पूज्य स्वामीजी
गुरुवार, 30 अप्रैल 2009
पूज्य स्वामीजी से नरेन्द्रनाथ ने आध्यात्म संबंधी सवाल पूछे थेए कुछ प्रश्नोत्तर यहाँ दिए जा रहे हैं। नरेन्द्रनाथ का स्वामीजी से 28वर्ष का सानिध्य रहा।स्वामीजी ने अपनी ओर से कोई आध्यात्मिक मिशन नहीं चलाया। वे सिद्ध थे।रमण महर्षि के आश्रम में भी रहे। मात्र एक झोला एक धोती के दो टुकड़े वस्त्र के नाम पर तथा कोई संपत्त्ी उनके पास नहीं थी। उनके निर्वाण के बाद झालावाड़ जिले की बकानी तहसील के गांव मोलक्या में जहाँ उनकी कुटिया थी वहाँ समाधि बनी हुई है।आम जन आध्यात्मिक शांति के लिए वहाँ रोजाना आते रहते हैं। झालावाड़ से मा्ेलक्या के लिए सीधी बस सेवा है।
साधन सन्दर्भ
स्वामीजी से प्रायः जिज्ञासु जब भी मिलते हैंए वे क्या करें घ् यही पूछते रहते हैं। वे साधना की ओर किस तरह बढ़ेंए यही जिज्ञासा रहती है।
स्वामीजी कहा करते है.
श्साधक के लिए आत्मनिरीक्षण ही साधन है। साधक को चाहिए कि वह अपनी आंतरिक्ता में विचरण करे। मनोजगत में पैठ करे। आप वहीं पहुंचेंगेए जहां से विचार चले आ रहे हैं। एक गहरी सतर्कता के साथ की गई आंतरिकता में निगरानी मन को क्रमशः निष्क्रियता प्रदान करती है। मन सेए मन की जब निगरानी की जाती हैए तब वह जल्दी ही थक जाता है। और एक खालीपन निष्क्रियता प्राप्त होती है। परन्तु यहां पर किसी ओर अन्य प्रकार के परिवर्तन की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। हम गुण और दोष को ही जीवन मान बैठे हैं। जीवन जो हैए जिस रूप में है। उसके मूल रूप को जान ही नहीं पाते।श्
प्रायः आत्मनिरीक्षण के साथ ही परिवर्तन की ललक रहती है। अरे मुझमें यह दोष हैण्ण्ण्यह मुझे दूर करना हैए तभी गुण का स्वरूप सामने आ जाता हैए मुझे तो यह होना चाहिएए आखिर यह भी तो संकल्प यात्रा ही है। जब तक गुण शेष हैए तभी तक दोष की सत्ता भी विद्यमान है। राग द्वेष की समाप्ति ही सही वैराग्य है। हमें और कुछ नया नहीं करना. बसए इसी तकनीक को समझना है कि यहां कुछ होने के लिए आत्मनिरीक्षण नही करना है। बाहृा से लाकर कुछ आरोपित नहीं करना हैए जो है उसका सतर्कतापूर्वक अवलोकन ही साधन है। यहां किसी प्रकार का कोई ंसंकल्प नही हैए रूपान्तरण की चाहत भी नहीं है तभी तो ष्जोष् है वह उसी रूप में अभिव्यक्त हो सकता है। जब ध्यान में रुपान्तरण की क्रिया शुरू हो जाती है। तभी तनाव शुरू होता है। एक द्वन्द यह ध्यान नहीं है। इसीलिए आवश्यक हैए आत्मनिरीक्षण की नौका पर मात्र लहरें ही देखना हैए गिनना नही है। पानी के गंदलेपन को देखकर अस्वीकृति की भावना नहीए जो हैए उसे ही साक्षी भाव से देखना हैए यह नाव चलती रहेए तभी यह अन्तर्यात्रा संभव है। यहां निसंकल्प अवलोकन ही सार्थक ध्यान है। आंतरिक विचारणा का अवलोकन ही यह हमें प्रदान करता है।
