धर्म का रहस्य

सोमवार, 13 अप्रैल 2009

  • धर्म का रहस्य 

                धर्म का रहस्य चर्चा का विषय नहीं है। यह अनुभव का जगत  है। मान्यताएं स्थिर नही है। जब जगत ही तेजी से परिवर्तनशील हो रहा है, पृथ्वी अपनी धुरी पर घूम रही है। समस्त ग्रह उपग्रह अपनी-अपनी  परिधि में, अपनी निहारिकाओं में सतत गतिशील है, तब एक स्थिर मान्यता हमें अपनी यात्रा में कितनी सहायक हो सकती है, यह प्रश्न विचारणीय है। दिक्कत यही है। और सचमुच यही है। हम जो स्वयं गतिशील है। इस गत्यात्मक समाज में स्थिरता चाहते हैं। हमारी ईश्वर की मान्यता स्थिर है। भगवान का स्वरूप स्थिर किया जा चुका है। यही कमोवेश स्थिति ज्ञानी की है। इस पिंड में आत्मा कहां हैं। और परमात्मा कहां हैं, सब तय हो चुका है। शेष तो यात्रा ,मात्र ,व्याख्या बची है। हजारों साल से इस व्याख्या में हजारो लाखों ग्रन्थ लिखे जाते रहे हैं, करोड़ों शब्द वायु मण्डल में तरंगित है पर प्यास वहीं की वहीं है। बेचैनी वहीं है। शास्त्र समाधान नहीं दे पा रहे है। शब्द उधार के स्वप्न की तरह आते हैं।
    धर्म वहीं का वहीं है।
    इस छोटे से शब्द की व्याख्या नहीं हो पा रही है। मनुष्य अपने जन्म से इसी से जूझता है, और मृत्यु इसी की  परिधि में उसे समेट लेती है।
    जन्म जाति ही नहीं देता, धर्म भी सौप देता है। इन्सान जाति तो नहीं बदल पाता, पर धर्म वह बदल सकता है ऐसा कहा जाता है।
    सारा झगड़ा यही है।
    क्या सचमुच इन्सान अपना धर्म बदल सकता है। इन्सान का धर्म उसके जन्म से ही लिख दिया जाता है। इन्सान इन्सान है, यही उसकी पहचान है। धर्म गहराई में उसकी पहचान से जुड़ा है, उसकी सांस से जुड़ा है, उसके प्राणों का स्पंदन है। कहा जाता है मात्र यात्रा ही उसे धर्म सौंप सकती है, उसे अर्थवत्ता दे सकती है। झगड़ा जिस चीज को लेकर है, वह सचमुच धर्म नहीं, वही जड़ता है, वही स्थिरता है, जिसे हम तय कर आए है। जिसे परिभाषित किया जा सकता हो, वह धर्म नहीं है। वह संप्रदाय हो सकता है। सम्प्रदाय के पीछे एक अहम् है बड़ा अंहकार, परिभाषित भाषा है। नियम हैं। तरीके हैं। और उनका मात्र दोहराव है।
    हम किताब पढ़ते हैं।
    तरीका सीखते हैं।
    नहीं आता है, तो जो जानता है उसकी बात मानते हैं। और उन शब्दों को बस पकड़ने की कोशिश करते हैं। जन्म और मृत्यु के बीच के समय को इस आधार पर नियन्त्रित करते हैं।
    यही हमारी धार्मिक यात्रा है।
    हम जैसे आते हैं, बाजार से वैसे ही लौट जाते हैं। धर्म हमें अप्रासंगिक लगने लगा है। लगता है शब्द अर्थ ही खो बैठा है, बासी हो गया है।
    पर सचमुच यह सही नहीं है। साम्प्रदायिक कट्टरता, धार्मिकता नही है। सबसे पहले यह बात स्वीकार करनी होगी, जो धार्मिक है वहीं प्र्रयोगशील है। धर्म, दोहराव की यात्रा नहीं है। जड़ता नहीं है। पत्थर हो जाना नहीं है।
