सोमवार, 13 अप्रैल 2009

                उलझन

अणिमा ने ही फोन पर खबर दी थी -
‘रितू मां बनने वाली है...
‘अच्छा ....’
एक आश्चर्यमिश्रित सुःखद एहसाह में डूब गई थी वीणा । रितु उसके बचपन की सहेली, साथ खेली, पली-बढ़ी, विवाह भी दोनों के कुछ ही महिनों के अंतराल पर हुए थे पर वीणा के आज दो किशोरवय के बच्चे थे, वहीं रितु शादी के सोलह वर्ष बाद भी मां नहीं बन पाई थी ।
रितु के पति विनोद एक प्राइवेट फर्म में थे और रितु स्वयं भी नौकरी कर कर रही थी । यूं दोनों पति-पत्नी आधुनिक विचारधारा के थे और अपनी जिंदगी में खुश थे, पर फिर भी संतान का अभाव कभी-कभार रितु के चेहरे पर झलक ही जाता था ।
‘ठीक है, हम लोग तो चाइल्सलेस मैरिज में विश्वास रखते हैं ...’ उपरी मन से हंसकर भले ही वह कह देती हो पर वीणा उसके अंतरमन की पीड़ा को पढ़ लेती थी । एक बार तो उसने कहा भी था -
‘क्यों न तुम लोग एक बच्चा गोद ले लो... ’
‘ओह नो... फिर हमें जरूरत भी क्या है, और तुझे पता है कि विनोद को यह कभी भी अच्छा नहीं लगेगा । वे कहते हैं कि इतने भानजे, भतीजे हैं तो उन्हीं कोे अपना समझ लो’
‘रितु... अपना समझना अच्छी बात है पर किसी बच्चे को उसके बचपन से ही तुम लोग अपना समझकर पालोगे तो एक अभाव जो जिंदगी में है वह पूरा हो जाएगा और फिर भगवान का दिया सब कुछ है ही तुम्हारे पास क्या कमी है।’
वीणा कह भी देती पर रितु टाल जाती । शायद दोनों मियांबीबी की ऐसीकुछ अंडरटेकिंग रही होगी, वीणा सोचती ।
पर अब... शादी के सोलह वर्ष बाद रितु की गोद भरने जा रही है । वह सोच रही थी कि स्वयं ही जाकर रितु को बधाई दे । आज शनिवार की छुट्टी है, वह पूरा दिन रितु के पास बिता सकती है ।
सुबह पति के आॅफिस जाने के बाद ही उसने रितु को फोन कर दिया था ।
‘सुन... मैं आ रही हूं तेरे पास और दिन भर वहीं रहूंगी ।’
‘तो आ जा न... अच्छा लगेगा । कितने दिनों से मिले भी नहीं हैं और आज मैं अकेली भी हूं, लंच भी यहीं बना लेंगे...’
क्यों... विनोद कहां है, मैं तो सोच रही थी कि दोनों को एक साथ ही बधाई दूंगी... ’
‘विनोद तो टूर पर है, वैसे भी आजकल अधिकतर टूर पर ही रहते हैं, तू आ जा...रितु ने फोन रख दिया था, चलो कोई बात नहीं, विनोद न सही, रितु से ही खूब गप-शप होगी । सोचते हुए वीणा तैयार होकर ग्यारह बजे ही घर से चल दी थी ।
अच्छा हुआ भगवान ने इनकी भी सुन ली । देर ही सही पर रितु और विनोद कितने खुश होंगे । बच्चों की ललक किस माँं-बाप को नहीं होती और यहां तो इतने लंबे इंतजार के बाद बच्चा  आ रहा है । रितु से कह देगी कि  किसी को भी बुलाने की जरूरत नहीं, ‘वह है न... सब संभाल लेगी और अब तो स्वयं के बच्चे भी बड़े हो गए हैं, इसलिए काफी समय मिल जाता है ।
घर थोड़ी दूर था पर आज वीणा को समय का पता ही नहीं चला था, आॅटोरिक्शा जब रितु के छोटे से बंगलेनुमा मकान के आगे जाकर रूका तब वह चैकी थी । किक्शेवाले को पैसे देकर अंदर गई तो रितु बाहर लांच में दिख गई थी ।
‘देख तेरा ही इंतजार कर रही थी ।’
रितु के कहते ही वीणा ने उसे बांहों में ले लिया था ।
‘पहले तू मेरी ढेर सारी बधाई ले ले ...’
वह कहे जा रही थी कि रितु ने टोक दिया ।
‘अंदर तो चल, वहीं बैठकर बातें करेंगे...’ रितु के साथ वह ड्र्ाईंगरूम में आ गई थी । तब तक उसका नौकर नाश्ते की प्लेटें ले आया ।
‘तेरे इंतजार में    आज मैंने नाश्ता भी नहीं किया था, इतनी देर क्यों कर दी ?
‘ हां, देर तो हो गई थेड़ी पर सुन अब तुझे अपना ख्याल रखना है, मेरा मतलब है किसमय पर नाश्ता, समय पर  खाना... आखिर बच्चे का सवाल है...’
‘ तू भी बस...’
‘अच्छा बता... कब चैक करवाया था । अणिमा तो कह रही थी कि तीन महिने से उपर होगए हैं, पर तूने बताया नहीं । रेगूलर चैकअप तो करवा रही है न, देख जरा भी लापरवाही ठीक नहीं, वैसे भी इस उमर में...’
‘वही तो मैं भी सोच रही हूं कि इस उमर में यह क्या रोग लगा बैठी ।
‘क्या...’
वीणा उसके बोलने के ढंग से चैंक गई थी ।
‘रोग... तू भी निरी पागल है, प्रेगनेन्सी भी क्या रोग होता है ?
‘अच्छा चल... पहले तू पकौड़े तो खा... ठेडे हो रहे हैं ...बहादुर... खूब गरम पकौड़े लाना और पोदीने की चटनी भी । वहीं टेबिल पर रखी होगी ...’
’रितु... ध्यान ही नहीं रहा, ब्रजवासी के यहां से मैं थेड़ी मिठाई भी लेती आती, आखिर कुछ खाश दिन सेलीब्रेट कर रहे हैं...’
‘खास दिन... क्या खासा... वही आमदिन तो है... रोज का नाश्ता... रोज की दिन-चर्या..’
