डॉ. क्षमा चतुर्वेदी की कहानी
मंगलवार, 14 अप्रैल 2009
डॉ. क्षमा चतुर्वेदी के कथा संग्रह "स्वयंसिद्धा" से उनकी कहानी यहाँ दी जा रही है।
स्वयंसिद्धा
उसका आटो रिक्शा और दीपू की साइकिल दोनों एक ही समय घर के सामने आकर रुके थे।
‘‘अरे दीदी तुम...!’’
साइकिल रखकर मुड़ते ही उसे देखकर दीपू चैंका था।
‘‘इस प्रकार बिना बताए अचानक ही और अकेली।’’
‘‘हाँ,ं बस तुम लोगों से मिलने का मन किया और चली आई, चल अंदर चल...’’
किसी प्रकार जबरन होठों पर मुस्कान लपेटकर खुशी ने कहा और फिर ऑटो वाले को पैसे दिए। दीपू तब तक उसका बैग और अटैची लेकर अंदर चला गया था।
‘‘मां दीदी आई है... मां...’’
दीपू की आवाज से मां भी तब तक बाहर आ गई थी। पर्स एक तरफ डालकर वह मां से गले मिली तो अनायास ही आंखें भर आईं थीं।
‘‘अरे तू कैसे आ गई अचानक और अकेली ही आई। दामाद जी ... बेटा...’’
‘‘बस माँं, तुम लोगों की याद आ रही थी और तुम तो जानती ही हो कि ये अपने काम में कितने व्यस्त रहते हैं, नीटू की पढ़ाई है, बस मेरा मन किया तो आ गई...’’
‘‘तभी तो मैं तुझे आॅटो से अकेले उतरते देखते ही चैंकी थी, न तेरी कार की आवाज न दामाद जी... चल अब अंदर चल...’’
माँ उसी प्रकार स्नेह से अभिभूत होकर उसे अंदर ले चली थी। बैठक में उसके तख्त पर बैठते ही माँ के प्रश्नों की झड़ी फिर लग गई थी।
‘‘और बता सब ठीक तो है, तेरी तबियत... कुछ कमजोर क्यों लग रही है...।“
‘‘हाँ, माँ सब ठीक है, अच्छी भली तो दिख रही हूँ, तुम्हें तो मैं हमेशा ही कमजोर लगती हूं’’
‘‘अच्छा अब बता, थक गई होगी, भूख भी लग रही हेागी, क्या खाएगी... अरे दीपू...।’’
माँ ने फिर दीपू को आवाज लगाई थी जो अब अपनी साइकिल अंदर रख रहा था।
‘‘अरे अभी साइकिल अंदर मत रख, जा दौड़ के रतन के यहाँं से गरम कचैड़ी ले आ, मैं तब तक गाजर का हलवा गर्म किए देती हूं...’’
‘‘अरे माँ रहने दो। बाद में खा लूंगी। बस चाय बना दो...’’
वह कहती जा रही थी पर दीपू तब तक साइकिल लेकर जा भी चुका था।
माँ फिर चाय नाश्ते के साथ ही देर तक घर के हाल-चाल पूछती रही थी। नये घर का काम कितना हो गया। सुना है दामाद जी का प्रमोशन भी होने वाला है, और नीटू की पढ़ाई कैसी चल रही है।
खुशी को लग रहा था जैसे सारी बातें उसके इर्द-गिर्द ही घूम रही है केन्द्र में वह है परन्तु उस पर किसी का ध्यान ही नहीं है।
‘अरे हाँ, अब यह बता कि खाने में क्या लेगी, आज तो तेरी पसंद के करेले और कोफ्ते बनाऊं...’’
‘ओफ्-हो माँ, इतना सारा तो नाश्ता करा दिया अब क्या खा पाऊंँगी...’’ फिर खाने की बात छिड़ते ही खुशी का चेहरा तन गया था।
‘‘अरे तो अभी थोड़े ही खाना बना जा रहा है, अच्छा देख तू इतनी थकी हुई है, थोड़ा सो ले, आराम मिल जाएगा, मैं दरवाजा भेड़ देती हूँ।’’
माँ उठने लगी थी कि खुशी ने हाथ पकड़कर रोक लिया।
‘‘नहीं माँ, यह कोई सोने का समय थोड़े ही है, मेरे पास बैठो, बातें करो, मुझे अच्छा लग रहा है...’’
