एक ही भू्ल
बुधवार, 22 अप्रैल 2009
एक ही भूल
‘‘नीमा!’’ मयंक ने दाढ़ी बनाते हुए पिछले दरवाजे से ही आवाज दी थी,
‘‘आज मैं साक्षी के स्कूल में होने वाली पेरेंट्समीट में जा नहीं पाऊंगा, आॅफिस में कुछ ज्यादा काम है, तुम ऐसा करना आॅटो करके साढ़े बारह बजे वहीं उसके स्कूल पहुंच जाना।’’
‘‘पर मैं अकेली...’’
नाश्ता तैयार करते हुए नीमा के हाथ रूक गए थे। यूं साक्षी के स्कूल में साल में दो बार ‘पेरेंट्स मीट’ होती थी और माता-पिता दोनों ही बुलाए जाते थे। करीब-करीब जरूरी ही होता था कि दोनों पहुंचे, नहीं तो एक किसी को तो जाना ही होता था। पर नीमा अब तक दो बार ही गई थी, वह भी मयंक के साथ ही।
इधर तौलिया हाथ में लिए मयंक रसोई के बाहर ही आ गया था।
‘‘अरे! इतनी बार तो जा चुके हैं और फिर अकेली तुम क्या और जगह जाती नहीं। शाॅपिंग नहीं करती। उस दिन सार्थक को चोट लगने पर अकेली ही उसे अस्पताल भी लेकर गई थीं।
‘‘वो सब तो ठीक है पर...’’
नीमा ने फिर तेजी से हाथ चलाने चाहे थे। बच्चे टिफिन लेकर स्कूल जा चुके थे। बस मयंक का ही नाश्ता लगाना था। दूध और टोस्ट मेज पर रखकर अब वह परांठा सेकने की तैयारी में थी।
‘‘ठीक है, चली जाऊंगी, आप जल्दी नहा लो, देर हो रही है।’’
उधर शायद नौकरानी भी दरवाजे की काॅल बेल बजा रही थी। सुबह का यह समय भी कितनी व्यस्तताएं लेकर आता है, बस घड़ी की सुईयों के हिसाब से दौड़ते रहो।
अब साढ़े नौ तो बज ही रहे हैं। अब अगर साढ़े बारह बजे तक साक्षी के स्कूल में पहुंचता है तो कम से कम बारह से पहले ही निकलना होगा। अभी तो पूरे घर का काम पड़ा है। नौकरानी को जल्दी काम निबटाने का आदेश देकर नीमा ने फटाफट मयंक का नाश्ता तैयार किया। अब वह नाश्ता बाद में करेगी, पहले बच्चों के लिए खाना बनाकर रख दे फिर नहायेगी। लौटते में ढ़ाई-तीन तो बजेंगे ही।
इधर नाश्ता करते समय मयंक ने फिर याद दिला दिया था।
‘‘आॅटो सीधा ‘सेंटमेरी स्कूल’ के लिए ही लेना और अगर वह वहीं इंतजार कर सके तो रोक लेना। वैसे साक्षी की स्कूल रिपोर्ट तो ठीक ही है। ज्यादा कुछ तो कहना है नहीं।’’
‘‘हां, मैं देख लूंगी।’’
कहकर उसने मयंक को विदा किया था।
‘‘दीदीजी आज चाय नहीं बनी क्या...’’