रितु का स्वर उसी प्रकार उदासीन था । वीणा देख रही थी कि जानबूझकर वह इस दिनचर्या से बचना चाह रही है पर क्यों... वह समझ नहीं पा रही थी ।
‘चल, अब बैडरूम में बैठेंगे... आज तो तेरी छुट्टी है तो खुब गप-शप करेंगे, नाश्ता तो इतना कर लिया है कि लंच की भी जरूरत नहीं हैं ।’
बाहर हल्की वर्षा शुरू हो गई थी, मौसम तो बाहर बरामदे में बैठकर बारिश का लुत्फ उठाने का था पर रितु के चेहरे की गंभीरता को देखकर वीणा का मन हो रहा था कि कहीं एकांत में जाकर उसका मन टटोले कि आखिर बात क्या है, इतनी बड़ी खुशखबरी और उसका उदासीन सा चेहरा... तब तक रितु ने अंदर जाकर नौकर को कुछ खाना बनाने का आदेश भ दे दिया था ।
‘इतने दिनों में तो तू आई है और क्या बिना खाना खाए जाएगी । नहीं मैं कुछ नहीं सुननेवाली तेरी...
‘खैर चल-अब बता कि आखिर बात क्या है ? इतना गंभीर तो मैंने तुझे कभी नहीं देखा.’
अंदर कमरे में आते ही वीणा रितु का हाथ पकड़कर पलंग पर बैठ गई थी, बाहर खिड़की अमलतास के पेड़ों की पत्तियां बारिश की बूंदों से भीग कर चमक रही थी ।उसे एकाएक लगा कि जैसे रितु की भी आंखें भर आईं हैं...
‘कुछ नहीं... गंभीर कहां हूं...’उसने कुछ संयत होतु हुये कहा था ।
‘अरे वाह... मैं क्या तुझे जानती नहीं, बचपन से साथ हूं तेरे हर छोटी-मोटी खुशी से तो उत्साह से भर उठती थी तू और आज... आज जब तेरी इतनी बड़ी खुशी में मैं शरीक होना चाहती हूं तो तू ढंग से बात ही नहीं कर रही है ।’
‘वीणा, मैं यह बच्चा नहीं चाहती हूं...’रितु का स्पष्ट स्वर सुनकर तो वीणा कांप ही गई थी ।
‘क्या... क्या कह रही है तू... होश में तो है,... इतने वर्षों बाद तो तेरी गोद भरने जा रही है और तू... पता है तेरी ससुराल और मायके दोनों जगह खुशियां मनाई जा रही है । तेरी ननद अणिमा तो जैसे खुशी से पागल ही हो रही थी, उसी ने तो मुझे फोन पर बताया था और तू...तू... कह रही है...’
‘हां, मैं कह रही हूं, पता है इस बच्चे के आने की खबर सुनकर मेरे और विनोद के बीच के सम्बन्ध कटु होते जा रहे हैं । यहां तक कि आजकल तो ये बताकर भी नहीं जाते कि टूर पर कहां जा रहे हैं, कब तक लौटेंगे... सच अगर नौकरी नहीं होती तो मैं पागल ही हो गई होती...’
‘क्यों... विनोद को क्या हुआ...’
वीणा हैरान थी ।
‘उन्हें शक है कि यह बच्चा उनका नहीं हे, पता है शादी के शुरू में दो तीन सालों में जब मैं प्रेगनेंट नहीं हुई तो हमने डाॅक्टर से चैकअप कराया था तो उन्होंने कहा था कि मुझमें तो कोई कमी नहीं है पर विनोद में...’
रितु फिर चुप हो गई थी, आंखें दूर किसी सुदूर दिशा को ताक रही थंी ।
‘अब बस जबसे विनोद को मेरी प्रेगनेंसी का पता चला है, एक अजीब से शक से घिर गए हैं । पहले तो कुरेद-कुरेद कर पूछते रहे कि किसका बच्चा है, कहां गई थी...’रितु अब फूट पड़ी थी ।”इतनेे लम्बे समय से हम लोग साथ रह रहे हैं, सोलह वर्षों का साथ कम नहीं होता है और अब तक... विनोद मुझे समझ ही नहीं पाए । नौकरी की खातिर बाहर भी जाती रही हूं पर... पर इसका मतलब यह तो नहीं है किजो जी में आया इल्जाम लगा दिया... अब तैं क्या करूं... कहां जाउं...?रितु की आंखें भर आई थी । वीणा ने धीरे से उसका सिर सहलाया ।
‘तू चिंतामत कर... धीरे-धीेरे सब ठीक हो जाएगा... न हो तो फिर किसी अच्छे डाॅक्टर से विनोद की जांच...’
‘नहीं वीणा...’
रितु ने फिर टोक दिया था । डाॅक्टर तो नाम लेते ही ये चिढ़ जाते हैं । जब आदमी के स्वयं के मन में इतने काॅम्पलेक्स हो तो वह कहां किसी सही बात के लिए राजी हो पाता है । मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है । डाॅक्टर को भी दिखाने गई थी, एबोर्शन के लिए, पर उसने भी मना कर दिया कि केस कम्पलीकेटेड है...’ ।
वीणा निशब्ध थी । लगा जैसे शब्दों से कुछ सांत्वना देने की शक्ति ही चुक गई हैउसकी।
एक गहरा मौन देर तक छाया रहा था । रितु की सूनी आंखें और वीणा का चुपचाप उसे तकते रहना ।
‘पता नहीं अब भविष्य में क्या है... क्या सौगात लेकर आएंगे आने वाले महिने... मैंने तो कुछ सोचना ही छोड़ दिया है... ।
क्या पता था कि जीवन में कभी ऐसा मौड़ भी आएगा कि अपना पति जिसे बेहद प्यार किया हो... जिसके साथ जीने, मरने की कसमें खाईं हो,... वही... वही मुझे बेवफा समझेगा... ’रितु की दबी सिसकियां फिर फूट पड़ीं थीं ।
‘देख रितु... तू इतना मत सोच... और किसी तरह समझा-बुझाकर विनोद को डाॅक्टर के पास ले जा, वही शायद उसी विश्वास दिला पायें कि वह अक्षम नहीं हैं और... और यह काम तू ही कर सकती है...’
