कविता
गुरुवार, 30 अप्रैल 2009
डाॅ. नरेन्द्र चतुर्वेदी के दो कविता संग्रह ,मन वृन्दावन तथा गाथा प्रकाशित हुए हैं।आपकी कुछ कविताएं यहाँ दी जारही हैं। आपका नया काव्य संग्रह ”अभी जो जीवित हैं प्रकाशाधीन है।
प्याज़
प्याज,
छिलके उतरने की सहती व्यथा, रोज-रोज
उतरते-उतरते
रहता है क्या
ब्रह्म ज्ञानी कहता, ‘वह महाशून्य था’।
... बस एक खाली सा
वर्ण, जाति, संप्रदाय की नीली काली परतें
रोज़-रोज़ उतरती
आहत बु(िजीवी बाहर की कालिमा
लीक-लीक उकेरता
परत दर परत, उतारता, छीलता
हंँसता, बतियाता,
पूछता जाता,
इतिहास है कहाँं, यह तो बस जोड़ है...
मात्र खाली परतों का,
देती गुलाबीपन
स्वाद भी कसैला
बेहद सस्ती यह
पड़ी रहती सड़कों पर
देश की जनता सी,
रोज-रोज छिलने को
परत- दर- परत छिल, यूं ही मर मिटने को।
क्या है, बल इसका,
क्या बस हरी दूब ही
सिरफिरा कहता था
‘‘रस प्याज का ही
मीठे शहद से मिल
बनताताकत का खजाना है।’’
तभी बाजारी ने
शहद को उठाकर दूर प्याज से रख छोड़ा है
और हर बार
परत- दर- परत
इस प्याज को छिलने को ही
यहांँ बाजार में छोड़ा है।
कहने को बहुत था
कहने को बहुत था
बहुत कुछ कहा गया
पर सुना कहां किसने
कान पर
न ठक्कन था
न आंख पर
पर्दा था,
पर भीतर का सुआ
अपनी ही धुन पर
मंत्र-मुग्ध नचता
खुद को ही सुनता
देखता भी खुद को
बाहर का कोलाहल
चीख, आहत, आत्र्तनाद
माया, पाषाण वत
संवेदना मरी-मरी
लोलुप जीभ भीतर का रस
हड्डी चूसते श्वान- सी,
बु(िजीवी वह,
अपनी ही आत्मा
पर शिला सी अहल्या रख
स्वार्थ रस चाटती
आनंदोत्सव झूमती
सुनने से दूर वह
न देखने की चाह लिए
अपनी ही ढपली पर अपना ही राग।
अंँधेरा इतना था
सूझता नहीं था कुछकभी-कभी उसी कान में उठती चीख भी
खेत से खलिहान से
झोंपड़ पट्टी से
मैले, कुचले पशुवत जीवित मनु संतान की,
पर कहीं कोई दस्तक नहीं
नतमस्तक झुके पाषाण हृदय पर
मरे हुए शब्दों के आर्तनाद की
पर, चुप-चुप
स्वार्थ, नाभि नालि युक्त
न सुनता
न देखता,
जो भी सुन रहा था
उसके कानों में सीसा ढोलता
फोड़ता आंख
शब्दों को छीनता।
जो अपना ही कल’
लाने को फिर स्वागतोत्सुक
जो न सुनता
न देखता
बड़बोला, अपनी ही त्वचा पर,
चिपटा परजीवी, वह।
उसकी पहचान.....
‘हवा दरख्तों को बताती फिरती है
फिर भी न जाने क्यों
... खामोश है....
आज भी यह वक्त,
न जाने क्यों
जो न कुछ करता है,बस सुनकर चुप रहता है।
कविता वह
कविता न खाद होती है, न बीज
न दवा
जो बीमारी को मार देती है,
वह, वह जमीन है
ताप, नमी पाकर
बीज,
दरख्त में बदल देती है,
दरख्त का दरख्त होना जरूरी है
वह फलदार हो या नहीं
चाहे वह श्मशान में लकड़ी बन जले
या अंगीठी में कोयला बन दहके
या किंवाड़ में लग जाए
या किसी खूबसूरत मेज के पांवों में ठहर जाए।
कविता दरख्त जनती है
कभी मशाल बन दहकती है
लपट उसका शृंगार है
उसके जिस्म पर फलती है,
वक्त बार-बार कहता है
लिखो, और और लिखो
दरख्त मशाल बन जल जाएं
अंधेरा यह नियाॅन लाइट से कम होगा नहीं
‘पावर कट’ का जमाना है
दहकना मशालों को है
अंधेरा उन्हें, दहक, खिसकता जरूर है।
उन सबके लिए
उन सबके लिए
जो ट्रेन के डिब्बे में जलकर राख हो गए
या बेकरी में बिस्कुट बन सिक गए
कहता वकील था-
आग अपने आप लगी
उन्हें मरने का शौक था
‘सती प्रथा प्रशंसक वे
साथ ‘राम’ सता हुए
या सुपुर्दे खाक हुए
विवाद ही विवाद
विवाद ही अशांति जनक है
वे थे खामोश
घर की, रोजी-रोटी की फिक्र में लगे थे
जो बेकरी में, या खेत या खलिहान में
जिन्दा रहने का मंत्र पूछते थे
अनायास यूं ही
मौत जो मुंडेर पर बैठी, चील की तरह आई थी
राम की यादों में,अल्लाह की इबादत में
अभिशप्त सीता सी
चुपचाप धरती समा गई।
उन्हें मौत की फिर्क नहीं,सवाल
धर्म ,जाति ,संप्रदाय के सिरों को गिनना है।
उनका क्या कफन की दुकान पर डेरा जो डाले हैं
कहीं सीढ़ी
कहीं पंडितकहीं काॅफीन
कहीं काजी
सब मुहैया करा देते हैं।
रोते हैं, हंसते हैं
साथ-साथ रहते हैं
लड़ते हैं जैसे हड्डी पर कभी-कभी
दतात्रेय सहचर
शांति पाठ पढ़ते हों
सभा या संसद हो
आंँसू कहाँं आँख में,दिल में ग्रेनाइट
फिसलन ही फिसलन
टेंकर में जल ‘
गंगा,यमुना ,साबरमती छोड़ आए हों।
वे जो मरते हैं
तिल-तिल कर जलते हैं
भूख, गरीबी, जलालत की आग में
नम होती आँखों का
काश अनकहा सुन जाएं
हाथों में खंजर नहीं
बंदूक तलवार नहीं
खुशबू सी रेखाएं साथ लिए हथेली पर
दूसरी हथेली रख
एक गीत प्यार भरा
यहाँं-वहांँ छोड़ आएं।
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