दस्तूर .
गुरुवार, 23 अप्रैल 2009
दस्तूर
आधुनिक कहानी का शिल्प क्या है... चर्चा का विषय यही था। शिल्प और शैली क्या भाषा के आधार पर बदलाव लाते हैं या कथ्य ही अपनी बुनावट में शिल्प रच लेता है, चर्चा आगे बढ़ी ही थी कि तभी घंटी बजी, उठकर देखना बतरस में व्याधात ही होता है, पर इसकी नौबत ही नहीं आई।
”ओफ् हो... यहां तो परिचर्चा चल रही है।“
जीने से ही तेज हंसी और उसके साथ ही तेज कदम भी सुनाई दिए।
”सुमंत है...“ पत्नी बोली।
”वही होगा, आंधी की तरह उसका ही आना होता है।“ और बात पूरी होने के पहले ही सुमंत अंदर आ चुका था।
”अरे कहां थे, कई दिनों से नजर ही नहीं आए?“
”ओफ् ओ... जरा बैठने दो।’’
उसने अपने सिल्क के कुर्ते की जेब से रुमाल निकाला और माथे पर आए पसीने को पोंछा।
”भाभी ! निमंत्रण देने आया हूँ, वो जो आप कह रहीं थंीं, नया ओपन रेस्त्रां खुला है, वहीं का है, शाम को चलें।“
”क्यों क्या चक्कर है।“
”भाई साहब, आप भी जब देखो तब चक्कर। ठेका जो मैं आपसे कह रहा था, मुझे ही मिल गया है, पूरा करोड़ से ऊपर ह,ै’’ और वह ठठाकर हंस पड़ा।
”हूँ“ मैंने उसकी तरफ ध्यान से देखा। गले में सोने की गुथी हुई चेन कुरते से बाहर झांक रही थी। दोनों हाथ की अंगुलियों में नग भरी अंगूठियां, आंखें शरारत और आत्मसंतुष्टि में नाच रही थीं।
‘‘तुम्हारे भाई साहब कहानी के शिल्प और शैली का भेद समझा रहे हैं,’’ पत्नी उठते हुए बोली।
”भाभी आप कहां चलीं?ं” उसने टोका था।
”चाय ले आती हूँ, तब तक तुम लोग चर्चा परिचर्चा करो।“
”तो हम लोग चल,ें’’ उठते हुए माधवराव बोले। वे मराठी के लेक्चरार हैं, उनके साथ उनके मित्र पड़ौसी भी आए थे, तभी चर्चा चल पड़ी थी ”नहीं नहीं आप क्यों... मैं यहां रस भंग करने नहीं आया,’’वह बोेला।
”आप बैठें, यह सुमंत हंै, भाई ही समझिए, जहां हम पहले रहते थे, ये हमारे पड़ौसी थे,तबसे इन्होंने हमें संभाल रखा है। हमसे तो अधिक आना जाना होता नहीं, बाहर की दुनिया से भी यही हमें जोड़े रखते हैं।’’
”भाई साहब.!...“ सुमंत हंसा था।
”यह कहिए कि आप मुझे इधर से उधर भगाते रखते हैं मैं तो साहब बस सेवक हूँ।“ वह फिर ठहाके के साथ हंसा था।
”हूँ ,तो चर्चा का विषय क्या था?“
”शिल्प और शैली की चर्चा थी क्या शिल्प शैली के साथ स्वतः ढल जाता है या लेखक पहले शिल्प तलाशता है और उसमें दृश्य की संरचना करता है, यह प्रश्न था,“ वर्मा साहब बोले।
”अरे ! यह तो सचमुच ही गंभीर चर्चा है।“ वह अचानक चुप हो गया बाहर दूर पेड़ की डाल पर फुदकती चिड़िया को देर तक देखता रहा फिर बोला।
”चलिए, आप लोग साहित्यकार हैं, आप ही बताइए सच क्या है ! मैं आपको एक कथा सूत्र दे जाता हूँ।“
सुमंत ने सोफे पर पसरते हुए आंखें बंद कर लीं। वह कह रहा था,‘‘बात कुछ महिने पहले की ही है।हेमंत को आप नहीं जानते उसकी यह कहानी है।आप सुनकर फैसला करें।“
”क्या बात हैं जीजी... कुछ मामला बैठा...“हेमंत ने पीछे से आकर टोका।
”नहीं, अभी कुछ नहीं,“ अपनी बिखरी लट को संवार कर सुनंदा मुड़कर बोली थी।
”कौन है... किससे बातें हो रही हैं बेटी...“ अंदर से आवाज आई।
”बाबा हेमंत है।”
”फिर आ गया लफंगा, जाने कहां रोता फिरता है, मैं तो जब इसे देखता हूँ, मारे शरम के सिर झुक जाता है।“