नौकरानी ने अपनी चाय की याद की तो नीमा को भी याद आया कि शायद दोबारा की चाय उसने भी नहीं पी थी।
‘‘अभी बना दूंगी, पहले नहा लूं, तू जरा ये आलू कूकर में उबदले रख दे और फटाफट रसोई साफ कर दे।’’
नहाते समय याद आया कि मयंक से कह तो दिया है पर अभी तक कभी वह अकेली उस स्कूल में गई नहीं, है भी काफी दूर और अभी तक तो जो भी बात होती मयंक ही करते थे, इतने सारे लोगों के बीच वह क्या बोलेगी। फिर अब साक्षी की क्लास भी इतनी छोटी नहीं है, सेवंथ में है, कई नए विषय शुरू हो गए हैं।
पर अब कह दिया है तो जाना तो होगा ही।
चाय के साथ नौकरानी को भी नाश्ता दे दिया था। जल्दी से बर्तन वह साफ करके दे तो रसोई का काम खत्म हो।
हां ज्यादा नहीं बस थोड़ी सी नमकीन पूरियां तल लेगी। बच्चे तो सूखी आलू की सब्जी से ही खुश हो जाएंगे।
लौटते में थोड़े फल लेती आएगी।
जल्दी-जल्दी सारा काम निबटाया फिर बारह के पहले ही घर से निकल पड़ी आॅटो भी तो घर के पास नहीं मिलता है, और धूप अभी से इतनी तेज हो गई है, लौटते में साक्षी को अपने साथ ही लेती आएगी फिर सार्थक का स्कूल भी रास्ते में ही पड़ेगा।
‘सेंटमेरी’ पहुंचते-पहुंचते साढ़े बारह बज ही गए थे। शायद पेरेंट्स हाॅल में जमा होने लगे थे। साक्ष्ी की सहेली निशा के माता-पिता भी उधर जाते दिखे तो वह तेजी से उन्हीं के साथ हो ली थी।
करीबन सभी बच्चों के अभिभावक आए हुए थे और हमेशा की तरह इस बार भी विजय जी ने बोलना शुरू कर दिया था।
‘‘मैम, बच्चों को प्रोपर गाइडेंस नहीं मिल रही है। ढेर सा होमवर्क दे दिया जाता है। सब माता-पिता के जिम्मे आखिर आप लोग स्कूल में ही बच्चों की प्राॅब्लम्स क्यों नहीं साॅल्व करते हैं।’’
मैडम मिसेज़ डिसूज़ा भी अपने बचाव के लिए काफी कुछ कह रही थी तब तक रमेश जी ने बीच में उठकर कहना शुरू कर दिया।
‘‘स्कूल में प्रोपर हाइज़ीनिक माहौल नहीं है, पीने का पानी तक बच्चों को घर से लाना पड़ता है। स्कूल कैंटीन की भी हालत खस्ता है, इधर आजकल स्कूल बस भी समय पर नहीं आ रही है।’’
उधर शुभ्रा की मां शुभ्रा के कम नंबर क्यों गणित में आए हैं, इसका कारण जानना चाह रही थीं तो राखी के साइंस में कम नंबरों का दोष उसके माता-पिता की लापरवाही पर मढ़ा जा रहा था।
कुल मिलाकर माहौल कर्म ही था।
नीमा शांतिपूर्वक सबकी बातें सुन रही थी तभी मिसेज़ डिसूजा का ध्यान उसकी तरफ गया।
‘हां, मिसेज प्रसाद आप कुछ कहेंगी साक्षी के बारे में, वैसे तो वह ठीक ही चल रही है, पर अभी कोई खास उल्लेखनीय प्रगति भी नहीं की है उसने। मेरा मतलब है कि अगर उसे टाॅप करना है और दूसरे स्टृडेट्स की तुलना में...’’
‘‘तुलना में..’’
इसके आगे नीमा कुछ सुन नहीं पाई थी। शब्द ठक् से उसके कान में बजा था।
‘‘हाॅ मिसेज़ प्रसाद...’’
मिसेज़ डिसूज़ा ने उसे फिर टटोला था।
‘‘देखिए मैडम..’’
नीमा अब खड़ी हो गई थी।
‘‘मैं तो बस एक बात जानती हूं कि हर बच्चे की अपनी अलग काबिलियत होती है और कोई किसी से तुलना नहीं कर सकता। इसलिए पेरेन्ट्स और टीचर दोनों को ही चाहिए कि बच्चे की उस योग्यता को जाने और उसे आगे बढ़ाने का प्रयास करे। कई बार तुलना करने से या अपनी स्वयं की महत्वाकांक्षा बच्चे पर लाद देने से बच्चे का स्वाभाविक विकास रूक जाता है और ऐसी हीन भावना का वह शिकार हो जाता है जो कि ताउम्र मिट नहीं पाती है। इसलिए बच्चे के स्वाभाविक विकास पर ही अगर हम ध्यान दें तो शायद बेहतर हो।’’
एकदम से कई तालियों की गड़गड़ाहट गूंजी थी और मिसेज़ डिसूज़ा भी अपलक दृष्टि से नीमा की ओर ही देख रही थी।
‘‘आपकी बातों में दम है।’’
श्रीमती सहगल कह रही थी। उधर विजयजी भी आगे बढ़े थे।
‘‘मिसेज प्रसाद अभी हाल में एक फिल्म भी बच्चों की आई है जिसमें यही विषय उठाया गया है, लगता है आप भी उसी से पे्रेरित होकर...’’
