे मुड़ा और उसकी आंखे मूलचन्द के चेहरे को देखते हुए तन सी गई, वह एकदम पीछे मुड़ा और घबराता हुआ मेरी कुर्सी के पास आकर खड़ा हो गया।

‘पापा,!पापा! वही चाकू वाला जो मां से बदतमीजी कर रहा था।’’
‘‘क्या?’’ पालीवाल जी चैंके वे कुछ कह नहीं पाए, उनके हाथ में उठा हुआ पान, हाथ में ही रह गया था, और शास्त्री जी मूलचन्द को बाहर जाने का संकेत कर रहे थे।” कुछ नहीं आपके कार्यकर्ता सचमुच बहुत सीधे होते हैं’’, मैं एक मुद्दत के बाद सहज हो पाया था।






               

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एक ही भू्ल

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

                            एक ही भूल
‘‘नीमा!’’ मयंक ने दाढ़ी बनाते हुए पिछले दरवाजे से ही आवाज दी थी,
‘‘आज मैं साक्षी के स्कूल में होने वाली पेरेंट्समीट में जा नहीं पाऊंगा, आॅफिस में कुछ ज्यादा काम है, तुम ऐसा करना आॅटो करके साढ़े बारह बजे वहीं उसके स्कूल पहुंच जाना।’’
‘‘पर मैं अकेली...’’
नाश्ता तैयार करते हुए नीमा के हाथ रूक गए थे। यूं साक्षी के स्कूल में साल में दो बार ‘पेरेंट्स मीट’ होती थी और माता-पिता दोनों ही बुलाए जाते थे। करीब-करीब जरूरी ही होता था कि दोनों पहुंचे, नहीं तो एक किसी को तो जाना ही होता था। पर नीमा अब तक दो बार ही गई थी, वह भी मयंक के साथ ही।
इधर तौलिया हाथ में लिए मयंक रसोई के बाहर ही आ गया था।
‘‘अरे! इतनी बार तो जा चुके हैं और फिर अकेली तुम क्या और जगह जाती नहीं। शाॅपिंग नहीं करती। उस दिन सार्थक को चोट लगने पर अकेली ही उसे अस्पताल भी लेकर गई थीं।
‘‘वो सब तो ठीक है पर...’’
नीमा ने फिर तेजी से हाथ चलाने चाहे थे। बच्चे टिफिन लेकर स्कूल जा चुके थे। बस मयंक का ही नाश्ता लगाना था। दूध और टोस्ट मेज पर रखकर अब वह परांठा सेकने की तैयारी में थी।
‘‘ठीक है, चली जाऊंगी, आप जल्दी नहा लो, देर हो रही है।’’
उधर शायद नौकरानी भी दरवाजे की काॅल बेल बजा रही थी। सुबह का यह समय भी कितनी व्यस्तताएं लेकर आता है, बस घड़ी की सुईयों के हिसाब से दौड़ते रहो।
अब साढ़े नौ तो बज ही रहे हैं। अब अगर साढ़े बारह बजे तक साक्षी के स्कूल में पहुंचता है तो कम से कम बारह से पहले ही निकलना होगा। अभी तो पूरे घर का काम पड़ा है। नौकरानी को जल्दी काम निबटाने का आदेश देकर नीमा ने फटाफट मयंक का नाश्ता तैयार किया। अब वह नाश्ता बाद में करेगी, पहले बच्चों के लिए खाना बनाकर रख दे फिर नहायेगी। लौटते में ढ़ाई-तीन तो बजेंगे ही।
इधर नाश्ता करते समय मयंक ने फिर याद दिला दिया था।
‘‘आॅटो सीधा ‘सेंटमेरी स्कूल’ के लिए ही लेना और अगर वह वहीं इंतजार कर सके तो रोक लेना। वैसे साक्षी की स्कूल रिपोर्ट तो ठीक ही है। ज्यादा कुछ तो कहना है नहीं।’’
‘‘हां, मैं देख लूंगी।’’
कहकर उसने मयंक को विदा किया था।
‘‘दीदीजी आज चाय नहीं बनी क्या...’’
नौकरानी ने अपनी चाय की याद की तो नीमा को भी याद आया कि शायद दोबारा की चाय उसने भी नहीं पी थी।
‘‘अभी बना दूंगी, पहले नहा लूं, तू जरा ये आलू कूकर में उबदले रख दे और फटाफट रसोई साफ कर दे।’’
नहाते समय याद आया कि मयंक से कह तो दिया है पर अभी तक कभी वह अकेली उस स्कूल में गई नहीं, है भी काफी दूर और अभी तक तो जो भी बात होती मयंक ही करते थे, इतने सारे लोगों के बीच वह क्या बोलेगी। फिर अब साक्षी की क्लास भी इतनी छोटी नहीं है, सेवंथ में है, कई नए विषय शुरू हो गए हैं।
पर अब कह दिया है तो जाना तो होगा ही।
चाय के साथ नौकरानी को भी नाश्ता दे दिया था। जल्दी से बर्तन वह साफ करके दे तो रसोई का काम खत्म हो।
हां ज्यादा नहीं बस थोड़ी सी नमकीन पूरियां तल लेगी। बच्चे तो सूखी आलू की सब्जी से ही खुश हो जाएंगे।
लौटते में थोड़े फल लेती आएगी।
जल्दी-जल्दी सारा काम निबटाया फिर बारह के पहले ही घर से निकल पड़ी आॅटो भी तो घर के पास नहीं मिलता है, और धूप अभी से इतनी तेज हो गई है, लौटते में साक्षी को अपने साथ ही लेती आएगी फिर सार्थक का स्कूल भी रास्ते में ही पड़ेगा।
‘सेंटमेरी’ पहुंचते-पहुंचते साढ़े बारह बज ही गए थे। शायद पेरेंट्स हाॅल में जमा होने लगे थे। साक्ष्ी की सहेली निशा के माता-पिता भी उधर जाते दिखे तो वह तेजी से उन्हीं के साथ हो ली थी।
करीबन सभी बच्चों के अभिभावक आए हुए थे और हमेशा की तरह इस बार भी विजय जी ने बोलना शुरू कर दिया था।
‘‘मैम, बच्चों को प्रोपर गाइडेंस नहीं मिल रही है। ढेर सा होमवर्क दे दिया जाता है। सब माता-पिता के जिम्मे आखिर आप लोग स्कूल में ही बच्चों की प्राॅब्लम्स क्यों नहीं साॅल्व करते हैं।’’
मैडम मिसेज़ डिसूज़ा भी अपने बचाव के लिए काफी कुछ कह रही थी तब तक रमेश जी ने बीच में उठकर कहना शुरू कर दिया।
‘‘स्कूल में प्रोपर हाइज़ीनिक माहौल नहीं है, पीने का पानी तक बच्चों को घर से लाना पड़ता है। स्कूल कैंटीन की भी हालत खस्ता है, इधर आजकल स्कूल बस भी समय पर नहीं आ रही है।’’
उधर शुभ्रा की मां शुभ्रा के कम नंबर क्यों गणित में आए हैं, इसका कारण जानना चाह रही थीं तो राखी के साइंस में कम नंबरों का दोष उसके माता-पिता की लापरवाही पर मढ़ा जा रहा था।
कुल मिलाकर माहौल कर्म ही था।
नीमा शांतिपूर्वक सबकी बातें सुन रही थी तभी मिसेज़ डिसूजा का ध्यान उसकी तरफ गया।
‘हां, मिसेज प्रसाद आप कुछ कहेंगी साक्षी के बारे में, वैसे तो वह ठीक ही चल रही है, पर अभी कोई खास उल्लेखनीय प्रगति भी नहीं की है उसने। मेरा मतलब है कि अगर उसे टाॅप करना है और दूसरे स्टृडेट्स की तुलना में...’’
‘‘तुलना में..’’
इसके आगे नीमा कुछ सुन नहीं पाई थी। शब्द ठक् से उसके कान में बजा था।
‘‘हाॅ मिसेज़ प्रसाद...’’
मिसेज़ डिसूज़ा ने उसे फिर टटोला था।
‘‘देखिए मैडम..’’
नीमा अब खड़ी हो गई थी।
‘‘मैं तो बस एक बात जानती हूं कि हर बच्चे की अपनी अलग काबिलियत होती है और कोई किसी से तुलना नहीं कर सकता। इसलिए पेरेन्ट्स और टीचर दोनों को ही चाहिए कि बच्चे की उस योग्यता को जाने और उसे आगे बढ़ाने का प्रयास करे। कई बार तुलना करने से या अपनी स्वयं की महत्वाकांक्षा बच्चे पर लाद देने से बच्चे का स्वाभाविक विकास रूक जाता है और ऐसी हीन भावना का वह शिकार हो जाता है जो कि ताउम्र मिट नहीं पाती है। इसलिए बच्चे के स्वाभाविक विकास पर ही अगर हम ध्यान दें तो शायद बेहतर हो।’’
एकदम से कई तालियों की गड़गड़ाहट गूंजी थी और मिसेज़ डिसूज़ा भी अपलक दृष्टि से नीमा की ओर ही देख रही थी।
‘‘आपकी बातों में दम है।’’
श्रीमती सहगल कह रही थी। उधर विजयजी भी आगे बढ़े थे।
‘‘मिसेज प्रसाद अभी हाल में एक फिल्म भी बच्चों की आई है जिसमें यही विषय उठाया गया है, लगता है आप भी उसी से पे्रेरित होकर...’’
नीमा हंसकर रह गई थी। क्या बताती कि किस बात से प्रेरित हुई थी वह।
बाद में देर तक गपशप होती रही, चाय नाश्ता भी हुआ।
साक्षी को लेते हुए रास्ते में सार्थक को भी उसने उसी आॅटो में बिठा लिया था। पर मन कई साल पीछे अपने बचपन में दौड़ गया था। तुलना... हां तुलना ही तो होती थी उसकी अपनी दोनों बड़ी दीदियां अणिमा दी और सीमा दी सें दोनों पढ़ने में तेज और स्कूल की हर एक्टिविटी में अव्वल थी। उसका तो शायद जन्म ही मां को गंवारा नहीं हुआ था। दो बेटियांे के बाद बेटे की उम्मीद थी उन्हें। पर वह हुई और हुई थी बेहद कमजोर और बीमार सी। पापा भी कुछ समय बाद नहीं रहे इसलिए वह मनहूस भी करार दी गई।
बस एक दादी थीं जो कभी-कभार उसे पुचकार लेती थी।
शायद इसी कारण बचपन से ही एक हीन भावना उसके मन में घर कर गई थी। जहां चार लोगों को देखती उससे बोलते नहीं बनता। रसोई में कुछ काम करके जाती तो सब उल्टा-पुल्टा हो जाता। कभी चाय फैल जाती, कभी दूध उफन जाता।
दोनों दीदियां उसका मजाक उड़ाती तो वह और अपने आप में सिमट जाती। बस अकेली चुपचाप किसी कोने में गुमसुम सी बैठी रहती। दीदियों की तो शादी भी फटाफट हो गई थी। अणिमा दी डाॅक्टर थी, तो वहीं काॅलेज में ही किसी को पसंद कर लिया था। सीमा दी को किसी दूर के रिश्तेदार ने मुंह से मांग लिया था।
वह तो अब किसी तरह बी.ए. कर पाई थी। मां को उसकी शादी की फिक्र रहने लगी थी।
‘‘कौन करेगा इस अनगढ़ सी लड़की से शादी, साड़ी तक ढंग से बांध नहीं सकती, चार लोगों के बीच बोल तक नहीं सकती।’’
सचमुच ही तो वह हकलाने लगती थी। कई बार तो आत्महत्या जैसे जघन्य विचार तक मन में उपजे थे। क्या करेगी वह जीकर सब पर बोझ बनकर..
‘‘मां, बहुत भूख लगी है, पहले खाने को दो, फिर कपड़े बदलेंगे।’’
घर पहुंचते ही बच्चे शोर मचाने लगे थे।
‘‘अरे वाह आलू, पूरी...’’
सार्थक तो अपनी प्लेट देखते ही खुश हो गया था।
‘‘मां, निशा की मम्मी कह रही थी कि आज आप बहुत अच्छा बोली थीं और आप बहुत अच्छी तरह अपनी बात कह जाती हो, यह भी कहा था उन्होंने...’’
साक्षी लाड़ में अपनी प्लेट मां के पास रखकर उसी से सटककर बैठ गई थी।
‘‘अच्छा और क्या कहा उन्होंने...’’
नीमा ने फिर हंसकर पूछ लिया था। पर मन अभी भी कहीं और दौड़ रहा था।
बी.ए. करने के बाद उसके लिए रिश्ते ढूंढ़ने शुरू हो गए थे, और इसी बीच उसने बी.एड़ में प्रवेश ले लिया था। पर यहां भी हालत वही थी। बी.एड. की प्रेक्टिस टीचिंग के लिए जाती तो पसीने छूटने लगते। कक्षा में बच्चों को पढ़ाते समय बोला ही नहीं जाता।
बच्चे भी कमजोरी भांप जाते और पूरी कक्षा शोरगुल में डूब जाती।
‘‘नीमा, जब तुम इतने से बच्चों को संभाल नहीं पाती हो तो क्या करोगी आगे जाकर।’’
एक दिन तो स्कूल की पिं्रसिपल ने आकर उसे सबके सामने डांटा था और वह पानी-पानी हो गई थी।
‘‘मां, आप इतना अच्छा बोल कैसे लेती हो...’’
साक्षी फिर पूछ रही थी।
‘‘अच्छा, अब तुम लोगों ने खाना खा लिया तो हाथ मंुह धोकर कपड़े बदल लो और थोड़ा सो लो।’’
बच्चों को कमरे में छोड़कर वह बाहर बरामदे में आ गई थी।
मयंक से शादी भी तो एक इत्तफाक ही था। मयंक की छोटी सी नौक्री थी और घर में अकेली बूढ़ी मां थी।
मां ने सोचा कि उनको यह अनगढ़ बेटी यहां निभ जाएगी तो आनन-फानन में ब्याह हो गया। वह तो तब भी कितनी घबरा रही थी, पता नहीं मयंक कैसा व्यवहार करें उसके साथ।
उसे अब तक याद है कि शादी के तुरंत बाद पास के एक छोटे से हिल स्टेशन पर घूमने जाने का प्रोग्राम बना था। बस स्टैंड तक जाने के लिए आॅटो रिक्शा लिया तो उसने चालीस के बजाय पचास रूपयों की मांग की, इसी बात पर मयंक की उससे काफी झड़प होने लगी तब हिम्मत करके वही मयंक से धीरे से बोली थी।
‘‘आप पैंतालीस रूपये ही दे दीजिए न, हम घूमने जा रहे हैं वहां भी तो हजार रूपये खर्च करेंगे तो पांच रूपये में क्या बिगड़ जाएगा...’’
मयंक तब चुपचाप उसके चेहरे को देखते रहे थे।
बाद में बस में बैठकर धीरे से बोले भी।
‘‘नीमा, जानती हो तुम्हारे व्यक्तित्व में सबसे अच्छी बात क्या है?’’
‘‘क्या?’’
वह सचमुच चैंक गई थी। क्या कोई खास अच्छी बात उसमें भी हो सकती है, आज पहली बार ये शब्द सुने थे उसने।
‘‘हां, तुम बहुत शांत स्वभाव की हो और काफी समझदार भी। देखो मैं कितनी छोटी सी बात पर उबल रहा था और तुमने मेरा क्रोध शांत कर दिया।’’
मयंक ने धीरे से उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया।
सचमुच मयंक का ही यह व्यवहार था जो हर कदम पर उसे अपनी कमजोरियों से उबारता चला गया था।
‘‘बच्चों को तुम पढ़ाओ, मां ही तो प्रथम पाठशाला होती है, इसलिए होमवर्क भी तुम ही देखना।’’
जब मयंक ने कहा था तो वह सोच में पड़ गई थी। कैसे कहती कि जैसे-तैसे तो बी.ए. कर पाई है, फिर बच्चों की आजकल की पढ़ाई पर धीरे-धीरे वह स्वयं भी उनकी किताबें पढ़ती फिर होमवर्क कराती। इसीलिए शायद ‘आदर्श मां’ की संज्ञा पाती रही है।
‘‘मां, बाहर क्यों खड़ी हो, अंदर आओ न, देखो, मैंने क्या बनाया है?’’
नन्हें सार्थक की आवाज थी। जाकर देखा कि एक कागज पर उसने मां की तस्वीर बनाई थी फिर टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा था-
‘‘दुनियां में सबसे अच्छी मेरी मां’’
हंसते हुए उसने बेटे के सिर पर हाथ रखा था।
बचपन के सारे शिकवे गिले अब तो दूर हो चुके हैं, फिर क्यों सोचती है वह यह सब।
सोचकर उसने सार्थक को गोद में उठा लिया था।