”क्यों क्या बात है, क्या बिगाड़ा है इसने आपका। आप ही तो उस दिन कह रहे थे कि अस्पताल गए थे, डाॅक्टर ने लाइन में बिठा रखा था, नंबर ही नहीं आ रहा था जो लोग नए आते सीधे अंदर जाकर दवा लिखा लाते। वह तो हेमंत ही घूमता-फिरता कहीं से आ गया था। देखते ही बोला।”बाबा...आप !“
सीधा हाथ पकड़कर अंदर ले गया। डाॅक्टर भी चांैका।
”आप...“
”हां, आप जानते नहीं ये हमारे बड़े बाबा हैं, सुबह से लाइन में हैं इतने बड़े नेता, भाऊ साहब पूरा जीवन देश सेवा में लगा दिया।”
”अरे आप...“ डाॅक्टर उठता हुआ बोला था। हेमंत ने दवा भी दिलवा दी थी, घर तक छोड़ गया था, तब तो उसकी तारीफ करते नहीं थक रहे थे आप। अब क्या हो गया।“
”ठीक है...ठीक है, तू तो हिमायत करेगी ही, तेरा भाई जो लगता है मैंने कभी किसी का सहारा नहीं लिया। कल दफ्तर जाकर मिलना, डिप्टी जो नया आया है, भला आदमी लगता है। नियम बताना, काम हो जाएगा, अभी सम्मान गिरा नहीं है।”
“पर बाबा, आपने तो बहुत सेवा की है, वो जो मंत्री है वह तो यहां अपने यहाॅं भी बहुत रहा है, सुना है जब संकट में था और इस पार्टी की सरकार नहीं थी तब पहली मीटिंग यहीं हुई थी, लोग कहते हैं कि उनको जिले में भी आप लाए थे, न जाने क्या- क्या लोग कहते हैं “,हेमंत ने उन्हें टोक दिया था।
”हां तो इससे क्या तब जो फर्ज था वह किया, अपने संतोष के लिए किया था। किसी की तारीफ के लिए नहीं।“
”और दादी ने सारी उमर भंडारा जो चलाया,“वह बोला।
”तू चुपकर, तेरे बाप ने तो कभी कुछ नहीं दिया और न तेरे बाबा ने। नाक में दम कर रखा था, पचास मील तक उसका दबदबा था। धौंस पट्टी, खून खराबा, मारपीट“ भाई का जिक्र आते ही भाऊ साहब रुक गए। गला भर्रा गया
तख्त पर बैठ गए।
”लो पानी पिओ, कितनी बार कहा है कि ज्यादा मत बोला करो।“
”तू भी नहीं मानता कितनी बार कहा है कि बाबा से बहस मत किया कर, तंग करता है,“उसने हेमंत को रोकना चाहा।
”पर दीदी“, हेमंत कहते-कहते रुक गया।
”चाय पीएगा, बैठ चाय बनाती हूँ, बाबा आप भी लेगें।“
”ले लूंगा बेटी।“
बाबा कह रहे थे,”उस दिन आ रहा था, स्टेशन पर ही उतर गया था, चालीस साल होगए हैं इस बात कोे, धोती कुरता हाथ में थैला। राजधानी से आया था, उस रात ट्रेन लेट हो गई थी। अब तो इधर बहुत बस्ती बस गई है,पहले जंगल था, तांगा भी नहीं मिला। पैदल ही चल पड़ा तभी रास्ते में अंधेरे में दो चार लोगों ने पकड़ लिया उनके पास बंदूकें भी थीं, कहीं जा रहे थे। वे मुझे देखकर चैंके मैं उन्हें तब भी नहीं पहचाना था तब तक उन्होंने बंदूकें छाती पर तान दीं।
“कौन हो तुम...”
“मैं...मैं...मैं. भाऊराव...दामोदर राव का बड़ा भाई। घबराहट में भाई का नाम भी साथ में निकल गया।“
“दादा, आप! वे पैरों पर गिर पड़े। दादा माफ करना...दामोदर भैया से मत कहना, वे मुझे घर तक पहुंचाकर अंधेरे में चले गए। तब तो नहीं बाद में दामोदर से कहा था, वह हंसा बोला-
”दारा डकैत का गैंग था...“
मैं चैंका उन दिनों डकैती में वह अगुआ था।
”हां दादा भाभी के भंडारे से उसने भी बहुत प्रसाद पाया है। आप सोचते हो कि आपके ही कार्यकर्ता यहां आते हैं।“
वह हंसा।