‘जानती हूं... पर यह हो पाएगा या नहीं... कह नहीं सकती...’ ।
रितु की दृष्टि फिर से सूनेपन में उलझ गई थीं, और वीणा का मन इस मानवमन की जटिलताओं में । वह सोच रही थीं कि विज्ञान की इतनी उन्नति के बाद भी, असाध्य बीमारियों के साध्य होने के बाद भी... इस विचित्र मानव मन के बारे में क्या कहा जायेे जो स्वयं ही अपने संशयों के घेरे से बाहर नहीं आना चाहता हो ... ।
क्या होगा इस उलझन का हल... वह स्वयं भी नहीं समझ पा रही थीं ।









         













               




                                बेघर
   

आखिरकार भाभी ने मेरी बात मान ही ली थी । जब से मैं उनके पास आई थी, यही एक रट लगा रखी थी ।
    ‘भाभी । आप रूचि को मेरे साथ भेज दो न । अर्पिता के होस्टल में जाने के बाद मुझे तो अकेलापन बुरी तरह सताने लगा है और फिर इतने वर्षों से बेटी के साथ रहने की आदत सी पड़ गई थी । अब एक तो दिन था बैंक का काम सम्भालो, फिर घर की जिम्मेदारी भी, नया फ्लैट जो बन रहा है उसकी भी देखरेख करो, हर्ष को तो समय मिलता ही नहीं हैं । मैं तो बस बुरी तरह थक जाती हूं फिर रूचि    का भी मन है वहीं से एम.बी.ए. करने का, यहां तो उसे प्रवेश मिला नहीं है ’।
    ‘देखो मानसी, वैसे  रूचि को साथ ले जाने में कोई हर्ज नहीं है, पर याद रखना मैं अपनी बड़ी बहन शुचि की तरह सीधी, शांत नहीं है । फिर तुम दिन भर घर से बाहर रहोगी, रूचि की अभी चंचल प्रकृति बनी हुइ्र है, महाविद्यालय में लड़कों के साथ पढ़ना...
    ‘ओफ ओ भाभी.. तुम भी किस जमाने की बातें लेकर बैठ गई, अरे लड़कियां पढ़ेंगी, आग्र बढ़ेंगी तो सबके साथ मिलकर ही तो काम करेंगी । अब मैं नहीं इतने वर्षों से बैं में काम कर रही हूं, क्या वहां नहीं पुरूषकर्मी हैं ? ‘भाभी निरूत्तर हो गई थी । रूचि तो सुनपते ही चहक पड़ी थी । वह तो वैसे ही महिनेभर से मेरे पीछे पड़ी थी...
    ‘बुआ ! मुझे अपने साथ ले चलो न । वहां मुझे आसानी से एडमिशन मिल जाएगा । और फिर आपके यहां मेरी पढ़ाई भी ढंग से हो जाएगी...’ वैसे उसने खुलकर कुछ नहीं कहा था पर मुझे पता था कि भाभी के यहां आए दिन मेहमानों का जमघट लगा रहाि है । कुछ तो रिश्तेदारी और फिर भैया, भाभी, सबकी आवभगत भी बड़े खुले दिल से करते हैं, इसलिए जिसे भी दिल्ली जाना हो, सब उनके यहां ही ठहरना पसंद करते हैं, पर इसमें बच्चों की पढ़ाई में तो व्यवधान पड़ता ही हैं बड़ी बेटी शुचि का विवाह हो चुका है । रूचि का मन बी.एस.सी. के बाद एम.बी.ए. करने का है और बेटा तो अभी स्कूल में ही है ।
    खैर ! रूचि ने उसी दिन अपना सामान बांध लिया था और हम लोग दूसरे दिन चल दिए थे । मेरे पति हर्ष को भी अच्छा लगा था ।
    ‘चलो मनु, अब तुम्हें अकेलापन नहीं लगेगा । वैसे तो खैर बेटियां पराया धन ही होती हैं, अभी हमारी अर्पिता बाहर पढ़ रही है फिर ससुराल चली जाएगी शादी करके । रहना तो हम दोनों को अकेला ही है...
    ‘फिर भी... अभी तो रूचि के आने से रौनक हो गई है और फिर आजकल मेरे बैंक का भी काफी काम बढ़ गया है, कुछ और काम मैंने जानबूझकर और ले लिये हैं, पैसा जोड़ना है, मकान जो बन रहा है...’
    ‘देखो...’
    मैं फिर चिढ़ गई थी ।
    ‘अगर इच्छा हो न तो आदमी फिर    पुरूषार्थ भी न करे, इच्छा करेंगे, प्रयास करेंगे तभी तो काम होगा । फिर यह सरकारी मकान तो सात-आठ साल बाद छोड़ना ही होगा, तुम्हारे रिटायर्ड होने के बाद थोड़े ही हम इस मकान में रह पाएंगे । फिर कहां जाएंगे ? इसलिए यही समय है मकान बनवाने का । फिर तो बेटी की शादी का खर्चा आ जाएगा । इसलिए सारी प्लानिंग पहले से करनी पड़ती है ।    ‘अच्छा-अच्छा... वो तो सब ठीक है, अब चाय तो पिलाओ गरमा-गरम, फिर प्लानिंग करती रहना...’
    ‘मुझे पता था कि मेरी इस प्रकार की बातों से हर्ष हमेशा उकता जाते हैं और यही बात मुझे पसंद नहीं है, मैं कुछ और कहती कि तभी रूचि आ गई थी । ‘बुआ ! मैंने टेलीफोन पर सब पता कर लिया है, बस कल काॅलेज जाकर फार्म भरना है, कोई दिक्कत नहीं आएगी एडमिशन में । फूंफाजी आप चलेंगे न मेरे साथ काॅलेज, बुआ तो नौ बजे ही बैंक चलजी जाती है ।’
    ‘ हां-हां क्यों नहीं । चलो अब इसी खुशी में चाय पिलाओ ।’ हर्ष ने उसकी पीठ ठोकते हुए कहा था ।
    ‘अभी लाती हूं...’
    रूचि दूसरे ही क्षण उछलती हुई किचन में दौड़ गई थी ।
    ‘इतनी बड़ी हो गई पर बच्ची की तरह कूदती रहती है ।’ मुझे भी हंसी आ गई थी ।
    चाय के साथ बड़े करीने से बिस्किट, नमकीन, मठरी सबकी प्लेटें सजाकर लाई थी । प्लेट में साथ ही नेपकीन्स भी रखे थे, गर्म चाय केटली में । उसकी सुघड़ता से मैं और हर्ष दोनों ही प्रभावित हुए थे ।
    ‘वाह ! मजा आ गया...’
