जब से सोए हैं

रविवार, 12 अप्रैल 2009

















 जब से सोए हैं
  • नरेन्द्र नाथ चतुर्वेदी

उनसे कह मत देना नींद क्या होती है
जब से सोए हैं, जागे ही नहीं,
जब से गए थे बिस्तर पर
वहीं पर है,
वे चलते हैं, आते हैं, घूमते हैं
बात भी करते हैं
अभी-अभी आए थे
किताब नई लिखी,
बहुत बड़े विद्वान की भूमिका छपी है
हजार साल पुरानी पुड़िया में रखी भस्म
को शहद से चटाने पर
गौमूत्र के साथ लेने पर, युवावस्था बनी रहती है...


गोबर से यान उड़ता था
चर्चा भारी थी,
बार-बार कहते थे
यह मुल्क सोता है
सदियों से, नींद खुलती नहीं
इन्हें जगना होगा

क्या अमरीका ने ही की है अंतरिक्ष यात्रा
हमारे यहां कितना लिखा
पढ़ता कोई नहीं
सौरमंडल की यात्रा चर्चा जगह-जगह लिखी है

उनकी नींद बहुत गहरी है
टूट नहीं सकती
न तोड़ना उसको
काम
   
बहुत कुछ करने को,..... रहता है काम
सुबह- सुबह, अखबार‘
या उसके बाद दफ्तर में जाकर, रगड़ना झगड़ना
हिसाब चुकता करना,..... धोबी, पंसारी, नहीं दूध वाले का
साथ जो बैठा है,
हंसता, बतियाता है
गलबाहि़यां डाले, मित्रा जो बरसों का,
   
ह़ा, हा, ही, ही, हू, हू
दस आठ शब्दों मे चाकरी चलना
चपड़ास रामद्वारे की
जब अयोध्या ही नहीं रही
‘खड़े बुद्व हिल गए
तोप मोर्टारों से
बाहुबल, भुजबल ,धनबल, त्रियाबल
राम राम सत्य कह
राम कहां साथ रहे,
सच यहां शासन, गांधारी, मंथरा महारानी का
चपड़ास गुरू शुकनी या मित्र अश्वथामा
पास बैठ, शंख फूँक
गुप्त महाभारत का,
करना है बहुत काम।

तक्षक कुलबुलाता
घूमती कुर्सी पर
घंटी पर घंटी दे
   
लाल लाल सुर्ख आँख
देह पर, कक्ष पर, और वाहन पर चढ़ा सुर्ख
सुर्ख मुर्ग कलंकी सुर्ख


                             
   

1 टिप्पणियाँ:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

कविता बहुत शानदार है। वे लोग कभी नहीं जागेंगे। इन निद्रा से उस निद्रा में चले जाएंगे।

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