”भाभी के लिए तो सभी बराबर हैं, वह तो सबकी अन्नपूर्णा हैं।“कहते हुए बाबा की आंखें और गीली हो गईं थीं, मसनद के सहारे लेट गए। भाई के साथ पत्नी भी याद आ गई थीं।
सुनन्दा तब तक चाय ले आई थी
”नहीं बाबा रहने दो, अब नहीं।“
वह जानती थी कि एक-एक करके मां, पिताजी, भैया सबकी याद आएगी, बस दुर्घटना में पूरा परिवार चला गया था। वह छोटी थी, बाबा के पास रह गई थी, वह और बाबा, बाकी इतिहास को वह खुलने से रोक रही थी। उसने चाय का प्याला बाबा के हाथ में पकड़ा दिया। प्यार से बूढ़े बाबा ने सिर पर हाथ फिराया। आंखों में आए आंसुओं को पीकर जबर्दस्ती चेहरे पर मुस्कराहट ले आई थी।
”बाबा, हेमंत आपका बहुत ध्यान रखता है, आपको देखे बिना वह...“
”हां-हां, उसका पिता भी रखता था। पर था वह...“
”¯तो जीजी, मैं चलूं, हां, बड़े बाबा से कहना कि मंत्री जी रविवार को रतनपुर आ रहे हैं। सर्किट हाउस में ठहरेगें बाबा के मिलते ही तुम्हारा काम हो जाएगा, सारे अधिकारी वहां होंगे और फिर भी नहीं हुआ तो मैंने बताया ही है,’’ वह पास आकर कान में फुसफुसाया था।
”हट...“सुनंदा ने मुड़कर कहा था।
”क्या यही रास्ता अब दुनियां में बचा है...“
सुनंदा सोच रही थी कि शायद हेमंत भी साथ जाएगा, पर वह आया नहीं, फिर बस से वह बाबा को रतनपुर ले गई। बहुत भीड़ थी। फिर बस स्टैंड से आॅटो करके वे लोग सर्किट हाउस पहुंचे थे। लाॅन के एक कोने में थोड़ी जगह दिखी, वहां छाया थी, ”बाबा उधर चलते हैं।“
”चल... थोड़ा पानी हो तो पिला देख कहीं कंोई व्यवस्था हो।“ “हूं” वह चैंकी। कहा था कि पानी की कैटिल साथ ले चलें। तो बाबा ने ही मना कर दिया था।
उसने इधर उधर देखा। लाॅन में सारी कुर्सियां भरी हुई थीं, भीड़ ही भीड़, पोर्च के पास लाल बत्तियां लगी गाड़ियों का मेला। कहां जाए वह, इधर बाबा थके हुए लेट से गए थे, वह भीड़ को चीरती हुई अंदर सर्किट हाउस में जा रही थी कि दरबान ने टोका।
”अभी ठहरो, अंदर मीटिंग हो रही है।“
“मंत्री जी से तो बाहर मिल लूंगी। पहले कहीं पानी मिल जाता तो उसने हाथ से बाबा की तरफ इशारा किया।
”पानी पिलाना है।“
”हूं...घर से साथ नहीं...“
”सुझाव के लिए धन्यवाद“, वह आगे बढ़ी तभी दरवाजे पर खड़े लोगों में से किसी ने कहा।
”आप पीछे से किचन की तरफ चले जाइए, उधर मिल जाएगा।“ वह मुड़ी बाबा की तरफ देखा, वे बैठे थे, एक लड़का उन्हें पानी का गिलास दे रहा था।
‘कौन.!.. मुड़कर वहां तक पहुंची तो बाबा पानी पी चुके थे अब उठकर बैठ गए थे।
”बेटी, यहां तो बहुत भीड़ है, हां, तूने पानी भिजवा दिया, अच्छा किया, कुछ राहत मिली। वह तो चाय ठंडा भी पूछ रहा था, मैंने ही मना किया।’
तभी बाहर से आवाज आई, कोई चिल्ला रहा था।
”मिलनेे वाले अपनी अपनी स्लिप दे दें।“
उसने भी अपना पर्स खोला, अपना नाम और बाबा का नाम लिखकर ले गई।
”मंत्रीजी से कहिए की पाटन से भाऊसाहब आए हैं, मिलना चाहते हैं।“
”ठीक है...ठीक है“, वह बोला।
लाॅन में भीड़ बढ़ती जा रही थी कारों से ,कलफ़लगे कुर्ते पायजामें में कार्यकर्ता उतरते और सीधे अंदर चल जाते। मुंह में पान, चमचमाता चेहरा, तभी उनमें से किसी का ध्यान इधर गया।
”अरे आप...“
”हां भाऊसाहब भी आए हैं, आप अंदर कहलवा दीजिए।“
”हां-हां, वे तो हमारे पूज्य हैं, बुजुर्ग हैं,वह हंसा,कहां हैं वे..’