इसलिए आवश्यक है कि काल के इस अमूल्य क्षण में मन अत्यधिक संवेदनशील होए और यह तभी संभव है कि विचारणा ही नही रहे। जिस क्षण यह अनुभवन हैए अनुभव और अनुभव.कर्ता की पृथकता समाप्त हो जाती है। पर होता क्या हैए अनुभव क्षणिक रहता है। फिर आती है स्मृति जो सार्थक क्षण का विश्लेषण करती है। अनुभव और अनुभव कर्ता पृथक हो जाते हैं। इसलिए हम पाते हैए हम अधिकांशतः अनुभव से बाहर ही रहते हैं। अनुभव के लिए आवश्यक हैए इस क्षण विचारणा अनुपस्थित रहेए भूत और भविष्य में मन का संक्रमण न रहेए रहे मात्र वर्तमान और तभी प्राप्त होती हैए निसंकल्पताए एक गहरा मौनए यही तो हमारा ध्येय है।
ध्यान.योेग हर क्षण के अनुभव में रूपांतरित होने की वह कला है जिसके द्वारा जगत भागवत.भाव की प्राप्ति होती हैए वहीं जीवन भागवत.कर्म से युक्त हो जाता है। ज्यों.ज्यों अनुभवन बढ़ता हैए जीवन की सार्थकता उपलब्ध होती जाती है।
यह स्थिति जीवन से पलायन नही हैए निठल्लापन नही हैए वहां है. सर्वाधिक गत्यात्मकताए खुला विक्षोभहीन जीवन क्या यही हम नहीं चाहते हैंघ्
यह सच हैए यहां तक साधारण साधक के लिए पहुंचना सरल नही है। अतः अभ्यास आवश्यक है। शास्त्रों ने इसीलिए भगवत इच्छा का आदर किया है। भगवत इच्छा ही प्राणी की भोगेच्छा को समाप्त कर देती है। और अन्त में जाकर यह भी परमात्मा में विलीन हो जाती है। अतः प्रयत्न यहां निन्दनीय नहीं है। सच तो यह है कि प्रयत्न ही यही है।
इसलिए साधक को अभ्यास का आदर करना चाहिएए उन विचारों कोए जो किसी काम के नही हैए उन्हें तो न आने दें। बिना काम के विचार वे ही हैंए जो कभी वर्तमान में नही रहने देते। हमेशा मन को भूत और भविष्य में ले जाते हैं। यही तो चिन्ता है जो कि चित्त भी है।
इसीलिए आवश्यक है कि गहरी सतर्कता रहे। यह सतर्कता और कहीं नहींए अन्तर्जगत में हमेशा रहे। याद रखिए मन गत्यात्मक है। उसकी गति असाधारण हैए इसीलिए जहां आप चूकेए मन एक क्षण में लाखों मील की दूरी लाँघ जाता है। और जहां सतर्कता पूर्वक अवलोकन हुआए वह नियंत्रित होता चला जाता है। सतर्कता की इस अवधि को बढ़ाइयेए जितनी यह अवधि बढ़ती चली जाएगीए उतनी ही गहरी शांति में आप अपने आपको पाते चले जाऐगे।
सच तो यह हैए यहां पानी पर उठने वाली लहर को ही एकाग्र करना लक्ष्य नही हैए हम चाहते हैं. उसको बर्फ बनानाए जिससे कि फिर कभी कोई लहर ही नही बने। यह स्थिति मानसिक एकाग्रता ही नही है। एकाग्रता के लिए कम से कम एक संकल्प तो चाहिए हीए और नहीं अब तक अन्य स्थानों पर परिभाषित किया ध्यान ही है। यहां ध्यान योग हमेए कुविचार से हटाते हुए उस संकल्प.हीनता को सौंपता हैए जहां मात्र आत्मानुभव है और भगवत्कर्म हैए यही हमारा ध्येय है।
साधक कहते हैं.