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डॉ. क्षमा चतुर्वेदी की कहानी

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

            
डॉ. क्षमा चतुर्वेदी के कथा संग्रह "स्वयंसिद्धा" से उनकी कहानी यहाँ दी जा रही है।


         स्वयंसिद्धा

उसका आटो रिक्शा और दीपू की साइकिल दोनों एक ही समय घर के सामने आकर रुके थे।
‘‘अरे दीदी तुम...!’’
साइकिल रखकर मुड़ते ही उसे देखकर दीपू चैंका था।
‘‘इस प्रकार बिना बताए अचानक ही और अकेली।’’
‘‘हाँ,ं बस तुम लोगों से मिलने का मन किया और चली आई, चल अंदर चल...’’
किसी प्रकार जबरन होठों पर मुस्कान लपेटकर खुशी ने कहा और फिर ऑटो वाले को पैसे दिए। दीपू तब तक उसका बैग और अटैची लेकर अंदर चला गया था।
‘‘मां दीदी आई है... मां...’’
दीपू की आवाज से मां भी तब तक बाहर आ गई थी। पर्स एक तरफ डालकर वह मां से गले मिली तो अनायास ही आंखें भर आईं थीं।
‘‘अरे तू कैसे आ गई अचानक और अकेली ही आई। दामाद जी ... बेटा...’’
‘‘बस माँं, तुम लोगों की याद आ रही थी और तुम तो जानती ही हो कि ये अपने काम में कितने व्यस्त रहते हैं, नीटू की पढ़ाई है, बस मेरा मन किया तो आ गई...’’
‘‘तभी तो मैं तुझे आॅटो से अकेले उतरते देखते ही चैंकी थी, न तेरी कार की आवाज न दामाद जी... चल अब अंदर चल...’’
माँ उसी प्रकार स्नेह से अभिभूत होकर उसे अंदर ले चली थी। बैठक में उसके तख्त पर बैठते ही माँ के प्रश्नों की झड़ी फिर लग गई थी।
‘‘और बता सब ठीक तो है, तेरी तबियत... कुछ कमजोर क्यों लग रही है...।“
‘‘हाँ, माँ सब ठीक है, अच्छी भली तो दिख रही हूँ, तुम्हें तो मैं हमेशा ही कमजोर लगती हूं’’
‘‘अच्छा अब बता, थक गई होगी, भूख भी लग रही हेागी, क्या खाएगी... अरे दीपू...।’’
माँ ने फिर दीपू को आवाज लगाई थी जो अब अपनी साइकिल अंदर रख रहा था।
‘‘अरे अभी साइकिल अंदर मत रख, जा दौड़ के रतन के यहाँं से गरम कचैड़ी ले आ, मैं तब तक गाजर का हलवा गर्म किए देती हूं...’’
‘‘अरे माँ रहने दो। बाद में खा लूंगी। बस चाय बना दो...’’
वह कहती जा रही थी पर दीपू तब तक साइकिल लेकर जा भी चुका था।
माँ  फिर चाय नाश्ते के साथ ही देर तक घर के हाल-चाल पूछती रही थी। नये घर का काम कितना हो गया। सुना है दामाद जी का प्रमोशन भी होने वाला है, और नीटू की पढ़ाई कैसी चल रही है।
खुशी को लग रहा था जैसे सारी बातें उसके इर्द-गिर्द ही घूम रही है केन्द्र में वह है परन्तु उस पर किसी का ध्यान ही नहीं है।
‘अरे हाँ, अब यह बता कि खाने में क्या लेगी, आज तो तेरी पसंद के करेले और कोफ्ते बनाऊं...’’
‘ओफ्-हो माँ, इतना सारा तो नाश्ता करा दिया अब क्या खा पाऊंँगी...’’ फिर खाने की बात छिड़ते ही खुशी का चेहरा तन गया था।
‘‘अरे तो अभी थोड़े ही खाना बना जा रहा है, अच्छा देख  तू इतनी थकी हुई है, थोड़ा सो ले, आराम मिल जाएगा, मैं दरवाजा भेड़ देती हूँ।’’
माँ उठने लगी थी कि खुशी ने हाथ पकड़कर रोक लिया।
‘‘नहीं माँ, यह कोई सोने का समय थोड़े ही है, मेरे पास बैठो, बातें करो, मुझे अच्छा लग रहा है...’’
उसने बैग में से मिठाई का डिब्बा और दीपू के लिए लाई नई शर्ट का पैकेट निकाला।
‘‘दीदी, मेरे लिए भी जीजाजी से बात करो न, कम्प्यूटर में डिप्लोमा भी कर लिया, अब कहीं मुझे लगवा दो...’’
दीपू सामने की कुर्सी खींचकर बैठ गया था। खुशी कुछ और पूछती इसके पहले ही माँ ने टोक दिया।
‘‘अरे तू अपनी दीदी से ही कुछ सीख न, इसने कितनी मेहनत की है, तब जाकर इस स्थिति में पहुँची है और एक तू है शहर छोड़कर तो जाना नहीं चाहता है, बस सब यहीं मिल जाए। अच्छा खुशी बेटा थोड़ा आराम कर ले, ये बातें तो बाद में भी होती रहंेगी, अब तू भी जानती है कि देर सवेर तुझे ही दीपू के लिए कुछ करना होगा, और हाँ, दीपू, तू भी अब दीदी को थोड़ा आराम करने दे...’’
माँं ने अपने साथ ही दीपू को भी उठा दिया था, दरवाजा भेड़ते ही कमरे में कुछ अंधेरा हो गया था, चाहकर भी बत्ती जलाने की इच्छा नहीं हुई खुशी की। माँ शायद ठीक कहती है, उन दिनों एक ललक थी आगे बढ़ने की, जैसे-तैसे बी.ए. तो इसी छोटे से शहर में कर लिया था उसने, फिर यहाँ तो उस समय कोई टैक्नीकल कोर्स भी नहीं था। फिर दिल्ली छोटे चाचा के पास जाने की ठान ली थी, उसने। वहीं रहकर कोई ट्रेनिंग लेगी।
पर दिल्ली की कठिन जिंदगी का एहसास तो वहीं जाकर हुआ था। चाचा का छोटा सा दो कमरों का फ्लैट, चचेरे भाई बहिनों को भी उसका वहाँ  रहना नहीं सुहा रहा था, उसकी टूटी-फूटी अंग्रेजी का दिनभर मजाक बनता, फिर वहीं उसने अग्रेजी की एक क्लास जऑइन की थी, खर्च निकालने के लिए छोटी-मोटी ट्यूशन भी की और जैसे-तैसे कम्प्यूटर का एक कोर्स भी किया था। सचमुच एक बड़ी लड़ाई लड़ी थी उसने। पर आज इस मुकाम पर पहुँच कर कितनी सुखी है वह, यह भी तो किसी को बता नहीं सकती है और न अपनी पीड़ा किसी के साथ बांँट सकती है, पर माँ, तो कम से कम उसका दर्द समझ सकेगी।
उधर खाने के समय माँ, दोनों बड़ी बहनों का जिक्र ले बैठी थी। प्रीति आई थी दो महिने पहले, वही राग है घर का हर बात में सास की टोटा टोकी, इतने साल हो गए ब्याह को, अब तो कम से कम तेरे जीजाजी को समझना चाहिए कि आखिर पत्नी का भी पक्ष ले, ठीक है सम्मिलित परिवार में रहो, मत अलग हो पर अपने बड़े होते बच्चों पर भी तो कुछ ध्यान दो,
अब मैं क्या कहती, प्रीति तो खूब रोई, दामाद जी विदा करने आए तो थोड़ा समझाने की कोशिश की, और क्या करती...’’
इधर, प्रिया का अलग रोना है, इतने बड़े शहर में रहती है, महेश की छोटी सी तनख्वाह से घर चलता नहीं है, अब हमसे मदद की उम्मीद करो तो यहाँ तो वैसे ही हाथ तंग है, दीपू अलग बेरोजगार है, हम क्या मदद करे। मैने तो प्रिया को ही समझा दिया है कि तेरे दोनों बच्चे कुछ और बड़े हो जाए तो तू भी कुछ काम कर लेना, अब आजकल तो मियाँं-बीबी दोनों ही कमाएं तभी घर चले...’’
माँ कहे जा रही थी और खुशी सोच रही थी कि अपने सारे अनुभवों से माँं भी कितनी व्यवहारिक हो गई है, उधर माँ  का कथन अभी भी जारी था।
‘‘अब मैं तो रात दिन ईश्वर को धन्यवाद देती हूँ कि भगवान मेरी खुशी ने हमारी लाज रख ली, कोई दुख नहीं दिया माँ-बाप को, तू जब हुई थी तब तो तेरी दादी बहुत दुखी हुई थी कि तीसरी भी बेटी हो गई। फिर और नाराज हुई कि इसका नाम खुशी क्यों रख दिया है, कौनसी खुशी देने आई है यह... तीसरा बोझ है यह तुम दोनों मियां बीबी पर, पर बेटी तूने तो हमें खुशी ही दी, तेरे बाद दीपक का भी जन्म हो गया और तू भी कौनसी हम पर आश्रित रही। खुद ही पढ़-लिख गई। अपना दूल्हा भी तलाश लिया, न दहेज का चक्कर और न कोई शिकवा शिकायत।
अब देख तेरी दोनों दीदियों को ब्याह में इतना लेन-देन किया और अभी भी देते ही रहते हैं, पर कहाँं सुखी हैं, जब आती है तो अपने दुखड़े सुनाती रहती है।’’
खुशी फिर कुछ  कहते-कहते रूक गई थी, इधर माँ तो अभी भी उत्साह में ही थी। स्वयं नई चादर निकालकर बिछाई उसके पलंग पर, तकिए का गिलाफ बदला, फिर मेज पर पानी का ग्लास रखनी लगी तो खुशी ने ही टोक दिया था।
‘‘अरे तुम क्यों कर रही हो ये सब कुछ मैं कोई मेहमान थोड़े ही हूंँ प्यास लगेगी तो खुद ही उठकर पानी पी लूंगी।’’
पर माँ कहां सुनने वाली थी।
‘‘अरे नहीं, मुझे सब पता है, तू वहाँ कितने आराम से नौकर चाकरों के बीच रह रही है, अब दो दिन को आई है तो क्यों तकलीफ पाए। और हाँ  मैं और दीपू दूसरे कमरे में सो जाएंगे। आजकल तेरे बाबूजी भी गाँव गए हुए हैं तो वो कमरा भी खाली ही है’’
‘‘अरे नहीं माँ, तुम मेरे पास ही सोओ न, तुमसे ही तो मिलने आई हूँ, खूब बातें करेंगे...’’
‘‘खुशी...’’
माँ फिर हंस दी थी।
‘‘बातें सुबह कर लेंगे, तू अब आराम कर। मेरे पास लेटकर कहाँ आराम से सो पाएगी...’’
दूध का ग्लास और लाकर माँ ने टेबिल पर रखा था, वह मना करती रही, तब भी।
फिर देर तक उसे नींद आई थी। माँ भी बस उसे देखते ही समझती है कि जाने कौन सा मेहमान आ गया। दोनों दीदीयां भी तो आती है, तब तो सब कुछ सामान्य रहता है। माँ  के गले लगकर दोनों ढे़रों, बातें करेगी, हँसेगी, रोएंगी फिर माँ  के पास ही पलंग पर उनसे लिपटकर सोएंगी, बतियाएंगी।
पर वह क्यों चाहकर भी कुछ नहीं कह पाती है, क्यों नहीं उड़ेल पाती है अपने आपको... क्यों उसका दर्द कोई नहीं बंटा पाता है।
प्रीति दीदी, प्रिया दीदी दोनों के चेहरे, उसकी आँखों के सामने घूम गए थे। माँ सच कहती है, प्रीति दीदी की शादी में काफी खर्चा हुआ था। बाबूजी ने कर्जा भी लिया था, घर की पहली शादी थी, ढेरों तामझाम, खूब सारा सामान, सबसे लदी-फदी दीदी को विदा किया गया था। पर पहली बार मायके आई तभी रो पड़ी थी। सास सारे लेनदेन के बाद भी असंतुष्ट ही थी। दीदी को आए दिन ताने सुनने पड़ रहे थे। माँ, बाबूजी ने तब भी पहली विदाई में काफी सामान दिया। और अभी भी सामर्थ्य  से अधिक ही दिया जा रहा है। तभी तो जब प्रिया दीदी की शादी की बात चल रही थी। तभी वह उन्हें समझाती रहती थीं।