नीमा हंसकर रह गई थी। क्या बताती कि किस बात से प्रेरित हुई थी वह।
बाद में देर तक गपशप होती रही, चाय नाश्ता भी हुआ।
साक्षी को लेते हुए रास्ते में सार्थक को भी उसने उसी आॅटो में बिठा लिया था। पर मन कई साल पीछे अपने बचपन में दौड़ गया था। तुलना... हां तुलना ही तो होती थी उसकी अपनी दोनों बड़ी दीदियां अणिमा दी और सीमा दी सें दोनों पढ़ने में तेज और स्कूल की हर एक्टिविटी में अव्वल थी। उसका तो शायद जन्म ही मां को गंवारा नहीं हुआ था। दो बेटियांे के बाद बेटे की उम्मीद थी उन्हें। पर वह हुई और हुई थी बेहद कमजोर और बीमार सी। पापा भी कुछ समय बाद नहीं रहे इसलिए वह मनहूस भी करार दी गई।
बस एक दादी थीं जो कभी-कभार उसे पुचकार लेती थी।
शायद इसी कारण बचपन से ही एक हीन भावना उसके मन में घर कर गई थी। जहां चार लोगों को देखती उससे बोलते नहीं बनता। रसोई में कुछ काम करके जाती तो सब उल्टा-पुल्टा हो जाता। कभी चाय फैल जाती, कभी दूध उफन जाता।
दोनों दीदियां उसका मजाक उड़ाती तो वह और अपने आप में सिमट जाती। बस अकेली चुपचाप किसी कोने में गुमसुम सी बैठी रहती। दीदियों की तो शादी भी फटाफट हो गई थी। अणिमा दी डाॅक्टर थी, तो वहीं काॅलेज में ही किसी को पसंद कर लिया था। सीमा दी को किसी दूर के रिश्तेदार ने मुंह से मांग लिया था।
वह तो अब किसी तरह बी.ए. कर पाई थी। मां को उसकी शादी की फिक्र रहने लगी थी।
‘‘कौन करेगा इस अनगढ़ सी लड़की से शादी, साड़ी तक ढंग से बांध नहीं सकती, चार लोगों के बीच बोल तक नहीं सकती।’’
सचमुच ही तो वह हकलाने लगती थी। कई बार तो आत्महत्या जैसे जघन्य विचार तक मन में उपजे थे। क्या करेगी वह जीकर सब पर बोझ बनकर..
‘‘मां, बहुत भूख लगी है, पहले खाने को दो, फिर कपड़े बदलेंगे।’’
घर पहुंचते ही बच्चे शोर मचाने लगे थे।
‘‘अरे वाह आलू, पूरी...’’
सार्थक तो अपनी प्लेट देखते ही खुश हो गया था।
‘‘मां, निशा की मम्मी कह रही थी कि आज आप बहुत अच्छा बोली थीं और आप बहुत अच्छी तरह अपनी बात कह जाती हो, यह भी कहा था उन्होंने...’’
साक्षी लाड़ में अपनी प्लेट मां के पास रखकर उसी से सटककर बैठ गई थी।
‘‘अच्छा और क्या कहा उन्होंने...’’
नीमा ने फिर हंसकर पूछ लिया था। पर मन अभी भी कहीं और दौड़ रहा था।
बी.ए. करने के बाद उसके लिए रिश्ते ढूंढ़ने शुरू हो गए थे, और इसी बीच उसने बी.एड़ में प्रवेश ले लिया था। पर यहां भी हालत वही थी। बी.एड. की प्रेक्टिस टीचिंग के लिए जाती तो पसीने छूटने लगते। कक्षा में बच्चों को पढ़ाते समय बोला ही नहीं जाता।
बच्चे भी कमजोरी भांप जाते और पूरी कक्षा शोरगुल में डूब जाती।
‘‘नीमा, जब तुम इतने से बच्चों को संभाल नहीं पाती हो तो क्या करोगी आगे जाकर।’’
एक दिन तो स्कूल की पिं्रसिपल ने आकर उसे सबके सामने डांटा था और वह पानी-पानी हो गई थी।
‘‘मां, आप इतना अच्छा बोल कैसे लेती हो...’’