”उधर“, उसने इशारा किया।
”वहां क्यों... आप उन्हें अंदर लाइए। मैं अंदर जाकर कहता हूँ।“
वह अंदर चला गया था।
दरवाजे पर आवाज गूंजी, भाउसाहब, पाटन वाले और एक कार्यकर्ता बाबा का हाथ पकड़कर अंदर ले चला सफेद खादी की धोती उस पर आधी बंाह का कुर्ता जेब वाला, चश्मा, पांव में चप्पल, हाथ में झोला, अब यही भाऊसाहब की पहचान बन गई थी। अंदर हाॅल आया। दाईंं तरफ, गलियारा था। नीचे कालीन बिछे थे, वहीं से वे लोग आगे कमरे की तरफ मुड़े वहां भी दरवाजे पर भीड़ थी। सब जगह कार्यकर्ता जमे हुए थे।
”अंदर जरा तेजी से चलो“,धकियाते हुए कार्यकर्ता बोला
”चल ही रहा हूँ, बैठा तो नहीं हूँ“, भाऊसाहब बोले।
”क्या...“,
”बाबा...बस भी करो...“सुनंदा ने टोका।
अंदर कमरे में मंत्री जी सोफे पर बैठे थे। कमरा भी खचाखच भरा था। ठंडे पेय की बोतलें और कटे हुए आम रखे थे। दूर पलंग पर कुछ कार्यकर्ता मिठाई चख रहे थे।
”आप...“मंत्री जी चैंके।
”मैं भाऊसाहब अब बूढ़ा हो गया हूँ।“
”हां-हां, आप तो बहुत पुराने पार्टी के सेवक रहे हैं।“
मंत्री जी उठ खड़े हुए। उन्होंने मुस्कराकर पांव छूने चाहे, करीब पहुंचे ही थे कि भाऊसाहब ने उन्हें पकड़ लिया।
”यह आप क्या कर रहे हैं, आप इतने बड़े नेता, मंत्री, मैं तो बस अदना सा कार्यकर्ता रहा हूँ।“
”यह आप क्या कहे रहे हैं, आपका त्याग तो पार्टी का इतिहास है,“ उधर फोटो ग्राफर ने तस्वीर खींच ली थी।
नया सा कार्यकर्तानुमा युवक जो पत्रकार बनने की कोशिश में था, तुरंत डायरी निकालकर आगे बढ़ा वह हर शब्द सुनने के प्रयास में था। ”यह सुनंदा है, मेरी पोती, आपने तो इसे बहुत छोटा देखा होगा। तब तो इसके माता-पिता भी थे। अब इसका तबादला सौ किलोमीटर दूर कर दिया है, इसके पहले भी गांव में ही थी, यहां अभी साल भर भी नहीं हुआ और इतनी दूर फिर भेज दिया।“
”हूं...शर्मा जी...“
मंत्रीजी की आवाज गूंजी।
बाहर भीड़ में से कोई अंदर लपका।
”आप नोट कर लीजिए।“ मंत्रीजी ने लिखवा दिया था।
”हो जाएगा बेटी...... बस डाक से आॅर्डर मिल जाएगा पन्द्रह दिनों के अंदर ही। नहीं मिले तो पत्र से सूचित कर देना, भाऊसाहब आप निश्चित रहें, अब मुझे देखना है, हो जाएगा।“
भाऊसाहब प्रसन्न थे। उनका चेहरा खुशी से चमक रहा था।
”बेटी देखा, इतने बड़े मंत्री पर गरुर का नाम तक नहीं संगठन से जो लोग आते हैं, वे अलग ही होते हैं, कितना आदर दिया।“
”हंू...“
सुनंदा चुप थी। देख रही थी कि वह प्रधान जो उससे नाराज था और हमेशा अजीव सी निगाहों से भद्दे ढंग से उसे देखकर हंसता था, अभी भी दूर बैठा मुस्करा रहा था,... बाहर भीड़ अब अधिक हो गई थी। अब वापिस लौटना है, पन्द्रह दिन इंतजार करना है, पर भाऊसाहब खुश थे, उनका चेहरा खिल सा गया था। बाहर आते ही सामने खड़े उस पुराने कार्यकर्ता से बोले-
”भई, तुम्हें तो गरूर है, पर मंत्री जी को नहीं है, कुछ सीखो भई। हमारी तो उमर गई, पर बुढ़ापे का तो ध्यान रखो।“
”बाबा आप भी...“
”तू तो कहीं बोलने भी नहीं देती।“
सर्किट हाउस से बाहर जीप खड़ी थी। अंदर सवारियां बैठी थी ड्राइवर इन्हें देखते ही लपका।
”आपको पाटन जाना है।“
”हां, तुम्हें कैसे पता चला“,भाऊसाहब चैंके।
”पता है, साहब घंटे भर से खड़ा हूँ, चलिए बैठिए।“
उसने उनका थैला और छाता संभाला।
”भई, रुपये कितने लोगो, वहां उतरते ही तंग करोगे।“
वह हंसा,”वह सब तो हो गया, आप तो बैठिए।“
सुनंदा समझ गई। हेमंत आया होगा पर जानबूझकर सामने नहीं आया पर बाबा नहीं समझ पाए। वह मुस्करा दी थी।
”आओ बाबा बैठो।...“
”चल, तू भी खुश है।“
रास्ते भर फिर वे मंत्रीजी की तारीफ के पु्रल ही बांधते रहे थे। प्र्रतीक्षा के दिन भी बड़े भारी होते हैं, भाऊसाहब सुबह से ही पोस्टमेन का इंतजार करने लगते कई बार तो उठकर दरवाजे पर खड़े हो जाते। सुनंदा कहती।
”बाबा पोस्टमेन यहां नहीं आएगा।“
”पता है, बेटी पता है, मंत्री जी पता भी नोट करके ले गए हैं, जानती इस मकान में महिनों रहे हैं, आपतकाल में भी यहीं थे। तब उनके कपड़े भी मैंने ही सिलवाए थे।“