‘‘देखो, तुम तो पढ़ी लिखी हो, बाहर नौकरी करो और खुद ही अपने लिए अच्छा सा लड़का देख लो... यहांँ तो बाबूजी ऐसे ही दर-दर की ठोकरें खाते रहेंगे। और कोई मिल भी गया तो कौन सी गारंटी है कि तुम सुखी होगी, देख तो रही हो प्रीति दीदी को...’’
तब प्रिया ही उसे झिड़क देती थी।
‘‘तू ज्यादा पंख मत फैला, और अपने घर की सीमाओं में रहना सीख। समझी, ये आधुनिकता का जो पाठ मुझे पढ़ाने चली है न, वो खुद ही पढ़ लेना...’’
‘‘मैं तो पढ़ ही लूंगी, मुझे नहीं किसी अजनबी के साथ पूरी जिंदगी बर्बाद करनी है, न अपने माँ-बाप पर बोझ बनकर रहना है...।
प्रिया और चिढ़ जाती फिर जब प्रीति दीदी आतीं तो उनसे फिर घुट-घुटकर बातें करती दोनों बहनें हंँसती, खिलखिलाती, खुसर-फुसर करतीं पर उसे देखते ही चुप हो जातीं।
‘‘अब देखेंगे, हमारी खुशी इस घर की खुशी के लिए क्या करने वाली है,’’ दोनों मिलकर अक्सर उसे चिढ़ाने लगतीं।
‘‘हाँ-हाँ  जरूर देखना...’’
फिर प्रिया दीदी के लिए भी कोई वर खोज लिया था बाबूजी ने और वह भी तामझाम के साथ विदा कर दी गई। यह बात जरूर है कि अब तक वे अपनी आर्थिक कमी का रोना ही रोती रहती है। इन सब बातों से ही तो वह दिल्ली चली गई थी।
वहीं जब उसने अंग्रेजी की क्लास में जाना शुरू किया था तो हेमराज से परिचय हुआ था। वह भी किसी छोटे से शहर से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके आया था, और यहाँं इंटरव्यू दे रहा था। अंग्रेजी उसकी अभी कमजोर थी तो क्लास जॉइन कर ली थी।
यह तो बाद में पता चला खुशी को कि वह चाचा के घर के पास ही कहीं कमरा लेकर रह रहा था।
परिचय धीरे-धीरे मित्रता में बदला और कब मित्रता प्रेम में बदल गई, यह तो वह जान ही नहीं पाई थी।
हेमराज ने ही सपाट शब्दों में शादी का प्रस्ताव उसके सामने रख दिया था। चूँकि वह अकेला था तो उसके घर वालों की तो सहमति का प्रश्न हीं नहीं था। खुशी के माँ-बाप ने अपनी सहर्ष अनुमति दे दी थी। हेमराज सभी को भला और हँसमुख, होनहार युवक लगा था। एक सीधे-सादे समारोह में विवाह भी सम्पन्न हो गया, तब तो और रिश्तेदारों को भी खुशी के भाग्य से ईर्ष्या हुई थी।
आज दो-तीन नौकरियां बदलकर हेमराज अब काफी ऊँचे ओहदे पर एक अच्छी कंपनी में कार्यरत था। नीटू के जन्म के बाद परिवार भी अब पूरा हो गया था। पर कुछ समय बाद ही खुशी जान गई थी कि हेमराज का एक अलग व्यक्तित्व भी है, वह अच्छी नौकरी मिल जाने से उसे किसी बात से परहेज नहीं रहा है और आधुनिकता की अंधी दौड़ में वह शामिल हो गया है। शराब वगैरह से तो पहले भी परहेज नहीं था पर अब आए दिन किसी न किसी युवती से उसका नाम जुड़ जाता था, और तो और वह स्वयं ही अपनी प्रेमलीलाओं के किस्से चटखारे ले लेकर सुनाता रहता। और घर में रात दिन कलह का वातावरण रहता। खुशी के सारे प्रयासों के बाद भी वह अपनी बात पर कायम रहता।
‘‘अरे! तो तुम भी इन्जाॅय करो न, कौन रोकता है तुम्हें, क्यों ऐसी मनहूस सूरत बना लेती हो, मेरी बातें सुनते ही...’’
‘‘हाँ-हाँ रोकता है, मेरा जमीर रोकता है, मेरे संस्कार रोकते हैं,’’ खुशी और चीखने लगती थी।
‘‘देखो ये ऊंँची आवाज में मुझे दबाने की कोशिश मत करना, और याद रखना तुम्हें सड़क से उठाकर घर की रानी बना दिया है, अब मेरे एहसानों के पैर के तले दबी रहो समझी... ज्यादा चू-चपड़ की तो तुम्हें भी छोड़ सकता हूँ मैं...’’
हाँ, अपनी जिंदगी मैं अपने तरीके से भरपूर जिऊंगा... और मुझे बच्चे की दुहाई मत दो, उसे हॉस्टल में डाल दो, और तुम भी मौज करो।’’
खुशी का दम घुटने लगता था... कुछ भी समझ नहीं पा रही थी वह कि कैसे क्या समाधान होगा... हेमराज को छोड़ दे... पर जाएगी कहाँं बच्चे को लेकर .... उसका भी तो भविष्य जुड़ा है उससे पर अब तो सुना है कि अपनी किसी रखैल को फ्लैट लेकर दिया है हेमराज ने। तब कितनी आसानी से कह दिया करती थी प्रीति दीदी से कि एक तुम छोड़ क्यों नहीं देती जीजाजी को, क्यों इतना सहती हो... पर अब समझ में आ रहा है कि सब कुछ इतना सहज नहीं होता है। टूट-टूट कर भी जीना ही पड़ता है। तो क्या समझौता कर ले । पर किस हद तक...
काश! उसकी ससुराल ही होती, तो शायद कोई होता जो हेमराज को समझा सकता... पर अब अपना यह दर्द वह किसके साथ बांँटे... कोई भी तो नहीं है...
दोनों दीदियाँं तो कभी भी सुख-दुख की साथी थी नहीं, एक माँ है, पर उनसे भी तो कुछ कह नहीं सकती। आखिर सब कुछ चुना तो उसी ने था, वही जिम्मेदार है, माँ तो यही समझती है कि वह बहुत सुखी है।  सबको खुशी बाँट रही है.. अब उनसे क्या कहे.. नहीं ... उसके भाग्य में तो माँ की गोद में सिर रखकर रोना भी नहीं है... अपनी पीड़ा, संताप सब उसे ही वहन करना है... रात देर तक यूं ही सूनी दृष्टि से अंधेरे में कुछ टटोलती रही थी।

सुबह उसका उतरा हुआ मुहँ देखकर माँ भी चौंकी थी।
‘‘क्या हुआ? लगा रात को ठीक से नींद नहीं आई, गर्मी ज्यादा थी क्या, और अब बता क्या बातें करना चाह रही थी।’’
माँ ने उसका उतरा चेहरा देखते ही पूछा था।
‘‘कुछ नहीं माँ... वो तो ऐसे ही... हाँ अब सोच रही हूं कि शाम को ही लौट जाऊँ नीटू घर में अकेला होगा...’’
खुशी का स्वर निर्विकार था...
अब तक स्वयंसिद्धा रही थी वह... आगे भी शायद यही बनना उसके भाग्य में है... उसका सुख... उसका दुख... बस उसका ही है .... यही सोच रही थी वह।