साक्षी फिर पूछ रही थी।
‘‘अच्छा, अब तुम लोगों ने खाना खा लिया तो हाथ मंुह धोकर कपड़े बदल लो और थोड़ा सो लो।’’
बच्चों को कमरे में छोड़कर वह बाहर बरामदे में आ गई थी।
मयंक से शादी भी तो एक इत्तफाक ही था। मयंक की छोटी सी नौक्री थी और घर में अकेली बूढ़ी मां थी।
मां ने सोचा कि उनको यह अनगढ़ बेटी यहां निभ जाएगी तो आनन-फानन में ब्याह हो गया। वह तो तब भी कितनी घबरा रही थी, पता नहीं मयंक कैसा व्यवहार करें उसके साथ।
उसे अब तक याद है कि शादी के तुरंत बाद पास के एक छोटे से हिल स्टेशन पर घूमने जाने का प्रोग्राम बना था। बस स्टैंड तक जाने के लिए आॅटो रिक्शा लिया तो उसने चालीस के बजाय पचास रूपयों की मांग की, इसी बात पर मयंक की उससे काफी झड़प होने लगी तब हिम्मत करके वही मयंक से धीरे से बोली थी।
‘‘आप पैंतालीस रूपये ही दे दीजिए न, हम घूमने जा रहे हैं वहां भी तो हजार रूपये खर्च करेंगे तो पांच रूपये में क्या बिगड़ जाएगा...’’
मयंक तब चुपचाप उसके चेहरे को देखते रहे थे।
बाद में बस में बैठकर धीरे से बोले भी।
‘‘नीमा, जानती हो तुम्हारे व्यक्तित्व में सबसे अच्छी बात क्या है?’’
‘‘क्या?’’
वह सचमुच चैंक गई थी। क्या कोई खास अच्छी बात उसमें भी हो सकती है, आज पहली बार ये शब्द सुने थे उसने।
‘‘हां, तुम बहुत शांत स्वभाव की हो और काफी समझदार भी। देखो मैं कितनी छोटी सी बात पर उबल रहा था और तुमने मेरा क्रोध शांत कर दिया।’’
मयंक ने धीरे से उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया।
सचमुच मयंक का ही यह व्यवहार था जो हर कदम पर उसे अपनी कमजोरियों से उबारता चला गया था।
‘‘बच्चों को तुम पढ़ाओ, मां ही तो प्रथम पाठशाला होती है, इसलिए होमवर्क भी तुम ही देखना।’’
जब मयंक ने कहा था तो वह सोच में पड़ गई थी। कैसे कहती कि जैसे-तैसे तो बी.ए. कर पाई है, फिर बच्चों की आजकल की पढ़ाई पर धीरे-धीरे वह स्वयं भी उनकी किताबें पढ़ती फिर होमवर्क कराती। इसीलिए शायद ‘आदर्श मां’ की संज्ञा पाती रही है।
‘‘मां, बाहर क्यों खड़ी हो, अंदर आओ न, देखो, मैंने क्या बनाया है?’’
नन्हें सार्थक की आवाज थी। जाकर देखा कि एक कागज पर उसने मां की तस्वीर बनाई थी फिर टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा था-
‘‘दुनियां में सबसे अच्छी मेरी मां’’
हंसते हुए उसने बेटे के सिर पर हाथ रखा था।
बचपन के सारे शिकवे गिले अब तो दूर हो चुके हैं, फिर क्यों सोचती है वह यह सब।
सोचकर उसने सार्थक को गोद में उठा लिया था।
‘‘नीमा!’’ मयंक ने दाढ़ी बनाते हुए पिछले दरवाजे से ही आवाज दी थी,
‘‘आज मैं साक्षी के स्कूल में होने वाली पेरेंट्समीट में जा नहीं पाऊंगा, आॅफिस में कुछ ज्यादा काम है, तुम ऐसा करना आॅटो करके साढ़े बारह बजे वहीं उसके स्कूल पहुंच जाना।’’
‘‘पर मैं अकेली...’’
