रविवार, 27 दिसंबर 2009

1                      प्याज़


प्याज,
छिलके उतरने की सहती व्यथा, रोज-रोज
उतरते-उतरते
रहता है क्या
ब्रह्म ज्ञानी कहता, ‘वह महाशून्य था’।
... बस एक खाली सा
वर्ण, जाति, संप्रदाय की नीली काली परतें
रोज़-रोज़ उतरती
आहत बु(िजीवी बाहर की कालिमा
लीक-लीक उकेरता
परत दर परत, उतारता, छीलता
हंसता, बतियाता,
पूछता जाता,
इतिहास है कहां, यह तो बस जोड़ है...
मात्र खाली परतों का,

इतिहास बस उनका
जो जमीन, औरत और धन लिप्सा में
मरगए
मारे गए
उनका पुजारी लिखता अमर काव्य
 इतिहास बस  उनका

प्याज का कहाँ
जंगली भी होती है
गरीब की थाली में ताकत बन रहती हैं

देती गुलाबीपन
स्वाद भी कसैला
बेहद सस्ती यह
पड़ी रहती सड़क पर
देश की जनता सी,
रोज-रोज छिलने को
परत- दर- परत छिल,
यूं ही मर मिटने को,
क्योंकि वह  है आम,
इतिहास  वह नहीें है।

जबकि रस इसका ही
मीठे शहद से मिल
होता
जनतंत्र का खजाना है।


तभी बाजारी ने
उसके तरफदारों ने
शहद को उठाकर दूर
 प्याज से रख छोड़ा है,
चर्चाकर प्याज की
न जाने क्यों  वह दूर रहता  प्याज से।

बस एक बार,
दोनो अलग मिल सकें
आकर पास बतियाएं
कुछ- कुछ कह पाएं
कुछ-कुछ सुन पाएँ

रास्ता जो छूटा है
फिर मिल सकता हैं।




कहने को बहुत था

कहने को बहुत था
बहुत कुछ कहा गया
पर सुना कहां किसने
कान पर
न ठक्कन था
न आंख पर
पर्दा था,

पर भीतर का सुआ
अपनी ही धुन पर
मंत्र-मुग्ध नचता
खुद को ही सुनता
देखता भी खुद को,

बाहर का कोलाहल
चीख, आहत, आत्र्तनाद
माया, पाषाण वत
संवेदना मरी-मरी
रस लोलुप जीभ
हड्डी चूसते श्वान- सी।

अपनी ही आत्मा
 शिला सी अहल्या रख
स्वार्थ रस चाटती
आनंदोत्सव झूमती
सुनने से दूर वह
न देखने की चाह लिए
अपनी ही ढपली पर अपना ही राग।

अंधेरा इतना
सूझता नहीं था कुछ
कभी-कभी खुद की ही
 उठती चीख भी
सुन नही पाता
खेत से खलिहान से
झोंपड़ पट्टी से
मैले, कुचले पशुवत जीवित मनु संतान की,
कविता ,कहानी में रचना तलाशता

पर, चुप-चुप
स्वार्थ, नाभि- नालि युक्त
न सुनता
न देखता
जो भी सुन रहा था
उसके कानों में सीसा ढोलता
फोड़ता आंख
शब्दों को छीनता।

जो न सुनता
न देखता,न कुछ करता
बड़बोला, अपनी ही त्वचा पर,
चिपटा परजीवी, वह।
”देख-देख सही तो देख
कह-कह सही तो कह,“
सबको समझाता
उसकी पहचान.....
‘हवा दरख्तों को बताती है
फिर भी न जाने क्यों
..वक्त भी . खामोश है....

जो न कुछ करता है,बस सुनकर चुप रहता है।





                    कविता वह-3


कविता न खाद होती है, न बीज
न दवा
जो बीमारी को मार देती है,
वह, वह जमीन है
ताप, नमी पाकर
बीज,
दरख्त में बदल देती है,


दरख्त का दरख्त होना जरूरी है
वह फलदार हो या नहीं
चाहे वह श्मशान में लकड़ी बन जले
या अंगीठी में कोयला बन दहके
या किंवाड़ में लग जाए
या किसी खूबसूरत मेज के पांवों में ठहर जाए।

कविता दरख्त जनती है
कभी मशाल बन दहकती है
लपट उसका शृंगार है
उसके जिस्म पर फलती है,

वक्त बार-बार कहता है
लिखो, और और लिखो
दरख्त मशाल बन जल जाएं
अंधेरा यह नियाॅन लाइट से कम होगा नहीं
‘पावर कट’ का जमाना है
दहकना मशालों को है
अंधेरा उन्हें, दहक, खिसकता जरूर है।


            उन सबके लिए-4

उन सबके लिए
जो ट्रेन के डिब्बे में जलकर राख हो गए
या बेकरी में बिस्कुट बन सिक गए
कहता वकील था-

आग अपने आप लगी
उन्हें मरने का शौक था
‘सती प्रथा प्रशंसक वे
साथ ‘राम’ सता हुए
या सुपुर्दे खाक हुए।

वे थे खामोश
घर की रोजी-रोटी की फिक्र में लगे थे
जो बेकरी में
या खेत या खलिहान में
जिन्दा रहने का मंत्र पूछते थे
अनायास यूं ही

मौत जो मुंडेर पर बैठी, चील की तरह आई थी
राम की यादों में
अभिशप्त सीता सी
चुपचाप धरती समा गई।

उनका क्या कफन की दुकान पर डेरा जो डाले हैं
कहीं सीढ़ी
कहीं पंडित
कहीं काॅफीन
कहीं काजी
सब मुहैया करा देते हैं।

रोते हैं, हंसते हैं
साथ-साथ रहते हैं
लड़ते हैं जैसे हड्डी पर कभी-कभी
दतात्रेय सहचर
शांति पाठ पढ़ते हों
सभा या संसद हो
आंसू कहां आँख में
टेंकर में जल ‘साबरमती छोड़ आए हों।

वे जो मरते हैं
तिल-तिल कर जलते हैं
भूख, गरीबी, जलालत की आग में
नम होती आँखों का
काश अनकहा सुन जाएं
हाथों में खंजर नहीं
बंदूक तलवार नहीं
खुशबू सी रेखाएं साथ लिए हथेली पर
दूसरी हथेली रख
एक गीत प्यार भरा
यहां-वहां छोड़ आएं।
















            कभी-कभी वे-5

कभी-कभी वे दिख जाते थे
आते-जाते
पत्नी संग कभी न चलते
आगे वे
पीछे वे
चलते जाते, .. खोये-खोये से,
अपने से ही बतियाते,

कभी पार्क में घूमा करते
‘रामदेव’ के गोल घेर में
कुंजी स्वास्थ्य की पकड़े-पकड़े
कभी क्वार की धूप लजाते
सख्त-तप्त फौलाद बने से,
नहीं बोलते
नहीं देखते
खोये-खाये, अपने ही से।

नहीं दिखे वे
कई दिनों से
बूढ़ा माली सोचा करता
बच्चों ने शायद रोक लिया हो

बड़ी कार है
बड़ा सा बंगला
उल्टा-पुल्टा नया है धंधा
पर उनसे सहा न जाता,
पग-पग रौनक
रोज मना करती दीवाली
नहीं-नहीं उनका मन ,
वहां क्या लग सकता है?

कभी जो बंगले में नहीं जाते,
अपने घर की चारदीवारी, टूटा छप्पर
सबसे अच्छा कहते रहते,
बड़ी कार में ठंडी पाकर
जिनकी नस-नस खिंच जाती है
क्या वे वहां टिक भी पाते..।

यही सोचकर पेड़ उदास था
जो कल तक उनकी बातों को चुपचाप सुना करता था

बोला-
पत्थर की तू बैंच सही है
‘पर उनके भीतर
कुछ-कुछ, हरा-नया मैंने पाया है
जिनकी मुट्ठी बंद रही है
नहीं हथेली कभी खुली थी
कभी सामने
जाकर स्वर्ण मुद्रा की ललचायी मिक्षा पर,

वह दाता है
नहीं झुकेगा, नहीं गिरेगा, नहीं मरेगा
इस लुभावनी
इन्द्रजाल की मायावी कुत्सित इच्छा पर,“

तभी अचानक उसी बैंच पर
पाया उनको
बतियाते, हरी दूब से, और हवा से
जीवन भर जो पाया सच है
वह अमूल्य है
देह नहीं शाश्वत यह सच है
पर उसके भीतर जो जागा
नहीं झुका जो
अपने ही रस में डूबा वह
 गर्वीला, ... ‘स्व’ से अभिमंडित, ... वह जीवित है,
पिता, बरसों की टूटी इकलौती,
बड़े पार्क की पथरायी बैन्च सा

देखा उनको
मायावी दुनिया की चकाचैंध से दूर
मुंदी आँखों से
नन्हें शिशु की पुनः कल्पना साथ लिए
फिर बतियाते
साथ वृक्षसे कभी खड़े,कभी ठिठकते, अपनी छाया से भय खाते,
धूप, और यह घास और यह धूल सचमुच उनकी है
तभी बैंच
जो टूटी कब से, ... बहुतों के हाथों की चोट सम्हाले
इंतजार में लेटी रहती, उन जैसी वह..,.
रोज सुबह, ... और धूप कुनकुनी, ... उसकी अपनी  है।




















 क्यों हम....? - 6
क्यों हम चर्चाओं में ही रहते हैं व्यस्त
नहीं देख पाते
अभी-अभी वह जो साथ रहा था
चुपचाप उठा, चला गया,

बार- बार यह कहता
कहां जाना है
पता नहीं यह
पर लौटेगा नहीं
इस चादर पर ,इसी तरह फिर आकर

 ‘घास’ इसी तरह
 दबती ,कुचली यहां रहेगी
और तुम बस  बतियाते
बार- बार दोहराते
सार हीन चर्चा में
 तत्व ढूंढ़ते, ... बिना कुछ किए-धरे  सबको उलझाते


बुढ़ियाती लड़की, विवाह  की सीमा रेखा लांघ,
थर - थर मोबाइल
रही  घूमती छत पर
भाई उसका
पड़ा ठूंठ बीड़ी का
खांसता, खुडखुड़ाता
ताश के पत्ते अंधेरे में समेटता
‘पन्नी’ पर उठता धुंवां सोखता
कब हुआ युवा, ... उसे पता नहीं,

हर और अंधेरा
पसरा  बैंच पर
पुलसिए की प्रतीक्षामें
मिट जाए भूख, ... थाने या जेल में,
.
... चर्चाएं गंभीर सागर सी
पर सारा जल खारा
बूंद- बूंद
चाहत एक घूंट जीवन की

कभी थमेगी
शब्दों की जुगाली कभी
कविता जब बिना सहारे पढ़ने में आ जाए
शब्द  उगल पाएं आग
अनकहा जो छुपा है अंधेरे में
भभक उठे स्फुर्लिंग, ... जलते अनार सा
कह पाए तेज रोशनी वह सब कुछ
रंगीन इबारत के पीछे छिपा जो कबसे है।


















बहुत फर्क पड़ता है-7

हमारे होने न होने से
क्या फर्क पड़ता है
वह ग़ज़ल कहा करता था
दुकान उठ गयी
खामोश चित्रशाला है
कितना कहा उसने, ... पर सुना किसने पता नहीं....
वह भी नहीं सुन पाया
नई सदी के
का़ि़फये की जुम्बिश को।

वक़त की ‘हाॅपनी’ चढ़ी हुयी मुद्दत से,
न बुखार न ताप
चुप-चुप रात के अंधेरे में
टपकती नल की बूंद सा
रीता जाता है जल
अंतस के पात्र का
खाली है, खाली है
सदियों से खाली है
सभी कहा करते हैं
पंडे पुजारी
विश्वविद्यालयी तक्षक सब...।

पढ़ता है वही सब
सुनता है वही सब...
जो लिखा करता है...
... नहीं पढ़ता कभी वह
जो ज्ञानी है, ध्यानी है
कुंजी उपासक वह
सुविधा की सीढ़ी चढ़
लंबी कुल्हाड़ी लिए...

हर हरी शाख पर
पहले वार करता है।
... कविता का सच!
सुनो कवि जी
हमारे तुम्हारे होने से बहुत फर्क पड़ता है।



























            जो नंगे पांव चलता है-8


पंचांग में फलित कभी झूठा नहीं होता
सच,
हमारी तुम्हारी मौत का दिन तय शुदा है
न तुम बदल सकते हो
न कोई और
जाना कहां, कैसे जाना है, ... तय हो चुका है।

फिर बिस्तर पर पड़े-पड़े
करवट क्यों बदलते हो
किसकी प्रतीक्षा है
न किसी को आना है
न तुम्हारी बदसूरती पर उसे अफसोस करना है

अपनी की चादर है
हमने ही बुनी थी
हम ही उतार सकते हैं
दुनिया का सच यही है
इसी पर टिकी है,
निकलना है हमको
हम ही आ सकते हैं
थोड़ी सी धूप
थोड़ी सी चांदनी
हथेली पर रखकर
जहां भी जो रीता है
सपनों को जोहता है
वहां छोड़ सकते हैं,
वह देख पाए
अंधेरा जान पाए
उससे पार जाने की हिम्मत जुटा सके
यही तो करना है
कविता शब्दों की जुगाली नहीं
इबादत है उसकी
शब्दों के अलाव पर जो  नंगे पांव चलता है।































तुम्हारे लिए-9

छोड़ो भी यार! बहुत काम है
इस वक्त करने के लिए,
गंदे मटमैले कब से न धुले
ये प्याले, ... ये गिलास
इस मेज पर रखे हैं,
मेज या कूड़ा घर
न जाने कबका अटाला
सभी यहां रखा है
जाले ही जाले
क्राक्रोच टहलते हैं
छिपकली के अंडे, तस्वीर के पीछे कब से रखे हैं,

फर्श भी गंदा है
न जाने कब कौन
यहां ‘पीक’ कर गया है
इसका या उसका, जो भी यहां आया था
सराय को अपनी समझ
शंका समाधान कक्ष समझ, वह भी गया है।

अब तुम कहते हो
यह तुम्हारी है
तुम्हारे बाबा के बाबा, उनके परदादा
फिर उनके बाबा
पट्टा यहां पाए थे
यहां सफाई तुम्हे करनी है
क्योंकि यह तुम्हारी है

हां, साफ हो जाए
सब करीने से सज जाए
नल का, बिजली का, और दवाइयों का खर्च
ज्यादा इतना
सम्हलता ही नहीं,
हाथ-पांव हरि कीर्तन
 सत्संग की तलाश में घूम रहे कब से।

सराय, ... यह कभी लावारिस रहती नहीं
... किसी ओर को ही यहां आना है
... वह पसरेगा बैंच पर
नए कुशन, नया फर्श, और रंगीन दीवारें उसकी
और तुम्हे बस
फिर
प्याले-प्लेट धोना है।





















            जिन्हें नींद बहुत आती है-10

जिन्हें नींद बहुत आती है
वे ही हकदार हैं
समय के सही दस्तावेज हैं।

उनकी वाणी में आग सचमुच पिघलती है
बदलाव की चाहत
कपड़ों में झलकती है
दाढ़ी में उलझे हुए बाल
नए खिजाब का देते अहसास
अनकहा, ... बता जाते हैं