    चाय का पहला घूंट लेते ही हर्ष ने कहा था ।
    ‘चलो रूचि ! तुम पहले इम्तहान में तो पास हो गई । मेरी बात सुनते ही वह खिलख्लिाकर हंस पड़ी थी ।
    दूसरे दिन हर्ष के साथ स्कूटर पर जाकर वह अपना प्रवेशफार्म भर आई थी । मैं सोच रही थी कि शुरू में यहां रूचि को अकेलापन लगेगा । काॅलेज से आकर दिन भर घर में अकेली रहेगी । मैं और हर्ष दोनों ही देर से घर लौट पाते हैं, पर रूचि ने अपनी जिंदादिली और दोस्ताना लहजे से आस-पास के गई घरों में दोस्ती कर ली थी ।
    ‘बुआ ! आप तो जानती ही नहीं आपके साथ वाली कल्पना आंटी कितनी अच्छी है, आज मुझे बुलाकर डोसे खिलाए । मैं सीख भी आई हूं । अब किसी दिन आप सबको खिलाउंगी...’
    या फिर,
    ‘बुआ ! आज तो मजा आ गया, पीछे वाली लेन में मुझे अपने दो दोस्त मिल गए, रंजना और रीतेश । दोनों ही मेरे काॅलेज में हैं । कल से मैं भी उनके साथ पास के क्लब में बैडमिंटन खेलने जाया करूंगी ।’
    हर्ष को थेड़ा अजीब जरूर लगा था । हमारी अर्पिता तो बिल्कुल ही अलग स्वभाव की थी । पढ़ाई के अलावा किसी और बात से जैसे उसे मतलब ही नहीं और हमें अपनी व्यस्तताओं की बीच कभी आस पड़ोस में किसी से मेलजोल बढ़ाने का अवसर ही नहीं मिला । पर रूचि...
    ‘देखो पराई लड़की है और तुम इसकी जिम्मेदारी लेकर आई हो । ठीक से पता करो कि किससे दोस्ती कर रही है...’
    एक बार जब हर्ष ने कहा तो मुझे उनकी इस संकीर्ण मानसिकता पर रोष आया था ।
    ‘तुम भी पता नहीं किस सदी की बातें करने लगते हो कभी-कभी । अरे इतनी बड़ी लड़की है, अपना भला-बुरा तो समझती ही होगी । अब हर समयतो हम उसकी चैकसी कर    नहीं सकते हैं ।
    हर्ष चुप हो गए थे ।
    आजकल हर्ष के आॅफिस में भी काम बढ़ गया था । इधर फ्लैट का काम भी थेड़ा ही बचा था तो मैं बैंक से घर न आकर सीधे वहीं चली जाती थी । ठेकेदार को निर्देश देना, काम देखना फिर घर आते-आते काफी देर हो जाती थी । मैं सोच रही थी कि मकान पूरा होते ही गृहप्रवेश कर लेंगे बेटी भी छुट्टियों में आने वाली थी फिर भैया, भाभी भी इस मौगे पर आ जाएंगे ।
    पर मकान का काम ही ऐसा था कि खत्म होने ही नहीं जा रहा था । छोटे-मोटे काम निकलते ही जा रहे थे और फिर उसकी अनुपात में खर्च भी बढ़ता जा रहा था । बस रूचि ने घर का काम संभाल रखा था, इसलिए मुझे सुविधा हो गई थी । सुबह आठ बजे ही मैं घर से निकल जाती थी । एक बार सब देख कर, आवश्यक निर्देश कारीगर को देकर फिर बैंक चली जाती थी । एक बार सब देखकर, आवश्यक निर्देश कारीगर को देकर फिर बैंक चली जाती थी, लौटते समय भी मकान देखते हुए आती थी  । हर्ष के लिए चाय, नाश्ता बनाना, लंच तैयार करना सब आजकल रूचि के ही जिम्मे था । वैसे नौकरान     ी थी मदद के लिए पर फिर भी काम तो बढ़ ही गया था । घर आते ही रूचि मेरे लिए चाय नाश्ता ले अ



घर भी साफ-सुथरा व्यवस्थित दिखता तो मुझे और खुशी होती ।
    ‘बेटे ! तुम्हारा काम तो अब और बढ़ गया है, पर ध्यान रखनाकि तुम्हारी पढ़ाई डिस्टर्ब न हो । ’
    ‘कैसी बातें करती हो बुआ । काॅलेज से आकर खूब समय मिल जाता है पढ़ाई करने के लिए, फिर लीलाबाई तो दिन भर रहती ही है, उससे ही काम कराती रहती हूं ।
    रूचि उत्साह से बताती ।
    बस मकान के बारे में जब मै विस्तार से बातें करने लगती तो हर्ष की उदासीनता मुझे खटकती । सहयोग तो उनका न के बराबर ही था । कभी कुछ कहती भी तो उनका एक ही उत्तर होता-
    ‘देखो मनु ! मैं तो आॅफिस से आकर ही इतना थक जाता हूं कि और मेहनत मुझसे फिर होती नहीं है और तुकम ये मकान का झंझट और ले बैठी । कितनी बार कहा था कि अभी जल्दी नहीं है मकान की पर नहीं, तुम्हें जो शौक है...’
    ‘ठीक है, मुझे ही मकान का शौक सही, पर क्या आॅफिस मैं नहीं जाती, फिर घर के काम अलग हैं, तो क्या मैं कोई मशीन हूं और मकान क्या मेरे अकेले का बन रहा है ।’
    मैं भी उलझ पड़ती, पर निष्कर्ष कुछ नहीं निकल पा रहा था । इस बार एक लंबे समय के बाद मुझे इतवार की छुट्टी मिली थी । मैं मन ही मन सोच रही थी कि एक लंबे अर्सेे से मैं घर में दिन भर रही ही नहीं हूं । इस बार जरूर छुट्टी के दिन दिन भर सब के साथ गप-शप गरूंगी, खूब आराम करूंगी, पर रूचि ने तो सुबह-सुबह ही घोषणा कर दी थी ।
    ‘बुआ ! आज हम सब लोग मूवी देखने चलेंगे-मैं एडवांस टिकिट के लिए बोल दूं ।’
    ‘मूवी... ना बाबा... आज तो इतने दिनों बाद घर पर रहना मिल रहा है औार आज भी कही चल दें...’
    ‘ओफ ओ... बुआ... आप भी हद करती हो । इतने दिन हो गए मैंने तो इस शहर में कुछ भी देखा नहीं ।’
    ‘हो, यह भी ठीक है...’