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धर्म का रहस्य

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

  • धर्म का रहस्य 

                धर्म का रहस्य चर्चा का विषय नहीं है। यह अनुभव का जगत  है। मान्यताएं स्थिर नही है। जब जगत ही तेजी से परिवर्तनशील हो रहा है, पृथ्वी अपनी धुरी पर घूम रही है। समस्त ग्रह उपग्रह अपनी-अपनी  परिधि में, अपनी निहारिकाओं में सतत गतिशील है, तब एक स्थिर मान्यता हमें अपनी यात्रा में कितनी सहायक हो सकती है, यह प्रश्न विचारणीय है। दिक्कत यही है। और सचमुच यही है। हम जो स्वयं गतिशील है। इस गत्यात्मक समाज में स्थिरता चाहते हैं। हमारी ईश्वर की मान्यता स्थिर है। भगवान का स्वरूप स्थिर किया जा चुका है। यही कमोवेश स्थिति ज्ञानी की है। इस पिंड में आत्मा कहां हैं। और परमात्मा कहां हैं, सब तय हो चुका है। शेष तो यात्रा ,मात्र ,व्याख्या बची है। हजारों साल से इस व्याख्या में हजारो लाखों ग्रन्थ लिखे जाते रहे हैं, करोड़ों शब्द वायु मण्डल में तरंगित है पर प्यास वहीं की वहीं है। बेचैनी वहीं है। शास्त्र समाधान नहीं दे पा रहे है। शब्द उधार के स्वप्न की तरह आते हैं।
    धर्म वहीं का वहीं है।
    इस छोटे से शब्द की व्याख्या नहीं हो पा रही है। मनुष्य अपने जन्म से इसी से जूझता है, और मृत्यु इसी की  परिधि में उसे समेट लेती है।
    जन्म जाति ही नहीं देता, धर्म भी सौप देता है। इन्सान जाति तो नहीं बदल पाता, पर धर्म वह बदल सकता है ऐसा कहा जाता है।
    सारा झगड़ा यही है।
    क्या सचमुच इन्सान अपना धर्म बदल सकता है। इन्सान का धर्म उसके जन्म से ही लिख दिया जाता है। इन्सान इन्सान है, यही उसकी पहचान है। धर्म गहराई में उसकी पहचान से जुड़ा है, उसकी सांस से जुड़ा है, उसके प्राणों का स्पंदन है। कहा जाता है मात्र यात्रा ही उसे धर्म सौंप सकती है, उसे अर्थवत्ता दे सकती है। झगड़ा जिस चीज को लेकर है, वह सचमुच धर्म नहीं, वही जड़ता है, वही स्थिरता है, जिसे हम तय कर आए है। जिसे परिभाषित किया जा सकता हो, वह धर्म नहीं है। वह संप्रदाय हो सकता है। सम्प्रदाय के पीछे एक अहम् है बड़ा अंहकार, परिभाषित भाषा है। नियम हैं। तरीके हैं। और उनका मात्र दोहराव है।
    हम किताब पढ़ते हैं।
    तरीका सीखते हैं।
    नहीं आता है, तो जो जानता है उसकी बात मानते हैं। और उन शब्दों को बस पकड़ने की कोशिश करते हैं। जन्म और मृत्यु के बीच के समय को इस आधार पर नियन्त्रित करते हैं।
    यही हमारी धार्मिक यात्रा है।
    हम जैसे आते हैं, बाजार से वैसे ही लौट जाते हैं। धर्म हमें अप्रासंगिक लगने लगा है। लगता है शब्द अर्थ ही खो बैठा है, बासी हो गया है।
    पर सचमुच यह सही नहीं है। साम्प्रदायिक कट्टरता, धार्मिकता नही है। सबसे पहले यह बात स्वीकार करनी होगी, जो धार्मिक है वहीं प्र्रयोगशील है। धर्म, दोहराव की यात्रा नहीं है। जड़ता नहीं है। पत्थर हो जाना नहीं है।
    धर्म का केन्द्र उस परम चैतन्य की स्वीकृति के साथ जुड़ा हुआ है। ”वह है” यही पर्याप्त है। क्या नाम है, और कहां उसका ठिकाना है, यह जानना इतना जरूरी नहीं है। पर वह है, यही स्वीकृति धार्मिकता है। दुनिया के सारे धर्म इसी स्वीकृति के साथ छुपे हुए हैं। जो भी मत है संप्रदाय है, मतान्तर है इसी स्वीकृति के साथ हैं मतभेद उसके नाम से है, उसकी भाषा से है उसके रूप से है, उसकी पहचान से है।
    जब तक बूंद सागर से पृथक है, तभी तक कल्पना है। तभी तक अनुमान है। तभी तक दर्शन है। बूंद का सागर में मिल जाना, सागर हो जाना है।  बूंद रही न अन्य बूंदे रही...फिर न कल्पना है न दर्शन है, न व्याख्या है।
    धर्म इस बिन्दु की स्वीकृति की पहचान है। उसके बूंद हो जाने के अस्तित्व की पहचान है। यह उसके उसी अहसास से जुड़ी हुई है। उसका यह अहसास होना है कि वह बूंद विलीन हो जाती है। पार्थक्य तभी तक है। जब तक बूंद को उसका बूंद होना ही पता नहीं है। नीली बूंद, काली बूंद, पीली बूंद, रंग ही रंग है।
रंग का खो जाना।बूंद को विश्वसनीयता सौंप देता है। बूंद अपनी ही नहीं रहती है। बूंद को उसके अस्तित्व की प्राप्ति सागर की प्राप्ति है। एक बूंद यहां न सहसा उछली है, न उसने सागर मुद्रा अपनायी है। दोनांे ही दार्शनिक भंगिमाएं हैं। जो कृत्रिम है। बूंद हैं, बूंद का बस बूंद हो जाना। बूंद पन पा जाना है, सागर हो जाना है। यही यात्रा है। यही धर्म है।
    धर्म अपनी प्रकृति में अपने स्वरूप में धारणा से जुड़ा है। धारणा जो पहले आरोपित थी अब निसर्ग हो जाती है, अब सहज हो जाती है। अब प्रकृति जन्य हो जाती है। इसीलिये धार्मिकता जड़ता नही है। स्थिरता नहीं है। पत्थर हो जाना नहीं है।
    जो धार्मिक है, वह जागरूक है, वही संवेदनशील है, वही नमनीय है, वही प्रकृति के साथ मुक्त साहचर्य में है। वह पार्थक्य खो देता है। और प्राप्त कर लेता है सहजता, जागरूकता। विश्वसनीयता। उसका अपनापन....। उसे क्या मिलता है। वह निज की शख्सीयत जो मानकर चला था खो देता है।
    धर्म गहराई में निज से जब जुड़ता है, पहले स्वयं को मिटा देता है। धर्म ‘स्व’ की स्वीकृति की यात्रा है जो स्व के विसर्जन तक पहुंच जाती है। जो पत्थर हो जाता है। जड़ हो जाता है.....वह धार्मिक नहीं है, सांप्रदायिक हो सकता है, दार्शनिक हो सकता है प्रचारक हो सकता है। मतवादी हो सकता है, अंहकारी हो सकता है। जो धार्मिक है उसके लिए अपना बचाव सार्थक नहीं है। उसके पास सुरक्षा नहीं है। उसके पास शास्त्र नहीं है। जो किसी को आघात पहुंचा सके। वह धार्मिक शब्दों की श्रृंखला से दूर है।
    जो धार्मिक है।
    वह एक गहरे मौन में हैं।
    वहां मात्र निस्तब्धता है।
    चेतन्य का अहसास...। जब स्वीकृति से जुड़ता है। तब जो छूटना होता है। वह स्वतः छूटने लग जाता है।
    वृक्ष के पत्ते जिस तरह यूं ही गिरने लग जाते है।
    ‘मान्यताएं बिखर जाती है। स्वीकृतियां अपने आपको विसर्जित कर देती है। रह जाता है वृक्ष एक ठूंठ सा। जिसे सम्हालकर रखा था, अपना समझा था, कितना गर्व था, कितना अंहकार भी । यह मेरा है यह मेरे पत्ते हैं। जो हर हवा के झोंकों के साथ तालियां बजा बजाकर स्वागत करते थे।
    वे चुपचाप बिखर जाते हैं। कभी पत्ते को गिरते देखा है ? उनकी आवाज सुनी है ? उनकी पहचान वृक्ष से हटते देखी है ? हां पत्ते गिर जाते हैं।
    क्योंकि वृक्ष नया हो रहा हैं।
    वृक्ष हर बार नया हो जाता हैं
    परम चेतन्य केन्द्र उसे जड़ नहीं रहने देता।
    पर मनुष्य अपनी जड़ता पर मुग्ध है। अपनी पाषाणता पर गर्वित है। वह जड़ हो जाता है। और अपने पुराने पत्ते को ही स्वीकारता हुआ आत्म प्रशंसित हो रहा है।
    यह धार्मिकता नहीं है।
    यह धर्म का वरण नहीं है।
    यह धर्म का प्रवेश नहीं है।
    इसीलिये ”बुद्ध” को कहना पड़ा। धर्म की शरण मे जाओ।
    ”धम्मं शरणं गच्छामि”।
    मैं धर्म की शरण में जाता हूं।
    तो अब तक क्या था।
    धर्म की शरण हिन्दू का मुस्लिम हो जाना नहीं है। आर्य समाजी का बौद्ध हो जाना नहीं है। तेरा पंथी का बीस पंथी हो जाना नहीं है। आदिवासी का ईसाई हो जाना नहीं है। शास्त्र धर्म नही है, किताबें हैं, शब्द हैं, जो कोरे है। परंपराएं धर्म नहीं है...सामाजिक व्यवस्था है, जो जड़ता सौंपती है। धर्म वह सब नहीं है, जिसे आप और हम सब मान रहे हैं। अगर वास्तव में यही धर्म होता। तो इतने विवादी स्वर नहीं होते इतनी कठिनाई नहीं होती। मनुष्यता को इतना गहरा अंधेरा नहीं मिलता। इतनी गहरी अंधेरी रात नहीं होती।
    धर्म स्वीकृति है।
    धर्म मनुष्य की चैतन्य की स्वीकृति है। और धार्मिकता चैतन्य में प्रवेश है। चैतन्य का अहसास है। चैतन्य हो जाना है। जो धार्मिक है, वह कटघरे में नहीं है, वह कैद नहीं है। वह पिंजड़े में नहीं है। वह पंछी नहीं है। वह गुलाम नहीं है।
    इसीलिए आचार्य ने जहां धर्म कहा...वहीं लीला कहा, वहीं ”मुक्ति” कहा। जो ”मुक्त” है, उसके लिए ”जगत” लीला है। ”
    सनातन धर्म में ”लीला” से बड़ा कोई शब्द नही है। पूरी दुनियां में लीला अपने आप में अद्भुत है। जो धार्मिक थे, इन्होंने लीला कहा। न नरक कहा। न दुःख कहा। न गंदा कहा, न अच्छा कहा।
    जगत ही चैतन्य की लीला है।
    और मुक्ति काया नाश हो जाना नहीं हैं।
    देहांतर मुक्ति नहीं है।
    मुक्ति, शरीर में ही चैतन्यानुभूति है। यहां पृथकता अर्थ खो देती है। जाति खो देती है। रूप रंग खो देती है, उस मान्यता को जिसे हम धर्म समझते आये थे, गलियारे अपना अर्थ खो देते हैं।
    संप्रदाय की छाया हट जाती है। पत्ते बस निः शब्द गिरते रहते हैं।
    बस खामोश
    पत्तों का गिरना भी महसूस नहीं होना।
    जब गिरता है, तभी तो कुछ नया आता है, नया पत्ता देखा हैं।
    कितना कोमल होता है, कितना नाजुक, संवेदनशील,
    हां, जब पत्ते गिरते हैं, तब ऐसा ही हो जाता है।
    यही यात्रा है।
    धर्म जड़ता नही है, जो जकड़ता है जो बांधता है जो असीम को सीमित कर देता है, पृथकता सौंपता है। वह धर्म नहीं है। और कुछ हो सकता है। नाम आपके पास है। रूप आपके पास है।
    जो, नाम नहीं है, जो रूप नहीं है, जहां पहचान नहीं है, वही धर्म है।
    यही प्रकृति के साथ साहचर्य है।
    यही मुक्ति है।
    यही मनुष्य का पथ है। यही मनुष्यता को जन्म देता है। जो जागा है वही धार्मिक है। वही मनुष्य है। वही कहीं बहुत गहरे               में प्रकृति के सहयोग में है। विरोधी स्वर नहीं, विवादी स्वर नहीं, वह निःशब्द, धर्म में है। धार्मिकता में है।
    इसीलिए कृष्ण को कहना पड़ा - ”मामेकं शरणं व्रज”।
    किसी ‘मूर्ति’, की शरण में नहीं, किसी ‘किताब’ की शरण में नहीं।
    किसी मंत्र की शरण में नहीं, किसी मन्दिर मठ की शरण नहीं।
    ”मामेकं शरणं व्रज”। मेरी शरण मे आओ।
    मेरी.....जहां चेतना है, जहां गति है, जहां स्फुरणा है, जो चैतन्य है। बुद्ध ने कहा धर्म की शरण मे जाओ।
    दोनांे अलग नहीं है।
    विरोध में नहीं है।
    जो अलगाव देख रहे हैं, वे विरोध में है, वे विवाद में है।  वे  हजारों साल से  विरोध देख रहे है।
    विरोध उनका हथियार था।
    विरोध उनका दर्शन था।
    वे विरोध ही करते हुए आए थे।
    और हमेशा विरोध करते है। जो अस्वीकृति में है, वह स्वीकृति की भाषा नहीं जान सकता। यह पूरे पन को पा नहीं सकता।
    जो मनुष्यता को बांटकर देखता है, वह मनुष्य को पा नहीं सकता।
    सनातन धर्म सनातनता का अहसास है। इसी समझ को सौंपता है। जो सनातन है, जो था, और रहेगा। मनुष्य और उसका             स्पंदन उसका प्राण सनातन है।
    मनुष्य का चैतन्य केन्द्र सनातन है। वह था और रहेगा।
    जब कुछ नहीं था.......तब चेतना थी। जब कुछ नहीं होगा तब चेतना रहेगी। जगत इसी चेतना की लीला है । सब जगह         वही लीला व्याप्त है।  अद्भुत कल्पना  रही ।  विरोध नहीं स्वीकृति में समर्पण रहा। इस धार्मिकता को समझने में भूल हो         गई।
    बुद्ध और महावीर के स्वर को विरोधी स्वर, विवादी स्वर स्वीकार कर के प्रभु के अवतरण की घोषणा..... प्रभु की लीला की         वर्णना और लीला से पुनः प्रभु में ही वापसी। क्या विपरीत ध्रुव है ?
    बिना दोनो ध्रुवों के पृथ्वी की कल्पना नहीं हैं।
    पृथ्वी का अस्तित्व वही है। पृथ्वी का आकर्षण वही है। उसका रूप वही है।
    ये दोनो ध्रुव पूरक हैं, दो छोर हैं.... यात्रा एक ही है।
    यात्रा बहिर्मुखता से अन्तर्मुखता की है। चैतन्य की स्वीकृति बहिर्मुखी व्यक्तित्व को पहले एकाग्रता की जमीन सौंपती है, और         फिर एकाग्रता अन्तर्मुखी बनाकर चैतन्य की ओर, उसकी निजता की ओर, उसके अस्तित्व की ओर उसे छोड़ती है।
    यही यात्रा है।
    यही धार्मिकता है।
    इसीलिये आवश्यक है, धर्म में प्रवेश हो। धर्म हमारा मार्ग प्रशस्त करे।
    हीनता नहीं, दयनीयता नहीं गहन स्वीकृति रहे। तन, मन प्राणों का संगीत गहरी संतुष्टि दे, गहरी आस्था प्रदान करे। धार्मिकता         प्रकृति के प्रागंण में प्रवेश है। धार्मिकता परमात्मा का प्रवेश द्वार है। धार्मिकता सांप्रदायिकता नहीं है। जड़ता नहीं है। यह समझ         लेना जरूरी है।
    प्रेम प्रभु का द्धार है। धर्म प्रभु का द्वार है।
    धर्म ही प्रेम है।
    प्रेम ही धर्म है।
    यही परमात्मा की चैतन्य की स्वीकृति हैं
    जो हमारा मार्ग है।