वे हंस पड़े।
”हां बाबा हां“, वह कहती- कहती चुप हो जाती। उस दिन तो वे पोस्ट आॅफिस ही पहुंच गए। पोस्टमेन मांगीलाल भी पुराना था। वह भी बूढ़ा हो गया था। उन्हें देखते ही चैंका।
”दादा आप- क्या कोई खास पत्र आने वाला है। कहीं बिटिया का रिश्ता तो पक्का नहीं कर आए।“
”रिश्ता...“
वे चैंक गए। अरे वे तो भूल ही गए थे। बिटिया की नौकरी याद रही पर उसका घर भी तो बसाना है, वे अनमने से लौट आए। बिना कुछ बोले तख्त पर बस निढ़ाल से लेटे रहे। सुनंदा ने ही फिर पूछा था।
”क्या बात है बाबा ! चुप क्यों हैं ?“
”कुछ नहीं बेटी। मैं भी स्वार्थी हो गया। तेरे तबादले की कह आया, तेरा घर बसे, हाथ पीले करूं, यह बात तो दिमाग में आई ही नहीं, वह तो मांगीलाल मिल गया था। पूछ रहा था कि क्या बेटी के रिश्ते की बात चल रही है, सच मैं तो गुनहगार हो गया हूँ, अपना ही सोचता रहा।“
”क्या हो गया, यह आपको बाबा, अब चुप भी करो, आने दो चाचा को, कहूँगी कि आपको बैठे बिठाए क्या सूझी।“
दिन पतझड़ के पत्तों की तरह हवा में उड़ते रहे, गिनती बाबा ने अंगुलियों पर गिनी एक दिन, दो दिन तो पन्दह्र से ऊपर हो चले थे।
”बेटी पत्र लिख दे, बड़े आदमी हैं, बहुत काम रहते हैं, हम तो मामूली आदमी हैं।“
”हूं...“ वह अनमनी सी बोली।
”हेमंत नहीं आया, कई दिन हो गए वह तो पूछने भी नहीं आया कि क्या हुआ“, बाबा को जैसे कुछ याद आया।
”वह उस दिन तुझे क्या समझा रहा था,“उन्हौंने पूछा।
”आए तो कहना कि पता करे । शायद वहां आदेश आ गया हो। है तो मेहनती लड़का पर न जाने क्यों मुझे देखते ही लड़ने लगता है बेटी हमारी बात और थी, सेवा हमने कुछ पाने के लिए नहीं की। वह जमाना ही दूसरा था, लोग तब ऐसे नहीं थे, पर वह यह समझ नहीं पाता है। उसका बाप भी इसी तरह बहस करता था, पर इतना आदर ,मैं ही अभागा हूँ बच्चों का सुख नहीं देख पाया।“
देखा सामने से हेमंत जा रहा था, वह रुका नहीं, सीधा तेजी से आगे बढ़ गया।
”हेमंत,“ वह देखते ही चीखी, पर तब तक वह जा चुका था।
”क्या हुआ, क्या चला गया।“
”हाँ,“
”रुका क्यों नहीं“
”क्या पता“,वह मुंह बिचकाते हुए बोली।
”पर उस दिन कह क्या रहा था ?“
”बाबा, आप नहीं समझेगें, नए जमाने की बातें हैं।”
”ठीक है, जैसे तेरी इच्छा।“
दूसरे दिन सुबह दरवाजे पर घंटी बजी। सामने हेमंत था। हाथ में मिठाई का डिब्बा ओर एक लिफाफा था।
”क्या...“
”देखो तो सही जीजी,“ वह ठहाका लगाकर हंसा
”कौन! हेमंत।“अपना चश्मा निकालते हुए भाऊसाहब उठे।
”आ गया क्या।“
”हां बाबा, लो मिठाई खाओ।“
”हूं- मैंने कहा था ना, कि मिलना भले ही न हुआ हो पर मंत्री जी मुझे भूले नहीं है, ठीक है दो-चार दिन ज्यादा हो गए, बेटी धन्यवाद का पत्र जरुर भिजवा देना, मैं दस्तखत कर दूंगा।“
”बाबा“, हेमंत ने टोका।
“पहले आप मिठाई तो खालो।”
”हेमंत,“ सुनंदा ने फिर टटोला था।
”हां हां, सब बताता हूं,“ वह फिर हंसा था।
”बाबा, अब आप बेंत उठा लो क्येिंक आपके भाई का पोता हूँ और वे ही सपने में आकर जो समझा गए थे, वही में कर आया। बस जीजी अब यहीं रहंेगी। आॅफिस से तो आॅर्डर दस-पांच दिन में आएगा पर मैं प्रति ले आया हूँ, दस हजार खर्च हो गए ,बाकी किश्तों में...“
”क्या..,“भाऊसाहब चीखे।
”हां बाबा, जो दुनियां आपने छोड़ी है, उसी का यह दस्तूर है, दस्तूर तो निभाना ही पड़ेगा, मैं यह नहीं कहता कि आप गलत हैं, पर मेरे बाबा दौलतराव भी तो थे, उनका खून जब हिलौरंे लेता है तो सचमुच जीने की ताकत आ जाती है।“
भाऊसाहब से अधिक सुना नहीं गया। वे तख्त पर लेट गए मसनद को दीवार की तरफ कर मंुह पीछेे की तरफ कर लिया था।
”बाबा... यह क्या...“ हेमंत चैंका।