आज के सवाल
आज की दुनिया
दोनों की टकराहट
इतनी उबाऊ और थकानदार
समय, असमय
जात-कुजात
ये सभा, ये मीटिंग
कहना और कहना
किसी का न सुनना
इससे मिल, उससे मिल
जो न मिल सके
उसे हरकाना
कितना कष्टकारी है
तभी,
कुछ करने की बात सुन
उन्हें नींद बहुत आती है।





कविता का पहला छन्द-11

जो नहीं सुनता है कविता
न आता है
न आना चाहता है
तुम्हारे बीच
डरता है,
तुम उसे बेच न आओ बाजार में
मुहावरा, कथन का
छन्द और बिम्ब का
प्रतीक अलंकार का
बदल सा गया है,

कविता का आलोचक
उसकी तलाश म,ें
वह बार-बार आता
चाय की प्यालियां, लाता-ले जाता
कमरे की झाडू
या बाहर नाली की सफ़ाई
कहां तक भागे
सब उसको ही करना है,
वही गीत का पहला छन्द है
जानकर वह
चुपचाप खिसत जाता

उसकी ही खोज
सबको है भारी
सम्मुख है वह बैठा
नज़र नहीं आता
कवि की बढ़ती लाचारी

अस्पताल में झगड़ा
डाॅक्टर की पिटाई
मरीजकी पिटाई
जो न मर पाए
मरने की कोशिश में
सब करते हाथापाई
वह खड़ा-खड़ा देखता,
दृष्टा वही
दृश्य वही
दर्शक वही
पर कवि की आँख में सुरमा नहीं
जो वह चुरा पाए,

खड़ा-खड़ा देखता
हर गली, चैराहे पर
उसकी कटती थी जेब
सिपाही वही, वकील वही, कवि वही
जाते जुलूस में
चीखते, चिल्लाते, कल के शासक
कल की प्रजा के सुधी क्रु( चिंतक
एकमत सब,
जब तक वह नहीं है
हमें काम करना है

उसकी हजामत का
नया-नया उस्तरा इजाद करना है।

चुपचाप खड़ा-खड़ा
सोचता सिर घुनता
अपने ही आप पर हंसता, बतियाता
ढूंढता ‘विक्रम’ को
कभी साथ लाया ‘बैताल’ सिर पर
बिठाकर
पर यहां कोई नहीं
मत-पेटी के वंशज
मत से निकले हैं
मत में गिरेंगे
गली, पोखर, कहीं भी जल नहीं
लोहे की पेटी में
या बिजली की मशीन में
तिलचट्टे रहेंगे।

ढूँढ़ते सब उसको
कवि भी हैरान है
कविता से कब वह
चुपचाप निकल भागा है
बड़े-बड़े छंद, अलंकार छोड़
बिम्ब, प्रतीकों के सात घेरे-छोड़-तोड़
पास में खड़ा वह
कविता में आकर
गैर हाजिर रहता है
















                बहुत बड़े हो-12

यार! तुम बहुत बड़े हो
बड़े भारी-भरकम शब्द
बिना बरसात के बरसाती ओढ़े वृ( के सामने जाते
खिलखिलाकर हंसते
शाला से लौटते बच्चे,
जीभ-दिखार दौड़ पड़ते,

पीछे.....  ,खजलाया, ... कुड़कुड़ाता बूढ़ा
अतीत की टूटी नौका के पाल सम्हाले
बरसाती थामे, दौड़ता-हांपता
नई कौंपल को रौंदने को दुस्साहस लिए
चींखता,
बूढी, जीर्ण-शीर्ण पुस्तक के पन्ने तलाशता
झुंझलाया
तीर्थ यात्रा का टिकिट खरीदता
रात को ‘नेट’ पर रंगीन चित्र देखने की कोशिश में
बार-बार कटने पर चीखता
दुनिया को कोसता

तुम बहुत पहले-बहुत पहले
पैदा क्यों हुए
जब कलियुग में वापसी सतयुग की है
रंभा-मेनकाएं
गली-गली नाचतीं
थिरक-थिरक उत्सव मनातीं,

बूढे़ होने का दुख
कयामत की कल्पना से भी त्रासदी
क्या सचमुच नहीं है,
जबकि ‘दाउद’ की बेटी की शादी में
सैकड़ों व्यंजनों पर लपलपाती जीभ
अपने ही होठांे पर
दांतों की आजमाइश से बचती, नुच जाती है

बड़े होने का दुख
छोटे-छोटे सुखों को छू नहीं पाता है
कम हो सके बड़ा पन
सचमुच बड़ा कर जाता है।


























                        क्योंकि-13

अचानक रेल के डिब्बे में
भारी भीड़ में तुम्हारा पहचाना सा चेहरा
यह तुम, यह वह,
स्मृतियां पर पड़ा पत्थर
हटाए नहीं हटता,

मांगीलाल हो या पन्ना, या भूरा या गोपी
चेहरे उनके जो साथ रहे
पहचान नहीं दे पाए
हंसते-गाते, बोलते-चलते,
कुछ मर गए
कुछ खप गए
रात-दिन की दौड़ में,
”सर!“ अनुगूंज में
पहचान उठती है
पहचान गिरती है
जिसे पहचानता है, जो पहचानता है
उससे वह छोटा है
जिसे पहचाना, वही बड़ा होता है,

पहचानकर, अजनबीपन
न जाना, न पहचाना, बुत को अपनाना
सचमुच सुखद होता है

जबकि बात उसकी है
उसके लिए आए हैं
सामने उसी का पोस्टर टंगाहै
उसी की कोशिश में यह ‘रत जगा’ है
पर हमने पहचाना तो
वह सर चढ़ेगा
सर पर कदम रख, कदम ताल करेगा

चुप रहो,
चुप रहो,
उनको  ही पहचानने दो
हम इस पहचान के मात्र साक्षी है
साक्षी रहना, वक्त की जरूरत है।



























                          वह-14

सुबह शाम वह बीनती है प्लास्टिक की काम आई थैलियां
इसमें अचरज नहीं
वह सिगरेट की पन्नी की माफिक चमक रखती है
काले बोरे
मैले व गर्द में डूबे हुए हैं, ... कांधे पर रखे
टूटी प्लास्टिक की चप्पल पहने
नाले के बीच उतरी है
बोरे में रखती-जाती
गंदी, मटमैली, मुट्ठी में थैलियां

हाय!
उबकाई की हद तक उठती है हिचकी
डबलरोटी पर लिपटी
फिर चढ़ी आती है
नई थैली, प्लास्टिक की
... तब अचानक पड़ौस में -सूरज’ उग जाता है

पुराने को नया
नये को पुराना
इंसान जो कल गुजरा था
उसके जाने की प्रतीक्षा में, ... कितना खोया गया सब कुछ
पुरानी थैली सा
कीचड़ में रखा वही चेहरा था
बस आना
और जाना
बीच में कहां रहना,
मशीन पुराने को साफ कर नया बना देती है।


पर सरकार कहती है
थैली पर्यावरण विरोधी है
उसका बन्द होना, ...
आज की जरूरत है।

तब ये थैलियाँ
गली-गली-शहर-शहर
बेतरतीब पड़ी है
जिनका अपना खुद कुछ नहीं
जो भी कोई भर दे
चाहे नेता, या कोई बाबा
या‘मीडिया’ हो
सम्हाले फिरती हंै
चहकती हंै, फुदकती हंै, कभी-कभी चीखती हैं,

इनका क्या होगा
अब सुना है, कागज की होंगी
हवा-पानी स्पर्श से टूटकर-बिखरकर
सब सह लेंगी
जैसे पहले हुआ करती थीं।
















कभी-कभी-15
कभी-कभी चोरों के घर भी आ जाते हैं चोर
हमने थाना लुटता देखा
हमने थाना बिकता देखा
थाने के भीतर
थाने को सोते देखा,

कभी-कभी
पहनकर काला कोट चलता बगुला पोखर की ओर
धरा पांव पानी में नीचे
 दूर उछलते दादुर
मछली दौड़ उछाला करती
... दूर फिसलता वह चैखट पर,
... माया की छाया है
मरे कफ़न का सौदा होता
मरने के पहले ही जाकर
अपनी कब्र झांककर आता...

जब तक नोट दिखे नहीं उसको
पंडित लकड़ी जलने नहीं देता
पहले पैसा
पहले पैसा
बूढ़े तोतों को बुलवाकर
माया ब्रह्मज्ञान समझाती
यहां पत्थर की आंखें पुजतीं
हंसकर कहतीं
जिसकी झांकी सजती उसको रोज चढ़ावा आता

लुटा पिटा
गोबर का बेटा
रहा ढूंढ़ता प्रेमचन्द को
क्योंकि होरी का लाकर जन्मा उसका वंश चलाकर छोड़ा
तब से पीट रहे
सुधि जन, हट लकीर उसके परिजन की
‘हँसते-गाते अपनी चमड़ी को और अधिक मुटियाते जाते
पर वह थाने पर बैठा
नहीं कोई जमानत आई,
उसकी दफ़ा सोचता नाजिम
‘मुंशी धीरे से यह कहता
चोरों के घर ढूंढ़ रहा था, यह भूखा रोटी का कौर!


























                         सड़क पर-16
सड़के चैड़ी हो रही है
और गहरी और काली
कोलतार सजी, पिटती, कुटती और गहराती
पास की थड़ियां
न जाने कब की हट गईं।

पूछता पप्पू
नहीं गुब्बारे वला
नहीं साइकिल के पंचर ठीक करता, हरजू का बेटा
संतरी चैकस
सीढ़ी पर सीढ़ी, ठहरना मुश्किल
हवा कह रही थी।
बड़ी कार को रुकने ठहरने की जरूरत है
रास्ता तंग
इतना, छोटा और पतला
अब दिखा, चैड़ा, और खुला, ... अमरीका सा।

सुना तुमने!
यहां आदमी की जात ने
भूख को किनारे पर सजा
गंदगी ही रास्ते को सौंप दी
नहीं था किसी को पता
कभी यहां सड़क भी थी

सब तरफ आदमी, थड़ियां, ... ठेले ...
यही था शेष इस सड़क का।
ढूंढ़ती आंख उन सभी को
हंसी, ... ‘पद्मावती’ के सरोवर स्नान सी,
या वह पुलक
थिरकी भी कभी दो जून रोटी को,
नहीं था गीत,
संगीत जो इंसान की जुबान पर था कभी
इस चैड़ी सड़क पर।


‘माॅल’ आने को सुना है पास में
‘छोटे लोग, छोटी दुकान, ये तंग गलियां
जा सके कहीं दूर...
‘आज  का सोच यही है’
नेता कहता फिरता था’’,

देसी भाषा कसमसाई
देसी की आंख भर आई
अखबार के पन्ने हंसे, ... और खिलखिलाए
...उनके भीतर सजा , रंगीन नक्शा
घ्र-घर हंसा,चहका ,गुदगुदाया

सच! उनका देसीपन छुड़ा़
फिरंगी  रंग में रंगा
रेवड़ में बदलाव ,
आज-तक की यही थी ख़बर,
...
वे बतियाते रहे
इसी सड़क पर।











                          हस्तरेखा-17

कीचड़ में सने हाथ की रेखाएं
पढ़ नहीं पाता पंडित
नहर में पानी मुद्दत बाद जो आया है

दूर खड़ा अभियंता
हथेली खोले हुए बार-बार देखता
खुजलाहट हथेली की सुबह से
इस बार का बजट अब पूरा भी होना है

बादल महीने भर से गायब हैं
शुक्र है समय अच्छा है
गुरुजी ने कहा था-
शनी उतर गया है
दूर खेतों में, फटे हाल किसानों पर
चढ़ा ही नहीं
चिपक भी गया है

महाजन भी खुश
कल ही सुबह-सुबह पहली बार गया था
तृष्णा की रेत पर...
भारतमाता को याद कर
कदमताल कर आया था
उधारी बढ़ेगी
ब्याज सवा से दो पाई सैकड़ा बढ़ेगा
गिरवी जमीन, बर्तन-भांडे भी होंगे
तब वसूली तब होगी...
तब, भविष्य वह में सुरक्षित रह सकेगा

संस्कृति का गवाक्ष खाली
नहीं कोई आता इधर
रानी, परनानी, दादी अब वहां कहां
कभी बैठा था ललमुंहा बंदर वहां
उठकर जबसे गया है
नचता ‘बराह’ का वंशज
महाजनी मंत्र पर
चढ़ता-उतरता
महिमा मंडित
समाचार पत्रों में छपा है विज्ञापन
भागवत कथा का वही आयोजक।

चीलंे व्यस्त है
गि(ों को जाकर नौत आयी है तेरहवीं का भोज है
कागा उड़ते ही नहीं
बैठे हैं मुंडेरों पर कल से जमा
बहस ही बहस
राशि अकाल पर,
या बाढ़ पर खर्च हो होनी है
दिनभर में, ... कितनी कहां
लार रूकती नहीं
मरण पर्व आयोजित जो होना है।
उनकी हथेली पर
रेखाएं मिटसी गई है
कीचड़ में सनी, धूल में बंधी
सूरज की रोशनी में
किरण सी चमकती है

उसकी रेखाएं
पंडित हंस-हंसकर बांचता
ग्रह अब उतरने को है
खुजली रूकती नहीं
जिस्म खुलाने चली है
नस-नस में हवस सुरसा सी जगी है।

               
               समिति के सभागार में-18

सभी चिंतित थे
ज्ञानी, ध्यानी, चिंतक सुधी समीक्षक
कुकुरमुत्ते की तनी छतरी पर
जगत का बोझ थामे,
अगर जरा भी हिले आकाश नीचे आ जाए

संस्कृति, अपसंस्कृति, बड़ी-बड़ी नौकाएं
सूखती सरिता के सभी घाटों को तोड़ते
वो चले आए
दूर खड़े सौदागर
तेज रोशनी में दमकता सुर्खानी चेहरा
खुला वक्ष और ऊँची तिकोनी मंे कन्या

बेकारी भूख गरीबी, दूध-पानी, और सब
नहीं मिला अब तक
चाहत में जिसकी
हजार साल से दम तोड़ता
समिति दरवाजे पर, पगलाया ‘गोबर वह’
वो फिर नाचेगा,
खरीदेगी, वही कुछ जो उसे मिलता है
धनिया को बस मुस्कराना है,
होरी की  जरूरत नहीं
उसकी मुस्कराहट पर, उसका ही माल
गली कूचे बिकता है
हवा, पानी, धूप और उजाला
वह अपने पास रखता है

पानी कभी का यूंही उतर गया
जो था नया
‘पाउच’ में चला गया

चिंतक उदास
क्रीतदास
दूसरों को जुलूस में देख आंखे विस्फारित
वाह! वाह!
भीतर ही भीतर, सोच-सोच उदास
हाय! हम न जा पाए
वहां बटती भभूत थी
यश की प्रेय की
ले गया पड़ौसी जो कल तक यहीं था।

नहीं-नहीं
हमें लानी है क्रांति, आग यहां बुलानी है
हो जाए भस्म सब
जो भी कर्दम है,

पर चुप!
मैं और मेरा तन भी तो यहीं है, ... उसे है बचाना
चुप! चुप!
फायर बिग्रेड को तुरंत यहां लाना है
कुछ जले
कुछ बुझे
यहां बस ऐसा ही होना है
हमको समिति के इसी हाल में
इसी हाल में चिंतित चर्चा में सक्रिय होना है।