    मुझे स्वयं ही लगा कि रूचि तो अभ्ी बच्ची है और फिर आते ही इसे घर के कामों में और फंसा दिया मैंने ।
    ‘ठीक है फिर तुम हो आओ...’
    ‘मैं अकेली !’
    तुम बताया करती हो, रोहित, अंकित, सुहेल...’
    ‘ओफ ओ... फूंफाजी...’ रूचि चिढ़ गई थी ।
    ‘देखो, ऐसा करो इसे कहीं घुमा लाओ, मैं तो आज घरा पर ही रहकर आराम करूंगी ।
    ‘अच्दा... तो मैं अब इसके साथ पिक्चर देखने जाउं...
    ‘अरे बाबा... पिक्चर न सही, और कहीं घूम आना, अर्पिता के साथ भी तो जाते थे न...’
    ‘ठीक है...’
    हर्ष और रूचि के जाने के बाद मैंने घर थोड़ा ठीक-ठाक किया ािफर देर तक नहाती रही । ख्त्राना तो नौकरानी आज सुबह ही बनाकर रख गई थी । सोचा बाहर आकर लाॅन को संभालू, पर बाहर ही रंजना दिख गई थी ।
    ‘आंटी ! रूचि आजकल काॅलेज नहीं आ रही है...’
मुझे देखते हुए ही उसने पूछा था ।
    ‘काॅलेज नहीं आ रही है ? सुनते ही मेरा माथा ठनका ।
    ‘काॅलेज तो रोज जाती है ।’
    ‘नहीं आंटी ! परसों तो टेस्ट था, वह भी नहीं दिया उसने ।
    ‘अच्छा...’
    मैं कुछ समझ नहींे पाई थी । अंदर आकर फिर मुझे स्वयं पर ही झुंझलाहट आई । मैं भी कैसी पागल हूं लड़की को यहां पढ़ाने लाई थी और ॅिफर उसे घर के कामों में लगा दिया । भाभी ने तो पहले ही कहा था कि पढ़ाई-लिखाई में कम ही मन लगता है इसका । मुझे तो स्वयं ही सोचना था । अब इससे घर का कोई काम नहीं करवाना है और कल ही इसके काॅलेज जाकर इसकी पढ़ाई, लिखाई के बारे में पता करूंगी ।’
    ‘मेमसाहब... कपड़े...’
    धोबी शायद देर से आवाज दे रहा था, मेरा ध्यान टूटा... कपड़े इकट्ठे करके देने लगी तो ध्यान आया कि जेबें देख लूं, हर्ष का तो कई बार पर्स ही जेब मेंरह जाता है । कमीज उठार्द तो रूचि की जिन्स हाथ में आ गई । कुछ कागज की खरखराहट सह हुई । अरे ये तो गोलियां हैं, दवाई की... पर रूचि को क्या हुआ...
रेपर देखते ही मेरे हाथ से पैकेट छूट गया था...
गर्भनिरोधक गोलियां... रूचि की जेब में...
मेरा दिमाग ही चकरा गया था । जैसे-तैसे कपड़े दिए फिर आकर पलंग पर पसर गई थी ।
हे भगवान... यह क्या हुआ... इतने नीचे गिर गई यह लड़की ।
मुझे क्या पता था, काॅलेज के अपने सहपाठियों के किस्से तो बड़े चाव से सुनाती रहती थी और मैं और हर्ष हंस-हंसकर उसकी बातों का मजा लेते थे... पर यह सब... मुझे पहले ही चैक करना था... कहीं कुछ उंच-नीच हो गई तो भैया, भाभी को क्या मुंह दिखाउंगी...
नहीं, कल ही इसके काॅलेज जाउंगी, पहले इसकी पढ़ाई के बारे में मालूम करूंगी और फिर पता करूंगी कि इसकी दोस्ती किन लोगों से हैं । हर्ष से भी बात करनी होगी कि लड़की को थेड़े अनुशासन में रखना है, यह अर्पिता की तरह सीधी-सादी नहीं है ।
मेरी तो पूरी शांति ही भंग कर दी इस लड़की ने, कहां तो सोचा था कि घर पर खूब आराम मिलेगा पर अब,... घड़ी की सूईयां थीं तो खिसकने का नाम नहीं ले रही हैं । समय जैसे काटे नहीं कट रहा । अखबार उठाया तो एक लाइन पढ़ी नहीं गई । सिर तेजी से दर्द कर रहा था । एक कप चाय बनाकर पी, खाना तो जैसा रखा था, वैसा ही पड़ा रहा । हर्ष और रूचि भी देर तक लौटे थे । दोनों सुनाते रहे कि कहां-कहां घूमे, क्या-क्या खाया ।
    ‘ठीक है, अब सो जाओ, रात काफी हो गई है...’
मैंने सोचा कि रूचि को बिना बताए ही कल इसके काॅलेज जाउंगी और हष्र्। को आॅफिस से ही साथ ले लूंगी, तभी बात होगी ।
सुबह रोज की तरह आठ बजे ही निकलना था, पर आज आॅफिस में जरा भी मन नहीं लगा, लंच के बाद हर्ष को आॅफिस से लेकर रूचि के काॅलेज जाउंगी, यही विचार था पर बाद में ध्यान आया कि पर्स तो घर पर ही रह गया है, हर्ष को फ्लैट दिखाना था और ठेकेदार का कुछ पैमेन्ट भी था । ठीक है पहले घर ही चलती हूं ।
पर यह क्या... कोई आहट नहीं, रूचि क्या काॅलेज से आई नहीं पर मेरा बैडरूम अंदर से बंद कैसे है ? और फिर खिड़की की और से जो कुछ दिखा था, उसे देख कर तो मैं गश खाते-खाते बची थी...
हर्ष और रूचि पलंग पर इस मुद्रा में...
तो... तो क्या...
एक बार तो मन हुआ कि इसी समय जोर से चीख पडूं । चिल्लाउं... पर पता नहीं वह कौनसी श्।क्ति थी जिसने मुझे रोक दिया था ।
नहीं, पहले मुझे इस लड़की को ही संभालना होगा । इसे वापिस इसके घर भेजना होगा, मैं इसे अब और यहां नहीं रख पाउंगी ।
पता नहीं कैसे मैं लड़खड़ाते कदमों से पास के टेलीफोन बूथ में पहुंची थी । फोन लगाया, भाभी ने ही उठाया था ।
    ‘भाभी...’