उसने बैग में से मिठाई का डिब्बा और दीपू के लिए लाई नई शर्ट का पैकेट निकाला।
‘‘दीदी, मेरे लिए भी जीजाजी से बात करो न, कम्प्यूटर में डिप्लोमा भी कर लिया, अब कहीं मुझे लगवा दो...’’
दीपू सामने की कुर्सी खींचकर बैठ गया था। खुशी कुछ और पूछती इसके पहले ही माँ ने टोक दिया।
‘‘अरे तू अपनी दीदी से ही कुछ सीख न, इसने कितनी मेहनत की है, तब जाकर इस स्थिति में पहुँची है और एक तू है शहर छोड़कर तो जाना नहीं चाहता है, बस सब यहीं मिल जाए। अच्छा खुशी बेटा थोड़ा आराम कर ले, ये बातें तो बाद में भी होती रहंेगी, अब तू भी जानती है कि देर सवेर तुझे ही दीपू के लिए कुछ करना होगा, और हाँ, दीपू, तू भी अब दीदी को थोड़ा आराम करने दे...’’
माँं ने अपने साथ ही दीपू को भी उठा दिया था, दरवाजा भेड़ते ही कमरे में कुछ अंधेरा हो गया था, चाहकर भी बत्ती जलाने की इच्छा नहीं हुई खुशी की। माँ शायद ठीक कहती है, उन दिनों एक ललक थी आगे बढ़ने की, जैसे-तैसे बी.ए. तो इसी छोटे से शहर में कर लिया था उसने, फिर यहाँ तो उस समय कोई टैक्नीकल कोर्स भी नहीं था। फिर दिल्ली छोटे चाचा के पास जाने की ठान ली थी, उसने। वहीं रहकर कोई ट्रेनिंग लेगी।
पर दिल्ली की कठिन जिंदगी का एहसास तो वहीं जाकर हुआ था। चाचा का छोटा सा दो कमरों का फ्लैट, चचेरे भाई बहिनों को भी उसका वहाँ रहना नहीं सुहा रहा था, उसकी टूटी-फूटी अंग्रेजी का दिनभर मजाक बनता, फिर वहीं उसने अग्रेजी की एक क्लास जऑइन की थी, खर्च निकालने के लिए छोटी-मोटी ट्यूशन भी की और जैसे-तैसे कम्प्यूटर का एक कोर्स भी किया था। सचमुच एक बड़ी लड़ाई लड़ी थी उसने। पर आज इस मुकाम पर पहुँच कर कितनी सुखी है वह, यह भी तो किसी को बता नहीं सकती है और न अपनी पीड़ा किसी के साथ बांँट सकती है, पर माँ, तो कम से कम उसका दर्द समझ सकेगी।
उधर खाने के समय माँ, दोनों बड़ी बहनों का जिक्र ले बैठी थी। प्रीति आई थी दो महिने पहले, वही राग है घर का हर बात में सास की टोटा टोकी, इतने साल हो गए ब्याह को, अब तो कम से कम तेरे जीजाजी को समझना चाहिए कि आखिर पत्नी का भी पक्ष ले, ठीक है सम्मिलित परिवार में रहो, मत अलग हो पर अपने बड़े होते बच्चों पर भी तो कुछ ध्यान दो,
अब मैं क्या कहती, प्रीति तो खूब रोई, दामाद जी विदा करने आए तो थोड़ा समझाने की कोशिश की, और क्या करती...’’
इधर, प्रिया का अलग रोना है, इतने बड़े शहर में रहती है, महेश की छोटी सी तनख्वाह से घर चलता नहीं है, अब हमसे मदद की उम्मीद करो तो यहाँ तो वैसे ही हाथ तंग है, दीपू अलग बेरोजगार है, हम क्या मदद करे। मैने तो प्रिया को ही समझा दिया है कि तेरे दोनों बच्चे कुछ और बड़े हो जाए तो तू भी कुछ काम कर लेना, अब आजकल तो मियाँं-बीबी दोनों ही कमाएं तभी घर चले...’’