    धर्म का केन्द्र उस परम चैतन्य की स्वीकृति के साथ जुड़ा हुआ है। ”वह है” यही पर्याप्त है। क्या नाम है, और कहां उसका ठिकाना है, यह जानना इतना जरूरी नहीं है। पर वह है, यही स्वीकृति धार्मिकता है। दुनिया के सारे धर्म इसी स्वीकृति के साथ छुपे हुए हैं। जो भी मत है संप्रदाय है, मतान्तर है इसी स्वीकृति के साथ हैं मतभेद उसके नाम से है, उसकी भाषा से है उसके रूप से है, उसकी पहचान से है।
    जब तक बूंद सागर से पृथक है, तभी तक कल्पना है। तभी तक अनुमान है। तभी तक दर्शन है। बूंद का सागर में मिल जाना, सागर हो जाना है।  बूंद रही न अन्य बूंदे रही...फिर न कल्पना है न दर्शन है, न व्याख्या है।
    धर्म इस बिन्दु की स्वीकृति की पहचान है। उसके बूंद हो जाने के अस्तित्व की पहचान है। यह उसके उसी अहसास से जुड़ी हुई है। उसका यह अहसास होना है कि वह बूंद विलीन हो जाती है। पार्थक्य तभी तक है। जब तक बूंद को उसका बूंद होना ही पता नहीं है। नीली बूंद, काली बूंद, पीली बूंद, रंग ही रंग है।
रंग का खो जाना।बूंद को विश्वसनीयता सौंप देता है। बूंद अपनी ही नहीं रहती है। बूंद को उसके अस्तित्व की प्राप्ति सागर की प्राप्ति है। एक बूंद यहां न सहसा उछली है, न उसने सागर मुद्रा अपनायी है। दोनांे ही दार्शनिक भंगिमाएं हैं। जो कृत्रिम है। बूंद हैं, बूंद का बस बूंद हो जाना। बूंद पन पा जाना है, सागर हो जाना है। यही यात्रा है। यही धर्म है।
    धर्म अपनी प्रकृति में अपने स्वरूप में धारणा से जुड़ा है। धारणा जो पहले आरोपित थी अब निसर्ग हो जाती है, अब सहज हो जाती है। अब प्रकृति जन्य हो जाती है। इसीलिये धार्मिकता जड़ता नही है। स्थिरता नहीं है। पत्थर हो जाना नहीं है।
    जो धार्मिक है, वह जागरूक है, वही संवेदनशील है, वही नमनीय है, वही प्रकृति के साथ मुक्त साहचर्य में है। वह पार्थक्य खो देता है। और प्राप्त कर लेता है सहजता, जागरूकता। विश्वसनीयता। उसका अपनापन....। उसे क्या मिलता है। वह निज की शख्सीयत जो मानकर चला था खो देता है।
    धर्म गहराई में निज से जब जुड़ता है, पहले स्वयं को मिटा देता है। धर्म ‘स्व’ की स्वीकृति की यात्रा है जो स्व के विसर्जन तक पहुंच जाती है। जो पत्थर हो जाता है। जड़ हो जाता है.....वह धार्मिक नहीं है, सांप्रदायिक हो सकता है, दार्शनिक हो सकता है प्रचारक हो सकता है। मतवादी हो सकता है, अंहकारी हो सकता है। जो धार्मिक है उसके लिए अपना बचाव सार्थक नहीं है। उसके पास सुरक्षा नहीं है। उसके पास शास्त्र नहीं है। जो किसी को आघात पहुंचा सके। वह धार्मिक शब्दों की श्रृंखला से दूर है।
    जो धार्मिक है।
    वह एक गहरे मौन में हैं।
    वहां मात्र निस्तब्धता है।
    चेतन्य का अहसास...। जब स्वीकृति से जुड़ता है। तब जो छूटना होता है। वह स्वतः छूटने लग जाता है।
    वृक्ष के पत्ते जिस तरह यूं ही गिरने लग जाते है।
    ‘मान्यताएं बिखर जाती है। स्वीकृतियां अपने आपको विसर्जित कर देती है। रह जाता है वृक्ष एक ठूंठ सा। जिसे सम्हालकर रखा था, अपना समझा था, कितना गर्व था, कितना अंहकार भी । यह मेरा है यह मेरे पत्ते हैं। जो हर हवा के झोंकों के साथ तालियां बजा बजाकर स्वागत करते थे।
    वे चुपचाप बिखर जाते हैं। कभी पत्ते को गिरते देखा है ? उनकी आवाज सुनी है ? उनकी पहचान वृक्ष से हटते देखी है ? हां पत्ते गिर जाते हैं।