वे फूट फूटकर रो रहे थे। दासता के स्याह अंधेरे हटाने के लिए ,और उजाले की प्रतीक्षा में उन्होंने घर बार तबाह कर दिया था। पर वे ही अंधेरे और स्याह होकर उन्हें घेरे खड़े थे, और उन्हीं को चीरती हुयी यह आवाजें दौलतराव की थीं या हेमंत की...लगा वे हार गए हैं उनके आदर्शोंं का फानूस आज चटक- चटक कर नीचे गिर रहा है। सामने टंगी गांधी जी की तस्वीर पर नजाने कहाॅं से पचासों कौवे आगए हैं,जो अपनी नुकीली चै्रचों से कांच को तोड़ते हुए उनकी मुस्कराती आंखों को नोचने को आतुर हैं,वे अपना बूढ़ा हाथ बार-बार ऊपर उठाना चाहते हैं
पर हर बार वह नीचे गिर जाता है।
सुनंदा का हाथ उनके सिर पर से होता हुआ आंखों के नीचे आकर ठहर गया था। उसकी हथेलियां आंसुओं से भीग गईं थीं।
”बाबा...“ हेमंत अब उनके पांवों में झुक गया था।
”बाबा मुझे माफ कर दो...बाबा..,दुनिया अब गांधीबाबा को बहुत पीछे छोड़ती हुयी अंधेरे में कहां से कहां चली गयी है.यही रास्ता बचा था,आपका दुख मुझसे देखा नहीं गया।“
भाऊसाहब अचानक अपने बचपन में लौट गए थे जहां बच्चे शाम होते ही घर जाने की जल्दी में अपने रेत के घरोंदों को अपनी ही लात से तोड़कर घर भाग रहे थे।
अचानक विराम आ गया था। सुमंत उठा और चुपचाप दरवाजा खोलकर जीने से नीचे उतरता चला गया। ”सुमंत...सुमंत“ पत्नी ने आवाज दी पर वह रुका नहीं था कार का फाटक खोलकर निढाल सा बैठ गया था। आंखें नम थीं गहरी उदासी को तोड़ते हुए निशब्द आंसू अंतहीन खामोशी केे दरवाजे पर दस्तक दे रहे थे।
पेंढारकर ने ही फिर मौन तोड़ा था , बोले-
”बात ठीक है, कथ्य अपने आप जब नदी की तरह बहता है तो शिल्प के कगार तलाश ही लेता है।“
ू
जो सच है
मैं अभी अभी घर लौटा ही था कि सुप्रिया ने कहा - पालीवाल जी का फोन आया था।
’’पालीवाल जी, मैं चैंक गया, आज सांसद महोदय को याद कैसे आ गई।’’
‘‘कोई सिफारिश कर रहे होंगे।’’
‘हां, हो सकता है।’
तभी बाहर घंटी बजी। रमेश ने खबर दी, कोई शास्त्री जी आए हैं। पालीवाल जी का खत लाए है।
मै बाहर आया।
सफेद धेाती कुरता करीने से सजी हुई टोपी, मंझला कद, नमस्कार नमस्कार वे दोनो हाथों की प्रणामी मुद्रा में लिए बरामदे तक आ गए।
‘‘फरमाइए ?’’
‘‘मैं मोतीपुर का साधारण कार्यकर्ता हुं। सरपंच भी हूं। जिला कमेटी का महामंत्री भी, पर यह तो चलता ही रहता है मैं तो पालीवाल जी का मामूली सिपाही हूं। हां, तो उन्होेने मुझे आपसे मिलने को कहा है एक हमारा अच्छा कार्यकर्ता है, मूलचंद पुलिस वालों ने उसे फंसा दिया है, गरीब आदमी है। उसका कोई मामला आपके पास बताया है। देख लीजियेगा, पालीवालजी आपकी बहुत तारीफ कर रहे थे। आप मानवतावादी हंै। गरीबों के प्रति दयालु हंै।’’
मैं अवाक था।
हाॅं, वह मूलचन्द ही था।
शायद यही कारण रहा होगा , लंबे अर्से से इस पत्रावली पर कोई निर्णय नहीं हो पा रहा होगा।
कल ही की तो बात थी।
सरकारी वकील कह रहे थे। केस साबित होता है दो बार आबकारी कानून में और गैर कानूनी शराब बनाने में सजा हुई थी। सट्टा कानून में तीन बार प्रोबेशन मिला। शांतिभंग के कइ्र्र इस्तगासे चल रहे हंै। मारपीट के अलग मुकदमें हंै। छः माह के भीतर जो नियम है, वह पूरा होता है, आदि आदि।
उनके वकील कह रहे थे यह सब तो पुरानी बाते हैं। श्री मूलचन्द राजनैतिक कार्यकर्ता हंै, उन्हें फंसाने के लिए यह सब किया गया है। बताइए पिछले साल से कोई मुकदमा दर्ज हुआ है, कोई इस्तगासा आया है ? बयान कराइए, गवाही लाइए।
और मैं अचानक उस बहस से क्षण भर के लिए कहीं दूर चला गया था।
हां, हम इन्दौर से ही लौट रहे थे।
खचाखच भरी बस, उस पर गर्मी की सख्त दोपहर भी। पसीने से जैसे नहा गए हों। संदीप पानी के लिए छटपटा रहा था। ‘कैम्पर’ कभी का खाली हो चुका था। सुसनेर आते ही मैने उतरना चाहा। पर उतरने वालों से चढ़ने वालों की संख्या अधिक थी। काफी कशमकश के बाद जब नीचे उतरा तो लगा इससे तो बेहतर यही था कि घर पर ही रह जाता। पर सुप्रिया का आग्रह था। मैं मना नहीं कर पाया। दुकान तक पहुंचा और किसी तरह ‘कैम्पर ’भरा। पर जब तक दरवाजे तक आया सुप्रिया की तेज आवाज से चैंक गया।
‘क्या बात है?’