नाश्ता तैयार करते हुए नीमा के हाथ रूक गए थे। यूं साक्षी के स्कूल में साल में दो बार ‘पेरेंट्स मीट’ होती थी और माता-पिता दोनों ही बुलाए जाते थे। करीब-करीब जरूरी ही होता था कि दोनों पहुंचे, नहीं तो एक किसी को तो जाना ही होता था। पर नीमा अब तक दो बार ही गई थी, वह भी मयंक के साथ ही।
इधर तौलिया हाथ में लिए मयंक रसोई के बाहर ही आ गया था।
‘‘अरे! इतनी बार तो जा चुके हैं और फिर अकेली तुम क्या और जगह जाती नहीं। शाॅपिंग नहीं करती। उस दिन सार्थक को चोट लगने पर अकेली ही उसे अस्पताल भी लेकर गई थीं।
‘‘वो सब तो ठीक है पर...’’
नीमा ने फिर तेजी से हाथ चलाने चाहे थे। बच्चे टिफिन लेकर स्कूल जा चुके थे। बस मयंक का ही नाश्ता लगाना था। दूध और टोस्ट मेज पर रखकर अब वह परांठा सेकने की तैयारी में थी।
‘‘ठीक है, चली जाऊंगी, आप जल्दी नहा लो, देर हो रही है।’’
उधर शायद नौकरानी भी दरवाजे की काॅल बेल बजा रही थी। सुबह का यह समय भी कितनी व्यस्तताएं लेकर आता है, बस घड़ी की सुईयों के हिसाब से दौड़ते रहो।
अब साढ़े नौ तो बज ही रहे हैं। अब अगर साढ़े बारह बजे तक साक्षी के स्कूल में पहुंचता है तो कम से कम बारह से पहले ही निकलना होगा। अभी तो पूरे घर का काम पड़ा है। नौकरानी को जल्दी काम निबटाने का आदेश देकर नीमा ने फटाफट मयंक का नाश्ता तैयार किया। अब वह नाश्ता बाद में करेगी, पहले बच्चों के लिए खाना बनाकर रख दे फिर नहायेगी। लौटते में ढ़ाई-तीन तो बजेंगे ही।
इधर नाश्ता करते समय मयंक ने फिर याद दिला दिया था।
‘‘आॅटो सीधा ‘सेंटमेरी स्कूल’ के लिए ही लेना और अगर वह वहीं इंतजार कर सके तो रोक लेना। वैसे साक्षी की स्कूल रिपोर्ट तो ठीक ही है। ज्यादा कुछ तो कहना है नहीं।’’
‘‘हां, मैं देख लूंगी।’’
कहकर उसने मयंक को विदा किया था।
‘‘दीदीजी आज चाय नहीं बनी क्या...’’