  सपने
वह बचपन में सपने देखता है,
सपने उसका
बचपन चुरा लेते हैं,
खबर न उसे है
न मां-बाप को होती है
वे सपनों को छीनकर बस्ता थमा देते हैं।
वाह!
वर्दी जो बचपन में चढ़ती है जिस्म पर
उतरती तभी है
जब चील काली पास आ,
उस पर झपटती है,
वह पूछता है, जगह-जगह
इन सपनों का क्या अर्थ, जो रात को ही नहीं,
दिन में तंग करते हैं
न घर पर आराम है
न दफ्तर में,

बाहर बैठा बाबा कहता है
जिन्दगी एक सपना है
रात का छोटा और दिन का जरा बड़ा होता है
पर उसका  ही सपना
इतना बुरा क्यों है
बाबा तो दस आसन सिखा
हवाई जहाज में उड़ता है

अखबार जब भी पढ़ता है
कल से आज गरीब होता है
गरीबी की रेखा, कहां से कहां तक
भूख का रोटी से, रोटी का कैलोरी से जो
रिश्ता बना है
वही भूखे पेट का हिसाब भी रखता है

बस का भाड़ा
स्कूल की फीस
अनाज, सब्जी, दूध
दवा की दुकान
सितारों की तरह पास आकर
जीभ दिखा देते हैं।

भूख का सपनो से रिश्ता कभी सम्भव है
सचमुच ही नहीं
सपने में ही सही मशाल कोई जल जाए
कर दे वह राख
लोकतंत्री चादर पर जमा जो कचरा है।

कामकर- कामकर
हर कोई कहता है
ेमुट्ठी में कमाया कागज
कुछ भी नहीं देता है।

सरकार कितनी रहमदिल
कहीं भी, कभी-भी
दारू की दुकान रोज नई खुल जाती है
बढ़ते हैं ग्राहक...
हाकिम की चाँदी और चमक जाती है।
बाहर पोस्टर में
लड़की साइकिल चलाती है
पर भीतर चुपचुप
अब सपने भी नहीं देख पाती है।

गाँव गाँव नन्दीग्राम
पुलसिया कहता है
कुछ भी करलो, यहाँ
 रुपया आकाश से टपकता है।


कोड़ा कोई एक नहीं
गाँव गाँव कोड़ा है
कोड़ा को ही गिरवी रखा
हँसिया और हथोड़ा है।

घन नहीं उठता अब
दोनो हाथ रम-राम
संसद में परसादी
चहुृ ओर काँव -काँव


मत देख सपने अब
नींद तोड़,आँख खोल
तूही मंत्र
तूही तंत्र
थोड़ी सी वरजिश कर
झुके अब कहीं नहीं
उठा फेंक कंधे से
अपनी ही जमीन यह अपना ही आकाश है
स्वप्न छोड़ आँख खोल।









                          
 20हम
अचानक ही वह पत्थर पेड़ पर आ गिरा था
ठहरे हुए पक्षी
जगे, फड़फड़ाए, उठे, उड़ गए,
कहां, ... यह पता किसको था!

याद रहा इतना
आकाश है, जगह देगा, लौटकर फिर
इसी पेड़ पर आना है
पर न जाने क्यों
कितने पत्थर रोज आ गिरते हैं।
सड़क पर फटेहाल लड़की को, न जाने कितने गि(
कांधे पर उठाए
रोज तीर से मिलते हैं।

कल तक भूख की
तेरी मेरी उसकी
बात वह करता था
नुक्कड नाटक में शहीद बन बिखरता था
कुरते और पजामे का रख नहीं पाता हिसाब था
अचानक कल मिला

करोड़ों की बात लिए
हंसता मुस्कराया
देश, धरती, जन अचानक सैकड़ों शब्द लिए
भारी से भारी
शब्द शोर में बदल
शोर, नोट में बदल
वह जेब भरता,
यही कहता फिरता था
लोकतंत्र का सच
राम का नाम है
यहाँ नाम की लूट है
लूट ही सच है
जिसने यह जाना है
सुख उसी को पाना है।

 हर कोई दूसरा..
हाथ में पत्थरलिए
सोचता सुबह शाम
वह क्यों न कर पाया सह सब
उसका भी कुरता उतना ही मैला और था काला...।

कहता शनीचर
राहू-केतू साथ तेरे साथ
जन्म से लगे हैं

यह धरती
लुटने को बनी है
 जो भी यहां आया, लूटता चला गया

भय चमड़ी से चिपटा
और क्या छिन पाता
सब छोड़, ले लंगोटी
तभी हिमालय पर गया है
कहता रहा वह
है नहीं अब पास कुछ
क्या कोई लेगा
पर लंगोटी में भी कोई आकर
यहां  भी लूट सकता
यही छिपा सच यहां सबसे बड़ा है।

गिरते हैं पत्थर अब
और धूमकेतु उल्का भी
उनसे भी तेज, और तेज
टी.वी. के चैनल
नहीं कोई ठहर पाता
कितनी चिकनी यह सतह है
नहीं जल
अब जरा भिगो पाता

भीतर रखा था वह
स्निग्ध कोमल
छंद तुम्हारा ही, तुमने जो पाया था
अचानक शीत पाकर
पछुआ हवा से
बर्फ सा हो गया है।

ताप कहां
कहां है तपन...
चर्चा ही व्यर्थ है
बाहर के देवता
पाषाण बन पुजे जो...
इतना आदर पा
अब भीतर ही जमे हैं...

भीतर का छंद
सजीला सुरभित, चुपचाप बाहर निकल
मंदिर में कबसे पूजित हुआ है
और हम,
हत भागी!
नहीं-नहीं प्रभु परसादी
पत्थरों के टोल से फिकते-फिकवाते
हाथ दूसरे के कबसे,  कसे से रखे हैं।






21

अब ‘कवि’ नहीं आते
उस जमाने की बात है, जब भाषा प्राध्यापक
अध्यापक और छात्र कवि हुआ करते थे

बसंत पंचमी पर
निराला और सरस्वती की जयंती मना करती थी
पीली सरसों हरकक्षा में फूलती फबती थी
कवि, क्षमा करें प्राध्यापक नहीं
पजामा-कुरते में सजे-धजे’ कविता सुनाते थे
खुद प्रशंसा करते थे, ... कर वाते थे...

पर अब बरसों से
न जाने क्या हुआ
कवि वह उदास,
 नहीं चहकता है
बेचता प्लाॅट है, शेयर खरीदता है
छात्र अब आता नहीं
कम्प्यूटर या शोध ‘कट-पेस्ट’ हो गया है
कविता से पूछा-
उसका आजकल रक्तचाप निम्न रहता है
क्रु( कवि, क्रांतिकवि
शोर से उकताए कवि
कारखाने धीरे-धीरे बंद क्या हुए
कम्प्यूटर कक्ष के ए.सी. में खोए
ठंडी जहां होती है
वहां गरमाहट सोती है
फिर तुम्हीं बताओ कविता गर्म कहां होती है?

दवा पूछी
सड़क छाप वैध राज बोले
कविता को अब
नुक्कड़ पर आना है
गली-गली जाना है
भाषा जबसे गहनों से हटी है
कम से कम वस्त्रों में
फैशन परेड में ‘बंटी-बबली’ संग आई है
गुलम्मा क्या उतरा है
नए नए प्रयोगों से देहाती वह
घबड़ा सी गई है
पाठक तो दूर गए
कवि भी अब उकता से गए हैं।

शब्द बासी है
नए-नए गढ़ेंगे
उपमान, बिम्ब, प्रतीक अब आयातित होने हैं
तब वस्त्र लुभा पाएं
आलोचक-व्यापारी
सौदागर पूरे हैं
हिज्जों में बांट-बांट
मंत्र मुग्ध बैठे हैं

उसकी पहचान हो
नए-नए प्रतिमान फिर गढ़ने हैं
एक भी कपड़ा
सलीके से रहा नहीं
पहना नहीं, फाड़कर तुरंत कंैची कुतरते हैं,

कवियों को आना है
अपनी ही भाषा में
अपनी ही भाषा को
अपनी अंगीठी में, अपनी हवा से, सुर्ख
और सुर्ख करना है
शब्द तक पिघलें
अर्थ को गहेंगे
कविता तब गलियों की खबर ले
सड़क के गड्डो में
अर्धनग्न बच्चों की शाला से लौटते दौड़ती रेल में
छूते, टकराते, यूंही निकलता है
कविता का तब रक्तचाप बढ़ता है।




























22
उनसे कह मत देना नींद क्या होती है
जब से सोए हैं, जागे ही नहीं,
जब से गए थे बिस्तर पर
वहीं पर है,
वे चलते हैं, आते हैं, घूमते हैं
बात भी करते हैं
अभी-अभी आए थे
किताब नई लिखी,
बहुत बड़े विद्वान की भूमिका छपी है
हजार साल पुरानी पुड़िया में रखी भस्म
को शहद से चटाने पर
गौमूत्र के साथ लेने पर, युवावस्था बनी रहती है...

गोबर से यान उड़ता था
चर्चा भारी थी,
बार-बार कहते थे
यह मुल्क सोता है
सदियों से, नींद खुलती नहीं
इन्हें जगना होगा
क्या अमरीका ने ही की है अंतरिक्ष यात्रा
हमारे यहां कितना लिखा
पढ़ता कोई नहीं
सौरमंडल की यात्रा चर्चा जगह-जगह लिखी है

उनकी नींद बहुत गहरी है
टूट नहीं सकती
न तोड़ना उसको
कुंभकरण जब तक सोता है
बेहतर है
उठने पर लंका-कांड होता है।


23
कविता का सच क्या है
कल्पना के ताने-बाने
चैकड़ी जो बनी है-
इस करधे पर
भूख, गरीबी से लड़ते कवि ने
जो हर चाय की चुस्की पर
नई दुनिया के नए सोच की तस्वीर बनाता है,

गली में
पेशाब की बदबू से बचते-निकलते
ऊपर कहीं से भी
गंदगी के ढेर का अचानक पुष्पवर्षा सा गिरना
सूअर जो कहीं था आमंत्रित
दौड़ता-भगता,
टकराहट मिमियाते श्वान से
पास की दुकान से गूंजता संगीत
कविता का रस
ढूँढ़ता कवि
सोचता,
यथार्थ जो मिला ‘मकबर’ेे की गली में
महफिल में आ जाए
साबुन के झाग से निकला, फिसलता
हाथ में टिकली साबुन सा वक़्त
मां की, बाप की, रिश्ते में सभी की
ख्वाहिश पहचानता
बिजली के तारों पर बैठी ‘काग शृंखला
यहां, वहां आसपास
कविता में तलाशता
तमीज सीधे खड़े होने की
न बिकने की व्यथा
लिखा बहुत कुछ
छपा कहीं नहीं
सुनकर नहीं कोई
शब्द भीतर खंजर सा चीरता।

काँख में दबी
आई पत्रिका झांकता
टुकुर-टुकुर
रेत उठाती, अर्धनग्न, आदिवासी कन्या की
भूख, ... पेड़ की छाया भी रोती, चीखती
भयातुर, ... आंख की कोर में अचानक कंकड़ सा गिरता

जीवित यथार्थ
शब्द क्या बांध पाए
सोचना भी पाप है
माया है माया है
‘गोपाली’ बाबू की कथा में नहीं है यह
नहीं ‘कागा राम’ मटक-मटक गाता है
काटता है भीतर से
रिसता है दुख, ... रात को टपकते नल से बूंद-बंूद सा
न करने का, बस
अपनी ही आंख में रोज और नीचे
और नीचे, उतरने का देता है दर्द,
वह जब भी देख पाती है
तेज, ... तपती रेत में
अचानक खिड़की से
रोते, झींकते, चिल्लाते, पगलाते
छोटे-छोटे पाँवों
से आता-ठहरता, जाता, ढूंढ़ता रहता कुछ
कविता का यथार्थ,वह।






23

जिनका कोई घर नहीं होता
बिस्तर जमीं
आकाश ही लिहाफ होता.

रात अचानक तेज रोशनी में
सड़क किनारे
कहीं डामर के ढोल
या लकड़ी के ढेर
या खड़ी कोई पुरानी सी गाड़ी
या ठेले या रिक्शा
और पास सोते गहरी नींद लेते
मनुज पुत्र
पुत्रियां और नाती
नवासे और और बहुत सब ...

न देख पाती आंखों का सपना
काश करम अपने ही हो जाएं
अचानक फूट पड़े, ज्वालामुखी कहीं से
भस्म हो शहर
गांव, चैराहा
ये सिपाही
नियान- बत्तियां
नकली फूलों से लदे रंग-बिरंगे पेड़
शाला पाठशाला
और कदम ले जाएं
सड़क से दूर अंधेरी लकीर से बिछी
चींटी की कतार
एक नहीं, दो नहीं
गिनती भी कहां रही
और पास में कोई पूछे
यह नया कौन आया है
तब अचानक परिचय
अपना न दे पाए
कोई जो जाकर, वहां चुपचाप लेटा है।

करम यह किसका है
उसका यह मेरा
अशिक्षा, अज्ञान का
लाचारी बेबसी का
वह ईंटें उठाता, बजरी उठाता, दीवारें चिनता
न सिर छिपाने को छप्पर
न बतियाने की ‘थान’
धरती पर खुद
डामर बन, डामर सा बिछता
रात को अचानक
कभी कोई कार आकर कुचल जाए

सिपाही यही कहता
गलती उसी की जो सड़क पर सोया है
सड़क उसी की
कार जिसकी है
बड़ी कार का होना
तरक्की है देश की
सड़क पर सोना
पशुओं की बेइज्जती

यह जगह ही उनकी है,
इन्सान को चाहिए उनसे भी कुछ सीखे
किसी ‘हीरो’ की कार के नीचे आकर
चुपचाप मरना सीखे।



                24 जूता

जूता हाथ में लेकर, वह आता है
वह खुद जो जूता है
‘सोहना’ में उसका घर जलता है।
वह जूता होकर
जुतियाता है,

उसकी कीमत कुछ हजार रुपये
जो नुकसान हुआ है,
तिल-तिल मरती आत्मा की कीमत, जो जल नहीं सकती,
मर नहीं सकती,
न हवा सुखा सकती है
न जल भिगो सकता
बस वह नासूर सी
काले-कुत्ते की चमड़ी से सजी
धुॅंवे सी बस सुलगती है

भीड़ समझाती है
भीड़ बुलवाती है
जो ताकतवर है
उसका पांव कितना बड़ा होता है
पंजे का नाखून खंजर सा
उसका बूट
हिन्दूस्तान रोंदता
वह ‘साहब’ का बूट
बूट-जूते, चप्पल को पीछे छोड़ता।

पैर, ... और जूता, चप्पल और बूट
फीते वाला
नीचे कील हो, ठुकी हुयी
कंपनी के साहब का जूता
चमकता है, रोटी पर रखी चिकनाई सा
बात दूसरी है
साहब को चिकनाई मना है
दिल की धमनी का इलाज जो होना है..