दुख है जीवन में दुख ही दुख है। हम उससे अपने आपको हटाना भी चाहते हैं पर संभव नही है। वे दुख के प्रभाव को संसार की सहायता से दूर करना चाहते हैं। यह जानते हुए भी कि जब तक सुख की सत्ता हैए तभी तक दुख है। पर जाने कैसा भटकाव है घ् प्राणी दुख भोगता हुआ भी सुख की भूल. भुलैया में इतना उलझा रहता है कि वह छोड़ते हुए भी छोड़ नहीं पाता है और अगर प्रयास भी करता है तो उसका यह प्रयास किन्हीं सिद्धियों की तलाश मेंए हठयोग मेंए या सुख की कामना में ही यह सोचते हुए कि उसके संकल्पों की पूर्ति किसी अन्य की कृपा से संभव हैए गुरूडम के भटकाव में भटक जाता है।
नहींए हमें इसी जीवन में अभ्यास सत्संग द्वारा ध्येय पाना ही है। ध्यानयोग ही सहज और सुगम वह मार्ग हैए जो सन्तों का साध्य पथ रहा है।
इसीलिए आवश्यक हैए अगर अपूर्णता हैए और उसे पूर्ण करने की तीव्र इच्छा हैए तो प्रयत्न आज से और अभी से किया जाए।
पहला कदम
जरूरी नहीं कि एक ही दिन मेंए एक ही क्षण में चमत्कार हो जाय। योग मार्ग पिपीलिका.मार्ग है। चींटी का मार्गए जिस प्रकार मधु की तलाश में अनवरत लगी हुई वह दुर्गम से दुर्गम जगह पहुच जाती हैए वही भाव साधक के मन मेें होना चाहिए कम से कम दिन में दो बार तो कुछ समय हमें अपने अभ्यास के लिए देना ही चाहिए सोते समय और सुबह नींद खुलते समय।
बैठ नहीं सके तो लेटे ही रहें। देखे मन क्या कर रहा है घ् सतर्कता से आंतरिक विचारणा का अवलोकन करेंए न जाने कितने विचार आ रहे हैंए पर आप तो विश्राम में हैं और मन दोपहरी में गयाए इस कल से उस कल में गयाए समझाइए अभी तो विश्राम में हूं। मन को वर्तमान में लाइए। यही प्रयत्न हैए शुरू.शुरू में मन नहीं मानेगाए फिर ज्यो.ज्यों अभ्यास बढ़ता जायेगाए वह नियंत्रित होता चला जायेगा। साधक कहेंगेए इससे तुरन्त नींद आ जाती है। नींद आती है तो आने दीजिएए यह बाधक नही है।
सुबह उठते ही इस अभ्यास को दोहराइए। आंतरिक विचारणा का अवलोकन कीजिए। मन जो वा´छा कर रहा है उसे देखिए। बिना किसी पूर्वाग्रह के। और रूपांतर की कामना छोड़िए। जो हैए उसी रूप में कुछ क्षण देखने का प्रयास कीजिए। मन हीए मन की निगरानी कर जब थक जाता है तो अशांति स्वतः कम होने लगती है। एक गहरी शांति का अनुभव ही सार्थक उपासना है।
दूसरा कदम
ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का गहरा संबंध है। मन इसी कारण से भोगों में लिप्त रहता है। ध्यान के लिए यही श्रेष्ठ है कि किसी बाहृा नामए रूप पर मन को स्थिर करने के स्थान पर आंतरिक ब्रहृानाद पर ही मन को स्थिर किया जाय। मन जब ठहरता हैए तब अन्तर्जगत से आती हुई ये ध्वनियां साधक को सुनाई देती हैं। संतो ने इनके कई रूप बतलाये हैंए ज्यो.ज्यों मन ठहरता जाता है यह नाद एक स्पष्ट अनवरत सायरन की आवाज सा शेष रह जाता है। साधक को चाहिए कि वह कहीं भी रहेए कुछ भी करता रहेए मन वहीं लगा रहना चाहिए। श्रवण और वाणी का गहरा संबंध है।
इसीलिए साधन यात्रा में जिस कर्मेन्द्रिय पर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिएए वह वाणी ही है।
तीसरा कदमरू.