नौकरानी ने अपनी चाय की याद की तो नीमा को भी याद आया कि शायद दोबारा की चाय उसने भी नहीं पी थी।
‘‘अभी बना दूंगी, पहले नहा लूं, तू जरा ये आलू कूकर में उबदले रख दे और फटाफट रसोई साफ कर दे।’’
नहाते समय याद आया कि मयंक से कह तो दिया है पर अभी तक कभी वह अकेली उस स्कूल में गई नहीं, है भी काफी दूर और अभी तक तो जो भी बात होती मयंक ही करते थे, इतने सारे लोगों के बीच वह क्या बोलेगी। फिर अब साक्षी की क्लास भी इतनी छोटी नहीं है, सेवंथ में है, कई नए विषय शुरू हो गए हैं।
पर अब कह दिया है तो जाना तो होगा ही।
चाय के साथ नौकरानी को भी नाश्ता दे दिया था। जल्दी से बर्तन वह साफ करके दे तो रसोई का काम खत्म हो।
हां ज्यादा नहीं बस थोड़ी सी नमकीन पूरियां तल लेगी। बच्चे तो सूखी आलू की सब्जी से ही खुश हो जाएंगे।
लौटते में थोड़े फल लेती आएगी।
जल्दी-जल्दी सारा काम निबटाया फिर बारह के पहले ही घर से निकल पड़ी आॅटो भी तो घर के पास नहीं मिलता है, और धूप अभी से इतनी तेज हो गई है, लौटते में साक्षी को अपने साथ ही लेती आएगी फिर सार्थक का स्कूल भी रास्ते में ही पड़ेगा।
‘सेंटमेरी’ पहुंचते-पहुंचते साढ़े बारह बज ही गए थे। शायद पेरेंट्स हाॅल में जमा होने लगे थे। साक्ष्ी की सहेली निशा के माता-पिता भी उधर जाते दिखे तो वह तेजी से उन्हीं के साथ हो ली थी।
करीबन सभी बच्चों के अभिभावक आए हुए थे और हमेशा की तरह इस बार भी विजय जी ने बोलना शुरू कर दिया था।
‘‘मैम, बच्चों को प्रोपर गाइडेंस नहीं मिल रही है। ढेर सा होमवर्क दे दिया जाता है। सब माता-पिता के जिम्मे आखिर आप लोग स्कूल में ही बच्चों की प्राॅब्लम्स क्यों नहीं साॅल्व करते हैं।’’
मैडम मिसेज़ डिसूज़ा भी अपने बचाव के लिए काफी कुछ कह रही थी तब तक रमेश जी ने बीच में उठकर कहना शुरू कर दिया।
‘‘स्कूल में प्रोपर हाइज़ीनिक माहौल नहीं है, पीने का पानी तक बच्चों को घर से लाना पड़ता है। स्कूल कैंटीन की भी हालत खस्ता है, इधर आजकल स्कूल बस भी समय पर नहीं आ रही है।’’
उधर शुभ्रा की मां शुभ्रा के कम नंबर क्यों गणित में आए हैं, इसका कारण जानना चाह रही थीं तो राखी के साइंस में कम नंबरों का दोष उसके माता-पिता की लापरवाही पर मढ़ा जा रहा था।
कुल मिलाकर माहौल कर्म ही था।
नीमा शांतिपूर्वक सबकी बातें सुन रही थी तभी मिसेज़ डिसूजा का ध्यान उसकी तरफ गया।
‘हां, मिसेज प्रसाद आप कुछ कहेंगी साक्षी के बारे में, वैसे तो वह ठीक ही चल रही है, पर अभी कोई खास उल्लेखनीय प्रगति भी नहीं की है उसने। मेरा मतलब है कि अगर उसे टाॅप करना है और दूसरे स्टृडेट्स की तुलना में...’’
‘‘तुलना में..’’
इसके आगे नीमा कुछ सुन नहीं पाई थी। शब्द ठक् से उसके कान में बजा था।
‘‘हाॅ मिसेज़ प्रसाद...’’
मिसेज़ डिसूज़ा ने उसे फिर टटोला था।
‘‘देखिए मैडम..’’
नीमा अब खड़ी हो गई थी।
‘‘मैं तो बस एक बात जानती हूं कि हर बच्चे की अपनी अलग काबिलियत होती है और कोई किसी से तुलना नहीं कर सकता। इसलिए पेरेन्ट्स और टीचर दोनों को ही चाहिए कि बच्चे की उस योग्यता को जाने और उसे आगे बढ़ाने का प्रयास करे। कई बार तुलना करने से या अपनी स्वयं की महत्वाकांक्षा बच्चे पर लाद देने से बच्चे का स्वाभाविक विकास रूक जाता है और ऐसी हीन भावना का वह शिकार हो जाता है जो कि ताउम्र मिट नहीं पाती है। इसलिए बच्चे के स्वाभाविक विकास पर ही अगर हम ध्यान दें तो शायद बेहतर हो।’’
एकदम से कई तालियों की गड़गड़ाहट गूंजी थी और मिसेज़ डिसूज़ा भी अपलक दृष्टि से नीमा की ओर ही देख रही थी।
‘‘आपकी बातों में दम है।’’
श्रीमती सहगल कह रही थी। उधर विजयजी भी आगे बढ़े थे।
‘‘मिसेज प्रसाद अभी हाल में एक फिल्म भी बच्चों की आई है जिसमें यही विषय उठाया गया है, लगता है आप भी उसी से पे्रेरित होकर...’’