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                उलझन

अणिमा ने ही फोन पर खबर दी थी -
‘रितू मां बनने वाली है...
‘अच्छा ....’
एक आश्चर्यमिश्रित सुःखद एहसाह में डूब गई थी वीणा । रितु उसके बचपन की सहेली, साथ खेली, पली-बढ़ी, विवाह भी दोनों के कुछ ही महिनों के अंतराल पर हुए थे पर वीणा के आज दो किशोरवय के बच्चे थे, वहीं रितु शादी के सोलह वर्ष बाद भी मां नहीं बन पाई थी ।
रितु के पति विनोद एक प्राइवेट फर्म में थे और रितु स्वयं भी नौकरी कर कर रही थी । यूं दोनों पति-पत्नी आधुनिक विचारधारा के थे और अपनी जिंदगी में खुश थे, पर फिर भी संतान का अभाव कभी-कभार रितु के चेहरे पर झलक ही जाता था ।
‘ठीक है, हम लोग तो चाइल्सलेस मैरिज में विश्वास रखते हैं ...’ उपरी मन से हंसकर भले ही वह कह देती हो पर वीणा उसके अंतरमन की पीड़ा को पढ़ लेती थी । एक बार तो उसने कहा भी था -
‘क्यों न तुम लोग एक बच्चा गोद ले लो... ’
‘ओह नो... फिर हमें जरूरत भी क्या है, और तुझे पता है कि विनोद को यह कभी भी अच्छा नहीं लगेगा । वे कहते हैं कि इतने भानजे, भतीजे हैं तो उन्हीं कोे अपना समझ लो’
‘रितु... अपना समझना अच्छी बात है पर किसी बच्चे को उसके बचपन से ही तुम लोग अपना समझकर पालोगे तो एक अभाव जो जिंदगी में है वह पूरा हो जाएगा और फिर भगवान का दिया सब कुछ है ही तुम्हारे पास क्या कमी है।’
वीणा कह भी देती पर रितु टाल जाती । शायद दोनों मियांबीबी की ऐसीकुछ अंडरटेकिंग रही होगी, वीणा सोचती ।
पर अब... शादी के सोलह वर्ष बाद रितु की गोद भरने जा रही है । वह सोच रही थी कि स्वयं ही जाकर रितु को बधाई दे । आज शनिवार की छुट्टी है, वह पूरा दिन रितु के पास बिता सकती है ।
सुबह पति के आॅफिस जाने के बाद ही उसने रितु को फोन कर दिया था ।
‘सुन... मैं आ रही हूं तेरे पास और दिन भर वहीं रहूंगी ।’
‘तो आ जा न... अच्छा लगेगा । कितने दिनों से मिले भी नहीं हैं और आज मैं अकेली भी हूं, लंच भी यहीं बना लेंगे...’
क्यों... विनोद कहां है, मैं तो सोच रही थी कि दोनों को एक साथ ही बधाई दूंगी... ’
‘विनोद तो टूर पर है, वैसे भी आजकल अधिकतर टूर पर ही रहते हैं, तू आ जा...रितु ने फोन रख दिया था, चलो कोई बात नहीं, विनोद न सही, रितु से ही खूब गप-शप होगी । सोचते हुए वीणा तैयार होकर ग्यारह बजे ही घर से चल दी थी ।
अच्छा हुआ भगवान ने इनकी भी सुन ली । देर ही सही पर रितु और विनोद कितने खुश होंगे । बच्चों की ललक किस माँं-बाप को नहीं होती और यहां तो इतने लंबे इंतजार के बाद बच्चा  आ रहा है । रितु से कह देगी कि  किसी को भी बुलाने की जरूरत नहीं, ‘वह है न... सब संभाल लेगी और अब तो स्वयं के बच्चे भी बड़े हो गए हैं, इसलिए काफी समय मिल जाता है ।
घर थोड़ी दूर था पर आज वीणा को समय का पता ही नहीं चला था, आॅटोरिक्शा जब रितु के छोटे से बंगलेनुमा मकान के आगे जाकर रूका तब वह चैकी थी । किक्शेवाले को पैसे देकर अंदर गई तो रितु बाहर लांच में दिख गई थी ।
‘देख तेरा ही इंतजार कर रही थी ।’
रितु के कहते ही वीणा ने उसे बांहों में ले लिया था ।
‘पहले तू मेरी ढेर सारी बधाई ले ले ...’
वह कहे जा रही थी कि रितु ने टोक दिया ।
‘अंदर तो चल, वहीं बैठकर बातें करेंगे...’ रितु के साथ वह ड्र्ाईंगरूम में आ गई थी । तब तक उसका नौकर नाश्ते की प्लेटें ले आया ।
‘तेरे इंतजार में    आज मैंने नाश्ता भी नहीं किया था, इतनी देर क्यों कर दी ?
‘ हां, देर तो हो गई थेड़ी पर सुन अब तुझे अपना ख्याल रखना है, मेरा मतलब है किसमय पर नाश्ता, समय पर  खाना... आखिर बच्चे का सवाल है...’
‘ तू भी बस...’
‘अच्छा बता... कब चैक करवाया था । अणिमा तो कह रही थी कि तीन महिने से उपर होगए हैं, पर तूने बताया नहीं । रेगूलर चैकअप तो करवा रही है न, देख जरा भी लापरवाही ठीक नहीं, वैसे भी इस उमर में...’
‘वही तो मैं भी सोच रही हूं कि इस उमर में यह क्या रोग लगा बैठी ।
‘क्या...’
वीणा उसके बोलने के ढंग से चैंक गई थी ।
‘रोग... तू भी निरी पागल है, प्रेगनेन्सी भी क्या रोग होता है ?
‘अच्छा चल... पहले तू पकौड़े तो खा... ठेडे हो रहे हैं ...बहादुर... खूब गरम पकौड़े लाना और पोदीने की चटनी भी । वहीं टेबिल पर रखी होगी ...’
’रितु... ध्यान ही नहीं रहा, ब्रजवासी के यहां से मैं थेड़ी मिठाई भी लेती आती, आखिर कुछ खाश दिन सेलीब्रेट कर रहे हैं...’
‘खास दिन... क्या खासा... वही आमदिन तो है... रोज का नाश्ता... रोज की दिन-चर्या..’
रितु का स्वर उसी प्रकार उदासीन था । वीणा देख रही थी कि जानबूझकर वह इस दिनचर्या से बचना चाह रही है पर क्यों... वह समझ नहीं पा रही थी ।
‘चल, अब बैडरूम में बैठेंगे... आज तो तेरी छुट्टी है तो खुब गप-शप करेंगे, नाश्ता तो इतना कर लिया है कि लंच की भी जरूरत नहीं हैं ।’
बाहर हल्की वर्षा शुरू हो गई थी, मौसम तो बाहर बरामदे में बैठकर बारिश का लुत्फ उठाने का था पर रितु के चेहरे की गंभीरता को देखकर वीणा का मन हो रहा था कि कहीं एकांत में जाकर उसका मन टटोले कि आखिर बात क्या है, इतनी बड़ी खुशखबरी और उसका उदासीन सा चेहरा... तब तक रितु ने अंदर जाकर नौकर को कुछ खाना बनाने का आदेश भ दे दिया था ।
‘इतने दिनों में तो तू आई है और क्या बिना खाना खाए जाएगी । नहीं मैं कुछ नहीं सुननेवाली तेरी...
‘खैर चल-अब बता कि आखिर बात क्या है ? इतना गंभीर तो मैंने तुझे कभी नहीं देखा.’
अंदर कमरे में आते ही वीणा रितु का हाथ पकड़कर पलंग पर बैठ गई थी, बाहर खिड़की अमलतास के पेड़ों की पत्तियां बारिश की बूंदों से भीग कर चमक रही थी ।उसे एकाएक लगा कि जैसे रितु की भी आंखें भर आईं हैं...
‘कुछ नहीं... गंभीर कहां हूं...’उसने कुछ संयत होतु हुये कहा था ।
‘अरे वाह... मैं क्या तुझे जानती नहीं, बचपन से साथ हूं तेरे हर छोटी-मोटी खुशी से तो उत्साह से भर उठती थी तू और आज... आज जब तेरी इतनी बड़ी खुशी में मैं शरीक होना चाहती हूं तो तू ढंग से बात ही नहीं कर रही है ।’
‘वीणा, मैं यह बच्चा नहीं चाहती हूं...’रितु का स्पष्ट स्वर सुनकर तो वीणा कांप ही गई थी ।
‘क्या... क्या कह रही है तू... होश में तो है,... इतने वर्षों बाद तो तेरी गोद भरने जा रही है और तू... पता है तेरी ससुराल और मायके दोनों जगह खुशियां मनाई जा रही है । तेरी ननद अणिमा तो जैसे खुशी से पागल ही हो रही थी, उसी ने तो मुझे फोन पर बताया था और तू...तू... कह रही है...’
‘हां, मैं कह रही हूं, पता है इस बच्चे के आने की खबर सुनकर मेरे और विनोद के बीच के सम्बन्ध कटु होते जा रहे हैं । यहां तक कि आजकल तो ये बताकर भी नहीं जाते कि टूर पर कहां जा रहे हैं, कब तक लौटेंगे... सच अगर नौकरी नहीं होती तो मैं पागल ही हो गई होती...’
‘क्यों... विनोद को क्या हुआ...’
वीणा हैरान थी ।
‘उन्हें शक है कि यह बच्चा उनका नहीं हे, पता है शादी के शुरू में दो तीन सालों में जब मैं प्रेगनेंट नहीं हुई तो हमने डाॅक्टर से चैकअप कराया था तो उन्होंने कहा था कि मुझमें तो कोई कमी नहीं है पर विनोद में...’
रितु फिर चुप हो गई थी, आंखें दूर किसी सुदूर दिशा को ताक रही थंी ।
‘अब बस जबसे विनोद को मेरी प्रेगनेंसी का पता चला है, एक अजीब से शक से घिर गए हैं । पहले तो कुरेद-कुरेद कर पूछते रहे कि किसका बच्चा है, कहां गई थी...’रितु अब फूट पड़ी थी ।”इतनेे लम्बे समय से हम लोग साथ रह रहे हैं, सोलह वर्षों का साथ कम नहीं होता है और अब तक... विनोद मुझे समझ ही नहीं पाए । नौकरी की खातिर बाहर भी जाती रही हूं पर... पर इसका मतलब यह तो नहीं है किजो जी में आया इल्जाम लगा दिया... अब तैं क्या करूं... कहां जाउं...?रितु की आंखें भर आई थी । वीणा ने धीरे से उसका सिर सहलाया ।
‘तू चिंतामत कर... धीरे-धीेरे सब ठीक हो जाएगा... न हो तो फिर किसी अच्छे डाॅक्टर से विनोद की जांच...’
‘नहीं वीणा...’
रितु ने फिर टोक दिया था । डाॅक्टर तो नाम लेते ही ये चिढ़ जाते हैं । जब आदमी के स्वयं के मन में इतने काॅम्पलेक्स हो तो वह कहां किसी सही बात के लिए राजी हो पाता है । मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है । डाॅक्टर को भी दिखाने गई थी, एबोर्शन के लिए, पर उसने भी मना कर दिया कि केस कम्पलीकेटेड है...’ ।
वीणा निशब्ध थी । लगा जैसे शब्दों से कुछ सांत्वना देने की शक्ति ही चुक गई हैउसकी।
एक गहरा मौन देर तक छाया रहा था । रितु की सूनी आंखें और वीणा का चुपचाप उसे तकते रहना ।
‘पता नहीं अब भविष्य में क्या है... क्या सौगात लेकर आएंगे आने वाले महिने... मैंने तो कुछ सोचना ही छोड़ दिया है... ।
क्या पता था कि जीवन में कभी ऐसा मौड़ भी आएगा कि अपना पति जिसे बेहद प्यार किया हो... जिसके साथ जीने, मरने की कसमें खाईं हो,... वही... वही मुझे बेवफा समझेगा... ’रितु की दबी सिसकियां फिर फूट पड़ीं थीं ।
‘देख रितु... तू इतना मत सोच... और किसी तरह समझा-बुझाकर विनोद को डाॅक्टर के पास ले जा, वही शायद उसी विश्वास दिला पायें कि वह अक्षम नहीं हैं और... और यह काम तू ही कर सकती है...’
‘जानती हूं... पर यह हो पाएगा या नहीं... कह नहीं सकती...’ ।
रितु की दृष्टि फिर से सूनेपन में उलझ गई थीं, और वीणा का मन इस मानवमन की जटिलताओं में । वह सोच रही थीं कि विज्ञान की इतनी उन्नति के बाद भी, असाध्य बीमारियों के साध्य होने के बाद भी... इस विचित्र मानव मन के बारे में क्या कहा जायेे जो स्वयं ही अपने संशयों के घेरे से बाहर नहीं आना चाहता हो ... ।
क्या होगा इस उलझन का हल... वह स्वयं भी नहीं समझ पा रही थीं ।