साहब दिल की बीमारी से मरता है
वहाँ पत्थर जमा है
जो जूता है
वह बस फटता है
जबसे आया, नायलोन, फाइबर, और प्लास्टिक
जूता बस बदल जाताहै
हर चुनाव के बाद
नया होकर चमकता है,

गलियां किससे अब क्या कहें
हर नाली भरी पड़ी है, प्लास्टिक चप्पल से
कसूर हरी घास का
बिना बूट रह नहीं पाती
उसकी किस्मत में पंडित ने कहा है
जितना दबती है
नुचती है
उतनी मुलायम कही जाती है।












25
पुराने हंसिए, हथोड़े से न तो फसल कट पाती है
न कील ठुक पाती है

सूरज को तो उगना है, कब!
समय जो पंचांग में कहा है
क्या कभी गलत हुआ है
पर रात का अंधेरा भयावह कितना है
वे दोनों पास-पास बैठे
एक दूसरे की गर्दन चापने का खंजर चुपचाप घिसते रहे
अंधेरे को भय था
न दिखाई कुछ पड़ता था
खुद का गला नहीं घिस पाए, खुद के ही खंजर से।

सुबह की प्रतीक्षा थी
तभी धर्म दिखाई पड़ता है
... नहीं तो वह भी, ... सती चबूतरे सोता है।

सिपाही, ऊंघता, बड़बड़ाता
दुकान का खर्च, साहब की चैथ, खर्चा बड़बड़ाता
अंधेरे में लिखा जाना संभव नहीं था
वह दोनों की जेब
बार-बार तलाश चुका था
मुल्क अंधेरे में फसरा
स्वयं से बतियाता
कभी गोधरा, कभी अयोध्या
स्वर्ण मंदिर, अक्षर धाम
नहीं-नहीं, संसद
होठों पर गिरती लार
दांतों से भींच-भींच
जीभ के हवाले रख
बीच-बीच सो जाता।

होना है सुबह को
सबको पता है
बस इसी प्रतीक्षा में
काली रात को
और बड़ी और बड़ी
गहराता अंधेरा
पश्चिम से उगेगा वह
सोच-सोच आल्हादित,
पर सोच कहां पाता यह

धार जो लगनी है
महंगा नहीं है यह
बस, एक बार जाना, गली पर सड़क पर
दूर चोंधियाते घर पर
नहीं जो आसकता, नहीं जो कह पाता
उसकी आवाज सुन
कुछ तो कर सकता ,
सच तो यही है
कितना भी पुराना जंग खाया औजार हो।
धार लगते ही, स्वभाव लौट आता है।













26
‘रेखा सी सरल जिन्दगी
नहीं चाहता अब कोई ‘भुवन’ ... न स्वयं कवि लेखक भी
जब इधर सड़कों पर लहू बहता था
न जाने किसका, उसका तो नहीं जो बस
स्त्री देह में ढूंढता था
सुख व सत्य जीवन का..
क्या सचमुच ‘बु(’ तुम्हारी करुणा का उद्रेग इतना ही था
तुम्हारी शरण में ही था सब कुछ
न करने, न कर पाने की व्यथा का हर हल।

जो कुछ करने को तत्पर है
दिन-रात का भेद छोड़कर जाती है नए रास्तों पर पहली बार
उनींदी आंख में देखते सपनों के बीच मां-बाप को
बेरोजगार भाई को
या कम कमाऊ पंति की आंख में जागे सुविधा स्पर्श को
जाती है वह,
सौंपती है सपने
इस तरह के सौदे,... कामकाजी बातें
रहना है ... उसे
मिश्री सी चाशनी सी जीभ पर लिपटे शब्दों की जमाबंदियां
रोज-रोज
बनती-बिगड़ती, खसरों की टीप
न कर पाती, ... जो
फैशन में व्यस्त, ... या कहीं कुछ और...
उसकी चर्चा में, व्यस्त सब अराजक, आज,
‘उसे’, रात भर जगना है
जगते-जगते बस काम करते
‘‘राजा राममोहन राय’’ की दुनिया को बहुत पीछे करते
अपने पांवों से देश दुनिया नापती
सचमुच ‘बड़ी’ है वह।

रोज-रोज दुख से भगते
जंगल में, घर में, फंदे की तलाश में
ढूंढ़ते, युवक-युवती, ... घर के कर्जे से डूबे पुरुष
अचानक क्या हुआ
दुख का सरोवर
सुनामी लहर पा
तट से अंडमान, ‘निकोबार’ भिगो गया

लहरें ही लहरें
सुख की तलाश में, पंडित भरमाया
जन्मपत्री, शुक्र, शनी
सबको बुलवाया
झोला जो

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कविता,

सोमवार, 23 नवंबर 2009

घर

रस्ते अलग अलग हैं
जाना तो एक घर है
हम रहते दादाबाड़ी
तुम बरकत नगर निवासी

सड़क के इधर हम हैं
तुम उधर रहते,
कैसी हुई मजबूरी
हाथ भी कहाँ  हैं हिलते?

उपर की  मंजिल हम हैं
नीचे की मंजिल तुम हो
मोबाइल यही है कहता
नेटवर्क नहीं है मिलता

तुम हमसे कहाँ बड़े हो
हम भी क्या तुम से कम हैं
इस दुनिया में सब बड़े हैं
सचमुच दही बड़े हैं

बाहर से जो भी आया
दौना लिए ही आया
सदियों से यही हुआ है
हरी घास  हम बने हैं

जिल्लत से यहाॅं पर रहना
मालिक ने कब कहा है,
तोड़नी है तुमको बेड़ी
सबसे बड़ी दुआ है।

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कविता

बुधवार, 18 नवंबर 2009


                          सपने
वह बचपन में सपने देखता है,
सपने उसका
बचपन चुरा लेते हैं,
खबर न उसे है
न मां-बाप को होती है
वे सपनों को छीनकर बस्ता थमा देते हैं।
वाह!
वर्दी जो बचपन में चढ़ती है जिस्म पर
उतरती तभी है
जब चील काली पास आ,
उस पर झपटती है,
वह पूछता है, जगह-जगह
इन सपनों का क्या अर्थ, जो रात को ही नहीं,
दिन में तंग करते हैं
न घर पर आराम है
न दफ्तर में,

बाहर बैठा बाबा कहता है
जिन्दगी एक सपना है
रात का छोटा और दिन का जरा बड़ा होता है।
पर उसका ही सपना
इतना बुरा क्यों है
बाबा तो दस आसन सिखा
हवाई जहाज में उड़ता  है।

अखबार जब भी पढ़ता है
कल से आज गरीब होता है
गरीबी की रेखा, कहां से कहां तक
भूख का रोटी से, रोटी का कैलोरी से जो
रिश्ता बना है
वही भूखे पेट का हिसाब भी रखता है

बस का भाड़ा
स्कूल की फीस
अनाज, सब्जी, दूध
दवा की दुकान
सितारों की तरह पास आकर
जीभ दिखा देते हैं।

क्या पेट का भूख से
भूख का सपनो से रिश्ता कभी सम्भव है
सचमुच ही नहीं
सपने में ही सही मशाल कोई जल जाए
करदे वह राख
लोकतंत्री चादर जमा जो कचरा है।
अब रोक नहीं पाते है,

काम कर -काम कर
हर कोई कहता हैं
मुट्ठी में रखा कागज
कुछ भी नहीं देता है

सरकार कितनी रहमदिल
कहीं भी, कभी-भी
दारू की दुकान रोज नई खुल जाती है
बढ़ते हैं ग्राहक...
हाकिम की चाँदी और चमक जाती है।

बाहर पोस्टर में
लड़की साइकिल चलाती है
स्कूल भी जाती है
पर भीतर चुपचुप
सपने भी अब नहीं देख पाती है।

गाँव- गाँव नन्दीग्राम
पुलसिया कहता है
कुछ भी करलो ,यहाँ
रुपया आकाश से टपकता है।

”कोड़ा“ कोई एक नहीं
गाँव गाँव कोड़ा है
काडे़ा क ेही गिरवी रखा
हँसिया और हथोड़ा है।

घन नही उठता अब
दोनो हाथ,राम-राम
संसद में परसादी
चहुं ओर काँव-काँव।

मत देख सपने अब
नींद तोड़ ,आँख खोल
तू ही मंत्र
तू ही तंत्र
थोड़ी सी वरजिश कर
झुके अब कहीं नहीं
नाजिम की कुर्सी
उठा फेंक कंधे से
अपनी ही जमीन यह, अपना ही आकाश है
स्वप्न छोड़, आँख खोल।



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कविता

बुधवार, 30 सितंबर 2009

 हत्था

    नहीं थी एक भी चिड़िया
    वहां पर,
    पेड़ जो अब हट गया था
    चहकना, किसका, चहके कब कहांँ पर
    अनुत्तरित सब
   
    था नुकीला लोह उसके पास
    पर हत्ता नहीं था
    वह चढ़ा
    डाल को हाथों से गिरा
    पत्ते हटा
    डाल का हत्ता बनाकर
    पेड़ को ही काट डाला ।
   
    चिंतक, विचारक
    बैठा पेड़ के नीचे
    बुद्ध सा सम बन गया था।
   
    क्यों पेड़ ने खुद
    दिया हत्ता बन,
    सौंपा उसी़ को
    जिसने काटकर उसको
    साफ़ जंगल कर डाला

    चहकती चिड़िया.... बस चुप
         झाड़ियों की उड़तीफुनगियों पर
    झाड़ियां ही पेड़ अब हांेगी
    कहता फिर रहा था
    फरमान ले हाथ में, दूत
    जंगलात हाकिम का।
    हम
अचानक ही वह पत्थर पेड़ पर आ गिरा था
ठहरे हुए पक्षी
जगे, फड़फड़ाए, उठे, उड़े....उड़ गए,
कहांँ, ... यह पता किसको था!
याद रहा इतना
आकाश है, जगह देगा, लौटकर फिर
इसी पेड़ पर आना है
पर न जाने क्यों
कितने पत्थर रोज आ गिरते हैं।
सड़क पर फटेहाल लड़की को, न जाने कितने गिद्ध
आंखों  पर उठाए
रोज तीर से मिलते हैं।

कल तक भूख की
तेरी मेरी उसकी
बात वह करता था
नुक्कड नाटक में शहीद बन बिखरता था
कुरते और पजामे का रख नहीं पाता हिसाब था
अचानक कल मिला,

करोड़ों की बातें लिए
हंँसता मुस्कराया
देश, धरती, जन अचानक सैकड़ों शब्द लिए
भारी से भारी
शब्द शोर में बदल
शोर, नोट में बदल
वह जेब भरता,
यही कहता फिरता था
लोकतंत्र का सच
राम का नाम है,
नाम की लूट है,लूट ही सच है,
जितने भी जाना है,उसे ही सुख पाना है।
हर कोई दूसरा
हाथ में पत्थरलिए
सोचता सुबह शाम वह क्यों न कर पाया सह सब
उसका भी कुरता उतना ही मैला और था काला...।

कहता शनीचर
राहू-केतू साथ तेरे अब कहां है
यह धरती
लुटने को बनी है
 जो भी यहां आया, लूट ही तो गया है,
लुट जाने का भय
सब छोड़ ले लंगोटी
तभी हिमालय पर गया है
कहता रहा वह
है नहीं अब पास कुछ
क्या कोई लेगा
पर लंगोटी में भी कोई आकर
यहाँं  भी लूट सकता
यह छिपा सच यहाँं सबसे बड़ा है।

गिरते हैं पत्थर अब
और धूमकेतु उल्का भी
उनसे भी तेज, और तेज
टी.वी. के चैनल
नहीं कोई ठहर पाता
कितनी चिकनी यह सतह है
नहीं जल
अब जरा भिगो पाता
भीतर रखा था वह
स्निग्ध कोमल
छंद तुम्हारा ही, तुमने जो पाया था
अचानक शीत पाकर
पछुआ हवा से
              बर्फ सा हो गया है।

ताप कहांँ
कहां है तपन...
चर्चा ही व्यर्थ है
बाहर के देवता
पाषाण बन पुजे जो...
इतना आदर पा
अब भीतर ही जमे हैं...

भीतर का छंद
सजीला सुरभित, चुपचाप बाहर निकल
मंदिर में कबसे पूजित हुआ है
और हम,
हत भागी!
नहीं-नहीं प्रभु परसादी
पत्थरों के टोल से फिकते-फिकवाते
हाथ दूसरे के कबसे,  कसे से रखे हैं।