बिना किसी भूमिका के मैंने कहा था, शब्द रह-रहकर कांप रहे थे । ‘
    ‘रूचि का पढ़ाई में मन नहीं लग रहा है, और तो और बुरी सोहबत में भी पड़ गई है...
मैं समझ नहीं पा रही थी कि असली बात कैसे कहूं ।
    ‘देखो मनू, मैंने तो पहले ही कहा था कि लड़की का ध्यान पढ़ाई में नहीं है, तुम्हारी ही जिद थी, पर ऐसा करो इसे वापिस भेज दो, तुम वैसे ही इतनी व्यस्त रहती हो, कहां ध्यान दे पाओगी और इसका मन होगा तो यहीं कोई कोर्स कर लेगी.भाभी कुछ और भी कहना चाह रही थी पर मैंने ही टोक कर कह दिया था ।
‘ठीक है भाभी, मैं फिरबाद में बात करूंगी...’
देर तक पास के रेस्तरां में वैसे ही बैठी रही । एक ग्लास ठंडा मंगवा लिया था, घर भी जाने का मन नहीं हो रहा था ।
क्या करूं... कैसे करूं... हर्ष । हर्ष ये सब करेंगे मेरे विश्वास से परे था । पर सबकुछ मेरी इन्हीं आंखों ने देखा था, ठीक है पिछले कई दिनों से मैं घर पर ध्यान नहीं दे पाई, अपनी नौकरी और नए फ्लैट के चक्क में उलझी रही, रात को भी इतना थक जाती थी कि नींद के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं था, पर इसका यह दुष्परिणाम होगा, यह तो स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी ।
कुछ भी हो रूचि को तो वापिस भेजना होगा । घंटे भर बाद लड़खड़ाते कदमों सेस घर पहुंची तो हर्ष जा चुके थ्ाि, रूचि टी.वी. देख रही थी, मुझे देखते ही चैंगी । ‘बुआ... आप इस समय... और क्या तबियत खराब है ? पानी लाउं... । मन तो हुआ कि खींचकर एक थप्पड़ मारूं पर किसी तरह अपने को शांत किया ।
    ‘रूचि ! आॅफिस में भैया का फोन आया था, भाभी सीढ़ियों से गिर गई है, काफी चोट है, तुम्हें इसी समय बुलाया है, मैं भी दो-चार दिन बाद जाउंगी...; । ‘क्या... क्या हुआ मम्मी को...’ रूचि घबरा गई थी ।
    ‘वह सब तो तुम्हें वहां जाकर ही पता चलेगा, पर अभी चलो, डीलक्स बस मिल जाएगी, मैं तुम्हें छोडद्य देती हूं, थेड़ा-बहुत सामान ले लो...’ आधे घंटे के अंदर ही मैंने रूचि की तैयारी करवा दी थी और पास के स्टैंडसे ही बस में बिठा दिया था । भाभी को जरूर फिर से फोन किया था... । रूचि आ रही है भाभी  हो सके तो मुझे माफ कर देना, आपकी बीमारी का झूंठा बहाना बनाया था मैंने...
    ‘कैसी बातें कर रही है, ठीक है अब मैं सब संभाल लूंगी, तू ंिचंता मत कर... और हां नए फ्लैट का क्या हुआ ? कब है ग्रहप्रवेश ? भाभी पूछ रही थी और मैं चुप थी । क्या कहती उनसे कौनसा घर... कैसा गृहप्रवेश... यहां तो जैसे मेरा बरसों का बसाया नीड़ ही मेरे सामने उजड़ गया था । तिनके-तिनके इधर-उधर उड़ रहे थे और मैं बेबस निरूपाय सी अपने ही घर से बेघर होती जा रही थी । ..’












तलाश

‘रेखा सी सरल जिन्दगी
नहीं चाहता अब कोई ‘भुवन’ ... न स्वयं कवि लेखक भी,
जब इधर सड़कों पर लहू बहता था
न जाने किसका, उसका तो नहीं जो बस
स्त्री देह में ढूंढता था
सुख व सत्य जीवन का..
क्या सचमुच ‘बु(’ तुम्हारी करुणा का उद्रेग इतना ही था
तुम्हारी शरण में ही था सब कुछ
न करने, न कर पाने की व्यथा का हर हल।

जो कुछ करने को तत्पर है
दिन-रात का भेद छोड़कर जाती है नए रास्तों पर पहली बार
उनींदी आंँख में देखते सपनों के बीच माँं-बाप को
बेरोजगार भाई को
या कम कमाऊ पति की आंख में जागे सुविधा स्पर्श को
जाती है वह,
सौंपती है सपने
इस तरह के सौदे,... कामकाजी बातें
रहना है ... उसे
मिश्री सी चाशनी सी जीभ पर लिपटे शब्दों की जमाबंदियां
रोज-रोज
बनती-बिगड़ती, खसरों की टीप
न कर पाती, ... जो
फैशन में व्यस्त, ... या कहीं कुछ और...
उसकी चर्चा में, व्यस्त सब अराजक, आज,
‘उसे’, रात भर जगना है
जगते-जगते बस काम करते
‘‘राजा राममोहन राय’’ की दुनिया को बहुत पीछे करते
अपने पांवों से देश दुनिया नापती
सचमुच ‘बड़ी’ है वह।




            












                नए आयाम

फोन कां का ही था...
    ‘ प्रिया, बेटी तुझसे कई दिनों से बात नहीं हो पाई, कल भी फोन लगाना चाहा तो लगा नहीं और आज भी मुश्किल से ही लाईन मिली है, बता तू कैसी है ? सब ठीक चल रहा है न...
    ‘ हां मां ! सब ठीक है... ’
    प्रिया ने अपना स्वर संयत ही रखा था ।
    ‘तो क्या कर रही है अभी ?
    ‘ अभी ! अभी तो मैं निशा भाभी की मुन्नी को सम्भाल रही हूं । कमरे में ही हूं... ’
    ‘ हां तो जेठानी जी मतलब निशा कहां है ?’
    ‘वो तो किचन मेें है, खाना बना रही है ।’
    ‘अच्छा... तुने रसोई संभाली नहीं है अभी...
    ‘नहीं मां... संभाल ली है, सुबह मैंने खाना बनाया था और अभी भाभी बना रही है, मम्मी-पापा घूमने गए हैं...’