         













               




                                बेघर
   

आखिरकार भाभी ने मेरी बात मान ही ली थी । जब से मैं उनके पास आई थी, यही एक रट लगा रखी थी ।
    ‘भाभी । आप रूचि को मेरे साथ भेज दो न । अर्पिता के होस्टल में जाने के बाद मुझे तो अकेलापन बुरी तरह सताने लगा है और फिर इतने वर्षों से बेटी के साथ रहने की आदत सी पड़ गई थी । अब एक तो दिन था बैंक का काम सम्भालो, फिर घर की जिम्मेदारी भी, नया फ्लैट जो बन रहा है उसकी भी देखरेख करो, हर्ष को तो समय मिलता ही नहीं हैं । मैं तो बस बुरी तरह थक जाती हूं फिर रूचि    का भी मन है वहीं से एम.बी.ए. करने का, यहां तो उसे प्रवेश मिला नहीं है ’।
    ‘देखो मानसी, वैसे  रूचि को साथ ले जाने में कोई हर्ज नहीं है, पर याद रखना मैं अपनी बड़ी बहन शुचि की तरह सीधी, शांत नहीं है । फिर तुम दिन भर घर से बाहर रहोगी, रूचि की अभी चंचल प्रकृति बनी हुइ्र है, महाविद्यालय में लड़कों के साथ पढ़ना...
    ‘ओफ ओ भाभी.. तुम भी किस जमाने की बातें लेकर बैठ गई, अरे लड़कियां पढ़ेंगी, आग्र बढ़ेंगी तो सबके साथ मिलकर ही तो काम करेंगी । अब मैं नहीं इतने वर्षों से बैं में काम कर रही हूं, क्या वहां नहीं पुरूषकर्मी हैं ? ‘भाभी निरूत्तर हो गई थी । रूचि तो सुनपते ही चहक पड़ी थी । वह तो वैसे ही महिनेभर से मेरे पीछे पड़ी थी...
    ‘बुआ ! मुझे अपने साथ ले चलो न । वहां मुझे आसानी से एडमिशन मिल जाएगा । और फिर आपके यहां मेरी पढ़ाई भी ढंग से हो जाएगी...’ वैसे उसने खुलकर कुछ नहीं कहा था पर मुझे पता था कि भाभी के यहां आए दिन मेहमानों का जमघट लगा रहाि है । कुछ तो रिश्तेदारी और फिर भैया, भाभी, सबकी आवभगत भी बड़े खुले दिल से करते हैं, इसलिए जिसे भी दिल्ली जाना हो, सब उनके यहां ही ठहरना पसंद करते हैं, पर इसमें बच्चों की पढ़ाई में तो व्यवधान पड़ता ही हैं बड़ी बेटी शुचि का विवाह हो चुका है । रूचि का मन बी.एस.सी. के बाद एम.बी.ए. करने का है और बेटा तो अभी स्कूल में ही है ।
    खैर ! रूचि ने उसी दिन अपना सामान बांध लिया था और हम लोग दूसरे दिन चल दिए थे । मेरे पति हर्ष को भी अच्छा लगा था ।
    ‘चलो मनु, अब तुम्हें अकेलापन नहीं लगेगा । वैसे तो खैर बेटियां पराया धन ही होती हैं, अभी हमारी अर्पिता बाहर पढ़ रही है फिर ससुराल चली जाएगी शादी करके । रहना तो हम दोनों को अकेला ही है...
    ‘फिर भी... अभी तो रूचि के आने से रौनक हो गई है और फिर आजकल मेरे बैंक का भी काफी काम बढ़ गया है, कुछ और काम मैंने जानबूझकर और ले लिये हैं, पैसा जोड़ना है, मकान जो बन रहा है...’
    ‘देखो...’
    मैं फिर चिढ़ गई थी ।
    ‘अगर इच्छा हो न तो आदमी फिर    पुरूषार्थ भी न करे, इच्छा करेंगे, प्रयास करेंगे तभी तो काम होगा । फिर यह सरकारी मकान तो सात-आठ साल बाद छोड़ना ही होगा, तुम्हारे रिटायर्ड होने के बाद थोड़े ही हम इस मकान में रह पाएंगे । फिर कहां जाएंगे ? इसलिए यही समय है मकान बनवाने का । फिर तो बेटी की शादी का खर्चा आ जाएगा । इसलिए सारी प्लानिंग पहले से करनी पड़ती है ।    ‘अच्छा-अच्छा... वो तो सब ठीक है, अब चाय तो पिलाओ गरमा-गरम, फिर प्लानिंग करती रहना...’
    ‘मुझे पता था कि मेरी इस प्रकार की बातों से हर्ष हमेशा उकता जाते हैं और यही बात मुझे पसंद नहीं है, मैं कुछ और कहती कि तभी रूचि आ गई थी । ‘बुआ ! मैंने टेलीफोन पर सब पता कर लिया है, बस कल काॅलेज जाकर फार्म भरना है, कोई दिक्कत नहीं आएगी एडमिशन में । फूंफाजी आप चलेंगे न मेरे साथ काॅलेज, बुआ तो नौ बजे ही बैंक चलजी जाती है ।’
    ‘ हां-हां क्यों नहीं । चलो अब इसी खुशी में चाय पिलाओ ।’ हर्ष ने उसकी पीठ ठोकते हुए कहा था ।
    ‘अभी लाती हूं...’
    रूचि दूसरे ही क्षण उछलती हुई किचन में दौड़ गई थी ।
    ‘इतनी बड़ी हो गई पर बच्ची की तरह कूदती रहती है ।’ मुझे भी हंसी आ गई थी ।
    चाय के साथ बड़े करीने से बिस्किट, नमकीन, मठरी सबकी प्लेटें सजाकर लाई थी । प्लेट में साथ ही नेपकीन्स भी रखे थे, गर्म चाय केटली में । उसकी सुघड़ता से मैं और हर्ष दोनों ही प्रभावित हुए थे ।
    ‘वाह ! मजा आ गया...’
    चाय का पहला घूंट लेते ही हर्ष ने कहा था ।
    ‘चलो रूचि ! तुम पहले इम्तहान में तो पास हो गई । मेरी बात सुनते ही वह खिलख्लिाकर हंस पड़ी थी ।
    दूसरे दिन हर्ष के साथ स्कूटर पर जाकर वह अपना प्रवेशफार्म भर आई थी । मैं सोच रही थी कि शुरू में यहां रूचि को अकेलापन लगेगा । काॅलेज से आकर दिन भर घर में अकेली रहेगी । मैं और हर्ष दोनों ही देर से घर लौट पाते हैं, पर रूचि ने अपनी जिंदादिली और दोस्ताना लहजे से आस-पास के गई घरों में दोस्ती कर ली थी ।
    ‘बुआ ! आप तो जानती ही नहीं आपके साथ वाली कल्पना आंटी कितनी अच्छी है, आज मुझे बुलाकर डोसे खिलाए । मैं सीख भी आई हूं । अब किसी दिन आप सबको खिलाउंगी...’
    या फिर,
    ‘बुआ ! आज तो मजा आ गया, पीछे वाली लेन में मुझे अपने दो दोस्त मिल गए, रंजना और रीतेश । दोनों ही मेरे काॅलेज में हैं । कल से मैं भी उनके साथ पास के क्लब में बैडमिंटन खेलने जाया करूंगी ।’
    हर्ष को थेड़ा अजीब जरूर लगा था । हमारी अर्पिता तो बिल्कुल ही अलग स्वभाव की थी । पढ़ाई के अलावा किसी और बात से जैसे उसे मतलब ही नहीं और हमें अपनी व्यस्तताओं की बीच कभी आस पड़ोस में किसी से मेलजोल बढ़ाने का अवसर ही नहीं मिला । पर रूचि...
    ‘देखो पराई लड़की है और तुम इसकी जिम्मेदारी लेकर आई हो । ठीक से पता करो कि किससे दोस्ती कर रही है...’
    एक बार जब हर्ष ने कहा तो मुझे उनकी इस संकीर्ण मानसिकता पर रोष आया था ।
    ‘तुम भी पता नहीं किस सदी की बातें करने लगते हो कभी-कभी । अरे इतनी बड़ी लड़की है, अपना भला-बुरा तो समझती ही होगी । अब हर समयतो हम उसकी चैकसी कर    नहीं सकते हैं ।
    हर्ष चुप हो गए थे ।
    आजकल हर्ष के आॅफिस में भी काम बढ़ गया था । इधर फ्लैट का काम भी थेड़ा ही बचा था तो मैं बैंक से घर न आकर सीधे वहीं चली जाती थी । ठेकेदार को निर्देश देना, काम देखना फिर घर आते-आते काफी देर हो जाती थी । मैं सोच रही थी कि मकान पूरा होते ही गृहप्रवेश कर लेंगे बेटी भी छुट्टियों में आने वाली थी फिर भैया, भाभी भी इस मौगे पर आ जाएंगे ।
    पर मकान का काम ही ऐसा था कि खत्म होने ही नहीं जा रहा था । छोटे-मोटे काम निकलते ही जा रहे थे और फिर उसकी अनुपात में खर्च भी बढ़ता जा रहा था । बस रूचि ने घर का काम संभाल रखा था, इसलिए मुझे सुविधा हो गई थी । सुबह आठ बजे ही मैं घर से निकल जाती थी । एक बार सब देख कर, आवश्यक निर्देश कारीगर को देकर फिर बैंक चली जाती थी । एक बार सब देखकर, आवश्यक निर्देश कारीगर को देकर फिर बैंक चली जाती थी, लौटते समय भी मकान देखते हुए आती थी  । हर्ष के लिए चाय, नाश्ता बनाना, लंच तैयार करना सब आजकल रूचि के ही जिम्मे था । वैसे नौकरान     ी थी मदद के लिए पर फिर भी काम तो बढ़ ही गया था । घर आते ही रूचि मेरे लिए चाय नाश्ता ले अ