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शनिवार, 19 सितंबर 2009

‘स्वयंसिद्धा’ भविष्य में झांकता वर्तमान
डाॅ. क्षमा चतुर्वेदी की कहानियों से गुजरना अपने समकालीन समाज की यात्रा का पक्षधर बनना है। उनकी कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपने आसपास के परिवेश को और आते-जाते पात्रों की गहमागहमी को वे बीच से अपने कथा सूत्र का चयन करती हैं। वे कहानी के प्रचलित मुहावरे से जो समय विशेष में एक रूढ़ि बन जाता है उससे अपने आपको अलग रखते हुए कहानी की परंपरा को अपने जीवनानुभव की तपिश से विकसित करती हैं। उनकी हर रचना अपने आपमें दूसरी रचना से पृथकता रखते हुए विशिष्ट भी है, जिस प्रकार एक छोटे किंडरगार्डन स्कूल में जाते हुए बच्चों की जहां बच्चों की जहां वेशभूषा तो एक जैसी होती है, परन्तु उनका मुस्कराता हुआ चेहरा और आंखों की चमक एक अलग ही पहचान बता देती है, उनकी कहानियों में यही सरसता निश्छल स्वभाव की अभिव्यक्ति दिखाई पड़ती है। वे पाठक के साथ अपनी कथा के प्रारंभ से ही वह आत्मीय सम्बन्ध जोड़ लेती है कि पाठक उनके साथ जुड़कर, कहानी के पात्रों में अपनी आवाजाही प्रारंभ कर देता है। यही कारण है कि उनकी कहानियां एक लंबी समयावधि में लगभग तीस वर्षों से निरंतर प्रकाशित हो रही हैं और वे अपने पाठकों के बीच में अपनी उपस्थिति को उसी प्रकार जीवंत बनाए रखे हैं। मुख्य कारण यही है कि वे पाठक को अपनी कहानियों के माध्यम से एक सही नजरिया, सही दृष्टिकोण अपनाने के लिए बड़ी शालीनता के साथ प्रस्तुत करती है।
यह प्रस्तुति कलात्मक है, यहां अभिव्यक्त दृष्टि आधुनिक कहानी के संदर्भ में विचारों का गद्यांश में टुकड़ा नहीं बनती परन्तु संवेदना सक्षम व्यंजनापूर्ण पाठ की भांति पाठक के बीच में अपनी आत्मीयतापूर्ण उपस्थिति दर्ज करा देती है।
क्षमा जी की कहानियों से गुजरते हुए सहज ही निष्कर्ष लिया जा सकता है कि वे यथार्थ और कल्पना का जहां समन्वय उपस्थित करती है, वहां वह सामाजिक यथार्थ को सकारात्मक कल्पना के धागों से बुनते हुए भविष्य का आकलन जो एक आदर्श में नहीं है परन्तु वस्तुगत विवेचन से एक संभावना हो सकती है, उसे कलात्मक ढंग से लाने का प्रयास करती है।
उनकी कहानियों में जो रोमांस का पुट है वह ह्रासोन्मुख नहीं है, वे प्रगतिशील, कर्मठ अपने अस्तित्व की खोज में संलग्न नारी को चित्रित करने की आकांक्षा में अपनी क्षमता का सदुपयोग करती है, यही कारण है कि उनकी कहानियां प्रचलित मुहावरे में स्त्री की यौनिकता को लेकर जो नारी विमर्श किया जा रहा है और जो महिला कथाकार चर्चित हो जाती है, उनसे अलग अपनी एक पहचान बनाने में समर्थ हैं।
क्षमाजी मानती हैं कि वर्तमान जीवन यथार्थ बहुत जटिल है और जिस रूप में नारी को आप मीडिया के द्वारा रचनाकर्मियों के द्वारा, फिल्मों के द्वारा प्रस्तुत किया जा रहा है, वह नारी एक निष्क्रिय पतनशील रोमांसवाद की देन है, यहां कल्पना के द्वारा नारी को जितना अनावृत करते हुए उसे मात्र एक बाजार की वस्तु बना दिया जाय, जो आज का प्रचलित मुहावरा है, उसे वे महत्वपूर्ण नहीं मानती है, वे इस जटिल जीवन यथार्थ में अपनी कहानी के माध्यम से नारी के जीवन यथार्थ को उसके जीवंत परिप्रेक्ष्य में अपनी संवेदना से उकेरने का प्रयास करती हैं और उससे प्रतिशील रोमांसवाद जहां कल्पना एक बेहतर दुनियां का सपना देखती है, चाहे स्त्री कामकाजी महिला हो। उनका कथा संसार, आज के सामाजिक यथार्थ की उपज है। वे पाठक से अतिरिक्त कोई मांग नहीं रखती है, उनका पाठक उनकी कहानी के आंतरिक सौंदर्य से सहज ही जुड़ जाता है, वे कहानी के मर्म को अपने पाठक तक पहुंचाने े लिए जिस संवेदना की आवश्यकता होती है, वह उनकी पूँजी है। अपनी कहानी यात्रा के प्रारंभ से ही वे हिन्दी साहित्य की लगभग सभी पत्रिकाओं से तथा भारत की सभी  व्यवसायिक पत्रिकाओं में एक साथ प्रकाशित होती रही है।
गत तीस वर्षों से इतने बड़े परिप्रेक्ष्य में किसी रचनाक्रम को रचना धर्मिता प्राप्त होना विरल है। हिन्दी आलोचना का यह एक गौण पक्ष बन गयाहै कि जो साहित्य पाठकों से दूर हो चला है, उसकी आलोचना अधिक मुखर है। जिस प्रकार से समाज में सांप्रदायिकता कुविचार  फैलाती है, उसी प्रकार आलोचना भी एक विशेष आग्रह में अपने ही   वर्ण, अपने ही समुदाय, अपने ही वर्ग में प्रेषित होती देखी गई है।
उनकी ‘स्वयंसिद्धा’ कहानी मध्यवर्ग की नायिका की कहानी है जो अपने पाँव पर खड़ी है,। शिक्षा ने उसे एक आधार दिया है। प्रेम विवाह के बाद पति के गलत आचरण पर वह कुछ दिनों के लिए अपनी मां के पास आती है और वह वहां यह पाती है कि जीवन एक खेल है और उसकी भूमिका एक खिलाड़ी की है और उसे इस विषम परिस्थिति में स्वयं ही निर्णय लेना है और माता-पिता के पास जहां वह एक रास्ता तलाशने आई थी, वहां से वापिस अपने घर लौट जाती है। वह यह निष्कर्ष अपने पाठकों को सौंपती है कि स्वयं के सुख-दुःख स्वयं के ही हैं और ”नीत्शे“ की अमरवाणी की दूसरा नर्क है इस सोच को अपने अपने पाठकों तक पहुंचाती है।
यहां स्त्री अपने पूर्ण उत्तरदायित्व के साथ खड़ी दिखाई देती
गृहिणी हांे ,निरक्षर खेतिहर मजदूर हो, विभिन्न आर्थिक, सामाजिक दबावों से पीड़ित जूझती संघर्षशील महिला हो, वे उसकी इस उद्यम जीजिविषा को रेखांकित करने का प्रयास करती है।
इसीलिए उनकी कहानियों में व्यक्तिगत या सामाजिक जीवन में एक बेहतर जीवन की संभावना निहित रहती है।
वे अपनी कहानियों के माध्यम से आज के इस प्रचलित मुहावरे को जहां एक पतनशील रोमांस के जरिए स्त्री को उसके स्वाभिमान, गरिमा और समाज एवं परिवार में स्थान पाने की उसकी जो ललक है, उसे रोकते हुए स्त्री के संघर्ष को मात्र यौन स्वतंत्रता में परिवर्तित करने की जो बाजारवादी परंपरा है उसका विरोध है।
उनका सामाजिक जीवन दर्शन, भारतीय आध्यात्म के इस दुनियादी सूत्र को साथ लेकर चलता है कि यथार्थ वाद व्यक्ति के विकास में बाधक नहीं है, उनके उपन्यास, अपराजिता की नायिका का व्यक्तित्व विकास जिस रूप में चित्रित हुआ है, वहां एक नारी संघर्षशील, श्रमशील महिला को चित्रित करती है।
उनके कथा साहित्य का मूल स्वर यही है कि वे मानकर चलती हैं कि व्यक्ति से उसका व्यक्तित्व और उसकी सामाजिक उपादेयता अविच्छिन्न है। एक बेहतर समाज तभी बन सकता है कि जब बेहतर इन्सान हो। यही कारण है कि उनके पात्र जीवन जगत के उस रूप को ग्रहण करते हैं जहां संघर्ष हैं, गरिमामय प्राणवान सामयिक दायको समर्पित जीवन है, पलायन नहीं है। सामर्थ का दुरूपयोग नहीं है। पात्र जीवन संघर्षों में कभी  हारते हैं, कभी जीतते हैं, परन्तु विवेक का अनादर नहीं करते। इसीलिए उनका कथा-साहित्य प्रचलित मुहावरे में भी  आज के इस आधुनिक कहानी के दौर में भी अपने उपस्थित रखता है।
क्षमा जी की कहानियां समय की गतिशीलता से उपजी कहानियां  हैं।इनमें समाज की गतिशीलता, परिवर्तन का आकलन किया जा सकता है। वे अपनी कहानियों में आज के समय को जहां अपनी संवेदना के आधार पर चित्रित करने का प्रयास करती है, वहीं वे भविष्य के आकलन की ओर भी दृष्टि रखती हैं।
इस ‘एहसास’ कहानी में बिखरते परिवार को विवेक के आधार पर जीवन-जगत् में जीने के रास्ते की दृष्टि की खोज कहा जा सकता है। यहां वर्तमान तो है पर वह किस भविष्य की ओर ले जा रहा है, वह महत्वपूर्ण है।
भविष्य की निर्मिति विवेकदृष्टि करती है।
इन कहानियों में जिस भविष्य का सपना है वह निश्चिेष्ट रोमांसवाद नहीं है, यहां नकारात्म्कता नहीं है, यहां मनुष्यता का सही चेहरा तलाशने का प्रयास है। बाजारवाद और भूमंडली राग के इस दौर में स्त्री के स्वयं के वरण और उत्तरदायित्व की खोज उनकी कहानियों का आधार है।
‘उपहार’ कहानी मंे एक प्रौढ़ महिला की परिस्थिति के दबाव में विदेश में रहते हुए अपनी और अपने परिवार की सम्मानजनक स्थिति बनाए रखने का प्रयास है, किस प्रकार श्रमशील महिला अपने पािश्रम से , परिवार को सम्मानजनक स्थान दिलाती है उसकी यह कहानी आधार भूमि है।
जिस आयु में महिलाएं संस्थागत धर्म के दायरे में आकर परलोक सुधारने के लिए श्रम की अवहेलना कर देती है वहां श्रम और संघर्ष हर महिला को हर आयु में सम्मान दिला सकता है वह यहां विवेच्य है।
क्षमाजी की कहानियों की रचना प्रक्रिया की यह एक अलग विशेषता है कि वह केन्द्र में नारीमन पर पड़ने वाले सूक्ष्मतम मनोजगत के दायरों ं को, जहाँ प्रस्तुत करती है, वहीं वे मूल कथा सूत्र के साथ उन अवांतर प्रश्नों को भी जो मुख्य कथा को महत्वपूर्ण बनाते हैं, उठाती रहती हैं। उनके कथा शिल्प की यह मुख्य विशेषता है कि वे अपने कथा सूत्र का एक केन्द्र बिन्दु बनाकर एक वृत्त बना लेती है जिसका कि रेडियस उनके पास है और उस वृत्त में वे मुख्य प्रश्न से जुड़े अवांतर प्रश्नों को भी ले आती है।
‘मुखौटा’ कहानी में जहाँ कहानी के पात्र निम्न वर्ग और उच्च वर्ग में आवाजाही करते हैं, वहाँ उच्च वर्ग की महिलाओं में जो कृत्रिम जीवन मीडिया प्रबंधन से सामजिक श्रेष्ठता बना लेता है, उसे रेशे रेशे का खोलते जाने का यथार्थ चित्रण है। किस प्रकार ईमानदारी कलंकित होती है और बेईमानी पुरस्कृत होती है, इस प्रश्न को अवांतर प्रश्नों के साथ यहाँ नियोजित किया गया है।
उनकी कहानियों का शिल्प उस रंगीन बुनी हुई चादर की भांति है जिसे आप ताने-बाने के साथ अलग-अलग करते हुए विवेचित नहीं कर सकते। चादर की सुंदरता उस ताने-बाने की बुनाई के शिल्प से दिखाई पड़ती है जो अपने आपको दूसरी चादर से अलग कर लेती है।
सामजिक सौद्देश्यता क्षमाजी की कहानियों की पँूजी है, वे एक ही तरह से जीवन और जगत को देखे जाने वाली विचार प्रक्रिया को अस्वीकार करती हैं। वे मानकर चलती हैं कि समाज निरंतर परिवर्तनशील है।

परंपरागत, सामाजिक रूढ़ियों से यहाँ मुक्ति है और यही वास्तविक स्वतंत्रता है, निर्णय की स्वतंत्रता ही वास्तविक स्वतंत्रता है।
‘अजनबी’ कहानी एक कामकाजी महिला की कहानी है, जहां पर रिश्ते आर्थिक आधार प्राप्त होने के बाद भी नीरस होने लगते हैं। बाजारवाद ने किस प्रकार चुपचाप आकर पारिवारिक रिश्तों में यह दरार डाल दी है कि पति पत्नी दोनों अपना आर्थिक आधार मजबूत होते हुए भी अपने ही परिवार में दूरियां बनाने लग जाते हैं।
क्षमाजी की कहानियाँ प्रचलित मुहावरे में न तो स्त्रीवादी कहानियाँ है ना स्त्री विमर्श की, ये आज के समाज में जो परिवार में ग्रंथियाँ बन रहीं है, बच्चों के मन में भी अपनी कामकाजी माँ के प्रति जो आत्मीयता का स्वर सूखता जा रहा है उन सभी संदर्भों को एक जीवंत परिवेश में  उनकी कहानियों मेंदर्शाया गया है।
दूर से दिखाई पड़ता है कि परिवार सुखी सम्पन्न है, दूर से एक ऐसा संसार दिखाई पड़ता है जहां लगाव है, परन्तु कहानी की यात्रा उस जगह खींचकर ले जाती है, जहाँ मध्यवर्गीय पारिवारिक जीवन खोखला दिखाई देने लगता है। यहाँ आने पर जिस शिक्षा को स्त्री की अस्मिता के लिए क्षमा जी ने अपनी कहानियों में एक आवश्यक मूल्य बताया था। रोजगार को एक संबल बताया था। इस कहानी में आकर स्त्री मन और स्त्री पीड़ा की एक नई व्याख्या मिलती है। जहां शिक्षित और आर्थिक संपन्न नारी भी अपने ही परिवार में अजनबी की भांति रह जाती है, आखिर क्यों? धीरे धीरे  इस उपभोक्तावाद ने मनुष्य को एक चेतना सम्पन्न व्यक्ति से एक वस्तु में बदल दिया हैं? यह कहानी एक कामकाजी महिला की परिवार में बिखरती हुई पीड़ा की कहानी है।
‘समानांतर’ कहानी का परिप्रेक्ष निम्न वर्ग की दुनियां है जहाँ अजनबीं कहानी में उच्च मध्यवर्ग पर बढ़ता बाजारवाद रिश्तों को बिखराव की सीमा तक ले आता है, वहीं निम्न वर्ग में बाजारवाद किस प्रकार से उनकी पारिवारिक दुनियां को तोड़ने का प्रयास करता है।
निम्न वर्ग की पहचान है कि वहाँ स्त्री अपने श्रम की बदौलत अपना परिवार चलाती है, निम्न वर्ग में यह विरोधाभास है कि स्त्री भले ही शरीर से दुर्बल हो परन्तु उसकी क्षमता और असंभव परिस्थिति में भी जूंझने की ताकत उसमें अधिक है, इस यथार्थ को संवेदित करती .हुई कहनी . किश्तों में लाये टी.वी. के विवाद को लेकर जन्मती है और पति के भीतर इस अंतद्र्वन्द के साथ वह अब इस प्रकार के अनावश्यक कुचक्र में नहीं फंसेगा पुनः एक सहयात्री रूप में अपने आपको पाता है।
‘एहसास’ कहानी का ताना-बाना उस मध्यवर्ग की नारी की कथा है, यहां भू-मंडलीकरण का जो दबाव है वह अदृश्य में पात्रों के मानसिक जगत में झांकता है। उच्च पदों पर कार्यरत स्त्री-पुरुष के बीच में आकर्षण व यौन-नैतिकता के प्रश्न को इस कहानी में उठाया गया है। दोनों पति पत्नी उच्च पदस्थ हैं, पति के भीतर अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में पर स्त्री के आकर्षण से व्यथित पत्नी जब विदेश यात्रा में अपने आपको भी उसी मानसिकता में पाती है तब उसे अहसास होता है कि मानवीय दुर्बलता के क्षण आकस्मिक रूप से कभी भी घट सकते हैं, उस अंधकार को काटने की जो क्षमता है वह हर व्यक्ति के पास है।

क्षमाजी  परंपरा के दायरे को स्वीकार करते हुए मनुष्यता को अपनी कहानियों की बड़ी पूँजी मानती हैं।
वे नए की खोज में कल्पना से, फंेटेसी से नए सामाजिक घटना वितान को पैदा नहीं करतीं। जहाँ कहानी में  अचानक थोपा हुआ वस्तुजगत कल्पना के साथ आभासीय यथार्थवाद को पैदा करता है, वहीं क्षमा जी के कथा संसार में  उनका समाज  ही उनका परिप्रेक्ष्य है, उनके पात्र उनकी कहानियों में आवाजाही करते हैं। वे अपने पात्रों के जरिए उस कहानी के रचना संसार को प्रतिबिंबित करती है जो अपना ही समाज है,जो उच्चतर मनुष्यता की लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील है।