    क्योंकि वृक्ष नया हो रहा हैं।
    वृक्ष हर बार नया हो जाता हैं
    परम चेतन्य केन्द्र उसे जड़ नहीं रहने देता।
    पर मनुष्य अपनी जड़ता पर मुग्ध है। अपनी पाषाणता पर गर्वित है। वह जड़ हो जाता है। और अपने पुराने पत्ते को ही स्वीकारता हुआ आत्म प्रशंसित हो रहा है।
    यह धार्मिकता नहीं है।
    यह धर्म का वरण नहीं है।
    यह धर्म का प्रवेश नहीं है।
    इसीलिये ”बुद्ध” को कहना पड़ा। धर्म की शरण मे जाओ।
    ”धम्मं शरणं गच्छामि”।
    मैं धर्म की शरण में जाता हूं।
    तो अब तक क्या था।
    धर्म की शरण हिन्दू का मुस्लिम हो जाना नहीं है। आर्य समाजी का बौद्ध हो जाना नहीं है। तेरा पंथी का बीस पंथी हो जाना नहीं है। आदिवासी का ईसाई हो जाना नहीं है। शास्त्र धर्म नही है, किताबें हैं, शब्द हैं, जो कोरे है। परंपराएं धर्म नहीं है...सामाजिक व्यवस्था है, जो जड़ता सौंपती है। धर्म वह सब नहीं है, जिसे आप और हम सब मान रहे हैं। अगर वास्तव में यही धर्म होता। तो इतने विवादी स्वर नहीं होते इतनी कठिनाई नहीं होती। मनुष्यता को इतना गहरा अंधेरा नहीं मिलता। इतनी गहरी अंधेरी रात नहीं होती।
    धर्म स्वीकृति है।
    धर्म मनुष्य की चैतन्य की स्वीकृति है। और धार्मिकता चैतन्य में प्रवेश है। चैतन्य का अहसास है। चैतन्य हो जाना है। जो धार्मिक है, वह कटघरे में नहीं है, वह कैद नहीं है। वह पिंजड़े में नहीं है। वह पंछी नहीं है। वह गुलाम नहीं है।
    इसीलिए आचार्य ने जहां धर्म कहा...वहीं लीला कहा, वहीं ”मुक्ति” कहा। जो ”मुक्त” है, उसके लिए ”जगत” लीला है। ”
    सनातन धर्म में ”लीला” से बड़ा कोई शब्द नही है। पूरी दुनियां में लीला अपने आप में अद्भुत है। जो धार्मिक थे, इन्होंने लीला कहा। न नरक कहा। न दुःख कहा। न गंदा कहा, न अच्छा कहा।
    जगत ही चैतन्य की लीला है।
    और मुक्ति काया नाश हो जाना नहीं हैं।
    देहांतर मुक्ति नहीं है।
    मुक्ति, शरीर में ही चैतन्यानुभूति है। यहां पृथकता अर्थ खो देती है। जाति खो देती है। रूप रंग खो देती है, उस मान्यता को जिसे हम धर्म समझते आये थे, गलियारे अपना अर्थ खो देते हैं।
    संप्रदाय की छाया हट जाती है। पत्ते बस निः शब्द गिरते रहते हैं।
    बस खामोश
    पत्तों का गिरना भी महसूस नहीं होना।
    जब गिरता है, तभी तो कुछ नया आता है, नया पत्ता देखा हैं।
    कितना कोमल होता है, कितना नाजुक, संवेदनशील,
    हां, जब पत्ते गिरते हैं, तब ऐसा ही हो जाता है।
    यही यात्रा है।
    धर्म जड़ता नही है, जो जकड़ता है जो बांधता है जो असीम को सीमित कर देता है, पृथकता सौंपता है। वह धर्म नहीं है। और कुछ हो सकता है। नाम आपके पास है। रूप आपके पास है।
    जो, नाम नहीं है, जो रूप नहीं है, जहां पहचान नहीं है, वही धर्म है।
    यही प्रकृति के साथ साहचर्य है।
    यही मुक्ति है।
    यही मनुष्य का पथ है। यही मनुष्यता को जन्म देता है। जो जागा है वही धार्मिक है। वही मनुष्य है। वही कहीं बहुत गहरे               में प्रकृति के सहयोग में है। विरोधी स्वर नहीं, विवादी स्वर नहीं, वह निःशब्द, धर्म में है। धार्मिकता में है।