घर भी साफ-सुथरा व्यवस्थित दिखता तो मुझे और खुशी होती ।
    ‘बेटे ! तुम्हारा काम तो अब और बढ़ गया है, पर ध्यान रखनाकि तुम्हारी पढ़ाई डिस्टर्ब न हो । ’
    ‘कैसी बातें करती हो बुआ । काॅलेज से आकर खूब समय मिल जाता है पढ़ाई करने के लिए, फिर लीलाबाई तो दिन भर रहती ही है, उससे ही काम कराती रहती हूं ।
    रूचि उत्साह से बताती ।
    बस मकान के बारे में जब मै विस्तार से बातें करने लगती तो हर्ष की उदासीनता मुझे खटकती । सहयोग तो उनका न के बराबर ही था । कभी कुछ कहती भी तो उनका एक ही उत्तर होता-
    ‘देखो मनु ! मैं तो आॅफिस से आकर ही इतना थक जाता हूं कि और मेहनत मुझसे फिर होती नहीं है और तुकम ये मकान का झंझट और ले बैठी । कितनी बार कहा था कि अभी जल्दी नहीं है मकान की पर नहीं, तुम्हें जो शौक है...’
    ‘ठीक है, मुझे ही मकान का शौक सही, पर क्या आॅफिस मैं नहीं जाती, फिर घर के काम अलग हैं, तो क्या मैं कोई मशीन हूं और मकान क्या मेरे अकेले का बन रहा है ।’
    मैं भी उलझ पड़ती, पर निष्कर्ष कुछ नहीं निकल पा रहा था । इस बार एक लंबे समय के बाद मुझे इतवार की छुट्टी मिली थी । मैं मन ही मन सोच रही थी कि एक लंबे अर्सेे से मैं घर में दिन भर रही ही नहीं हूं । इस बार जरूर छुट्टी के दिन दिन भर सब के साथ गप-शप गरूंगी, खूब आराम करूंगी, पर रूचि ने तो सुबह-सुबह ही घोषणा कर दी थी ।
    ‘बुआ ! आज हम सब लोग मूवी देखने चलेंगे-मैं एडवांस टिकिट के लिए बोल दूं ।’
    ‘मूवी... ना बाबा... आज तो इतने दिनों बाद घर पर रहना मिल रहा है औार आज भी कही चल दें...’
    ‘ओफ ओ... बुआ... आप भी हद करती हो । इतने दिन हो गए मैंने तो इस शहर में कुछ भी देखा नहीं ।’
    ‘हो, यह भी ठीक है...’
    मुझे स्वयं ही लगा कि रूचि तो अभ्ी बच्ची है और फिर आते ही इसे घर के कामों में और फंसा दिया मैंने ।
    ‘ठीक है फिर तुम हो आओ...’
    ‘मैं अकेली !’
    तुम बताया करती हो, रोहित, अंकित, सुहेल...’
    ‘ओफ ओ... फूंफाजी...’ रूचि चिढ़ गई थी ।
    ‘देखो, ऐसा करो इसे कहीं घुमा लाओ, मैं तो आज घरा पर ही रहकर आराम करूंगी ।
    ‘अच्दा... तो मैं अब इसके साथ पिक्चर देखने जाउं...
    ‘अरे बाबा... पिक्चर न सही, और कहीं घूम आना, अर्पिता के साथ भी तो जाते थे न...’
    ‘ठीक है...’
    हर्ष और रूचि के जाने के बाद मैंने घर थोड़ा ठीक-ठाक किया ािफर देर तक नहाती रही । ख्त्राना तो नौकरानी आज सुबह ही बनाकर रख गई थी । सोचा बाहर आकर लाॅन को संभालू, पर बाहर ही रंजना दिख गई थी ।
    ‘आंटी ! रूचि आजकल काॅलेज नहीं आ रही है...’
मुझे देखते हुए ही उसने पूछा था ।
    ‘काॅलेज नहीं आ रही है ? सुनते ही मेरा माथा ठनका ।
    ‘काॅलेज तो रोज जाती है ।’
    ‘नहीं आंटी ! परसों तो टेस्ट था, वह भी नहीं दिया उसने ।
    ‘अच्छा...’
    मैं कुछ समझ नहींे पाई थी । अंदर आकर फिर मुझे स्वयं पर ही झुंझलाहट आई । मैं भी कैसी पागल हूं लड़की को यहां पढ़ाने लाई थी और ॅिफर उसे घर के कामों में लगा दिया । भाभी ने तो पहले ही कहा था कि पढ़ाई-लिखाई में कम ही मन लगता है इसका । मुझे तो स्वयं ही सोचना था । अब इससे घर का कोई काम नहीं करवाना है और कल ही इसके काॅलेज जाकर इसकी पढ़ाई, लिखाई के बारे में पता करूंगी ।’
    ‘मेमसाहब... कपड़े...’
    धोबी शायद देर से आवाज दे रहा था, मेरा ध्यान टूटा... कपड़े इकट्ठे करके देने लगी तो ध्यान आया कि जेबें देख लूं, हर्ष का तो कई बार पर्स ही जेब मेंरह जाता है । कमीज उठार्द तो रूचि की जिन्स हाथ में आ गई । कुछ कागज की खरखराहट सह हुई । अरे ये तो गोलियां हैं, दवाई की... पर रूचि को क्या हुआ...
रेपर देखते ही मेरे हाथ से पैकेट छूट गया था...
गर्भनिरोधक गोलियां... रूचि की जेब में...
मेरा दिमाग ही चकरा गया था । जैसे-तैसे कपड़े दिए फिर आकर पलंग पर पसर गई थी ।
हे भगवान... यह क्या हुआ... इतने नीचे गिर गई यह लड़की ।
मुझे क्या पता था, काॅलेज के अपने सहपाठियों के किस्से तो बड़े चाव से सुनाती रहती थी और मैं और हर्ष हंस-हंसकर उसकी बातों का मजा लेते थे... पर यह सब... मुझे पहले ही चैक करना था... कहीं कुछ उंच-नीच हो गई तो भैया, भाभी को क्या मुंह दिखाउंगी...
नहीं, कल ही इसके काॅलेज जाउंगी, पहले इसकी पढ़ाई के बारे में मालूम करूंगी और फिर पता करूंगी कि इसकी दोस्ती किन लोगों से हैं । हर्ष से भी बात करनी होगी कि लड़की को थेड़े अनुशासन में रखना है, यह अर्पिता की तरह सीधी-सादी नहीं है ।
मेरी तो पूरी शांति ही भंग कर दी इस लड़की ने, कहां तो सोचा था कि घर पर खूब आराम मिलेगा पर अब,... घड़ी की सूईयां थीं तो खिसकने का नाम नहीं ले रही हैं । समय जैसे काटे नहीं कट रहा । अखबार उठाया तो एक लाइन पढ़ी नहीं गई । सिर तेजी से दर्द कर रहा था । एक कप चाय बनाकर पी, खाना तो जैसा रखा था, वैसा ही पड़ा रहा । हर्ष और रूचि भी देर तक लौटे थे । दोनों सुनाते रहे कि कहां-कहां घूमे, क्या-क्या खाया ।
    ‘ठीक है, अब सो जाओ, रात काफी हो गई है...’
मैंने सोचा कि रूचि को बिना बताए ही कल इसके काॅलेज जाउंगी और हष्र्। को आॅफिस से ही साथ ले लूंगी, तभी बात होगी ।
सुबह रोज की तरह आठ बजे ही निकलना था, पर आज आॅफिस में जरा भी मन नहीं लगा, लंच के बाद हर्ष को आॅफिस से लेकर रूचि के काॅलेज जाउंगी, यही विचार था पर बाद में ध्यान आया कि पर्स तो घर पर ही रह गया है, हर्ष को फ्लैट दिखाना था और ठेकेदार का कुछ पैमेन्ट भी था । ठीक है पहले घर ही चलती हूं ।
पर यह क्या... कोई आहट नहीं, रूचि क्या काॅलेज से आई नहीं पर मेरा बैडरूम अंदर से बंद कैसे है ? और फिर खिड़की की और से जो कुछ दिखा था, उसे देख कर तो मैं गश खाते-खाते बची थी...
हर्ष और रूचि पलंग पर इस मुद्रा में...
तो... तो क्या...
एक बार तो मन हुआ कि इसी समय जोर से चीख पडूं । चिल्लाउं... पर पता नहीं वह कौनसी श्।क्ति थी जिसने मुझे रोक दिया था ।
नहीं, पहले मुझे इस लड़की को ही संभालना होगा । इसे वापिस इसके घर भेजना होगा, मैं इसे अब और यहां नहीं रख पाउंगी ।
पता नहीं कैसे मैं लड़खड़ाते कदमों से पास के टेलीफोन बूथ में पहुंची थी । फोन लगाया, भाभी ने ही उठाया था ।
    ‘भाभी...’
बिना किसी भूमिका के मैंने कहा था, शब्द रह-रहकर कांप रहे थे । ‘
    ‘रूचि का पढ़ाई में मन नहीं लग रहा है, और तो और बुरी सोहबत में भी पड़ गई है...
मैं समझ नहीं पा रही थी कि असली बात कैसे कहूं ।
    ‘देखो मनू, मैंने तो पहले ही कहा था कि लड़की का ध्यान पढ़ाई में नहीं है, तुम्हारी ही जिद थी, पर ऐसा करो इसे वापिस भेज दो, तुम वैसे ही इतनी व्यस्त रहती हो, कहां ध्यान दे पाओगी और इसका मन होगा तो यहीं कोई कोर्स कर लेगी.भाभी कुछ और भी कहना चाह रही थी पर मैंने ही टोक कर कह दिया था ।
‘ठीक है भाभी, मैं फिरबाद में बात करूंगी...’
देर तक पास के रेस्तरां में वैसे ही बैठी रही । एक ग्लास ठंडा मंगवा लिया था, घर भी जाने का मन नहीं हो रहा था ।
क्या करूं... कैसे करूं... हर्ष । हर्ष ये सब करेंगे मेरे विश्वास से परे था । पर सबकुछ मेरी इन्हीं आंखों ने देखा था, ठीक है पिछले कई दिनों से मैं घर पर ध्यान नहीं दे पाई, अपनी नौकरी और नए फ्लैट के चक्क में उलझी रही, रात को भी इतना थक जाती थी कि नींद के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं था, पर इसका यह दुष्परिणाम होगा, यह तो स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी ।
कुछ भी हो रूचि को तो वापिस भेजना होगा । घंटे भर बाद लड़खड़ाते कदमों सेस घर पहुंची तो हर्ष जा चुके थ्ाि, रूचि टी.वी. देख रही थी, मुझे देखते ही चैंगी । ‘बुआ... आप इस समय... और क्या तबियत खराब है ? पानी लाउं... । मन तो हुआ कि खींचकर एक थप्पड़ मारूं पर किसी तरह अपने को शांत किया ।
    ‘रूचि ! आॅफिस में भैया का फोन आया था, भाभी सीढ़ियों से गिर गई है, काफी चोट है, तुम्हें इसी समय बुलाया है, मैं भी दो-चार दिन बाद जाउंगी...; । ‘क्या... क्या हुआ मम्मी को...’ रूचि घबरा गई थी ।
    ‘वह सब तो तुम्हें वहां जाकर ही पता चलेगा, पर अभी चलो, डीलक्स बस मिल जाएगी, मैं तुम्हें छोडद्य देती हूं, थेड़ा-बहुत सामान ले लो...’ आधे घंटे के अंदर ही मैंने रूचि की तैयारी करवा दी थी और पास के स्टैंडसे ही बस में बिठा दिया था । भाभी को जरूर फिर से फोन किया था... । रूचि आ रही है भाभी  हो सके तो मुझे माफ कर देना, आपकी बीमारी का झूंठा बहाना बनाया था मैंने...
    ‘कैसी बातें कर रही है, ठीक है अब मैं सब संभाल लूंगी, तू ंिचंता मत कर... और हां नए फ्लैट का क्या हुआ ? कब है ग्रहप्रवेश ? भाभी पूछ रही थी और मैं चुप थी । क्या कहती उनसे कौनसा घर... कैसा गृहप्रवेश... यहां तो जैसे मेरा बरसों का बसाया नीड़ ही मेरे सामने उजड़ गया था । तिनके-तिनके इधर-उधर उड़ रहे थे और मैं बेबस निरूपाय सी अपने ही घर से बेघर होती जा रही थी । ..’












तलाश

‘रेखा सी सरल जिन्दगी
नहीं चाहता अब कोई ‘भुवन’ ... न स्वयं कवि लेखक भी,
जब इधर सड़कों पर लहू बहता था
न जाने किसका, उसका तो नहीं जो बस
स्त्री देह में ढूंढता था
सुख व सत्य जीवन का..
क्या सचमुच ‘बु(’ तुम्हारी करुणा का उद्रेग इतना ही था
तुम्हारी शरण में ही था सब कुछ
न करने, न कर पाने की व्यथा का हर हल।

जो कुछ करने को तत्पर है
दिन-रात का भेद छोड़कर जाती है नए रास्तों पर पहली बार
उनींदी आंँख में देखते सपनों के बीच माँं-बाप को
बेरोजगार भाई को
या कम कमाऊ पति की आंख में जागे सुविधा स्पर्श को
जाती है वह,
सौंपती है सपने
इस तरह के सौदे,... कामकाजी बातें
रहना है ... उसे
मिश्री सी चाशनी सी जीभ पर लिपटे शब्दों की जमाबंदियां
रोज-रोज
बनती-बिगड़ती, खसरों की टीप
न कर पाती, ... जो
फैशन में व्यस्त, ... या कहीं कुछ और...
उसकी चर्चा में, व्यस्त सब अराजक, आज,
‘उसे’, रात भर जगना है
जगते-जगते बस काम करते
‘‘राजा राममोहन राय’’ की दुनिया को बहुत पीछे करते
अपने पांवों से देश दुनिया नापती
सचमुच ‘बड़ी’ है वह।




            