नीमा हंसकर रह गई थी। क्या बताती कि किस बात से प्रेरित हुई थी वह।
बाद में देर तक गपशप होती रही, चाय नाश्ता भी हुआ।
साक्षी को लेते हुए रास्ते में सार्थक को भी उसने उसी आॅटो में बिठा लिया था। पर मन कई साल पीछे अपने बचपन में दौड़ गया था। तुलना... हां तुलना ही तो होती थी उसकी अपनी दोनों बड़ी दीदियां अणिमा दी और सीमा दी सें दोनों पढ़ने में तेज और स्कूल की हर एक्टिविटी में अव्वल थी। उसका तो शायद जन्म ही मां को गंवारा नहीं हुआ था। दो बेटियांे के बाद बेटे की उम्मीद थी उन्हें। पर वह हुई और हुई थी बेहद कमजोर और बीमार सी। पापा भी कुछ समय बाद नहीं रहे इसलिए वह मनहूस भी करार दी गई।
बस एक दादी थीं जो कभी-कभार उसे पुचकार लेती थी।
शायद इसी कारण बचपन से ही एक हीन भावना उसके मन में घर कर गई थी। जहां चार लोगों को देखती उससे बोलते नहीं बनता। रसोई में कुछ काम करके जाती तो सब उल्टा-पुल्टा हो जाता। कभी चाय फैल जाती, कभी दूध उफन जाता।
दोनों दीदियां उसका मजाक उड़ाती तो वह और अपने आप में सिमट जाती। बस अकेली चुपचाप किसी कोने में गुमसुम सी बैठी रहती। दीदियों की तो शादी भी फटाफट हो गई थी। अणिमा दी डाॅक्टर थी, तो वहीं काॅलेज में ही किसी को पसंद कर लिया था। सीमा दी को किसी दूर के रिश्तेदार ने मुंह से मांग लिया था।
वह तो अब किसी तरह बी.ए. कर पाई थी। मां को उसकी शादी की फिक्र रहने लगी थी।
‘‘कौन करेगा इस अनगढ़ सी लड़की से शादी, साड़ी तक ढंग से बांध नहीं सकती, चार लोगों के बीच बोल तक नहीं सकती।’’
सचमुच ही तो वह हकलाने लगती थी। कई बार तो आत्महत्या जैसे जघन्य विचार तक मन में उपजे थे। क्या करेगी वह जीकर सब पर बोझ बनकर..
‘‘मां, बहुत भूख लगी है, पहले खाने को दो, फिर कपड़े बदलेंगे।’’
घर पहुंचते ही बच्चे शोर मचाने लगे थे।
‘‘अरे वाह आलू, पूरी...’’
सार्थक तो अपनी प्लेट देखते ही खुश हो गया था।
‘‘मां, निशा की मम्मी कह रही थी कि आज आप बहुत अच्छा बोली थीं और आप बहुत अच्छी तरह अपनी बात कह जाती हो, यह भी कहा था उन्होंने...’’
साक्षी लाड़ में अपनी प्लेट मां के पास रखकर उसी से सटककर बैठ गई थी।
‘‘अच्छा और क्या कहा उन्होंने...’’
नीमा ने फिर हंसकर पूछ लिया था। पर मन अभी भी कहीं और दौड़ रहा था।
बी.ए. करने के बाद उसके लिए रिश्ते ढूंढ़ने शुरू हो गए थे, और इसी बीच उसने बी.एड़ में प्रवेश ले लिया था। पर यहां भी हालत वही थी। बी.एड. की प्रेक्टिस टीचिंग के लिए जाती तो पसीने छूटने लगते। कक्षा में बच्चों को पढ़ाते समय बोला ही नहीं जाता।
बच्चे भी कमजोरी भांप जाते और पूरी कक्षा शोरगुल में डूब जाती।
‘‘नीमा, जब तुम इतने से बच्चों को संभाल नहीं पाती हो तो क्या करोगी आगे जाकर।’’
एक दिन तो स्कूल की पिं्रसिपल ने आकर उसे सबके सामने डांटा था और वह पानी-पानी हो गई थी।
‘‘मां, आप इतना अच्छा बोल कैसे लेती हो...’’