माँ कहे जा रही थी और खुशी सोच रही थी कि अपने सारे अनुभवों से माँं भी कितनी व्यवहारिक हो गई है, उधर माँ का कथन अभी भी जारी था।
‘‘अब मैं तो रात दिन ईश्वर को धन्यवाद देती हूँ कि भगवान मेरी खुशी ने हमारी लाज रख ली, कोई दुख नहीं दिया माँ-बाप को, तू जब हुई थी तब तो तेरी दादी बहुत दुखी हुई थी कि तीसरी भी बेटी हो गई। फिर और नाराज हुई कि इसका नाम खुशी क्यों रख दिया है, कौनसी खुशी देने आई है यह... तीसरा बोझ है यह तुम दोनों मियां बीबी पर, पर बेटी तूने तो हमें खुशी ही दी, तेरे बाद दीपक का भी जन्म हो गया और तू भी कौनसी हम पर आश्रित रही। खुद ही पढ़-लिख गई। अपना दूल्हा भी तलाश लिया, न दहेज का चक्कर और न कोई शिकवा शिकायत।
अब देख तेरी दोनों दीदियों को ब्याह में इतना लेन-देन किया और अभी भी देते ही रहते हैं, पर कहाँं सुखी हैं, जब आती है तो अपने दुखड़े सुनाती रहती है।’’
खुशी फिर कुछ कहते-कहते रूक गई थी, इधर माँ तो अभी भी उत्साह में ही थी। स्वयं नई चादर निकालकर बिछाई उसके पलंग पर, तकिए का गिलाफ बदला, फिर मेज पर पानी का ग्लास रखनी लगी तो खुशी ने ही टोक दिया था।
‘‘अरे तुम क्यों कर रही हो ये सब कुछ मैं कोई मेहमान थोड़े ही हूंँ प्यास लगेगी तो खुद ही उठकर पानी पी लूंगी।’’
पर माँ कहां सुनने वाली थी।
‘‘अरे नहीं, मुझे सब पता है, तू वहाँ कितने आराम से नौकर चाकरों के बीच रह रही है, अब दो दिन को आई है तो क्यों तकलीफ पाए। और हाँ मैं और दीपू दूसरे कमरे में सो जाएंगे। आजकल तेरे बाबूजी भी गाँव गए हुए हैं तो वो कमरा भी खाली ही है’’
‘‘अरे नहीं माँ, तुम मेरे पास ही सोओ न, तुमसे ही तो मिलने आई हूँ, खूब बातें करेंगे...’’
‘‘खुशी...’’
माँ फिर हंस दी थी।
‘‘बातें सुबह कर लेंगे, तू अब आराम कर। मेरे पास लेटकर कहाँ आराम से सो पाएगी...’’
दूध का ग्लास और लाकर माँ ने टेबिल पर रखा था, वह मना करती रही, तब भी।
फिर देर तक उसे नींद आई थी। माँ भी बस उसे देखते ही समझती है कि जाने कौन सा मेहमान आ गया। दोनों दीदीयां भी तो आती है, तब तो सब कुछ सामान्य रहता है। माँ के गले लगकर दोनों ढे़रों, बातें करेगी, हँसेगी, रोएंगी फिर माँ के पास ही पलंग पर उनसे लिपटकर सोएंगी, बतियाएंगी।
पर वह क्यों चाहकर भी कुछ नहीं कह पाती है, क्यों नहीं उड़ेल पाती है अपने आपको... क्यों उसका दर्द कोई नहीं बंटा पाता है।
प्रीति दीदी, प्रिया दीदी दोनों के चेहरे, उसकी आँखों के सामने घूम गए थे। माँ सच कहती है, प्रीति दीदी की शादी में काफी खर्चा हुआ था। बाबूजी ने कर्जा भी लिया था, घर की पहली शादी थी, ढेरों तामझाम, खूब सारा सामान, सबसे लदी-फदी दीदी को विदा किया गया था। पर पहली बार मायके आई तभी रो पड़ी थी। सास सारे लेनदेन के बाद भी असंतुष्ट ही थी। दीदी को आए दिन ताने सुनने पड़ रहे थे। माँ, बाबूजी ने तब भी पहली विदाई में काफी सामान दिया। और अभी भी सामर्थ्य से अधिक ही दिया जा रहा है। तभी तो जब प्रिया दीदी की शादी की बात चल रही थी। तभी वह उन्हें समझाती रहती थीं।
‘‘देखो, तुम तो पढ़ी लिखी हो, बाहर नौकरी करो और खुद ही अपने लिए अच्छा सा लड़का देख लो... यहांँ तो बाबूजी ऐसे ही दर-दर की ठोकरें खाते रहेंगे। और कोई मिल भी गया तो कौन सी गारंटी है कि तुम सुखी होगी, देख तो रही हो प्रीति दीदी को...’’