    ‘चलो... बस तू खुश है न यही सुनना चाह रही थी मैं... सास, ससुर के लिए तो शाम का घूमना बहुत जरूरी हैे बेटे दोनों डायबिटिज़ के पुराने मरीज हैं और फिर इस उमर में थेड़ा आराम भी चाहिए उन्हें...’
    ‘ओ... मां...’
    सब कुछ कहते हुए भी प्रिया के मन में एक फांस सी चुभ रही थी । क्या कहती मां से फोन पर कि वह खास खुश नहीं है, अरे यह भी क्या जिंदगी है एक नवविवाहिता की, जैसे घर में ही कैद होकर रह गई हो । मनीष तो सुबह के गए हुए देर रात तक घर आ पाते हैं, दूर कहीं घूमने जाना भी चाहो तो कहां जाओ... बस शादी के बाद पन्द्रह-बीस दिन घूम लिए तो घूम लिए ।
    आर बार-बार प्रिया को अपनी खास सहेली आरती का ध्यानर आ रहा था । ठीक ही कहा था उसने...
    ‘देख प्रिया ! तू शादी के लिए हां कहने की जल्दी मत कर... ठीक से सोच समझ ले... शादी, ब्याह कोई गुड्डे-गुड्डियों का खेल नहीं है कि बस मन चाहा तब खेल लिया, जीवन भर का बंधन होता है यह और तू  अभी अपने होने वाले पति के बारे में जानती ही कितना है...’
    आरती अपनी रो में कहती जा रही थी ।
    ‘पर आरती ! यहां तो मां, पिताजी ने सब तय किया है, उनका कहना है कि जाना-पहचाना परिवार है, भले लोग हैं, लड़का इंजीनियर है फिर और क्या चाहिए और सबसे बड़ी बात तो उनकी निगाह में यह है कि मनीष ने मुझे पसंद कर लिया है ।
    ‘हूं... मनीष ने पसंद कर लिया, जैसे तेरी पसंद तो कोई माने ही नहीं रख्ती है ।
    आरती और चिढ़ गई थी ।
    क्या कहती प्रिया, यह सच था कि मनीष उसे भी अच्छा लगा था पर कुछ देर के लिए ही तो मिले थे दोनों । इतनी कम देर में अधिक तो एक-दूसरे के बारे में जानना संभव ही नहीं था, फिर ससुराल के बारे में वह क्या जानती...
    हां मां, पिताजी जरूर जानते थे और उनकी नज़र में वह एक भला और संस्कारित परिवार था । मां तो अक्सर कह भी देतीं ।
    ‘अरे ! आजकल अनजान और अपरिचित घर में लड़की देना भी एक जोखिमभरा काम है इसलिए जहां तक हो सके अपने देखे-भाले परिवार में ही बेटी ब्याहनी चाहिए । यह तो ईश्वर की कृपा ही समझो कि हमें एक ऐसा परिवार मिल गया । औेर फिर महिने भर के अंदर ही चटमंगनी पटब्याह वाली कहावत चरितार्थ हो गई थी ।
        मां, पिताजी को अब चिंता थी अब अपनी दूसरी बेटी के ब्याह की और दोनों चाह रहे थे कि रिटायर्ड होने से पहले ही वे अपने इस दायित्व से भी मुक्त हो जाएं ।अब टेलीफोन पर वह मां से क्या कहती कि क्यों ऐसे घर में ब्याह दिया, यह तो पूरा परम्परावादी परिवचार है । अब यहां तो उसकी जिंदगी चैके, चूल्हे में ही सिमट कर रह जाएगी ं कितनी इच्छा थी कि बड़ी होकर डाॅक्टर या इंजीनियर बनेगी यही सोचकर बारहवीं में गणित और प्राणीशास्त्र दोनों ही विषय लिए थे पर जब प्रवेश किसी भी प्रवेश परीक्षा में नहीं हो पाया तो झकमारकर बी.एस.सी. की थी फिर भी इच्छा यही थी कि आगे कोई प्रोफेशनल लाईन ही मिले इसलिए कम्प्यूटर कोर्स ज्वाईन कर लिया पर साल भर ही कर पाई कि शादी हो गई ।
    उसकी सहेली आरती तो अगले साल डाॅक्टर हो जाएगी । प्रेरणा इंजीनियर है, सुधा बैंक में काम कर रही है और वह... वह क्या है... क्या है उसकी शख्शियत... उसमें और एक घरेलू लड़की में अब फर्क क्या रह गया है...
    कहने को तो इस घर में इतने लोग हैं... जेठजी कहीं आॅफिस में हैं, छोटा देवर डाॅक्टरी की पढ़ाई कर रहा है और ननद अभी छोटी है, पर सब व्यस्त हैं । सबके अपने काम हैं । जेठानी जी का तो पूरा समय बच्ची की देखभाल में ही चला जाता है, कहने को तो वे भी एम.एस.सी. करके आई हैं पर खुश हैं अपने वातावरण्। में । जेठजी भी शाम को पांच बजे तक घर आ जाते हैं, मनीष की तरह थोड़े ही रात के आठ-नौ बजते हैं उन्हें आने में ।
    ‘प्रिया ! मुन्नी को लेकर बाहर आ जाओ, इस समय तो कमरे में दम घुटता है, कितना भी कुलर, पंखा च
चला लो... ’
    मम्मी, पापा शायद धूमकर लोट आए थे और बाहर बरामदे में ही बैठ गए थे ।
    बच्ची को लेकर वह बाहर आ गई । निशा का काम भी सिमट चुका था ।
    ‘खाना लगा दूं ?’
    वह पूछ रही थी ।
    ‘मनीष तो आ जाए । ’
    पापा ने जूते उतारते हुए कहा था ।
    ‘पर आप लोग तो खा लीजिए । आपको डाॅक्टर ने जल्दी ही खाना खा लेने के लिए कह रखा है, हम लोग इंतजार कर लेंगे ।’
    ‘नहीं भाभी, आप और भाईसाहब भी साथ ही खा लीजिए, मैं लगा देती हूं, फिर जब ये आएंगे तब हम लोग ख लेंगे ।’
    ‘ठीक है, ऐसा ही सही...’