साक्षी फिर पूछ रही थी।
‘‘अच्छा, अब तुम लोगों ने खाना खा लिया तो हाथ मंुह धोकर कपड़े बदल लो और थोड़ा सो लो।’’
बच्चों को कमरे में छोड़कर वह बाहर बरामदे में आ गई थी।
मयंक से शादी भी तो एक इत्तफाक ही था। मयंक की छोटी सी नौक्री थी और घर में अकेली बूढ़ी मां थी।
मां ने सोचा कि उनको यह अनगढ़ बेटी यहां निभ जाएगी तो आनन-फानन में ब्याह हो गया। वह तो तब भी कितनी घबरा रही थी, पता नहीं मयंक कैसा व्यवहार करें उसके साथ।
उसे अब तक याद है कि शादी के तुरंत बाद पास के एक छोटे से हिल स्टेशन पर घूमने जाने का प्रोग्राम बना था। बस स्टैंड तक जाने के लिए आॅटो रिक्शा लिया तो उसने चालीस के बजाय पचास रूपयों की मांग की, इसी बात पर मयंक की उससे काफी झड़प होने लगी तब हिम्मत करके वही मयंक से धीरे से बोली थी।
‘‘आप पैंतालीस रूपये ही दे दीजिए न, हम घूमने जा रहे हैं वहां भी तो हजार रूपये खर्च करेंगे तो पांच रूपये में क्या बिगड़ जाएगा...’’
मयंक तब चुपचाप उसके चेहरे को देखते रहे थे।
बाद में बस में बैठकर धीरे से बोले भी।
‘‘नीमा, जानती हो तुम्हारे व्यक्तित्व में सबसे अच्छी बात क्या है?’’
‘‘क्या?’’
वह सचमुच चैंक गई थी। क्या कोई खास अच्छी बात उसमें भी हो सकती है, आज पहली बार ये शब्द सुने थे उसने।
‘‘हां, तुम बहुत शांत स्वभाव की हो और काफी समझदार भी। देखो मैं कितनी छोटी सी बात पर उबल रहा था और तुमने मेरा क्रोध शांत कर दिया।’’
मयंक ने धीरे से उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया।
सचमुच मयंक का ही यह व्यवहार था जो हर कदम पर उसे अपनी कमजोरियों से उबारता चला गया था।
‘‘बच्चों को तुम पढ़ाओ, मां ही तो प्रथम पाठशाला होती है, इसलिए होमवर्क भी तुम ही देखना।’’
जब मयंक ने कहा था तो वह सोच में पड़ गई थी। कैसे कहती कि जैसे-तैसे तो बी.ए. कर पाई है, फिर बच्चों की आजकल की पढ़ाई पर धीरे-धीरे वह स्वयं भी उनकी किताबें पढ़ती फिर होमवर्क कराती। इसीलिए शायद ‘आदर्श मां’ की संज्ञा पाती रही है।
‘‘मां, बाहर क्यों खड़ी हो, अंदर आओ न, देखो, मैंने क्या बनाया है?’’
नन्हें सार्थक की आवाज थी। जाकर देखा कि एक कागज पर उसने मां की तस्वीर बनाई थी फिर टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा था-
‘‘दुनियां में सबसे अच्छी मेरी मां’’
हंसते हुए उसने बेटे के सिर पर हाथ रखा था।
बचपन के सारे शिकवे गिले अब तो दूर हो चुके हैं, फिर क्यों सोचती है वह यह सब।
सोचकर उसने सार्थक को गोद में उठा लिया था।
4 टिप्पणियाँ:
choti si jeet bhi bahut khushiyan laati hai,sunder kahani,ahut badhai.
सोचा था जरा नजर फेर कर देख लें कि कथा का मसला क्या है मगर ऐसे बंधे कि पढ़ते चले गये..बहुत खूब लेखनी है जनाब आपकी. बधाई हो!!
लंबी कहानी, लेकिन पढ़ने पर मज़ा आ गया! लिखते रहें!
बाँध लिया आपने तो .....
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
एक टिप्पणी भेजें