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कविता

शनिवार, 29 अगस्त 2009

 हम
अचानक ही वह पत्थर पेड़ पर आ गिरा था
ठहरे हुए पक्षी
जगे, फड़फड़ाए, उठे, उड़े....उड़ गए,
कहांँ, ... यह पता किसको था!
याद रहा इतना
आकाश है, जगह देगा, लौटकर फिर
इसी पेड़ पर आना है
पर न जाने क्यों
कितने पत्थर रोज आ गिरते हैं।
सड़क पर फटेहाल लड़की को, न जाने कितने गि(
आंखों  पर उठाए
रोज तीर से मिलते हैं।

कल तक भूख की
तेरी मेरी उसकी
बात वह करता था
नुक्कड नाटक में शहीद बन बिखरता था
कुरते और पजामे का रख नहीं पाता हिसाब था
अचानक कल मिला,

करोड़ों की बातें लिए
हंँसता मुस्कराया
देश, धरती, जन अचानक सैकड़ों शब्द लिए
भारी से भारी
शब्द शोर में बदल
शोर, नोट में बदल
वह जेब भरता,
यही कहता फिरता था
लोकतंत्र का सच
राम का नाम है,
नाम की लूट है,लूट ही सच है,
जितने भी जाना है,उसे ही सुख पाना है।
हर कोई दूसरा
हाथ में पत्थरलिए
सोचता सुबह शाम वह क्यों न कर पाया सह सब
उसका भी कुरता उतना ही मैला और था काला...।

कहता शनीचर
राहू-केतू साथ तेरे अब कहां है
यह धरती
लुटने को बनी है
 जो भी यहां आया, लूट ही तो गया है,
लुट जाने का भय
सब छोड़ ले लंगोटी
तभी हिमालय पर गया है
कहता रहा वह
है नहीं अब पास कुछ
क्या कोई लेगा
पर लंगोटी में भी कोई आकर
यहाँं  भी लूट सकता
यह छिपा सच यहाँं सबसे बड़ा है।

गिरते हैं पत्थर अब
और धूमकेतु उल्का भी
उनसे भी तेज, और तेज
टी.वी. के चैनल
नहीं कोई ठहर पाता
कितनी चिकनी यह सतह है
नहीं जल
अब जरा भिगो पाता
भीतर रखा था वह
स्निग्ध कोमल
छंद तुम्हारा ही, तुमने जो पाया था
अचानक शीत पाकर
पछुआ हवा सेबर्फ सा हो गया है।

ताप कहांँ
कहां है तपन...
चर्चा ही व्यर्थ है
बाहर के देवता
पाषाण बन पुजे जो...
इतना आदर पा
अब भीतर ही जमे हैं...
भीतर का छंद
सजीला सुरभित, चुपचाप बाहर निकल
मंदिर में कबसे पूजित हुआ है
और हम,
हत भागी!
नहीं-नहीं प्रभु परसादी
पत्थरों के टोल से फिकते-फिकवाते
हाथ दूसरे के कबसे,  कसे से रखे हैं।

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कविता

मंगलवार, 28 जुलाई 2009

इतिहास के मध्य से
देह को तोड़कर गुज़रती जा रही हैं
बर्फीली हवाएँ
कहाँ तक रुकें अब और
अब तो खड़ा भी नहीं हुआ जाता है
न जाने उनने कब
देह में रोपे थे बीज
कि आग बुझती चली गयीं
मट्ठियाँ ऐसी तनी
खुली नहीं
बस जड़ रह गयीं
वाह रे
कैसा उड़ा गुलाल
बदलाव लाने की जगह
पालागन हो गया
ओ रे मन
कब आया था वसन्त तुम में
कुछ याद है
कब तुमने मिटने मिटाने की कसम खाई थी
कितने अच्छे थे वे दिन
अब तो सपने भी नहीं आते हैं
कि हमने कभी ऐसे सपने भी देखे थे।

देह राग
इस बीहड़ वन में कहीं तुमने
पलाश जलता देखा है
जब कि लोग कहते हैं
जंगल  कटने का वक्त आया है
अब इस मौसम में
चुप रहने की आदत हो गई है
कैक्टस गुलाब लगता है
निज मन पराए रूमाल में लिपटा
प्राणायाम कर रहा है।
क्या तुम पर भी
ऐसा हादसा कभी गुज़रा है
तुम्हारे जिस्म में पलाश वन
अचानक उग आया है
और जल रहा है
तब तुम्हारे पास से शायद
पतझड़ गुजरा होगा अचानक
पालकी में बैठकर
हंसता हुआ
कह गया होगा
देखो इस बीहड़ वन में भी पलाश जल रहा है

तब झाड़ियाँ
तालियाँ बजाकर हँस रही हांेगी।

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आग नाटक

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

आग
आग का क्या
न उसकी कोई जाति होती है........ न मत।
उसका काम बस जलाना है
और हल्की हवा का सहारा पाते ही
भभक जाना है
क्या सचमुच तुम्हें आग की तलाश है
तभी तो मुर्दाघर में
दबे पाँव घूम रहे हो
हाँ यह सच है
यहाँ लोग भी रहते हैं
जो हंसते हैत्र् गाते हंै लड़ते हंै झगड़ते हैं
और कभी कभी प्यार भी करतें हैं
इन खिलौनों के लिए
आग, पानी, हवा, और बर्फ
कहीं कोई भेद नहीं है
तभी तो
कई शताब्दियों से
अतीत या़त्रा के सुनहरे संवाद दोहरा रहे हैं
क्या अभी भी
तुम्हें आग की जरूरत है
जब कि वह लाइटर में रखी हुयी
खुले बाजार मिल रही है।
नाटक
क्या अभी भी तुम्हें
फिर नए नाटक की तलाश है
तुम्हारा यह पुता हुआ चेहरा
हाय
हमारी ही चुराई सेलखड़ी से सजा हुआ
पहचान लिया गया है
अंधों की भीड में,
हाँ, तुम्ही तो थे
ले गए थे चुराकर
उनकी अबोध आखें
नाटक के पहले ही दौर में
कितना सुखद है नाटक
नायक खलनायक
तुम्हारे ही चेहरे की अलग अलग भूमिकाएँ
और हम अकेले
हर बार
तटस्थ मूक दर्शक
और इस नाटक का
अंतिम दृश्य
क्या होगा, कब होगा
सबको है तलाश
और तुम सचमुच
कितने हो होशियार
पहला ही दृश्य
हर बार दोहरा रहे।

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वर्षा

वर्षा
क्या नहीं होता वहां
वर्षान्त कीचड़ और कमल
लगते हैं एक ही,
हवाएँ जो कभी होती हैं मुखर
या तो मुंह फुलाए
जाती हैं दुबक किसी कोने में जाकर या
बाल बिखराए कलह कर देती हंै।
कभी कभी
चाहती महकना सुगंध सी
आरती में रहकर।
पुजारी और जुआरी
एक ही हुजूम में
प्रभु दरवाजे रहते सिमटना,
पर पट रहे बंद
लड़ते पुजारी और उसके वंशज
दर्शक तिरस्कृत से
धक्के खाते, धकियाते
सुना यही जाता है
इस मौसम में छाता सचमुच जरूरी है।

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आत्मसम्मान कैसे बढा़एॅ

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

             आत्मसम्मान कैसे बढा़एॅं

   
शब्द आत्मसम्मान... आत्म गौरव, अस्मिता महत्व पूर्ण शब्द हैं।यह ‘आत्म’ है क्या? जिसको लेकर हम चिंतित हो जाते हैं।
सामान्य जन के सामने, राज्य का सामान्य सा कर्मचारी जिस प्रकार दंभ व अंहकार से गरजता है, और वह ‘जन’ अपने कार्य के प्रति जिस प्रकार गिड़गिड़ाता है, वह दृश्य भीतर तक झकझोर  जाता है।हमारा आत्म क्या है?यह सवाल हमेशा अधूरा ही रह जाता हैं

वही कर्मचारी जब अपने उच्चाधिकारी या राजनेता के सामने खड़ा होता हैै तो सीधा ही खड़ा नहीं हो पाता है।उसका रिरियाता चेहरा तथा अदने से राजनेता के  सामने जी हुजूरी करता हुआ वही कर्मचारी हास्यास्पद बन जाजा है। हम अपनी भाषा, अपनी गरिमा अपना स्वत्व सब खो बैठे हैं। न चेहरे पर अपनी प्रतिष्ठा का भाव है, न गरिमा है, आखिर हम हैं क्या? साधारण सी प्रतिकूलता के प्रभाव को हम बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं। हल्के से ताप से, मौम के पुतले की तरह पिघल जाते हैं।  हमारी फिल्मों के नायक,या तो परिस्थितियों के सामने भय से भागते रहते हैं,या तुरंत किसी मन्दिर,दरगाह,या चर्च में चले जाते हैं, या हिंसा का अतिरंजित सहारा लेंते हैं।क्या वे हमारे सही स्वरूप को चित्रित नहीं कर रहे हैं?क्या हम वास्तव में उनसे अलग हैं?यह विचारणीय प्रश्न है।

आखिर हम हैं क्या?हमारा आत्म क्या है?यह सवाल हमेशा ही पूछा जाता रहा  है।
 विदेशी राजनीतिज्ञ जब हमारे यहां आते हैं,... तब उनके सम्मान में हम जिस तरह कालीन की तरह बिछ जाते हैं,...‘‘ हम कहते हैं पधारो म्हारे देश’... पर जब हम विदेशजाते हैं, हम कहीं भी .इस जी हुजूरी की आॅंख अपने प्रति नहीं पाते हैं... मानवीय  गरिमा का भाव अवश्य दिखाई पड़ता है।
क्यों?  हम अपने को ही कभी सम्मान से नहीं देखते। जब हम अपने प्रति ही सम्मान नहीं रखते हैं, तब कौन हमारे प्रति सम्मान रखेगा।   
हमारे संत महात्मा एक ही बात कहते हैं ‘ मो सौ कौन कुटिल खल कामी।’’हम स्वयं न तो कभी अपना सम्मान कर पाते हैं,न हीं इसी कारण अपनी योग्यता को प्रदर्शित कर पाते हैं।आजकल हर साक्षात्कार में पहला सवाल यही पूछा जाता है, आप में ऐसी कौन सी योग्यता है जो आपका इस पद के लिए चयन किया जाए? हम यहाॅं इस सवाल का ही उत्तर तलाश करने का प्रयास करेंगे।
अपनी पहचान स्थापित करें
आत्म सम्मान की पहली स्थिति होती है, आप अपनी पहचान स्थापित करें, तथा फिर उसे एक मूल्य भी दें। आप क्या हैं? क्या चीज हैं, क्या आपका स्वरूप है, क्या आपकी पहचान है, और उसे आप किस प्रकार दूसरों को बता सकते हैं।जिस व्यक्ति का, जिस समाज का, जिस देश का स्वाभिमान खो जाता है, वह कभी विकास के पथ पर आगे बढ़ नहीं सकता, वह कभी उत्कर्ष को पा नहीं सकता।

 ‘स्वाभिमान... यह व्यक्ति की समाज की अन्तर्निहित शक्ति है जोे कुछ मूल्यों के साथ जुड़ जाती है। महाराणा प्रताप और जयपुर नरेश मानसिंह के बीच यही दूरी हे। आत्म विश्वास दोनों के पास है, पर घास की रोटी खाने वाला प्रताप सामान्य जन का आराध्यदेव बन गया। वह ‘स्वाभिमान’का मानवीकरण है। भारत के राष्ट्रपति अब्दुल कलाम में जो चारित्रिक गुण सहज सबका ध्यान आकर्षितकरता है, वह उनका स्वाभिमान है,उनका आत्म विश्वास हैै।, कठोर परिश्रम के साथ ,आधुनिक तकनीक और प्रबन्धन के मूल्यों को लेकर... भारत को शक्ति संपन्न बनाने की उनकी परिकल्पना आधुनिक भारतीय का सपना हैै। आज भारत में ‘विज्ञान शिक्षा’ का प्रचार व प्रसार उनका लक्ष्य है, वे निरंतर विद्यार्थी जगत से जुड़े हुए हैं।आत्म सम्मान, वह शक्ति है, जहां ‘आत्म’ विस्मृति के गहरे  अंधकार से बाहर आकर, कुछ मूल्यों को अंगीकृत करना है। वे मूल्य उसके, आचरण की सुगंध बन जाते हैं। अपनी योग्यता का सही आकलन होता रहना चाहिए,हर काम हम नहीं कर सकते,हर विषय का हमें ज्ञान नहीं हो सकता,पर जो हमें आता है, जिसमें हमारी रुचि है,उसका हमारा ज्ञान निरंतर बढ़ता रहे ,यह प्रयास होना चाहिए।उससे जो गुण पैदा होंगे वे आपकी पहचान बनाएंगे।वे आपको आदर दिलाएंगे। वही आपका जिसे ‘आत्म ’कहा जाता है,उसे बनाएंगे।यह जो हमारा ‘आत्म है निरंतर बदलता रहता है,और हम इसके लिए जिम्मेदार भ्ी हैं।

यह अहंकार नहीं है
उस दिन मैंने सुना, कहा जा रहा था, ‘इंसान संसार को जीत सकता है, पर अपने आपको नहीं...’ यह .आपा बहुत ही खतरनाक है।हम यहाॅं किसी प्रकार की लड़ाई की बात नहीं कर रह हैंे।,हम अपने आपको निरंतर अच्छा बना सकते हैं,यह एक सत्य है।
एक पुरानी घटना है--मैं तब सरकारी कार्य से राजधानी गया हुआ था।
क्षेत्र के मंत्री जी से अच्छे सम्पर्क थे। वे बोले,‘सुबह आपको मुख्यमंत्री जी के यहां ले चलेंगे,... तैयार रहना, पांच बजे वे पूजा से उठ जाते हैं,... उनका अशीर्वाद लेना है।’
मैंने कहा, मैं चल नहीं पाऊंगा, आप हो आएं।
वे नहीं माने, बहुत प्रेम करते थे, सुबह तैयार होकर जाना पड़ा।वहां पहुंचे तो पाया, एक कार पहले से खड़ी है।
वे तेजी से अंदर चले, मैंने भी अपने कदम बढ़ाए..
पर...वहां देखकर चैंक गया...
मुख्यमंत्री जी अपने पूजा घर से बाहर निकले ही थे कि  एक तत्कालीन  जिला कलैक्टर वहां .साष्टांग दंडवत किए पड़े थे।

मेरे लिए यह दृश्य विस्मय कारक था। ‘क्या हम अपने पिता के प्रति भी इतना आदररखते हैं’?
शायद नहीं, कहा जाता है काम पड़े तो गधे को भी बाप बना लेना चाहिए। संभवतः यही प्रथा... हमें हमेशा अपने ‘गाॅड फादर’ को तलाश करने को बाध्य करती है। हम अपना ‘स्वत्व’ खोते चले जा रहे हैं।
यह बात दूसरी है कि हमने पाया ही कब था?
स्वतंत्रता की प्राप्ति, तथा स्वाभिमान की प्राप्ति दो अलग-अलग उपलब्धियां हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पुनः हम ‘लोकतंत्र’ को ‘जंगली राज’ में बदलते हुए भीड़तंत्रको अपनाते चले जा रहे हैे।किसी भी सामाजिक कार्यक्रम में आप चले जा.एं,. बूढ़े कार्यकर्ता भी युवा नेता के चरण स्पर्श करते देखे जा सकते हैं। क्या यह चरण पूजा जो टैलीविजन पर हर राजनैतिक कार्यक्रम के कवरेज में सहज ही दिखाई पड़ जाती है ,क्या यह हमारी पहचान नहीं बन गई हैं?