साधन पथ पर सबसे अधिक फिसलने वाली चीज श्जीभश् है। स्वाद की परिधि में भी तथा वाचालता की परिधि में भी। सभी इन्द्रियों का दमन सरल है। पर इस रसना का नियंत्रण कठिन ही है। क्योंकि इसके दो कार्य हैए जब वह बाहर आती हैए तब शब्दों से खिलवाड़ करती हैए दोष.दर्शन में लग जाती है या पर. निंदा या चाटुकारिता मे। साथ ही स्वाद के लिए मन को इधर उधर दौड़ाए रखती है। जब यह एक साथ दो काम करती हैए तब उसका दुरूपयोग घातक ही है।
नाद श्रवण पर मन की एकाग्रता से वाक संयम सरलता से बढ़ जाता है। क्योंकि श्रवण और वाक् का गहरा संबंध है। जो गूंगा होता हैए वह बहरा भी होता है।
फिर भी साधक को चाहिएए वह इसके नियन्त्रण पर ध्यान दे। गपशप अस्थिर मन की परिचायक है। जब हम
साधन सन्दर्भ
स्वामीजी से प्रायः जिज्ञासु जब भी मिलते हैंए वे क्या करें घ् यही पूछते रहते हैं। वे साधना की ओर किस तरह बढ़ेंए यही जिज्ञासा रहती है।
स्वामीजी कहा करते है.
श्साधक के लिए आत्मनिरीक्षण ही साधन है। साधक को चाहिए कि वह अपनी आंतरिक्ता में विचरण करे। मनोजगत में पैठ करे। आप वहीं पहुंचेंगेए जहां से विचार चले आ रहे हैं। एक गहरी सतर्कता के साथ की गई आंतरिकता में निगरानी मन को क्रमशः निष्क्रियता प्रदान करती है। मन सेए मन की जब निगरानी की जाती हैए तब वह जल्दी ही थक जाता है। और एक खालीपन निष्क्रियता प्राप्त होती है। परन्तु यहां पर किसी ओर अन्य प्रकार के परिवर्तन की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। हम गुण और दोष को ही जीवन मान बैठे हैं। जीवन जो हैए जिस रूप में है। उसके मूल रूप को जान ही नहीं पाते।श्
प्रायः आत्मनिरीक्षण के साथ ही परिवर्तन की ललक रहती है। अरे मुझमें यह दोष हैण्ण्ण्यह मुझे दूर करना हैए तभी गुण का स्वरूप सामने आ जाता हैए मुझे तो यह होना चाहिएए आखिर यह भी तो संकल्प यात्रा ही है। जब तक गुण शेष हैए तभी तक दोष की सत्ता भी विद्यमान है। राग द्वेष की समाप्ति ही सही वैराग्य है। हमें और कुछ नया नहीं करना. बसए इसी तकनीक को समझना है कि यहां कुछ होने के लिए आत्मनिरीक्षण नही करना है। बाहृा से लाकर कुछ आरोपित नहीं करना हैए जो है उसका सतर्कतापूर्वक अवलोकन ही साधन है। यहां किसी प्रकार का कोई ंसंकल्प नही हैए रूपान्तरण की चाहत भी नहीं है तभी तो ष्जोष् है वह उसी रूप में अभिव्यक्त हो सकता है। जब ध्यान में रुपान्तरण की क्रिया शुरू हो जाती है। तभी तनाव शुरू होता है। एक द्वन्द यह ध्यान नहीं है। इसीलिए आवश्यक हैए आत्मनिरीक्षण की नौका पर मात्र लहरें ही देखना हैए गिनना नही है। पानी के गंदलेपन को देखकर अस्वीकृति की भावना नहीए जो हैए उसे ही साक्षी भाव से देखना हैए यह नाव चलती रहेए तभी यह अन्तर्यात्रा संभव है। यहां निसंकल्प अवलोकन ही सार्थक ध्यान है। आंतरिक विचारणा का अवलोकन ही यह हमें प्रदान करता है।