‘होगा क्या....यह मानते ही नही हंै, मैं कह रही हूं, तुम नीचे गए हो पर एक ये हैं उठने का नाम नहीं, उल्टे कोहनी से बार बार मुझे घकेल रहे हैं।’’
मै तेजी से उधर लपका क्यों ?
‘‘यह आपकी सीट है, कहीं लिखा हुआ तो नहीं हंै।’’ वह बेशर्मी से हंसा, और उठते- उठते हुए भी मैने देखा वह अपनी कोहनी सुनन्दा की पीठ पर गड़ाने की चेष्टा कर रहा था।
‘यह क्या बदतमीजी है”, मैंने उसका हाथ पकड़ लिया था।
‘‘क्या है, एक तो उठ रहा हूं उस पर मेरा हाथ पकड़ते हो,’ उसने तेजी से कुरते की जेब में हाथ डाला, उसके हाथ में रामपुरी चाकू था।
सुप्रिया भी तब तक घबड़ा गई थी।
‘यह सब किसलिए? मैने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा,‘‘ तुम समझते हो, तुम सब कुछ कर सकते हो, यह हो नहीं सकता, पुलिस है, कानून है, बस को ही सीधा थाने पर ले जाकर खड़ा कर दूंगा।’’
तब तक कंडक्टर उधर आ गया। सवारियां उर्ठ आइं। उसके पास कोई खड़ा खड़ा कान में फुसफुसाया और वह तेज आंखों से घूरता हुआ बस से ही नीचे उतर गया।
मैे आवेश में था। ‘‘यह तुम्हारी ही जिद थी जो बस मे आना पड़ा, कितना समझाया था, कि अब बस में आना- जाना इज्जत का काम नही है, पर तुम तो!’मेरी झुंझलाहट देखकर सुप्रिया चुप थी संदीप भी सहम गया था। उसे लग रहा था कि कहीं वह इतनी जिद नही करता, तो यह सब नही होता।
‘‘हां, तो मैं कह रहा था, मात्र पुराने इस्तगासों से जो कि जान बूझकर एक शरीफ आदमी को फंसाने के लिए बनाए गए हों, आप किसी इज्जतदार सामाजिक कार्यकर्ता की जिन्दगी खराब नहीं कर सकते’’, अमिभाषक बचाव पक्ष कह रहे थे।
मैं लौट आया था। मैेने ध्यान से देखा। मूलचन्द ही था। पर अब वह भरा भरा था। उसका दुबला पतला शरीर सामाजिक कार्यों की चर्बी से भर गया था। तभी सवाल उठ खड़ा हुआ क्या जिस सत्य को आप खुद महसूस करते हैं वह साक्ष्य का अंग नही हो सकता कानून क्या दूसरे की आंख से देखता है ?