    निशा ने मुस्करा कर मुन्नी को उसकी गोद से ले लिया था । सबको खाना खिलाते नौ बज गए थे, फिर मनीष के आने पर उसके लिए चाय बनाई ।
    चाय पिकर वह नहाने चला गया था, प्रिया खाना परोसकर कमरे में ले आई थी ।
    ‘तुम क्यों नहीं सबके साथ ही खाना खा लेतीं, मुझे तो रोज ही देर हो जाया करेगे ।’
    दो थाली देखते ही मनीष ने कहा था ।
    ‘तो क्या हुआ... मैं इंतजार कर लूंगी ।
    रोज की ही तरह प्रिया ने कहा था पर आज स्वर में पहले वाला उत्साह नहीं था ।
    ‘क्या बात है ? नाराज हो, किसी ने कुछ कहा ? मम्मी या भाभी ने...
    ‘नहीं किसी ने कुछ नहीं कहा...’
    ‘फिर क्या हुआ...’
    ‘कहा न कुछ नहीं, चलो मैं खाना लगा देती हूं...’
    ‘ठहरो...
    मनीष ने प्रिया का हाथ थाम लिया था ।
    ‘बताओ न, क्या बात है ? नहीं तो मैं खानानहीं खाउंगा...’
    ‘नहीं, कोई बात नहीं... ऐसे ही अकेले बैठे-बैठे बौर हो गई थी ।’
    ‘पर क्यों... इतने लोग हैं घर में, अकेली कहां हो ? खुब गपशप करो, भाभी को लेकर शाम को घूम आया करो या फिर मीनू के साथ पिक्चर देख आना, कल ही कह दूंगा उससे, अरे हां याद आया कल तो शुभम के यहां पार्टी है हमें बुलाया है ।’
    ‘पर कल तो आप आॅफिस...
        ‘अरे ! तुम तो सब भूल जाती हो, कहा था न कि कल मेरा आॅफ डे है ।’
    ‘हां, अच्छा...’
    ‘चलो तुम्हें हंसी तो आई । अब खाना खाते हैं ।’
    दूसरे दिन प्रिया को भी अच्छा लगा था । मनीष दिन भर साथ रहा था । तो दिन कब निकल गया पता ही नहीं चला था । फिर शाम को पिक्चर देखकर खाना खाने निरोज पहुंचे थे । शुभम और उसकी पत्नी मीनाक्षी उन लोगों का वहीं इंतजार कर रहे थे ।
    मनीष ने परिचय करवाया,
    ‘शुभम से तो तुम शादी के रिसेप्सन में मिली ही थी । और मीनाक्षी तब यहां नहीं थी । ये दोनों ही इंजीनियर हैं मेरे ही आॅफिस में...’ तो-तो क्या मीनाक्षी भी इंजीनियर है, प्रिया चैंकी थी । तब तक मीनाक्षी ने प्रिया के लिए पासवाली कुर्सी खींच दी थी ।
    ‘कैसी हो ? कैसा लग रहा है सब लोगों के बीच रहना । मुझे तो ये ेसब अनुभव हुए ही नहीं । शादी होते ही शुभम के साथ यहां आ गइ, नौकरी जो थी...
    ‘तो क्या आप लोग...’
    ‘हां, यहा फ्लैट में तो हम दोनों ही हैं और सुबह के गए रात तक लौटते हैं, बस भाग-दौड़ की जिंदगी
है, पर कुछ भी कहो मुझे तो अच्छी लगती है ऐसी व्यस्त जिंदगी...’
    प्रिया अब ध्यान से मीनाक्षी को देख रही थी, कटे बाज नीली जिंस पर ढ़ीली-ढ़ाली टीशर्ट । शक्ल-सूरत
साधारण होते हुए भी चख्ेहरे पर अपूर्व आत्मविश्वास ।
ु    उसके मन में कहीं हल्की सी टीस उठी । उसने भी तो कभी ऐसी ही जिंदगी की तमन्ना की थी ।
    पर... पर विधाता को शायद यह सब मंजूर नहीं था । पूरे खाने के बीच मनीष, शुभम और मीनाक्षी बातें करते रहे थे । सब एक ही आॅफिस में जो थें । प्रिया बस बीच में चुपचाप हां-हूं कर देती थी । क्या कहती... जानती ही कितना थी इस क्षेत्र के बारे में... लौटते में मन और अनमना हो गया था ।
    ‘क्या बात है ? इतनी चुपचाप क्यों हो ? आज तो खूब घूमें हैं हम लोग ।’
    ‘हां, वो तो है...’
    ‘तो फिर फिर क्या हुआ ? ’
    मनीष घर लोटकर चिंतित सा हो गया था ।
    ‘कुछ नहीं, सोच रही थी कि मीनाक्षी कितनी भग्यवान है, स्वयं की अपनी शख्शियत है उसकी और एक मैं हूं क्या जिंदगी है मेरी... मेरी और मम्मी की जिंदगी में क्या फर्क है...’
    प्रिया अब अपने आपको रोक नहीं पाई थी ।
    ‘हां, मुझे भी लग रहा था कि पिछले कुछ दिनों से तुम अपसेट हो । शायद दूसरी कामकाजी औरतों को देखकर तुम्हें ऐसा लगता होगा पर एक बार बताओ... घर पर रहना या घरेलू काम करना या परिवार संभालना  कोई हेय कार्य है क्या ? क्या सिर्फ बाहर नौकरी करने से ही अपनी शख्शियत बनती है...’
    प्रिया अब चैंक गई थी, उधर मनीष कहता जा रहा था ।
    ‘मैं नहीं कहता कि नौकरी मत करो, जरूरत हो और सुविधा हो तो अवश्य करो पर हर व्यक्ति की, उसके परिवार की आवश्यकताएं अलग होती हैं । इसीलिए किसी से किसी की तुलना नहीं करनी चाहिए । रही बात शख्शियत की तो कौन मना करता है, तुम्हारी इच्छा हो तो आगे पढ़ो, कम्प्यूटर का कोर्स पूरा करना हो तो उसे ज्वाईन कर लो, आगे घर पर ही अपनी क्लाॅस खोल सकती हो । पर यह सब तुम्हारी रूचि और तुम्हारी क्षमता पर निर्भर करेगा ।
    पर हर समय जो नहीं है उसी के बारे में सोचते रहना, खुद भी दुःखी रहना और दूसरों को भी दुःखी कर देना क्या बुद्धिमानी है ? ’
मनीष ने प्रिया का सिर उठाते हुए पूछा था ।
    ‘शायद नहीं...’
    प्रिया भी अब शायद ऐसा ही कुछ सोच रही थी... शायद अब जिंदगी में नए आयामों के बारे में ।
                          ........... 
    ‘

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