    इसीलिए कृष्ण को कहना पड़ा - ”मामेकं शरणं व्रज”।
    किसी ‘मूर्ति’, की शरण में नहीं, किसी ‘किताब’ की शरण में नहीं।
    किसी मंत्र की शरण में नहीं, किसी मन्दिर मठ की शरण नहीं।
    ”मामेकं शरणं व्रज”। मेरी शरण मे आओ।
    मेरी.....जहां चेतना है, जहां गति है, जहां स्फुरणा है, जो चैतन्य है। बुद्ध ने कहा धर्म की शरण मे जाओ।
    दोनांे अलग नहीं है।
    विरोध में नहीं है।
    जो अलगाव देख रहे हैं, वे विरोध में है, वे विवाद में है।  वे  हजारों साल से  विरोध देख रहे है।
    विरोध उनका हथियार था।
    विरोध उनका दर्शन था।
    वे विरोध ही करते हुए आए थे।
    और हमेशा विरोध करते है। जो अस्वीकृति में है, वह स्वीकृति की भाषा नहीं जान सकता। यह पूरे पन को पा नहीं सकता।
    जो मनुष्यता को बांटकर देखता है, वह मनुष्य को पा नहीं सकता।
    सनातन धर्म सनातनता का अहसास है। इसी समझ को सौंपता है। जो सनातन है, जो था, और रहेगा। मनुष्य और उसका             स्पंदन उसका प्राण सनातन है।
    मनुष्य का चैतन्य केन्द्र सनातन है। वह था और रहेगा।
    जब कुछ नहीं था.......तब चेतना थी। जब कुछ नहीं होगा तब चेतना रहेगी। जगत इसी चेतना की लीला है । सब जगह         वही लीला व्याप्त है।  अद्भुत कल्पना  रही ।  विरोध नहीं स्वीकृति में समर्पण रहा। इस धार्मिकता को समझने में भूल हो         गई।
    बुद्ध और महावीर के स्वर को विरोधी स्वर, विवादी स्वर स्वीकार कर के प्रभु के अवतरण की घोषणा..... प्रभु की लीला की         वर्णना और लीला से पुनः प्रभु में ही वापसी। क्या विपरीत ध्रुव है ?
    बिना दोनो ध्रुवों के पृथ्वी की कल्पना नहीं हैं।
    पृथ्वी का अस्तित्व वही है। पृथ्वी का आकर्षण वही है। उसका रूप वही है।
    ये दोनो ध्रुव पूरक हैं, दो छोर हैं.... यात्रा एक ही है।
    यात्रा बहिर्मुखता से अन्तर्मुखता की है। चैतन्य की स्वीकृति बहिर्मुखी व्यक्तित्व को पहले एकाग्रता की जमीन सौंपती है, और         फिर एकाग्रता अन्तर्मुखी बनाकर चैतन्य की ओर, उसकी निजता की ओर, उसके अस्तित्व की ओर उसे छोड़ती है।
    यही यात्रा है।
    यही धार्मिकता है।
    इसीलिये आवश्यक है, धर्म में प्रवेश हो। धर्म हमारा मार्ग प्रशस्त करे।
    हीनता नहीं, दयनीयता नहीं गहन स्वीकृति रहे। तन, मन प्राणों का संगीत गहरी संतुष्टि दे, गहरी आस्था प्रदान करे। धार्मिकता         प्रकृति के प्रागंण में प्रवेश है। धार्मिकता परमात्मा का प्रवेश द्वार है। धार्मिकता सांप्रदायिकता नहीं है। जड़ता नहीं है। यह समझ         लेना जरूरी है।
    प्रेम प्रभु का द्धार है। धर्म प्रभु का द्वार है।
    धर्म ही प्रेम है।
    प्रेम ही धर्म है।
    यही परमात्मा की चैतन्य की स्वीकृति हैं
    जो हमारा मार्ग है।

0 टिप्पणियाँ:

About This Blog

Lorem Ipsum

  © Blogger templates Newspaper by Ourblogtemplates.com 2008

Back to TOP