हां वे शास्त्री जी ही थे।
मुझे चुप देखकर अवाक थे,‘‘ फिर बोले गरीब कार्यकर्ता है, तो फिर कौन सुनेगा, सिफारिश करना गलत बात है, पर पालीवाल जी कह रहे थे, आप अपने ही है, मूलचन्द भी अपना ही है।’’
‘‘आप जिसकी सिफारिश कर रहे हैं, उसे कभी आपने देखा भी ह,’’ै मैं बोला।’’
‘‘हां, हां विनम्र कार्यकर्ता है।’’
‘बहुत सीधा है, उससे मेरा पूरा परिवार परिचित है’, मेरी तीखी आवाज से वे चैंक से गए। फिर वे रूक नहीं पाए, और चले गए।
‘क्या बात है,?’अंदर घुसते ही सुप्रिया ने टोका, ”तुम्हारा चेहरा फिर तना हुआ ह?ै
तब तक फोन आ गया था।
हैलो उधर से मर्डिया जी बोल रहे थे।‘‘ विधाधर तबियत तो ठीक है, शास्त्री जी मिले होंगे, हां, उसका काम करना है, बिचारा बहुत तकलीफ में है, पिछले चुनाव में बहुत कार्य किया। गुंडा कानून में है, प्रोबेशन कर दीजिए, राजधानी में अपील होगी, देख लेंगे, आप जरा सख्त हंै, इसीलिए छोड़ने को नहीं कह रहे हैं आखिर राज भी तो चलना है, हो हो, हो,“ वे हंस रहे थे।
क्या सक्रिय कार्यकर्ता होना, कोई गुनाह है, मैं अपने इस सवाल पर चैंक पड़ा था।
मित्र कह रहे थे। मर्डिया पहले खनिज विभाग में चपरासी था। कुछ अवैध खनन कराया था। केस चला सक्सेना साहब मंत्री थे। उन्होंने मामला खत्म करा दिया था। फिर तो खाने चलाने गया। ट्रांसपोर्ट का काम किया। अब तो करोड़पति है। सक्सेना साहब का सारा काम यही देखता है उनका दांया हाथ समझिए और मूलचन्द उनका ही खास है। बरसो से जहां भी कुछ होता है, वहां मूलचन्द ही पीछे रहता है। पर अब उसके भी रसूकात बढ़ गए हैं छोटे मोटे अधिकारी तो उससे डरते है, कुछ महकमों से तो यही महावारी वसूल करने लग गया है।
हां, वह मूलचन्द ही था।
उसकी जलती हुई आंखें और हाथ में रामपुरी चाकू की नोक को मैं अब तक महसूस कर रहा था।
उसके अमिभाषक कह रहे थे।
‘‘यह पुराना मामला है, उनके अप्रार्थी का राजनैतिक भविष्य है, इसीलिए उसे फंसाया गया है ये लीजिए समाज के गणमान्य नागरिकों के चारित्रिक प्रमाणपत्र है, यह सांसद महोदय का है, यह विधायक जी का है, यह प्रमुख साहब का है, इस बीच कागज वे मेज पर रखते जा रहे थे। अब इसके खिलाफ कोई नया मुकदमा नही है फिर सजा किस बात की?’’
‘‘हो हो क्या सोच रहे हो मर्डिया,“ की आवाज थी। ”क्या बात है, तबियत तो ठीक है“, विधायक महोदय हंसे।
‘‘कुछ नहीं, थोड़ा गला खराब है...’’
‘‘तो दवा लीजिए, डा. मिश्रा यहीं बैठे हैं, उनको भिजवा रहा हूं,’’ वे हंसे।
मैं चुप ही रहा। संवाद कट गया था।
यह सब क्यों ?
हां कल की ही तो बात थी।
मेरी आंखे मूलचन्द की तरफ जब उठी, तो लगा उसे भीतर तक कुछ उतरता सा चला गया है। उसके चेहरे की मुस्कराहट बदल सी गई है। बरसों पुरानी कोई स्मृति उसे कचोटती सी चली गई है।
मैने फिर देखा, शायद कोई पहचान उसे छू जाए।
मुझे लगा उसके स्मृति सरोवर पर कंकडी फिंक गई है, मैं आज यहां कभी आ भी सकता हूं ,उसने कभी सोचा नही होगा।
वह सकुचाया सा खड़ा था।
‘‘तेरह तारीख इसी माह की’, मैने बहस सुनकर पेशकार की तरफ देखा था।
हां, पालीवाल ही थे।
वे चैम्बर में आ गए थे। साथ में मर्डिया भी थे। मूलचन्द बाहर था।
‘‘हां, तो वर्माजी, आपको तकलीफ देने आना ही पड़ गया है। मूलचन्द को कुछ हो गया तो हमारी बदनामी होगी हमारा आदमी है। और आप तो जानते हैं आप भी हमारे ही है सी एम पूछ रहे थे, हमने यही कहा, वर्मा जी जैसा अफसर नहीं आया हमारी इज्जत करते हैं, हम तो उन्हें छोटा भाई ही मानते हैं। छोटे से छोटे कार्यकर्ता का भी ध्यान रखते हैं। प्रशासन संवेदनशील नही होगा, तो पार्टी कैसे चलेगी आप तो निश्चिंत होकर काम कीजिए, आप हमारे छोटे भाई हैं।’’ उन्होंने जरदे की आई हुई पीक को थूकने के लिए वाशबेशिन तक जाते हुए कहा।
तभी अचानक संदीप अंदर आ गया।
‘तुम कैसे ’? मैं बोला
‘पापा! किताबें साहित्य सदन पर मिल रही हंै, आप किसी को भिजवा दीजिए मैं ले आंऊगा।’’
तभी शास्त्री जी मूलचन्द को लेकर अंदर आ गए, मैं कुछ कहता कि तब तक संदीप पीछे मुड़ा और उसकी आंखे मूलचन्द के चेहरे को देखते हुए तन सी गई, वह एकदम पीछे मुड़ा और घबराता हुआ मेरी कुर्सी के पास आकर खड़ा हो गया।
‘पापा,!पापा! वही चाकू वाला जो मां से बदतमीजी कर रहा था।’’
‘‘क्या?’’ पालीवाल जी चैंके वे कुछ कह नहीं पाए, उनके हाथ में उठा हुआ पान, हाथ में ही रह गया था, और शास्त्री जी मूलचन्द को बाहर जाने का संकेत कर रहे थे।” कुछ नहीं आपके कार्यकर्ता सचमुच बहुत सीधे होते हैं’’, मैं एक मुद्दत के बाद सहज हो पाया था।
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