इसलिए आवश्यक है कि काल के इस अमूल्य क्षण में मन अत्यधिक संवेदनशील होए और यह तभी संभव है कि विचारणा ही नही रहे। जिस क्षण यह अनुभवन हैए अनुभव और अनुभव.कर्ता की पृथकता समाप्त हो जाती है। पर होता क्या हैए अनुभव क्षणिक रहता है। फिर आती है स्मृति जो सार्थक क्षण का विश्लेषण करती है। अनुभव और अनुभव कर्ता पृथक हो जाते हैं। इसलिए हम पाते हैए हम अधिकांशतः अनुभव से बाहर ही रहते हैं। अनुभव के लिए आवश्यक हैए इस क्षण विचारणा अनुपस्थित रहेए भूत और भविष्य में मन का संक्रमण न रहेए रहे मात्र वर्तमान और तभी प्राप्त होती हैए निसंकल्पताए एक गहरा मौनए यही तो हमारा ध्येय है।
ध्यान.योेग हर क्षण के अनुभव में रूपांतरित होने की वह कला है जिसके द्वारा जगत भागवत.भाव की प्राप्ति होती हैए वहीं जीवन भागवत.कर्म से युक्त हो जाता है। ज्यों.ज्यों अनुभवन बढ़ता हैए जीवन की सार्थकता उपलब्ध होती जाती है।
यह स्थिति जीवन से पलायन नही हैए निठल्लापन नही हैए वहां है. सर्वाधिक गत्यात्मकताए खुला विक्षोभहीन जीवन क्या यही हम नहीं चाहते हैंघ्
यह सच हैए यहां तक साधारण साधक के लिए पहुंचना सरल नही है। अतः अभ्यास आवश्यक है। शास्त्रों ने इसीलिए भगवत इच्छा का आदर किया है। भगवत इच्छा ही प्राणी की भोगेच्छा को समाप्त कर देती है। और अन्त में जाकर यह भी परमात्मा में विलीन हो जाती है। अतः प्रयत्न यहां निन्दनीय नहीं है। सच तो यह है कि प्रयत्न ही यही है।
इसलिए साधक को अभ्यास का आदर करना चाहिएए उन विचारों कोए जो किसी काम के नही हैए उन्हें तो न आने दें। बिना काम के विचार वे ही हैंए जो कभी वर्तमान में नही रहने देते। हमेशा मन को भूत और भविष्य में ले जाते हैं। यही तो चिन्ता है जो कि चित्त भी है।
इसीलिए आवश्यक है कि गहरी सतर्कता रहे। यह सतर्कता और कहीं नहींए अन्तर्जगत में हमेशा रहे। याद रखिए मन गत्यात्मक है। उसकी गति असाधारण हैए इसीलिए जहां आप चूकेए मन एक क्षण में लाखों मील की दूरी लाँघ जाता है। और जहां सतर्कता पूर्वक अवलोकन हुआए वह नियंत्रित होता चला जाता है। सतर्कता की इस अवधि को बढ़ाइयेए जितनी यह अवधि बढ़ती चली जाएगीए उतनी ही गहरी शांति में आप अपने आपको पाते चले जाऐगे।
सच तो यह हैए यहां पानी पर उठने वाली लहर को ही एकाग्र करना लक्ष्य नही हैए हम चाहते हैं. उसको बर्फ बनानाए जिससे कि फिर कभी कोई लहर ही नही बने। यह स्थिति मानसिक एकाग्रता ही नही है। एकाग्रता के लिए कम से कम एक संकल्प तो चाहिए हीए और नहीं अब तक अन्य स्थानों पर परिभाषित किया ध्यान ही है। यहां ध्यान योग हमेए कुविचार से हटाते हुए उस संकल्प.हीनता को सौंपता हैए जहां मात्र आत्मानुभव है और भगवत्कर्म हैए यही हमारा ध्येय है।
साधक कहते हैं.