क्या खोया क्या पाया

क्यों? क्या खो गया है... जो मिल जाएगा?
ब्रिटिश राज में जो खोया था... वह अभी तक हम नहीं जान पाए। मुगल काल में स्वाभिमान नहीं खोया था... कारण था,... उस काल में आर्थिक, सामाजिक व्यवस्था में भारी भेद नहीं था। राजा और बादशाह का सामाजिक स्तर व सुविधाएं बराबर की थीें। मनसबदारों में भेद, घोड़े व सेना रखने का था.. जिससे बादशाह के यहां बैठने का स्थान निर्धारित होता था। परन्तु ब्रितानी शासन में , जहां भाषा-भेद बढ़ा, ब्रिटिश राज की नौकरी तथा दयापात्र होने से सुविधाएं बढ़ीं, ... लघु उद्योगों का सर्वनाश होने पर, सामान्य जन की हीनता बढ़ी। वह याचक बनने को मजबूर हो गया। पंडित सुंदरलाल ने ‘भारत में अंग्रेजी राज’, में इस पददलित होती सामाजिक व्यवस्था का यर्थाथ चित्रण किया है। ब्रितानी शासन व सामंती शासन ने मिलकर जो सबसे बड़ा .अहित किया, वह यही कि हमारा स्वाभिमान हमसे छीन लिया। 
इसीलिए अगर आप ‘भारतीय सामान्य जन, तथा .योरोपीय. अमरीकी सामान्य जन की तुलना करना चाहें तो यह भेद सहज ही दिखाई पड़ जाता है। भारतीय युवक-युवतियां, आज पश्चिम की ओर जिस तेजी से निष्क्रमणकर रहे हैं, उसके पीछे वहां प्राप्त सुविधाएं ही नहीं हैं, बहाॅं उनके स्वाभिमान की सुरक्षा भी है।
 वे निरंतरव्यवस्थाओं की निर्ममता के दासत्व को अंगीकार किए बिना ही वहां शांति से परिश्रम कर सकते हैं, यह एक कटु सत्य है।

आत्म सम्मान कैसे बढ़ाएॅं

मैं उस दिन नजदीक के नगर में गया हुआ था, जाना पहले भी हुआ था। शर्मा जी के परिवार में उनका छोटा लड़का दसवीं कक्षा में सामान्य योग्यता के साथ उत्तीर्ण हुआ था। दोनों ही पति-पत्नी चिंतित थे। शहर के सबसे अच्छे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ रहे थे।... बालक बुद्धिमान था... उसके लिए कोचिंग की भी व्यवस्था थी, पर उन्हें सफलता नहीं मिल रही थी। वे निरंतर उसे आगे पढ़ने को प्रोत्साहित कर रहे थे। उनके मोहल्ले के बच्चे आई.आइ्र्र.टी. में आ गए थे.. उनकी भी इच्छा यही थी। पर वे निराश हो चुके थे।वह बालक सबसे कटा हुआ अपने आप में ही खोया रहता था।
 मैंने पाया, यह समस्या उनके बच्चे की नहीं थी,.. उनकी अधिक थी। वे अपना कत्र्तव्य कर्म यही मानकर चल रहे थे। मैं, बच्चे से मिला,... वह सुंदर था, मेधावी था... पर उसकी स्कूल में रूचि नहीं थी.. वहां वह निरंतर दबाब में था,.. जो छात्र उससे ज्ञानात्मक उपलब्धियों में आगे थे, ...शिक्षक भी उनकी ओर ही उत्सुक रहते थे। वे योग्यता के चरम शिखर पर थे। परिणामतः इस बालक में जहां आत्म विश्वास की कमी आ गई थी... वहीं इसका स्वाभिमान भी खोने लगा था। वह सामने आने से कतराने लगा था। ... हमेशा सपनों में खोया हुआ,.. अंग्रेजी की कहानियां, उपन्यास पढ़ा करता था। मैं उससे मिला, उसके साथ रहा... उसके सपनों को जगाया... जो सपने देेखते हैं, उनके ही पूरे होते हैं..’ उसकी योग्यता को परखा उसे समझाया। वह स्कूल की व्यवस्था ,वहां के वातावरण सेे स्वयं को काटकर ,एकांत जीवी होकर अपने आप में खोगया़ गया था। मैंने उसे समझाया,‘‘ तुम योग्य हो ,सपने देखते हो ,सपने देखना बुरी बात नहीं है,,जो सपने देखते हैं ,वे ही उन्हें पूरा कर पाते हेैं।’’
उसका भाषा पर अधिकार था,पर गणित में रुचि कम थी।
‘मैंने उससे कहा जो आगे हैं ,वे कई सालों से कोचिंग ले रहे हैं,तुम ने तो खुद मेहनत की है,यह तुम्हारी योग्यता है,तुम अच्छे लेखक बन सकते हो,अपनी भाषा की योग्यता पर गर्व रखो, जो कमी है उसे पूरा करने का प्रयास करो।पता करो तुम्हारी कमियों को तुम कैसे दूर कर सकते हो?ईमानदारी खुद के प्रति रखो,जहाॅं कमी रह गई है शुरुआत वहीं से करो।अपने आप से प्यार करना सीखो,जो अच्छाइयां हैं वे हमारी हैं हमने मेहनत से उन्हें पाया है ।जो कमियां हैं,वे हमारी हैं हमने पूरा प्रयास नहीं किया ।दूसरा कोई जिम्मेदार नहीं है।हम जहां पर हैं ,वहीं से शुरूआत कर सकते हैं।
उसकी सफलता की यात्रा बहुत लंबी है।

मैं फिर उसके आग्रह पर उसके नगर में गया था। जब वह ‘अमेरिका अपनी स्नातकोत्तर शिक्षा पूरी करने जा रहा था।
प्रश्न वापिस वहीं आकर खड़ा हो जाता है। हमने क्या खोया है, क्या पाया है?

स्वाभिमान के साथ सबसे सबसे बड़ी समस्या . उसके अहंकार में ढल जाने की है।
अहंकार तभी होता है, जब हम जो नहीं हैं, वह बताते हैं, उस रूप में काल्पनिक. हो जाते हैं। इससे हीनभावना पैदा हो जाती है। मध्यकाल में यही हुआ,... दुश्मन का सामना नहीं कर पाए, पराजित हो गए,. हम कायर थे,अहंकारी थे, इसीलिए गरीब जनता पर वर्ण व्यवस्था के नाम पर अत्याचार करते रहे।. सामंत लोग,  पशु-पक्षियों का शिकार कर कहर ढाते रहे। मुगलकालीन-चित्रकला सामंतों की ‘शिकार गाथा का उदाहरण है। इसलिए अहंकार जहां स्वरूप में नकारात्मक है, वहीं स्वाभिमान सकारात्मक है। यह व्यक्तित्व को बडा़ बनाता है।हम अपनी कमजारियों को जानते हैं,छुपाते नहीं हैं,कठोर मेहनत करते हैं,सफलता नहीं भी मिले पर पश्रिम करना नहीं छोड़ते हैं।

सही सोचें
विचारणा की प्रक्रिया पर यह होनी चाहिए कि जो सोचा जाए वह हमेशा समग्रता में हो।हमने जो निर्णय लिया है,हम उसका पालन स्वयं करें।  एक ही बात को बार-बार नहीं सोचना चाहिए। जब हम जानते हैं जो हम सोच रहे हैं ,यह फालतू की बाते हैं जिनका हमसे कोई सम्बन्ध नहीं हैं।वहां स्वयं पहल कर अपने मन को निर्देश देकर वहां से हटाने का प्रयास करना चाहिए।संक्षेप में यह विचारणा एक सतत निरंतर बनी रहने वाली मन की अवस्था है। हम जहां भी जाते हैं, जो भी क्रिया घटती है, हम बात सुनतेहैं, हमारी इंन्द्रियां जो भी सूचना हमारी ज्ञानेन्द्रियो कों सौंपती हैं हम तत्काल  उसकी प्रतिक्रिया करते हैं। और उसे एक पहचान दे देते हैं। फिर बार-बार घंटों उस पर चर्चा करते रहते हैं।इससे हमारा मन अनियंत्रित हो जाता है।उचित यही है,हम अपना निर्णय बनाएं,तत्काल प्रतिक्रिया नहीं दें। कुछ दिन प्रतीक्षा करें,जो निर्णय बाहर से आया है, अगर वह वही है जो हमने सोचा था तो हम अपने भीतर आत्मविश्वास की झलक पाएंगे।हमारी भाषा सही और निश्चयात्मक होने लग जावेगी। इसीलिए सही सोचना ,आत्मविश्वास के मार्ग की पहली सीढ़ी है।.
बच्चों के विकास के साथ, उनके इस ‘आत्म’ की खोज अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। हम जो कुछ उसके परिवेश, समाज, शिक्षा, पारिवारिक पृष्ठभूमि में उसे सौंपेंगे, वह उनके‘आत्म’ का हिस्सा बनता चला जाएगा।
आप पाएंेगे, जो बच्चे... अच्छे समृद्ध शिक्षित परिवार से आते हैं, अच्छे स्कूलों में शिक्षापाते हैं,जहां माता-पिता उन्हें अच्छा वातावरण देते हैं वहां उनका आत्म सम्मान बढ़ा हुआ मिलता है वहीं उनमें स्वाभिमान भी होता है।हमें चाहिए बच्चों को अच्छी शिक्षा दें,वैज्ञानिक सोच दें।बचपन में  उन्हें जितना सांप्रदायिक विचारधारा से बचाया जाए उतना ही अच्छा है।जिन सवालों का उत्तर हम नहीं दे पाते हैं,उन्हे ईश्वर पर छोड़कर,बच्चों की जिज्ञासा पर ताला लगाना उचित नहीं हैं। स्वयं अंधविश्वास रखना, भाग्य भरोसे रहना तथा अनावश्यक कर्मकांड बच्चों को सौंपना,जन्मपत्री लिए-लिए फिरना,बच्चों का भविष्य वूछते फिरना  सबसे बड़ा अपराध है।हम जानबूझकर बच्चों से उनका आत्मविश्वास ही नहीं उनका आत्म विश्वास भी छीन लेते हैं।

अपना सम्मान स्वयं करें
आत्मविश्वास जहां उन्हें सफलता सौंपता है, वहां स्वाभिमान उन्हें उत्कृष्टता सौंपता है। व्यक्तित्व सौंपता है। जब हम अपना सम्मान करते हैं, अपने आपको दीन हीन याचक नहीं पाते हैं ,तब हमारी रीढ़ की हड्डी सीधी खड़ी होती है। हम खम्मा अन्नदाता,, हुजुर मुजरा ‘.यस सर. शब्दों से परे चले जाते हैं। हम  अपने विकास का पथ जहां स्वयं निर्धारित कर  लेते हैं, वही हम उसके योग्य भी हो जाते है। भाषा के स्तर पर अनावश्याक चापलूसी से बचें।हम सही बात को विनम्रता से भी कह सकते हैं। 
यह सच है जहां परिस्थितियां मनुष्य के स्वाभिमान को प्रभावित करती हे, वहीं मनुष्य भी परिस्थितियों को प्रभावित कर सकता है। रानी लक्ष्मीबाई, विवेकानंद, महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस, भगतसिंह, मुंशी प्रेम चन्द्र, ध्यानचंद, और नाम हैं, जिन्होंने अपने स्वाभिमान से,... समकालीन समाज के रूपांतरण में योगदान दिया।भय और प्रलोभन से मुक्त जीवन ही आत्मसम्मान सोंपता है।

अगर व्यक्ति, बदले स्वरूप में, समाज में, स्वाभिमान को पा लेता है तो उसकी व समाज की परिस्थितियां भी बदल सकती हैं। आज भारत को स्वाधीनता मिल गई है, पर स्वाभिमान नहीं मिला है’... उसकी प्राप्ति ही मौलिक परिवर्तन में सहायक होगी।  हम हमेशा दूसरों के बारे में ही सोचते रहते हैं,... दूसरों में ही परिवर्तन चाहते हैं,.. अपने आप में नहीं,।दूसरों का भी  बुरा अधिक सोचते हैं। पुरुषार्थ की अवहेलना ही हमारी गुलामी,हमारे पतन का कारण रहा है।हम हर तरह से चाहे सही हो ,गलत हो अपना काम निकालना ही सफलता मान बैठे हैं।जो समाज जितनागलत कार्य करता है वह उतना ही धर्म भीरू होता है।फिर हम चाहते हैं हमारे बच्चे भी हमारा अनुकरण करें, क्या यह उचित है?हम स्वयं अपने आप को सम्मान नहीं दे पाते हैं,अपनी अच्दाइयों को भगवान को या किसी गुरू को सोंपकर दीन हीन बना रहना चाहते हैं,और चाहते हैं उनकी कृपा से,हमारी कमियां अपने आप दूर होजाएंगी,तथाकथित गुरू भी हमें आश्वस्त करते रहते हैं।परिणाम यही है ,हम मात्र भीड़ की एक भेड़ ही रह जाते हैं।
आप साधु महत्माओं के चक्कर लगाने लग जाते हैं।अपने आपको हीन मान लेते हैं। ज्योतिषियों का बाजार इसीलिए पनप रहा है।बेपढ़ेलिखे लोग तंत्र के नाम पर लूटमार करते हैं।

अपने आपको प्यार करो.