तब प्रिया ही उसे झिड़क देती थी।
‘‘तू ज्यादा पंख मत फैला, और अपने घर की सीमाओं में रहना सीख। समझी, ये आधुनिकता का जो पाठ मुझे पढ़ाने चली है न, वो खुद ही पढ़ लेना...’’
‘‘मैं तो पढ़ ही लूंगी, मुझे नहीं किसी अजनबी के साथ पूरी जिंदगी बर्बाद करनी है, न अपने माँ-बाप पर बोझ बनकर रहना है...।
प्रिया और चिढ़ जाती फिर जब प्रीति दीदी आतीं तो उनसे फिर घुट-घुटकर बातें करती दोनों बहनें हंँसती, खिलखिलाती, खुसर-फुसर करतीं पर उसे देखते ही चुप हो जातीं।
‘‘अब देखेंगे, हमारी खुशी इस घर की खुशी के लिए क्या करने वाली है,’’ दोनों मिलकर अक्सर उसे चिढ़ाने लगतीं।
‘‘हाँ-हाँ जरूर देखना...’’
फिर प्रिया दीदी के लिए भी कोई वर खोज लिया था बाबूजी ने और वह भी तामझाम के साथ विदा कर दी गई। यह बात जरूर है कि अब तक वे अपनी आर्थिक कमी का रोना ही रोती रहती है। इन सब बातों से ही तो वह दिल्ली चली गई थी।
वहीं जब उसने अंग्रेजी की क्लास में जाना शुरू किया था तो हेमराज से परिचय हुआ था। वह भी किसी छोटे से शहर से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके आया था, और यहाँं इंटरव्यू दे रहा था। अंग्रेजी उसकी अभी कमजोर थी तो क्लास जॉइन कर ली थी।
यह तो बाद में पता चला खुशी को कि वह चाचा के घर के पास ही कहीं कमरा लेकर रह रहा था।
परिचय धीरे-धीरे मित्रता में बदला और कब मित्रता प्रेम में बदल गई, यह तो वह जान ही नहीं पाई थी।
हेमराज ने ही सपाट शब्दों में शादी का प्रस्ताव उसके सामने रख दिया था। चूँकि वह अकेला था तो उसके घर वालों की तो सहमति का प्रश्न हीं नहीं था। खुशी के माँ-बाप ने अपनी सहर्ष अनुमति दे दी थी। हेमराज सभी को भला और हँसमुख, होनहार युवक लगा था। एक सीधे-सादे समारोह में विवाह भी सम्पन्न हो गया, तब तो और रिश्तेदारों को भी खुशी के भाग्य से ईर्ष्या हुई थी।
आज दो-तीन नौकरियां बदलकर हेमराज अब काफी ऊँचे ओहदे पर एक अच्छी कंपनी में कार्यरत था। नीटू के जन्म के बाद परिवार भी अब पूरा हो गया था। पर कुछ समय बाद ही खुशी जान गई थी कि हेमराज का एक अलग व्यक्तित्व भी है, वह अच्छी नौकरी मिल जाने से उसे किसी बात से परहेज नहीं रहा है और आधुनिकता की अंधी दौड़ में वह शामिल हो गया है। शराब वगैरह से तो पहले भी परहेज नहीं था पर अब आए दिन किसी न किसी युवती से उसका नाम जुड़ जाता था, और तो और वह स्वयं ही अपनी प्रेमलीलाओं के किस्से चटखारे ले लेकर सुनाता रहता। और घर में रात दिन कलह का वातावरण रहता। खुशी के सारे प्रयासों के बाद भी वह अपनी बात पर कायम रहता।
‘‘अरे! तो तुम भी इन्जाॅय करो न, कौन रोकता है तुम्हें, क्यों ऐसी मनहूस सूरत बना लेती हो, मेरी बातें सुनते ही...’’