दुख है जीवन में दुख ही दुख है। हम उससे अपने आपको हटाना भी चाहते हैं पर संभव नही है। वे दुख के प्रभाव को संसार की सहायता से दूर करना चाहते हैं। यह जानते हुए भी कि जब तक सुख की सत्ता हैए तभी तक दुख है। पर जाने कैसा भटकाव है घ् प्राणी दुख भोगता हुआ भी सुख की भूल. भुलैया में इतना उलझा रहता है कि वह छोड़ते हुए भी छोड़ नहीं पाता है और अगर प्रयास भी करता है तो उसका यह प्रयास किन्हीं सिद्धियों की तलाश मेंए हठयोग मेंए या सुख की कामना में ही यह सोचते हुए कि उसके संकल्पों की पूर्ति किसी अन्य की कृपा से संभव हैए गुरूडम के भटकाव में भटक जाता है।
नहींए हमें इसी जीवन में अभ्यास सत्संग द्वारा ध्येय पाना ही है। ध्यानयोग ही सहज और सुगम वह मार्ग हैए जो सन्तों का साध्य पथ रहा है।
इसीलिए आवश्यक हैए अगर अपूर्णता हैए और उसे पूर्ण करने की तीव्र इच्छा हैए तो प्रयत्न आज से और अभी से किया जाए।
पहला कदम
जरूरी नहीं कि एक ही दिन मेंए एक ही क्षण में चमत्कार हो जाय। योग मार्ग पिपीलिका.मार्ग है। चींटी का मार्गए जिस प्रकार मधु की तलाश में अनवरत लगी हुई वह दुर्गम से दुर्गम जगह पहुच जाती हैए वही भाव साधक के मन मेें होना चाहिए कम से कम दिन में दो बार तो कुछ समय हमें अपने अभ्यास के लिए देना ही चाहिए सोते समय और सुबह नींद खुलते समय।
बैठ नहीं सके तो लेटे ही रहें। देखे मन क्या कर रहा है घ् सतर्कता से आंतरिक विचारणा का अवलोकन करेंए न जाने कितने विचार आ रहे हैंए पर आप तो विश्राम में हैं और मन दोपहरी में गयाए इस कल से उस कल में गयाए समझाइए अभी तो विश्राम में हूं। मन को वर्तमान में लाइए। यही प्रयत्न हैए शुरू.शुरू में मन नहीं मानेगाए फिर ज्यो.ज्यों अभ्यास बढ़ता जायेगाए वह नियंत्रित होता चला जायेगा। साधक कहेंगेए इससे तुरन्त नींद आ जाती है। नींद आती है तो आने दीजिएए यह बाधक नही है।
सुबह उठते ही इस अभ्यास को दोहराइए। आंतरिक विचारणा का अवलोकन कीजिए। मन जो वा´छा कर रहा है उसे देखिए। बिना किसी पूर्वाग्रह के। और रूपांतर की कामना छोड़िए। जो हैए उसी रूप में कुछ क्षण देखने का प्रयास कीजिए। मन हीए मन की निगरानी कर जब थक जाता है तो अशांति स्वतः कम होने लगती है। एक गहरी शांति का अनुभव ही सार्थक उपासना है।
दूसरा कदम
ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का गहरा संबंध है। मन इसी कारण से भोगों में लिप्त रहता है। ध्यान के लिए यही श्रेष्ठ है कि किसी बाहृा नामए रूप पर मन को स्थिर करने के स्थान पर आंतरिक ब्रहृानाद पर ही मन को स्थिर किया जाय। मन जब ठहरता हैए तब अन्तर्जगत से आती हुई ये ध्वनियां साधक को सुनाई देती हैं। संतो ने इनके कई रूप बतलाये हैंए ज्यो.ज्यों मन ठहरता जाता है यह नाद एक स्पष्ट अनवरत सायरन की आवाज सा शेष रह जाता है। साधक को चाहिए कि वह कहीं भी रहेए कुछ भी करता रहेए मन वहीं लगा रहना चाहिए। श्रवण और वाणी का गहरा संबंध है।
इसीलिए साधन यात्रा में जिस कर्मेन्द्रिय पर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिएए वह वाणी ही है।
तीसरा कदमरू.
साधन पथ पर सबसे अधिक फिसलने वाली चीज श्जीभश् है। स्वाद की परिधि में भी तथा वाचालता की परिधि में भी। सभी इन्द्रियों का दमन सरल है। पर इस रसना का नियंत्रण कठिन ही है। क्योंकि इसके दो कार्य हैए जब वह बाहर आती हैए तब शब्दों से खिलवाड़ करती हैए दोष.दर्शन में लग जाती है या पर. निंदा या चाटुकारिता मे। साथ ही स्वाद के लिए मन को इधर उधर दौड़ाए रखती है। जब यह एक साथ दो काम करती हैए तब उसका दुरूपयोग घातक ही है।
नाद श्रवण पर मन की एकाग्रता से वाक संयम सरलता से बढ़ जाता है। क्योंकि श्रवण और वाक् का गहरा संबंध है। जो गूंगा होता हैए वह बहरा भी होता है।
फिर भी साधक को चाहिएए वह इसके नियन्त्रण पर ध्यान दे। गपशप अस्थिर मन की परिचायक है। जब हम
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