इसीलिए कहा जाता है, अपने आपको प्यार करो.।अपनी अच्छाइयों के प्रशंसक बनो,अपनी कमियों को स्वीकारो,स्वीकारी गई भूल फिर दुबारा नहीं होती है। इससे मन शक्तिशाली बनता है।अपना आकलन खुद करें,तब हम अपनी क्षमता को सही-सही जान सकते हैं।. अपने आप से लड़ो मत, संघर्ष करोगे टूट जाओगे... उससे प्रेम करो..।. उसे समझो.,कमी दिखती है,तनाव में जाने की जरूरत नहीं है।अपने आपकोे प्यार से समझाओ।हम ही अपने मित्रहैं ,हम ही अपने दुश्मन हैं  ,यही सार तत्व है।. तो प्यार और बढ़ेगा फिर परिस्थितियां भी बदलने लग जाएंगी। कल तक दासता भले ही रही हो.. आज स्वाभिमान की सुगंध तो प्राप्त हो सकेगी। हमारा आत्म कोई पत्थर नहीं है,यह हमारे ही विचारों से बना है। हम इसे बदल सकते है।वह शक्ति हमारा ज्ञान है,हमारा पुरुषार्थ है,हमारा विवेक है, हम उसका आदर करें,उसके बताए मार्ग पर चलें,हमें सफलता अवश्य मिलेगी।

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कविता

जंगल का दर्द
न दल, न दलदल, बस एक दरख़्त
बैठे हैं जिसके नीचे
लड़ते झगड़ते, लार टपकाते, अंतहीन रेवड़
प्रतीक्षा हैं सबको
कि दरख़्त गिर जाए
इतिहास कहता है दरख़्त जब गिरता है
तभी कुछ होता है।
दरख़्त अब होते ही नहीं
जंगलात का हाकिम कहता है
नहीं है शेष एक पेड़ यहाँ से वहाँ तक
जो, जा सके आरा मशीन तक।
निपट खाली मैदान
जंगल अब रहता ही नही है
चलो रोप आएँ हम एक पेड़
कल तुमने ही कहा था,
मौसम भी अब मज़ाक करता है
तभी कह रहा था
वक़्त को अब हरी दूब की जरूरत है
न शाख होगी, न कटेगी
दूब का क्या,
जब कुचलती है
तभी हरी होती है
और हरा होना
इस मौसम में युग गांधारी की होनी जरूरत है।

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कविता

सोमवार, 13 जुलाई 2009

जंगल जलते हुए
नहीं, नहीं, नहीं
यह तुमसे किसने कहा
ज़मीन उसकी होती है जो हल चलाता है
भूख की शिद्दत में
ज़मीन कलेजे से चिपकाए हुए
आषाढ़ी बादल निहारता है।
ज़मीन साहब की है
बी.डी.ओ. जिनके यार हैं
तहसीलदार ख़ास हैं,
पटवारी फसल का हिसाब लिखा करता है
तालुका अधिकारी की जहाँ मौज मनती है
ज़मीन उन साहब की है,
तेरी भी, मेरी भी, और उन सबकी भी
जिनके हाथ पतले हैं
थके थके जिस्म कुम्हलाए हैं
सब उनकी हो चुकी है।
ज़मीन अब
माँ नहीं, बहन नहीं, धर्म नहीं, प्यार नहीं
औरत है
नहीं उससे भी गई गुज़री बाज़ारू तवायफ है
जिसके पेट में दौलत की खाद जब गिरती है
सोना उगलती है
साहबों के लिए वह
वह साल में दो बार दौलत जनती है।
तेरी भूख का जमीन से वास्ता नहीं है
तेरे पास जो इतिहास है
वह तेरा है,
तेरे पिता,
तेरे बाबा,
तू इतिहास आंखों में रखता है
तेरे घर में कुम्हलाए फूल
साहबों के गले में माला बन सिसकते हैं।
ये कागज..... ये किताबें
वकील और ये अफ़सर
पोषाहार केन्द्र की तरह चलते हैं
तेरी आग को पलाश वन में मैने देखा है
जंगल जब जल रहा था
यह आग कब हड्डियाँ जलाएगी
यह आग
तेरी आंखों में क्या महाभारत उठाएगी
वामन.........
तेरे तीन डग कब पदचिन्ह बनाएंगे
प्रतीक्षा है
ज़मीन और औरत के बीच की तमीज़
कब अंगार बन दहकेगी।
ज़मीन उसकी नहीं जो कागज़ में नाम रखता है
ज़मीन उस हाथ की
ज़मीन उस फौलाद की
जो ज़मीन काबू में रखता है।

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शुक्रवार, 26 जून 2009

उदासी
तुम उदास हो
कप्तान नहीं रहे
हम उदास नहीं
खिलाड़ी ही कब रहे,

यह होना ही
होने की संभावना में
मात्र बस खोना है;
सुबह से शाम
शाम से सुबह तक
चक्की के पाटों में पिसा ही रहना है,

हवा बहती है
क्या अहसान करती है,
धूप
सबके आंगन में बराबर ही बरसती है
वर्षा सी नहीं
आधे ही खेत को खाली भी रखती है
दृष्य ही है सार
सच भी यही है
पर दर्शक नहीं हो तुम
दृष्टा, समय के संग
भुजाएं तनी रखना

सोने की धड़ी यह नहीं
ढपली अपनी ही यह बजनी है
जो जागा है
जगा है
जगने को सजग है
वही बार-बार गिरकर
जिन्दगी को जीकर रहा हे
भले ही काला, बदसूरत
घिनोना चींटा रहा हो वह।

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शनिवार, 6 जून 2009


                          सपने
वह बचपन में सपने देखता है,
सपने उसका
बचपन चुरा लेते हैं,
खबर न उसे है
न मां-बाप को होती है
वे सपनों को छीनकर बस्ता थमा देते हैं।
वाह!
वर्दी जो बचपन में चढ़ती है जिस्म पर
उतरती तभी है
जब चील काली पास आ,
उस पर झपटती है,
वह पूछता है, जगह-जगह
इन सपनों का क्या अर्थ, जो रात को ही नहीं,
दिन में तंग करते हैं
न घर पर आराम है
न दफ्तर में,

अखबार जब भी पढ़ता है
कल से आज गरीब होता है
गरीबी की रेखा, कहां से कहां तक
भूख का रोटी से, रोटी का कैलोरी से जो
रिश्ता बना है
वही भूखे पेट का हिसाब भी रखता है

बस का भाड़ा
स्कूल की फीस
अनाज, सब्जी, दूध
दवा की दुकान
अब रोक नहीं पाते है,
वह कितनी रहमदिल
कहीं भी, कभी-भी
दारू की दुकान रोज नई खुल जाती है
बढ़ते हैं ग्राहक...,
मरती है लड़की
बिकती सुबह-शाम
पुलसिया कहता है
रुपया आकाश से टपकता है।
जो अब तक बना चुका दस मकान
आकांक्षी मंजिल की छत से उतरकर,
वही एक दिन वोट मांगने आता है,
वोट का टोनिक पी
फिर अजगर सा
निकलता है,

हरजू कहता घरवाली से
पास वाली इमारत
पिछले साल हमने  बनाई थी
साल पूरा निकल गया, ... मैदान में पड़े हुए
शांत, उदास, ... मरने से पहले की खुली आंख लिए,
यही ईश्वर ने चाहा है
यह भी क्या कम है सांस पर हमारा ही हक है,

लीला
लीला देख पाती है
हाथ, वही, जिस्म वही
कितने मकान बने
पर उसकी झौंपड़ी
बारिश से पहले हटकर कहीं जाना है
बार-बार कानों में गूंजती थरथराहट
बारिश का अभाव है
सूखती फसल

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कविता

मंगलवार, 2 जून 2009




घर

रस्ते अलग अलग हैं
जाना तो एक घर है
हम रहते दादाबाड़ी
तुम बरकत नगर निवासी

सड़क के इधर हम हैं
तुम उधर रहते,
कैसी हुई मजबूरी
सड़क पार नहीं होती

उपर की  मंजिल हम हैं
नीचे की मंजिल तुम हो
जीने की क्या विवशता
कदम झेल नहीं सकता

तुम हमसे क्या बड़े हो
हम तुम से क्या कम हैं
सब बड़े ही बड़े हैं
सचमुच दही बड़े हैं

पडौसी ही चट कर सकता
दौना लिए वह आता
सदियों से यही हुआ है
हरी घास  हम बने हैं

जिल्लत से यहाॅं पर रहना
मालिक ने कब कहा है,
रस्ते अलग अलग हैं
रहना तो एक घर है।

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मंगलवार, 26 मई 2009

 औरत
व्रत तुम्हारा, निर्जल है अन्न नहीं, जल नहीं
यह क्या चाहत है
क्या है जरूरी प्रेम है, ... पर देह को उसका
दाय न सौंप भूखा, निराहार रह
‘चाँद’ की प्रतीक्षा में
दिन... सौंप जाना

पति से प्रेम का छोटा सा टुकड़ा
इस मौसम में जब वर्षा है रूठ गई
बादल का टुकड़ा, दिखता नहीं दूर तक
गर्मी में झुलसती
देह, पनीली, लथपथ पसीने से
बादल का आना,
वर्षा की बूंदों से बंधना
क्या सचमुच जरूरी है?

आंँखों से बरसती मेघ की घटाएं
कभी-कभी एक मिल, चेहरों पर, चमकती कड़कती
विद्युत प्रभा,
और जब बिखराकर, केशों का उलटना
कभी-कभी
होठों का दांतों से दबकर, कह पाना
बहुत कुछ कहना, पर न कह पाना

सुनना अचानक
धूल भरी आँधी का कर्कश अट्टाहास
पास और पास
उखड़ता जाना, नन्हें पौधों का
अचानक धूल के बवंडर में
रोपा था जिनको
वर्षा के स्वागत में।
सहसा बहुत कुछ
धरती तपती है
वर्षा की बूंदे
नव-रस, आल्हादित
तन-मन आपूरित
गंधित मलय
रोम-रोम स्पंदित
स्नेह सिक्त बाती, सी वह चमकती है।

व्रत उसका मजबूरी नहीं, चाहत नहीं
नहीं कहीं कामना
अदृश्य बंधन की
छोटा सा ‘बिरवा’ हरा रहे, ... खिला रहे
सुगंध, आपूरित
मन के कौने में, नित-नूतन, बस रहे बसा रहे।

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कविता,

रविवार, 24 मई 2009

डाॅ. नरेन्द्र चतुर्वेदी कविता ”सच “यहाँ दी जारही है,आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत रहेगा।

सच

कविता का सच क्या है
कल्पना के ताने-बाने
चैकड़ी जो बनी है-
इस करघे पर
भूख, गरीबी से लड़ते कवि ने
जो चुललू भर चाय की  चुस्की पर
नई दुनिया के नए सोच की तस्वीर बनाता है,

गली में
पेशाब की बदबू से बचते-निकलते
ऊपर कहीं से भी
गंदगी के ढेर का अचानक पुष्पवर्षा सा गिरना
सूअर जो कहीं था आमंत्रित
दौड़ता-भगता,
टकराहट मिमियाते श्वान से
पास की दुकान से गूंजता संगीत,
यही दुनिया का खुला हुआ तिलस्म है।

कविता का रस
ढूँढ़ता कवि
सोचता,
यथार्थ जो मिला ‘मकबरेे की गंदी  गली में
महफिल में आ जाए,
साबुन के झाग से निकला, फिसलता
हाथ में टिकली साबुन सा वक़्त
मां की, बाप की, रिश्ते में सभी की
ख्वाहिश पहचानता
बिजली के तारों पर बैठी ‘काग शृंखला
यहाँं, वहाँं आसपास
कविता में तलाशतातमीज सीधे खड़े होने की
न बिकने की व्यथा
लिखा बहुत कुछ
छपा कहीं नहीं
सुनकर नहीं कोई
शब्द, भीतर खंजर सा चीरता।

काँख में दबी
आई पत्रिका झांकता
टुकुर-टुकुर
रेत उठाती, अर्धनग्न, आदिवासी कन्या की
भूख, ... पेड़ की छाया भी रोती, चीखती
भयातुर, ... आंख की कोर में अचानक कंकड़ सा गिरता

जीवित यथार्थ
शब्द क्या बांध पाए
सोचना भी पाप है
माया है माया है
‘गोपाली’ बाबू की कथा में नहीं है यह
नहीं ‘कागा राम’ मटक-मटक गाता है,
वह कभी- कभी
काटता है भीतर से
रिसता है दुख, ... रात को टपकते नल से बूंद-बंूद सा
न करने का, बस
अपनी ही आंख में रोज और नीचे
और नीचे, उतरने का देता है दर्द,
वह जब भी देख पाती है
तेज, ... तपती रेत में
अचानक खिड़की से
रोते, झींकते, चिल्लाते, पगलाते
छोटे-छोटे पाँवों
से आता-ठहरता, जाता, ढूंढ़ता रहता कुछ
कविता का यथार्थ,वह।

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दोपहर

गुरुवार, 21 मई 2009

'कविता'
दोपहर
डॉ. नरेन्द्रनाथ चतुर्वेदी

उन दिनो गर्मियों की दोपहर में
कल्लू के घर की तिमंजली छत पर बने 
उस टीन के कमरे में

जहाँ बाहर कबूतर का पिंजरा था
थे उसके बाबा, जो छत पर आकर कबूतर उड़ाते थे
उसकी बकरी जीने पर होती हुई चीखती चिल्लाती
छत पर आ जाती,
चौकड़ी या छकड़ी, ताश के रंगीन पत्ते
रंगीन सपनों से महकते।


कुछ देर बाद उसकी माँ
नासपीटे को बीमार होना है
और तुम सबको भी
रेवड़ियों की तरह कभी गुड़ की कभी चीनी की
बरसती गालियां.... हवा को सुना जाती,

उसके बाद उसकी बहन का चाय के प्याले लेकर आना
बाबा की तेज आवाज
खेलने के दिन है, इम्तहान अभी निबटे हैं
शाम को कबूतर उड़ाना सिखाना या पतंगबाजी
या पुराने किस्सों का अधखुला खजाना ।
   


बरसों बाद मिला कल्लू
फुटपाथ के पास गुमटी पर, हवा, टायर में भरता हुआ
पास में खड़ी साईकिल
टायर पकाता उसके पास था खड़ा उसका पुराना बचपन
देखकर पहचाना, पहचानकर अनजाना
था मैं अवाक
अपने बेटे की अंगुलियां पकड़े जो बस्ते का बोझ लिए
गर्व में झूमता हंसता... बतियाता
नई मोपेड के चर्चे सुनाता....., 
था साथ चलता


कल्लू के बाबा कहा करते थें
खेलने के दिन है
काश यह रात कभी जल्दी कट सके तो.........

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कविता

बुधवार, 20 मई 2009


हस्तरेखा

कीचड़ में सने हाथ की रेखाएं
पढ़ नहीं पाता पंडित
नहर में पानी मुद्दत बाद जो आया है

दूर खड़ा अभियंता
हथेली खोले हुए बार-बार देखता
खुजलाहट हथेली की सुबह से
इस बार का बजट अब पूरा भी होना है

बादल महीने भर से गायब हैं
शुक्र है समय अच्छा है
गुरुजी ने कहा था-
शनी उतर गया है
दूर खेतों में, फटे हाल किसानों पर
चढ़ा ही नहीं
चिपक भी गया है

महाजन भी खुश
कल ही सुबह-सुबह पहली बार गया था
तृष्णा की रेत पर...
भारतमाता को याद कर
कदमताल कर आया था
उधारी बढ़ेगी
ब्याज सवा से दो पाई सैकड़ा बढ़ेगा
गिरवी जमीन, बर्तन-भांडे भी होंगे
तब वसूली तब होगी...
तब, भविष्य वह में सुरक्षित रह सकेगा

संस्कृति का गवाक्ष खालीनहीं कोई आता इधर
रानी, परनानी, दादी अब वहां कहां
कभी बैठा था ललमुंहा बंदर वहां
उठकर जबसे गया है
नचता ‘वराह’ का वंशज
महाजनी मंत्र पर
चढ़ता-उतरता
महिमा मंडित
समाचार पत्रों में छपा है विज्ञापन
भागवत कथा का वही है आयोजक।

चीलंे व्यस्त है
गि(ों को जाकर नौत आयी है तेरहवीं का भोज है
कागा उड़ते ही नहीं
बैठे हैं मुंडेरों पर कल से जमा
बहस ही बहस
राशि अकाल पर,
या बाढ़ पर खर्च हो होनी है
दिनभर में, ... कितनी कहांँ
लार रुकती नहीं
मरण पर्व आयोजित जो होना है।
उनकी हथेली पर
रेखाएं मिटसी गई है
कीचड़ में सनी, धूल में बंधी
सूरज की रोशनी में
किरण सी चमकती है

उसकी रेखाएं
पंडित हंँस-हंँसकर बांँचता
ग्रह अब उतरने को है
खुजली रुकती नहीं
जिस्म खुलाने चली है

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