‘‘हाँ-हाँ रोकता है, मेरा जमीर रोकता है, मेरे संस्कार रोकते हैं,’’ खुशी और चीखने लगती थी।
‘‘देखो ये ऊंँची आवाज में मुझे दबाने की कोशिश मत करना, और याद रखना तुम्हें सड़क से उठाकर घर की रानी बना दिया है, अब मेरे एहसानों के पैर के तले दबी रहो समझी... ज्यादा चू-चपड़ की तो तुम्हें भी छोड़ सकता हूँ मैं...’’
हाँ, अपनी जिंदगी मैं अपने तरीके से भरपूर जिऊंगा... और मुझे बच्चे की दुहाई मत दो, उसे हॉस्टल में डाल दो, और तुम भी मौज करो।’’
खुशी का दम घुटने लगता था... कुछ भी समझ नहीं पा रही थी वह कि कैसे क्या समाधान होगा... हेमराज को छोड़ दे... पर जाएगी कहाँं बच्चे को लेकर .... उसका भी तो भविष्य जुड़ा है उससे पर अब तो सुना है कि अपनी किसी रखैल को फ्लैट लेकर दिया है हेमराज ने। तब कितनी आसानी से कह दिया करती थी प्रीति दीदी से कि एक तुम छोड़ क्यों नहीं देती जीजाजी को, क्यों इतना सहती हो... पर अब समझ में आ रहा है कि सब कुछ इतना सहज नहीं होता है। टूट-टूट कर भी जीना ही पड़ता है। तो क्या समझौता कर ले । पर किस हद तक...
काश! उसकी ससुराल ही होती, तो शायद कोई होता जो हेमराज को समझा सकता... पर अब अपना यह दर्द वह किसके साथ बांँटे... कोई भी तो नहीं है...
दोनों दीदियाँं तो कभी भी सुख-दुख की साथी थी नहीं, एक माँ है, पर उनसे भी तो कुछ कह नहीं सकती। आखिर सब कुछ चुना तो उसी ने था, वही जिम्मेदार है, माँ तो यही समझती है कि वह बहुत सुखी है। सबको खुशी बाँट रही है.. अब उनसे क्या कहे.. नहीं ... उसके भाग्य में तो माँ की गोद में सिर रखकर रोना भी नहीं है... अपनी पीड़ा, संताप सब उसे ही वहन करना है... रात देर तक यूं ही सूनी दृष्टि से अंधेरे में कुछ टटोलती रही थी।
सुबह उसका उतरा हुआ मुहँ देखकर माँ भी चौंकी थी।
‘‘क्या हुआ? लगा रात को ठीक से नींद नहीं आई, गर्मी ज्यादा थी क्या, और अब बता क्या बातें करना चाह रही थी।’’
माँ ने उसका उतरा चेहरा देखते ही पूछा था।
‘‘कुछ नहीं माँ... वो तो ऐसे ही... हाँ अब सोच रही हूं कि शाम को ही लौट जाऊँ नीटू घर में अकेला होगा...’’
खुशी का स्वर निर्विकार था...
अब तक स्वयंसिद्धा रही थी वह... आगे भी शायद यही बनना उसके भाग्य में है... उसका सुख... उसका दुख... बस उसका ही है .... यही सोच रही थी वह।
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