                नए आयाम

फोन कां का ही था...
    ‘ प्रिया, बेटी तुझसे कई दिनों से बात नहीं हो पाई, कल भी फोन लगाना चाहा तो लगा नहीं और आज भी मुश्किल से ही लाईन मिली है, बता तू कैसी है ? सब ठीक चल रहा है न...
    ‘ हां मां ! सब ठीक है... ’
    प्रिया ने अपना स्वर संयत ही रखा था ।
    ‘तो क्या कर रही है अभी ?
    ‘ अभी ! अभी तो मैं निशा भाभी की मुन्नी को सम्भाल रही हूं । कमरे में ही हूं... ’
    ‘ हां तो जेठानी जी मतलब निशा कहां है ?’
    ‘वो तो किचन मेें है, खाना बना रही है ।’
    ‘अच्छा... तुने रसोई संभाली नहीं है अभी...
    ‘नहीं मां... संभाल ली है, सुबह मैंने खाना बनाया था और अभी भाभी बना रही है, मम्मी-पापा घूमने गए हैं...’
    ‘चलो... बस तू खुश है न यही सुनना चाह रही थी मैं... सास, ससुर के लिए तो शाम का घूमना बहुत जरूरी हैे बेटे दोनों डायबिटिज़ के पुराने मरीज हैं और फिर इस उमर में थेड़ा आराम भी चाहिए उन्हें...’
    ‘ओ... मां...’
    सब कुछ कहते हुए भी प्रिया के मन में एक फांस सी चुभ रही थी । क्या कहती मां से फोन पर कि वह खास खुश नहीं है, अरे यह भी क्या जिंदगी है एक नवविवाहिता की, जैसे घर में ही कैद होकर रह गई हो । मनीष तो सुबह के गए हुए देर रात तक घर आ पाते हैं, दूर कहीं घूमने जाना भी चाहो तो कहां जाओ... बस शादी के बाद पन्द्रह-बीस दिन घूम लिए तो घूम लिए ।
    आर बार-बार प्रिया को अपनी खास सहेली आरती का ध्यानर आ रहा था । ठीक ही कहा था उसने...
    ‘देख प्रिया ! तू शादी के लिए हां कहने की जल्दी मत कर... ठीक से सोच समझ ले... शादी, ब्याह कोई गुड्डे-गुड्डियों का खेल नहीं है कि बस मन चाहा तब खेल लिया, जीवन भर का बंधन होता है यह और तू  अभी अपने होने वाले पति के बारे में जानती ही कितना है...’
    आरती अपनी रो में कहती जा रही थी ।
    ‘पर आरती ! यहां तो मां, पिताजी ने सब तय किया है, उनका कहना है कि जाना-पहचाना परिवार है, भले लोग हैं, लड़का इंजीनियर है फिर और क्या चाहिए और सबसे बड़ी बात तो उनकी निगाह में यह है कि मनीष ने मुझे पसंद कर लिया है ।
    ‘हूं... मनीष ने पसंद कर लिया, जैसे तेरी पसंद तो कोई माने ही नहीं रख्ती है ।
    आरती और चिढ़ गई थी ।
    क्या कहती प्रिया, यह सच था कि मनीष उसे भी अच्छा लगा था पर कुछ देर के लिए ही तो मिले थे दोनों । इतनी कम देर में अधिक तो एक-दूसरे के बारे में जानना संभव ही नहीं था, फिर ससुराल के बारे में वह क्या जानती...
    हां मां, पिताजी जरूर जानते थे और उनकी नज़र में वह एक भला और संस्कारित परिवार था । मां तो अक्सर कह भी देतीं ।
    ‘अरे ! आजकल अनजान और अपरिचित घर में लड़की देना भी एक जोखिमभरा काम है इसलिए जहां तक हो सके अपने देखे-भाले परिवार में ही बेटी ब्याहनी चाहिए । यह तो ईश्वर की कृपा ही समझो कि हमें एक ऐसा परिवार मिल गया । औेर फिर महिने भर के अंदर ही चटमंगनी पटब्याह वाली कहावत चरितार्थ हो गई थी ।
        मां, पिताजी को अब चिंता थी अब अपनी दूसरी बेटी के ब्याह की और दोनों चाह रहे थे कि रिटायर्ड होने से पहले ही वे अपने इस दायित्व से भी मुक्त हो जाएं ।अब टेलीफोन पर वह मां से क्या कहती कि क्यों ऐसे घर में ब्याह दिया, यह तो पूरा परम्परावादी परिवचार है । अब यहां तो उसकी जिंदगी चैके, चूल्हे में ही सिमट कर रह जाएगी ं कितनी इच्छा थी कि बड़ी होकर डाॅक्टर या इंजीनियर बनेगी यही सोचकर बारहवीं में गणित और प्राणीशास्त्र दोनों ही विषय लिए थे पर जब प्रवेश किसी भी प्रवेश परीक्षा में नहीं हो पाया तो झकमारकर बी.एस.सी. की थी फिर भी इच्छा यही थी कि आगे कोई प्रोफेशनल लाईन ही मिले इसलिए कम्प्यूटर कोर्स ज्वाईन कर लिया पर साल भर ही कर पाई कि शादी हो गई ।
    उसकी सहेली आरती तो अगले साल डाॅक्टर हो जाएगी । प्रेरणा इंजीनियर है, सुधा बैंक में काम कर रही है और वह... वह क्या है... क्या है उसकी शख्शियत... उसमें और एक घरेलू लड़की में अब फर्क क्या रह गया है...
    कहने को तो इस घर में इतने लोग हैं... जेठजी कहीं आॅफिस में हैं, छोटा देवर डाॅक्टरी की पढ़ाई कर रहा है और ननद अभी छोटी है, पर सब व्यस्त हैं । सबके अपने काम हैं । जेठानी जी का तो पूरा समय बच्ची की देखभाल में ही चला जाता है, कहने को तो वे भी एम.एस.सी. करके आई हैं पर खुश हैं अपने वातावरण्। में । जेठजी भी शाम को पांच बजे तक घर आ जाते हैं, मनीष की तरह थोड़े ही रात के आठ-नौ बजते हैं उन्हें आने में ।
    ‘प्रिया ! मुन्नी को लेकर बाहर आ जाओ, इस समय तो कमरे में दम घुटता है, कितना भी कुलर, पंखा च
चला लो... ’
    मम्मी, पापा शायद धूमकर लोट आए थे और बाहर बरामदे में ही बैठ गए थे ।
    बच्ची को लेकर वह बाहर आ गई । निशा का काम भी सिमट चुका था ।
    ‘खाना लगा दूं ?’
    वह पूछ रही थी ।
    ‘मनीष तो आ जाए । ’
    पापा ने जूते उतारते हुए कहा था ।
    ‘पर आप लोग तो खा लीजिए । आपको डाॅक्टर ने जल्दी ही खाना खा लेने के लिए कह रखा है, हम लोग इंतजार कर लेंगे ।’
    ‘नहीं भाभी, आप और भाईसाहब भी साथ ही खा लीजिए, मैं लगा देती हूं, फिर जब ये आएंगे तब हम लोग ख लेंगे ।’
    ‘ठीक है, ऐसा ही सही...’
    निशा ने मुस्करा कर मुन्नी को उसकी गोद से ले लिया था । सबको खाना खिलाते नौ बज गए थे, फिर मनीष के आने पर उसके लिए चाय बनाई ।
    चाय पिकर वह नहाने चला गया था, प्रिया खाना परोसकर कमरे में ले आई थी ।
    ‘तुम क्यों नहीं सबके साथ ही खाना खा लेतीं, मुझे तो रोज ही देर हो जाया करेगे ।’
    दो थाली देखते ही मनीष ने कहा था ।
    ‘तो क्या हुआ... मैं इंतजार कर लूंगी ।
    रोज की ही तरह प्रिया ने कहा था पर आज स्वर में पहले वाला उत्साह नहीं था ।
    ‘क्या बात है ? नाराज हो, किसी ने कुछ कहा ? मम्मी या भाभी ने...
    ‘नहीं किसी ने कुछ नहीं कहा...’
    ‘फिर क्या हुआ...’
    ‘कहा न कुछ नहीं, चलो मैं खाना लगा देती हूं...’
    ‘ठहरो...
    मनीष ने प्रिया का हाथ थाम लिया था ।
    ‘बताओ न, क्या बात है ? नहीं तो मैं खानानहीं खाउंगा...’
    ‘नहीं, कोई बात नहीं... ऐसे ही अकेले बैठे-बैठे बौर हो गई थी ।’
    ‘पर क्यों... इतने लोग हैं घर में, अकेली कहां हो ? खुब गपशप करो, भाभी को लेकर शाम को घूम आया करो या फिर मीनू के साथ पिक्चर देख आना, कल ही कह दूंगा उससे, अरे हां याद आया कल तो शुभम के यहां पार्टी है हमें बुलाया है ।’
    ‘पर कल तो आप आॅफिस...
        ‘अरे ! तुम तो सब भूल जाती हो, कहा था न कि कल मेरा आॅफ डे है ।’
    ‘हां, अच्छा...’
    ‘चलो तुम्हें हंसी तो आई । अब खाना खाते हैं ।’
    दूसरे दिन प्रिया को भी अच्छा लगा था । मनीष दिन भर साथ रहा था । तो दिन कब निकल गया पता ही नहीं चला था । फिर शाम को पिक्चर देखकर खाना खाने निरोज पहुंचे थे । शुभम और उसकी पत्नी मीनाक्षी उन लोगों का वहीं इंतजार कर रहे थे ।
    मनीष ने परिचय करवाया,
    ‘शुभम से तो तुम शादी के रिसेप्सन में मिली ही थी । और मीनाक्षी तब यहां नहीं थी । ये दोनों ही इंजीनियर हैं मेरे ही आॅफिस में...’ तो-तो क्या मीनाक्षी भी इंजीनियर है, प्रिया चैंकी थी । तब तक मीनाक्षी ने प्रिया के लिए पासवाली कुर्सी खींच दी थी ।
    ‘कैसी हो ? कैसा लग रहा है सब लोगों के बीच रहना । मुझे तो ये ेसब अनुभव हुए ही नहीं । शादी होते ही शुभम के साथ यहां आ गइ, नौकरी जो थी...
    ‘तो क्या आप लोग...’
    ‘हां, यहा फ्लैट में तो हम दोनों ही हैं और सुबह के गए रात तक लौटते हैं, बस भाग-दौड़ की जिंदगी
है, पर कुछ भी कहो मुझे तो अच्छी लगती है ऐसी व्यस्त जिंदगी...’
    प्रिया अब ध्यान से मीनाक्षी को देख रही थी, कटे बाज नीली जिंस पर ढ़ीली-ढ़ाली टीशर्ट । शक्ल-सूरत
साधारण होते हुए भी चख्ेहरे पर अपूर्व आत्मविश्वास ।
ु    उसके मन में कहीं हल्की सी टीस उठी । उसने भी तो कभी ऐसी ही जिंदगी की तमन्ना की थी ।
    पर... पर विधाता को शायद यह सब मंजूर नहीं था । पूरे खाने के बीच मनीष, शुभम और मीनाक्षी बातें करते रहे थे । सब एक ही आॅफिस में जो थें । प्रिया बस बीच में चुपचाप हां-हूं कर देती थी । क्या कहती... जानती ही कितना थी इस क्षेत्र के बारे में... लौटते में मन और अनमना हो गया था ।
    ‘क्या बात है ? इतनी चुपचाप क्यों हो ? आज तो खूब घूमें हैं हम लोग ।’
    ‘हां, वो तो है...’
    ‘तो फिर फिर क्या हुआ ? ’
    मनीष घर लोटकर चिंतित सा हो गया था ।
    ‘कुछ नहीं, सोच रही थी कि मीनाक्षी कितनी भग्यवान है, स्वयं की अपनी शख्शियत है उसकी और एक मैं हूं क्या जिंदगी है मेरी... मेरी और मम्मी की जिंदगी में क्या फर्क है...’
    प्रिया अब अपने आपको रोक नहीं पाई थी ।
    ‘हां, मुझे भी लग रहा था कि पिछले कुछ दिनों से तुम अपसेट हो । शायद दूसरी कामकाजी औरतों को देखकर तुम्हें ऐसा लगता होगा पर एक बार बताओ... घर पर रहना या घरेलू काम करना या परिवार संभालना  कोई हेय कार्य है क्या ? क्या सिर्फ बाहर नौकरी करने से ही अपनी शख्शियत बनती है...’
    प्रिया अब चैंक गई थी, उधर मनीष कहता जा रहा था ।
    ‘मैं नहीं कहता कि नौकरी मत करो, जरूरत हो और सुविधा हो तो अवश्य करो पर हर व्यक्ति की, उसके परिवार की आवश्यकताएं अलग होती हैं । इसीलिए किसी से किसी की तुलना नहीं करनी चाहिए । रही बात शख्शियत की तो कौन मना करता है, तुम्हारी इच्छा हो तो आगे पढ़ो, कम्प्यूटर का कोर्स पूरा करना हो तो उसे ज्वाईन कर लो, आगे घर पर ही अपनी क्लाॅस खोल सकती हो । पर यह सब तुम्हारी रूचि और तुम्हारी क्षमता पर निर्भर करेगा ।
    पर हर समय जो नहीं है उसी के बारे में सोचते रहना, खुद भी दुःखी रहना और दूसरों को भी दुःखी कर देना क्या बुद्धिमानी है ? ’
मनीष ने प्रिया का सिर उठाते हुए पूछा था ।
    ‘शायद नहीं...’
    प्रिया भी अब शायद ऐसा ही कुछ सोच रही थी... शायद अब जिंदगी में नए आयामों के बारे में ।
                          ........... 
    ‘

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